नचारी: एक विवेचन / प्रतिभा सक्सेना
हिन्दी के पाठकों के लिए 'नचारी' एक अल्प-ज्ञात विधा रही है, जिसका आगमन आदि-कालीन कवि, मैथिल-कोकिल विद्यापति के काव्य में समारोहपूर्वक पूरी विदग्धता और रसात्मकता के साथ होता है, और फिर उन्हीं के साथ प्रस्थान भी। शासन बदले,नई चुनौतियाँ सामने आईं भक्ति की वह मस्ती गई जो विद्यापति और कबीर के स्वभाव में थी, शौर्य और शृंगार की कदमताल रुक गई। बदलते परिप्रेक्ष्यों में, कभी-कोई भूला बिसरा कवि ही 'आज मैं एकु-एकु करि टरिहौं। ' कह कर आराध्य को ललकारने का साहस कर सका। दैन्य का विस्तार होने लगा। कविता की उमड़ती लहरें मर्यादा के बाँधों में सीमित हो दीन मुद्रा दिखाने लगीं, फिर 'नचारी' जैसी उन्मुक्त विधा की गुज़र कहाँ होती!
आदिकाल की काव्यधाराएँ क्षीण पड़ गईँ थीं। साहित्य-मंच पर मुख्य भूमिका निभाने अन्य भाषाएँ अपने संस्कारों सहित आ जमीं। ब्रज और अवधी का प्राधान्य हो जाने से मूलरूप में मैथिली में रची जानेवाली यह विधा विद्यापति के बाद साहित्य-जगत से लुप्त हो गई, यहाँ तक कि “नचारी” संज्ञा भी लोगों के लिए अपरिचित हो गई। लेकिन उसका लोप नहीं, सीमित क्षेत्र में ही सही, 'नचारी' ने अपनी उपयोगिता बनाए रखी, और जन-जीवन से जुड़ी रही। हिन्दी का सामान्य पाठक भले ही परिचित न हो पर अपने क्षेत्र में इसने असीम लोक-प्रियता पाई और अभी भी लोक-जीवन को रस-विभोर कर रही है।
'नचारी' को मुक्तक काव्य के अन्तर्गत लोक-काव्य की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। इनका लिखित स्वरूप सर्वप्रथम 'विद्यपति की पदावली' में प्राप्त होता है। इसकी रचना में लोक-भाषा (देसिल बयना) का प्रयोग और शैली में विनोद एवं व्यंजना पूर्ण विदग्धता, रस को विलक्षण स्वरूप प्रदान कर मन का रंजन करती हैं। आराध्य की परम निकटता से प्रेरित, निश्छल मन की अंतरंगता और लोक-मन की बेधड़क उक्तियाँ, मुँह लगे सेवक के समान कहा-सुनी पर भी उतारू हो जाए पर उसके महत्व की स्वीकृति 'नचारी' का सर्वोपरि तत्व है- हँसी-ठिठोली, उपालंभ, शिकायत, सब-कुछ, निष्ठा के अटूट तार में पिरोया हुआ। 'नचारी' भक्ति- काव्य का ही एक रूप है।
'नचारी' का संबंध नाच से भी जोड़ा जाता है। आराध्य के आगे अपनी लाचारी एवं विवशता को वर्णित करते हुए, अपनी मनोभावनाओं को बिना किसी लाग-लपेट के प्रभु के सम्मुख नाच-गा कर प्रस्तुत कर देना इनका उद्देश्य है। अन्य देवताओं के लिये और सामाजिक थीम पर भी नचारियाँ प्राप्त होती हैं। नेपाल में 'नचारी' की धुन पर भक्ति-गीतों का लेखन पर्याप्त मात्रा में होता रहा है। विष्णु और गणेश,सूर्य,दुर्गा की नचारियाँ मिल जाती हैं।
