नज़ारा / हरि भटनागर
तंगी और उसकी वजह से होने वाले आए दिन के झगड़ों से आजिज़ आकर उसने उस दिन तै कर लिया कि अब वह नहीं जिएगा। बहुत हो गई हाय-हाय! अब वह एक पल साँस नहीं ले सकता इसमें! खेल ख़तम करेगा और दरअसल इस जीने से मर जाना कहीं बेहतर है! घर में तो आफ़त, प्रेस में तो आफ़त! साली ज़िन्दगी है यह कोई! बीसों साल निकल गए एक पल ख़ुशी का न आया! हद्द हो गई!
यह बुदबुदाता वह सीढ़ियों से उतरता, चक्करदार गलियाँ पार करता हुआ मुख्य सड़क पर आ गया। यह वह सड़क थी जिस पर से होकर वह गन्तव्य तक जाना चाहता था। भीड़ थी यहाँ। रिक्शे, साइकिल, ताँगे, आटो-जीप-मोटरों और पैदल चलने वालों की आवाजाही मची थी। किसी तरह रास्ता बनाता वह निकला। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। सूझ रहा था तो सिर्फ़ यही कि जल्द से जल्द मुक़ाम पर पहुँचे और पटाक्षेप हो मामले का! न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी!
बन्ने खाँ का पुल पार करता वह एक काफ़ी पुरानी और ऊँची इमारत के नीचे आ खड़ा हुआ। गरदन टेढ़ी करके इमारत की सबसे ऊपर की यानी आख़िरी मंज़िल की ओर देखा। जैसे सोच रहा हो कि तू इतनी ऊँचाई पर क्यों है कमबख्त! झुक क्यों नहीं जाती ताकि अपना काम फतह करने में मुझे देर न लगे। ऊपर की मंज़िल पर कबूतर फड़फड़ा रहे थे। अबाबीलों की दौड़-धूप थी। रूई के फाहे जैसे झीने और सफे़द बादल इमारत की गुम्बज के ऊपर तैर रहे थे। लगता था, बादल नहीं, इमारत उड़ी चली जा रही हो।
उसने माथा सिकोड़ा, बुरा-सा मुँह बनाया और मुट्ठियाँ भींचे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। वह बहुत तेज़ सीढ़ियाँ चढ़ा और तकरीबन आँखें मींचे हुए जिससे उसे कई बार ठोकरें लगीं और अँगूठा घायल हो गया, मगर इससे बेपरवाह वह चढ़ता चला गया। आख़िरी मंज़िल पर जब वह पहुँचा, उस वक्त़ पसीने में भीगा हुआ था। साँस बेतरह चल रही थी। हलक सूख रहा था। चप्पल बीच में कहीं छूट गई थी। नंगे पैर था।
यहाँ बहुत से लोग थे मानो शहर का नज़ारा लेने आए हों। आदमी-औरत-बच्चे सभी थे। अच्छी और फटीचर हालत वाले, दोनों। कनखियों से उसने लोगों को देखा और इत्मीनान की साँस ली मानो सोच रहा हो कि ये लोग उसे देख नहीं रहे हैं, वह अपना काम आसानी से कर सकता है, बेखटके। डौली पर हाथ टिकाकर उसने मुँडेर पर नज़र डाली जिस पर से कुछ कबूतर फड़फड़ाकर उड़ गए। कुछ-एक दूर सरक गए। वे गुलाबी पंजों पर सतर्क थे, गरदनें हिलाते हुए। उनकी चंचल आँखें और शरीर की समूची मुद्रा मानो कह रही थी कि तुम हमें पकड़ नहीं सकते! हम मँजे हुए खिलाड़ी हैं। नीचे नज़र गई तो सड़क पर बहुत से लोग खिलौने जैसे लग रहे थे जो छोटे-बड़े वाहनों से और पैदल भागे चले जा रहे थे। इमारत के सामने, सड़क के बाजू में एक चाय की दुकान पर कुछ लोग चाय-पानी पीते हुए गप्पगोई कर रहे थे। इमारत के बग़ल की ख़ाली जगह में बच्चे काग़ज़ का फुटबाल बना शोर मचाते हुए खेल रहे थे। उसने सामने क्षितिज की ओर देखा - सूरज एक बहुत बड़े थाल की तरह था। लगता था बस नीचे गिरने ही वाला है। आसमान में बहुत सारे छोटे-छोटे बादल फैले थे जो लालिमा से दीप्त थे। असंख्य छोटे-बड़े मकान थे जो मटमैली झड़ती सांझ में डूबते जा रहे थे। चारों तरफ़ टीवी के एंटिना थे। लगता था, आसमान में चढ़ने के लिए आदमियों ने सीढ़ियाँ लगा रखी हों। अनगिनत पतंगें थीं जिन्हें बच्चे आसमान की खुली हवा में सैर करा रहे थे।
यह एक ऐसा अजीबोगरीब नज़ारा था जिसे देखकर उसकी तबीयत ग्लैड हो गई। वह भूल ही गया कि इस मुक़ाम पर वह आख़िरकार आया किसलिए है? यह दृश्य उसने ज़िन्दगी में पहली बार देखा था। प्रेस में वह ट्रेडिल मशीन चलाता था। तीस साल से यह काम करता आ रहा था। सुबह आठ बजे से लेकर रात आठ बजे तक। उसे फुर्सत ही न मिली कि कभी निकलता। बीवी से झगड़ा-झंझट होने पर भी इधर-उधर न निकला। लेकिन आज, जब उसका बीवी से झगड़ा हुआ और वह ज़िन्दगी का ख़ात्मा करने निकला - ज़िन्दगी की फैली इस खूबसूरत हलचल ने उसे जगा-सा दिया जैसे मुद्दतों से नींद में ग़ाफिल था और अभी-अभी जागा!
