नदी बहती रही / कुसुम भट्ट
"सलोनी!"
किवाड़ तो बन्द थे..., अन्दर कैसे घुस गई... ! मैंने ही किये थे इन्हीं हथेलियों से ... तुम रोई थी... छटपटाई थी... तड़फ कर कितना कुछ कह रही थी... आकुल तुम्हारी हिरनी आँखों की याचना...
"...मुझे नहीं सुननी कोयल की कूक... जंगल की हिरनी से बहुत-बहुत डर जाती हूँ... बसंत की अमराई... फूलों की मादक गंध, भौंरो का गुनगुन फूलों पर बैठना, चूसना रस... फूल-फूल पर इतराते इठलाते यह कमबख्त बसंत आता ही क्यों है, इस रेत के शहर में..." रचना बुदाबुदा रही है किससे बातें कर रही है-अपने आप से... अपने भीतर की उस रचना से जिसने सलोनी के जाने पर ख़ुद को कई कोणों से सजा दी थी...
सलोनी थी तो रचना के दिन आराम से कटरहे थे एक तो हम उम्र थी सलोनी दूसरा मन के तार जुड़ गये थे, सलोनी का अपना दुख-सुख साझा करने के बाद रचना उसे अपनी अंतरंग मानने लगी थी...
यहाँ तो सलोनी किरायेदार थी... पर उसने कभी उसे इस दृष्टि से नहीं देखा "सलोनी, अपना घर ही समझो इसे... जिस चीज की ज़रूरत हो... निसंकोच लेकर जाओऽ... किराया टाइम पर नहीं हुआ तो चिन्तित न हो... जब तुम्हारी ज़रूरतों के बाद बचे तो दे देना... वैसे भी मालिक को एतराज ही रहता-शाँति के कोलाहल में किसी अन्य का पंख फड़फड़ाना अपनी परिधि के भीतर बर्दाश्त नहीं आग उगलती आँखों से देखा करते पत्नी को" किराये से क्या ऐश्वर्य बटोर लेगी...?
इतना तो बिजली फूँक देते हैं कमबख्त...! बिल तो अपने को ही भरना पड़ता है...
सलोनी आई तो रचना को अच्छा लगा था, जब माँ बोली थी "रचना बेटी, सलोनी के साथ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा... दोनों माँ बेटी हैं... रोली तो मेरे ही पास रहेगी... सलोनी, सुबह की गई शाम को ही लौटती है... दिनेश तो महीने दो महीने पर आ पाता है... वह भी दो-तीन दिन के वास्ते..." पांच सौ के चार कड़कड़े नोट रचना कि हथेली में पकड़ाते खुरदरे हाथों के स्पर्श से दबी सलोनी के सान्निध्य की अनुभूति रचना के अकेलेपन पर बिछलने लगी थी " आखिर मुझे भी आत्मीयजन से स्नेह पाने का अधिकार तो होना चाहिए। अपने अकेले पन के दंश से मुक्ति पाने का अधिकार तो होना चाहिए... मैं मनुष्य नहीं हूँ...? कि किले में क़ैद अपने ही अंधेरों से टकराती कोई सुने न मेरी भी चीख...?
मुझे भी साथ चाहिये... अपनेपन का हाथ चाहिए जो कभी-कभी सहलाता जाये मेरा पिघलता हुआ दुख... जिसकी स्नेहिल हथेलियों की आँच अपने बर्फ होते उत्साह-उम्मीदों-आशाओं पर महसूस कर सकूँ...
नींद का लिहाफ उतरते ही एक उदास दिन की शुरूआत-बच्चों को स्कूल भेज कर लंबा खाली वक्त...
