नजर / पद्मजा शर्मा
कोई कहता उसे जेल के पास वाली गली में देखा। कोई कहता स्कूल के पास ऑटो में सवार होते देखा। कोई कहता वह पागल है। कोई कहता वह अकेली है। कोई कहता एक मर्द उससे मिलने आता है साइकिल पर। कोई कहता आजकल एक लड़का भी आने लगा है। बातें करते रहते हैं घंटों। कोई कहता वह बचपन से जिस घर में काम करती थी वह बिक गया। वह सड़क पर आ गयी। कोई कहता यह जासूस है। कोई कहता पुलिस को कम्प्लेन करो। कोई कहता बेचारी। कोई कहता वक्त की मारी। कोई कहता गूंगी है। कोई कहता बैड़ी। कोई कुछ, कोई कुछ, कुछ न कुछ सभी कहते रहते। पर उसे किसी ने कुछ कहते हुए नहीं सुना।
वह चौराहे से थोड़ा हटकर एक जर्जर दीवार के पास पेड़ों के झुरमुट तले चार ईंटों का चूल्हा बनाकर उस पर रोटी सेंकती। चाय बनाती। कई बार यहीं कपड़े सूखते दीखते। पास ही मंदिर है वहाँ लगे हैण्ड पम्प पर नहाकर आ जाती। यहीं भरी दोपहर सोती। पर शाम को जाने कहाँ तो उठकर चल देती। सुबह उठते तो बैठी दिख जाती।
वह दिन में कहाँ से अवतरित हो जाती है कोई नहीं जान पाया।
वह भीख नहीं मांगती, फिर कहाँ से लाती है साग? कहाँ से लाती है आटा? कहाँ से लाती है कपड़े? कौन है जिसके पास रात को जाती है? कौन है जो दिन में मिलने आता है? किसी को कुछ पता नहींं।
आखिर वह है कौन? आखिर वे हैं कौन? लोगों ने पुलिस को शिकायत की कि हो न हो यह जासूस हो। पुलिस ने महीनों तक शिकायत पर ध्यान नहीं दिया। उसका कहना था 'कुछ दिन उस पर नजर रखो। हमारी भी उस पर नजर है।'
इन दिनों आसपास रहने वालों की बातचीत का केन्द्र बिन्दु फिर वह औरत ही है। आजकल वह चौराहे पर ही पड़ी रहती है। न कोई मिलने आता है न वह कहीं जाती है।
एक दिन लोग एकत्र हो गए. पता चला वह पेट से है। लोग सकते में आ गए. एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
थानेदार साहब आए. उन्होंने रहस्यमय मुस्कराहट के साथ कहा 'हम पहले ही कह रहे थे हमारी नजर उस पर है।'