हिन्दी के शैव-साहित्य में नचारियों का विशेष स्थान है,इनमें आराध्य के प्रति भक्त की भावनाओं का उद्रेक सर्वत्र विद्यमान रहता है। लिखित से पहले मौखिक परंपरा में प्रचलित रही हो यह संभव है क्योंकि नृत्य और गान के साथ उसकी स्वीकृति और लोक-प्रियता, दरबारी कवि के जीवन-काल में ही इतना व्यापक रूप पा ले यह बहुत आसान नहीं लगता -विशेष रूप से जब प्रकाशन और प्रसारण के साधन विकसित न हुए हों। 'नचारी' का विस्तार सुदूर नेपाल से लेकर उत्तर भारत के पूर्वी क्षेत्रों तक है। । बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम और नेपाल के साथ ही साथ अवध के भी ज्यावदातर हिस्सोंस में लोक-गीतों के रूप में इसकी व्याप्ति रही है। अबुल फ़ज़ल के 'आईने अकबरी' में इनका उल्लेख होना, इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है।
मौखिक परंपरा में 'नचारी'-गीत मिथिला के घर-घर में प्रचलित हैं। विद्यापति(14 वीं शताब्दी)प्रथम 'नचारी' लेखक माने जाते हैं। अन्य कुछ नाम हैं परमहंस विष्णु पुरी(1425-1500),गोविन्द,कामश्याम,उमापति(1570-1650),लाल लक्ष्मीनाथ गोसाईं,कान्हा रामदास और चंद झा(1831-1907,। संस्कृत के पंडित होते हुए भी विद्यापति का ‘भाखा प्रेम’ अद्वितीय था। देशी भाषाओं की लहर जब पूरे देश में फैल रही थी तो उन्होंने ही अगुआई की थी। ' देसिल बयना सब जन मिट्ठा' कह कर वे भारतीय भाषाओं को सादर आमंत्रण दे रहे थे। राज-दरबार में रहते हुये भी उन्होंने समझ लिया था कि जन-रुचि के परिष्करण और रस के संस्कार देने के लिए लोक-भाषा के महत्व और साहित्य का समाजिक-जीवन से जुड़ाव कितना आवश्यक है। लोक-शैली और लोक-भाषा में रचित नचारियाँ मन का रंजन करती हुई, जन-जीवन में इतनी रमी हैं कि तीज-त्यौहार,सामाजिक और धार्मिक उत्सव। विवाह जनेऊ आदि और लोकाचार के हर अवसर पर इनका गायन नये रंग और उल्लास भरने लगा ।
विद्यापति का काव्य सरस, मधुर एवं देसिल बयना में होने के कारण इतना लोक-प्रिय हो गया कि उनके जीवनकाल में ही लोक-कंठ का शृंगार बन गया और समाज के विभिन्न वर्गों ने इसे अपनी जीवन-पद्धति में शामिल कर लिया।
मैथिल-कोकिल ने तत्कालीन समाज की स्थितियों को अनदेखा नहीं किया था। महेशवाणी और 'नचारी' के माध्यम से गरीबी, पराधीनता और विभेद को जिस कौशल से उन्होंने सामने रखा वह दृष्टव्य है- वे ही अपने अराध्य शिव से कह सकते हैं कि ‘क्यों भीख मांगते फिर रहे हो, खेती करो इससे गुण गौरव बढ़ता है। ’ (बेरि बेरि अरे सिब हमे तोहि कइलहूँ, किरिषि करिअ मन लाए/ रहिअ निसंक भीख मँगइते सब, गुन गौरब दुर जाए)।
उनकी उक्तियों में
मध्ययुग के समाज की दशा के साथ सामंती समाज के नारी-मन की वेदना बोल उठी है
- 'कौन तप चूकल हूँ भेलहूं जननी गे (हे विधाता, तपस्या में कौन सी चूक हो गई कि स्त्री होके जन्म लेना पड़ा!)'