सलोनी और उसकी पाँच साल की बिटिया रोली का अपने घर में आगमन पर उसने अपने पतझड़ में बसंत की अनुभूति की थी, पच्चीस-छब्बीस वर्ष की सांवली मध्यम कद काठी की मांसल देह वाली आर्कषक सलोनी (जैसा नाम वैसा रूप) काली चमकदार हिरनी-सी आँखें! चेहरे का सांवलापन गायब हो जाता जब वह हँसती खिल खिलाकर अनायास! वज़ह न भी हो हँसने के लिए... बिना बात... बार-बार... हँसना रचना को भ्रम होता " कहीं सलोनी एबनार्मल तो नहीं... सामान्य व्यक्ति तो बेबात बेवजह पल-पल खिल खिला नहीं सकता गो कि इस क्रूर समय में चेहरों से हँसी ही गायब हो गई ...! वह तो वर्षो से गोया हँसना ही भूल गई थी... बच्चे भी कहाँ हँसते थे उन्मुक्त हँसी... कभी हँसे भी हों तो किसने हँसने दिया उन्हें...?
... तो सलोनी जब से आई रचना को लगा पत्थरों के बीच झरना फूटने लगा है... जिसका स्पर्श उसके पत्थर होते मन को भिगोने लगा है..., अब रचना का खिंचा-खिंचा चेहरा कोमल आवरण में लिपटने लगा वह आइना देखती झुर्रियाँ गायब हो जाती... "सलोनी कहती" क्या हालत बना रखी रचना दी, अरे भई पार्लर किसलिये खुले हैं... कुछ देह का कायाकल्प कर भी लो... इतनी छोटी उम्र से चेहरे पर बढ़ती झुर्रियाँ... सोचोऽ... रचना दीऽ... आगे क्या होगाऽ...?
अब रचना सलोनी को कैसे कहती कि कायाकल्प मन का होना चाहिए... सलोनी...! मन ही बुझा अंगारा हो तो चेहरा चमकदर कैसे हो सकेगा...
सलोनी के आने से रचना के उदास दिनों में धूप की किरणें बिछलने लगी काले डरावने घुमड़ते बादलों के बीच धूप की कुछ किरणें गिरने से अंधेरे कोने उजाले से मरने लगते..., रचना खिड़की के छिद्रों से आती धूप को पकड़ती हथेली में बंद कर चिहुँकती इतनी रोशनी! इसे घर के अंधेरे कोनों में छिटका दूंगी... " तभी कहीं से एक पैना नाखून उसके भीतर खिलती कली पर पड़ता उसकी पीड़ा से वह तड़फ उठती...! ज़िन्दगी पठारों रेतीले बियावानां पर चलने का नाम है... यह तो फालतू लोगों के चोंचले हैं, वर्षों की पहली बूंदों को देखकर हर्षित होना धूप को मुट्ठी में भरना हँसी-मजाक खिलखिल कभी गीत का कोई टुकड़ा अनायास गुगुनाना इस सब का अधिकार रचना को नहीं मिला तो सलोनी क्या करे... वह तो अपनी तरह से जियेगी कहीं भी रहे...? उसकी हँसी पर कोई पत्थर नहीं मार सकता... इतनी मारक हँसी कि पत्थर के भी कर दे टुकडे़...!
सलोनी घर के कामों में भी रचना कि मदद भी करने लगी थी। कभी मालिक के लिये नानवेज बनाकर खिलाती, अतिथिगण आते तो मिनटों में जायकेदार सब्जी रायता पूरी वगैरह तैयार कर लेती, मछली का शोरबा बनाती तो मालिक उंगलियाँ चाटते रह जाते... मेहमान कहते भई रचना तो सदा कि आलसी ठहरी... उसके वश का नहीं है यह सब करना..., मालिक सलोनी को हाज़िर करते...
ये हैं हमारी सैफ! सलोनी अपनी प्रशंशा से सकुचा कर अपने कमरे में चली आती...