सहसा वह ज़ोरों से चहका कि आस-पास के लोग उसे भौंचक हो देखने लगे। इससे बेख़बर वह सीढ़ियों की ओर बढ़ा और सपाटे से सीढ़ियाँ उतरने लगा।
वह पलक झिपते घर पहुँच जाना चाहता था ताकि बीवी को इस मुक़ाम पर ले आए और यह दृश्य दिखलाए जिसने शायद ही कभी अपनी सीलन खाई कुठरिया से निकलकर चीख-गुहार से भरी मण्डी के अलावा कहीं पैर रक्खा हो!
चमकदार सड़कों, सँकरी चक्करदार गलियों और कुलियों को पार करता वह अपनी गली के मुहाने पर पहुँचा। यहाँ से उसे ढेर सारे बेतरतीबी से फैले बिजली के नंगे तारों के बीच अपना घर दिखा, वह खिड़की दिखी जिसके पीछे खड़े होकर उसकी पत्नी पानी के लिए लगे अपने बर्तनों को देखती रहती जो अपने नम्बर के इन्तज़ार में गड्ढे में खुदे नल की तरफ़ धीरे-धीरे सरकते जाते थे। बर्तनों को वह लाइन में लगा भर देती थी, उसके बाद नल की तरफ़ ठेलने का काम, मुहल्ले की शोर मचाती भीड़ अपने आप कर लिया करती थी।
उसने देखा, पत्नी का चेहरा वैसा ही सख़्त था जैसा लड़ाई के वक्त़ वह छोड़कर आया था! उसकी रोष भरी आँखें अपने बर्तनों पर लगी थीं। उसके बाल बेतरह बिखरे थे। झुँझलाते हुए वह दोनों हाथों से बुरी तरह खुजला रही थी। लगता था खुजा-खुजाकर वह बालों को नोंच डालेगी ताकि जुएँ का चक्कर ही ख़त्म हो।
पानी के लिए लड़ती-मरती भीड़ में वह घुसा। उसमें से किसी तरह रास्ता बनाता अपने को खींचता हुआ-सा वह अपने घर के सामने पहुँचा। पलभर को ठहरकर गर्दन उठाकर उसने खिड़की की ओर निगाह डाली। पत्नी सामने न थी! पानी लेने के लिए नीचे उतर रही होगी! यह सोचता हुलास में भरा वह सपाटे से सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। लम्बे डग बढ़ाता वह एक बार में कई सीढ़ियाँ लाँघता ज़ोरों से दरवाज़ा ठेलता बढ़ा और घर में घुसा। उसकी साँस तेज़ी से चल रही थी और वह पसीने से तर-ब-तर हो रहा था। बीवी से वह उस ख़ूबसूरत नज़ारे का बखान करना चाहता था और उस मुकाम तक उसे ले जाना!
घर में घुसते ही उसने पत्नी को आवाज़ लगाई। आवाज़ पर जब पत्नी न आई तो वह बेचैन हो उठा। पत्नी को वह ढूँढ़ने लगा। कभी कुठरिया में जाता, कभी कुठरिया से बाहर खिड़की से गली में झाँकता और हाँक लगाता।
पत्नी कुठरिया में लकड़ियों के अटाले में छिपी बैठी उसे ताक रही थी। आदमी को उसने इतना ख़ुश और हुलास में भरा ज़िन्दगी में पहली बार देखा था! जैसे कारूँ का ख़ज़ाना लूट आया हो!
वह मन ही मन मुस्कुरा रही थी!