यह काव्य-विधा आज भी अप्रासंगिक नहीं हुई है, लोक-जीवन और उत्सव-परंपराओं में में रसी-बसी है। बाबा नगरी देवघर में बसंत पंचमी के मेले की परंपरा प्राचीन काल से चली आती है। है। उत्तरवाहिनी गंगा से कांवर लेकर बाबाधाम पहुँचे काँवरियों को 'तिलकहरू' कहा जाता है। इसमें मिथिला प्रांत के भक्तों द्वारा बाबा बैद्यनाथ का तिलकोत्सव होता है। वे पार्वती के मायके वाले हैं अतः शिवरात्रि के पूर्व यहाँ आ कर बाबा बैद्यनाथ का तिलक कर विवाह का न्योता देते हैं। 'नचारी' और महेसबानी गा कर वे मगन-मन नत्य करते हैं और उत्सव मनाते हैं। मिथिलांचल में भी सावन महीने में मधुश्रावणी पर्व पर नव-विवाहिताओं के 'नचारी' गायन से घर आँगन और बगीचे गुंजायमान होने लगते हैं
'नचारी' विधा का यही स्वर 30-32 के अवज्ञा आन्दोलन में एक नया रूप धरता है।
समय के अनुरूप मैथिल कवियों ने अपना कथ्य इस शैली में सँवार लिया। चारों ओर के आघात झेलती बिहार की धरती लोक-गीतों में अपनी व्यथा उँडेल देती है। एक किशोर कवि 'प्रलयंकर' के कंठ से 'नचारी' में ढल कर अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश फूट निकला -
'दुर दुर कहेन छे सरकार,
आपन बैसल मौज करे छै,
प्रजा करे हाहाकार
दुर दुर कहेन छे सरकार,'
जनता को सचेत करते एक मुसलमान कवि की शिकायत, 'अल्हुआ(शकरकंद) भ गेल साबूदाना'
बिहार के किसान- आन्दोलन में लोक-कवि का स्वर पुकार कर पूछता है-
'क्यों बाबू साहेब, क्यों गरीब
क्यों बागमंत क्यों कमनसीब
सब बैसय हमरी छाती पर,
कटहर हो अथवा नारिकेर। '
और भी -
'हम भार सम्हारी सबहि केर,
खाम्ही खुट्टा लरबर लरबर,
जे करइत हो चरमर चरमर
हम ओ भरिगर पुरना मचान'।
इसके साथ ही -
'पीसे अछि हमरा जमिंदार,
सोके अछि हमरा सूदवाला'
उधर नदियों की बाढ़ चैन नहीं लेने देती-
'चौपट्ट करे छवि साल-साल
जीवछ करेह कोसी कमला,'
दुर्भाग्य यह कि उन्हें कोई भी नहीं बख़्शता,
'कुश तिल लै आवति ओझा जी,
हंटर लै घुमति दरोगा जी'
और तो और देवता भी लेवता बन गया है।
-हम से वे भी अपना मतलब साधने लगे हैं -
'रहता प्रसन्न बरहम बाबा,जो दूध बहावैं भरि छावा। '
बिहार के मिथिला क्षेत्र में एक पमरिया नामक समुदाय, निवास करता है। जो इस्लाम का अनुयायी है। पर बच्चे के जन्म के मौके पर ये लोग हिंदू समुदाय के भजन, लोकगीत आदि गाते हैं। अगुआ अपने पुरुषोचित माने जाने वाले वस्त्रों को बदलकर घाघरा चुनरी आदि पहन ढोलकी और झालर के साथ शुरू करते हैं। 'आहे दुर्गा जी के नामे,' 'आहे भोला बाबा के नामे', दोहराते दोहराते, नाचना गाना शुरू करते इस्लाम को मानने वाले ये तीनों 'नचारी', महेशवाणी गाने लगते हैं और बच्चे को दुआ देते हैं। कुछ समय पहले तक ऐसा दृश्य सचमुच घर-आंगनों में दिखाई दे जाता था। डमरू ध्वनि के साथ 'नचारी' के स्वर, देवधर से भागलपुर और काशी में भी अब तक सुनाई देते हैं।
आज के साहित्य के लिए यह भले ही अप्रचलित विधा हो गई हो लेकिन अपनी जीवंत अनुभूतियों, सहज भंगिमाओं, ताज़े रंगों सतत प्रवाहित भाषा और अनूठी शैली के साथ “नचारी”, साहित्य-मंच पर अवतरित हो कर प्रतिष्ठित हो जाए तो हिन्दी और उसकी सहयोगिनी भाषाओँ में एक नयी प्रतीति जगा सकती है।
(उदाहरण, उद्धरण आदि में सहायता हेतु गूगल का आभार। )