रचना उस घर में शेर के पंजे में चाहे मेमनी-सी रहती लेकिन मालिक की रसोई में मुर्गा बकरा मछली अन्डा लाने की आदत से उस पर चण्डी सवार हो जाती थी! वह रसोई के एक-एक बरतन को सड़क में फेंकने पर उतारू हो जाती...! उन क्षणों में मालिक बेहद डर जाते कहते "इसे साइकैट्रिस्ट को दिखाना पड़ेगा...सलोनी ही बात संभालती" कोई बात नहीं जीजू मैं बना कर खिला दूँगी आपको... "वह सब समेट कर अपनी रसोई में ले आती और रचना कि रसोई धो कर गंगा जल भी छिड़क आती..." लो हो गई आपकी रसोई पवित्र... अब हँस भी दो रचना दीऽ... खिल-खिल रसाई में हँसी में उम्ड़े विछलते देख रचना का तनाव कम हो जाता।
सलोनी का आफिस टाइम दस बजे होता वह नौ बजे तैयार रहती शेखर उसे लेने आता, शेखर का आफिस सलोनी के पास था, शेखर का घर भी कुछ ही दूरी पर थी। शुरू में शेखर उसे लेने आया तो सलोनी ने रचना से मिलाया शेखर शालीन, हंसमुख मददगार सरल-सा युवक था, रचना से घुल मिल गया, रचना को सलोनी ने बताया था कि शेखर उसके बचपन का दोस्त है, लेकिन शेखर की माँ सलोनी को इस क़दर स्नेह देती है कि शेखर की बीवी सरिता उसका आना बर्दाश्त नहीं करती, फिर भी सलोनी शेखर की माँ-पिताजी के दुख-तकलीफ में अपमान सहते हुए भी सेवा करने पहुँच जाती है, कभी-कभी दो बूढ़ों को जबरन उनकी पसंद की चीजें बनाकर भी खिला देती है।
सलोनी के पति दिनेश शुरू में तीन दिन के वास्ते आये तो सलोनी बाहर नहीं निकली रचना ने मुश्किल से काटे थे वे तीन दिन! अगले दिन उलाहना दिया "क्या... सलोनी... दिनेश के प्रेम ने बाहर भी न आने दिया।"
सलोनी बुझी-बुझी सी... आवाज़ दबी-दबी सी... अस्त व्यस्त उसका हुलिया "" कमबख्त! ने अंग-अंग तोड़ कर रख दिया... इतना भूखा भेड़िया... घिना जाता है मन... "सलोनी की आँखों से धुआँ-सा उड़ने लगा..., रचना को लगा मज़ाक कर रही होगी... पर सलोनी तो रोने ही लगी" लाटा (मंद बुद्धि) है न... सौतेली माँ ने औघड़ से तन्त्र विद्या करवा कर इसे विकृत बना दिया...
"... लेकिन क्यों?" लगभग चीख ही पड़ी थी रचना..., सलोनी की देह पर नाखूनों अनगिनत खरोंचे! काफ़ी बनाकर ले आई थी रचना, फिर गरम पानी से सिंकाई... जख्मों पर मलहम लगाया, शाम को शेखर आया, सलोनी के वास्ते दवा फल खाना लेकर रोली का होमवर्क भी करवाया, उसकी कापियों में कवर चढ़वाइये रोली को पार्क में घुमाने ले गया कुछ देर बाद सलोनी के खिलखिलाने का स्वर गूँजने लगा तो रचना को राहत मिली, उसने रोली की आवाज़ सुनी" शेखर अंकल, यहीं सो जाइये न... देखो न... अंकल मम्मी कितनी तो खुश दिख रही है...
शेखर रोली को रूलाने लगा...' आज नहीं रोली... कल मुझे कहीं जाना है... तुम्हारी मम्मी की नौकरी के वास्ते..."सलोनी ने बताया था कि शेखर उसकी लेक्चरर शिप को लेकर मंत्रियों से गुजारिश कर रहा है, हलाँकि वह फस्र्ट क्लास बी.एड, एम काम थी..., लेकिन बिना सोर्स के बात नहीं बन रही! इस छोटी-सी नौकरी में मुश्किल से गुज़ारा होता है।" "दिनेश नहीं भेजता, सलोनी शांतचित्त बोली...? उसने पूछा था" मैने कभी मांगी नहीं... तो उसने दी भी नहीं... लाटे को पता ही नहीं कि सलोनी को पैसे की ज़रूरत पड़ती है..., बीच में उसकी नौकरी छूट गई थी... मैंने ही उसे पाला..."एक दोपहर सलोनी की माँ रोली को स्कूल लेने आई, उदास लगी तो रचना ने पूछ लिया" मौसी जी कुछ परेशान लग रही हैं...? "
सलोनी की माँ का गुब्बार फूट पड़ा रचना कि आँखों में धूल उड़ने लगी... उस अंधड़ में उसे सलोनी की छाया नज़र आने लगी-रात को उसका दरवाज़ा पीटता गुण्डा " दरवाजा खोल... दरवाज़ा क्यों खोलती नहीं... कोठा खोलकर भली बनने का स्वांग रच रही है छिनाल... देखता हूँ कब तक नहीं खोलती...? गुन्डा रात भर दरवाजे पर चिपका रहता!
सलोनी ने घर छोड़ दिया...
"दिनेश के पिता ने बैंक बैलैन्स भी काफ़ी छोड़ा है... पर क्या करें... कागजातों पर सारे नागिन कुंडली मार कर बैठी है।" सलोनी कभी माँ का कातर स्वर रचना को भीतर तक हिला गया"आपने शादी से पहले छानबीन नहीं की थी...? सलोनी की माँ पाश्चाताप से भर उठी" हमने बड़ी कोठी देखी... दिनेश भी ठीक ठाक दिखा... नौकरी थी ही उसकी... पालीटेक्निक करके आॅटोमोबाइल कम्पनी में था... गलती हुई हमसे कि सलोनी की राय नहीं ली... सोचा उसे एतराज क्यों होगा..." सौतेली माँ ने दिनेश पर तान्त्रिक प्रयोग किये शमशान की मिट्टी खिलाई अब सही-गलत सोचने समझने की क्षमता भी खो चुका है...
इस सच से रू-ब-रू होते हुए रचना को अपना दुख मामूली-सा लगने लगा, गुन्डों से बलात्कार होने की कल्पना से रचना बहुत डर गई थी। उसे शालिनी पर करूणा आाने लगी "निष्ठुर भाग्य ने एक प्रतिभा संपन्न लड़की की कैसी हालत कर दी...! हे ईश्वर! ... सलोनी पर करूणा कर..." वह प्रार्थना करती"।
सलोनी की माँ बेटी के साथ मजबूती से खड़ी थी, ...पर सलोनी को तो उधर से विरक्ति ही हो गई, कोर्ट के झमेले में पड़ना नहीं चाहती, "जिन्दगी बहुत छोटी है रचना दी... इसे लड़ने झगड़ने में ही गंवा दिया तो... जीने का आनन्द कब लेंगे..." ज़िन्दगी यूं ही रेत-सी सरकती जायेगी...
लबोलुबाव यह है कि सलोनी कुछ भी अवांछित बात नहीं चाहती, वह जीना चाहती थी रस से सराबोर जिन्दगी...! सलोनी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहती थी... इसलिए उसने माँ को हिदायत दी थी कि वह उस घर की कोई बात न करे... सलोनी हरी डाल पर झूलती चहकती चिड़िया थी, जिसे खुला आसमान चाहिए था... इतना खुला कि हवा रूख जिधर भी ले जाये वह उड़ने लगी...
शेखर आता तो सलोनी रचना को बुला लेती, सर्दी के दिन होते शेखर काफ़ी बनाता तीनों पीते, दुनिया जहाँ की बातें करते शेखर गजलें सुनाता, शेखर फ़िल्मी गीत सुनाता, शेखर चुटकुले सुनाता, शेखर कहता ज़िन्दगी ज़िंदा दिली का नाम है। दोस्तों! मुर्दामन भी ख़ाक ज़िया करते हैं, शेखर कहता "रचना दी, मुझे गैर न समझो, मैं हूँ न तुम्हारा भाई अपने दुखों को बांटना सीखो किसी काम आ सकूँ, तो धन्य समझूंगा ख़ुद को..." शेखर रचना को अपने घर आने का न्यौता देता, लेकिन रचना कभी जा न सकी, कुछ देर बाद गोया दो पंछी पत्थरों के जंगल में चहचहा कर उड़ जाते...! रचना को महसूस होता दो हरे जंगल के पंछी रेत के टीलांे पर चहचहा कर उसमें प्राणों का संचार कर गये! देर तक उन पंखों को हवा में वह सांस लेती तो धूल के गर्द गुब्बार से मुक्ति पाती, रचना ख़ुद को रूई के फूल-सी हल्की पाने लगती उसे लगता, उसके आस-पास हरियाली उग आई है...! आस-पड़ोस में ठूंठ पेड़ों देखकर उसे सम्बन्धों से विरक्ति हो गई थी-बार-बार वही घरेलू जिम्मेदारियों की बात दाल-चावल-नून तेल की बात या दूसरों पर पत्थर फेंकने की आदतों से उसेे तंज होता था, कहने को मोहल्ले में अनगिनत स्त्रियाँ थीं। सब की सब असहनीय गो कि सड़े तालाब की मछलियाँ-खाने लपकती एक दूसरे को...! आडम्बर में जीती सहृदयता का आवरण ओढ़े अन्दर से बेहद क्रूर... आक्रमक प्रतिद्वन्दिता में जी रही सुखी होने का भ्रम पाले... भीतर से खोखली...!
सलोनी-शेखर को एक साथ जाते देखती तो प्रश्नों के तीर मारती, उनके चेहरे की भाव भंगिमा देखकर रचना धीरे से कहती दोनों बचपन से दोस्त हैं... इसीलिए शेखर सलोनी को लेने आता है...
उसको आत्मग्लानि भी होती " उसे सफ़ाई क्यों देनी पड़ती है गो कि शेखर-सलोनी मुजरिम हों... और ये जज...?
तभी एक अदृश्य आवाज़ उसकी विचारधारा का गला घोंटने बढ़ती " आदिम सभ्यता कि सीढ़ी पार चुके हैं हम...
समाज के कुछ नीति-नियम मानने ही पड़ते हैं, इन्हें कैसे समझाऊँ कि शेखर सलोनी का दोस्त है सिर्फ... कैसे कहूँ कि दोस्ती के बीच तंग सोच की औरतें मांसल देह ही देखती हैं...? इससे परे भी जो कुछ है, इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के वास्ते... वह तुम्हें नहीं दिखता... "तो सलोनी इस जहाँ से बेख़बर" तालाब तो नहीं बनने दूँगी ज़िन्दगी ..., घुटन का बोझ सहन नहीं कर पाते मेरे कोमल कंधे..."सलोनी तड़फ कर कहती और हर महिने दिनेश की भेड़िया भूख के आगे अपनी कोमल काया तथा सोच का निवाला डालकर सौ-सौ मौत मरती होगी...? रचना सोचती" नहीं...रचना दी... दिनेश पर दया आती है मुझे... अबोध बच्चा-सा उसकी हर ज़रूरत पूरी करनी है मुझे... वरना 'वह' ...! हश्र से काँपने लगते रोंये... "उसको जीवन देना मेरा धर्म है... वह मेरी बच्ची का पिता है अनाथ बच्चा! मेरे सिवा इस दुनिया में उसका कोई भी तो नहीं...?" रचना देखती शेखर, दिनेश के आने पर रचना को फ़ोन करता, सलोनी उन दिनों आफिस से भी छुट्टी ले लेती..., रचना को लगता कि दिनेश सलोनी के मित्र को पसंद नहीं करता होगा तभी शेखर नहीं आ पाता...
मालिक ने एक-दो बार दोनों को साथ जाता देखा तो रचना को कठघरे में खड़ा कर दिया, इतनी जिरह की कि रचना आहत होने लगी"मी लार्ड! दोस्ती दो मनुष्यों के बीच ही है न... क्या हुआ जो शेखर सलोनी लेने चला आता है..." रचना को फिर मालिक के आगे सफ़ाई देनी पड़ती बचपन से साथ खेले पढ़े... दोनों के परिवारों में आपसी... सम्बन्ध मधुर भी हैं अब तक...
...और फिर आई वह काली रात...
बाहर चाँद घटा पर मुक्त चाँदनी लुटा रहा था, रचना के कमरे में अँधेरा था, गहरी नींद में थी रचना, जल्दी सोने पर जल्दी उठने का मन्त्र हमेशा याद रखना था, आदत थी दस बजे सोकर पाँच बजे मंदिर के घड़ियाल जब टन-टन पांच बार बजाये तो रचना को बिस्तर छोड़ देना है..., ... तो रचना सपना देख रही थी... वह जाने कौन-सा युग है, ऋषि युग है शायद! उसके साथ कोई है... दिव्य-सा उसका सौन्दर्य... उसकी हथेली थामें वह हवा में उड़ना चाहता है... रचना कहती है उसके तो पंख ही नहीं... वह उड़ेगी कैसे...? तभी उसके पंख उग आते हैं... "ए! सेती रहेगी...उठऽ... उठऽ..." रचना को लगा उसके पंख बेरहमी से मरोड़ रहा है कोई... ! पीड़ा से बिलबिलाने लगी, लेकिन उसने आँखें नहीं खोली इतना सुन्दर सपना इसे खोना नहीं..."ऊँऽ... हूँ... नींद आ रही है..." रचना कुनमुना कर फिर गहरी नींद में सो गई। वह उड़ना चाहती है... फिर वही स्वर " ए! उठ
थोड़ी देर बाद वह अकबका कर उठी "क्यांे सोने नहीं देते मालिक नींद पर इस धरती के तुच्छ प्राणी का भी अधिकार है न..." प्रकृति ने दिया है मालिक... आप इसे नहीं छीन सकते..." उसने कहना चाहा।
" उठती ही नहीं! घोड़े बेच कर सोती है...? कोई कैसे सकता है।
आशय कि आग लगी है जहाँ मैं...! नीरो बंसी बजा रहा है ...!
कोंचने से उसकी बाँहें दुखने लगी "इस क़दर क्रूर न बनो मालिक गुलामों की मासूम छाती में एक नन्हा-सा दिल धड़कता है... उसी नन्हे से दिल ने एक सपना देखा... वह सपने में खोने लगी नींद और सपना रचना के दोनों ने दुलारे रखा गोद में... कष्टों से मुक्ति दिलाने में सहायक..." अरेऽ... उठ न... कुत्ते की औलाद... देख न... पीछे क्या हो रहा है..." बिजली जल उठी भक्क! दो लाल आँखें उसे जलाने को आतुर...! रचना ने सुनने की कोशिश की मीठी-सी लोक गीत की धुन उसके कानों पर पड़ी फिर जल तरंग-सी वह हँसी... फिर शेखर का स्वर... ज़िन्दगी इस क़दर हसीन पहले न थी...
थे हम ही जन्मों से साथ आपके... इस जन्म में भी तो है पास आपके.।! । इस दुनिया से हमें मिला क्या... इस दुनिया ने हमें दिया क्या... " खिल-खिल खिल खिलखिलाहटें सन्नाटे को चीरती वियावन से...! अंताक्षरी चल रही थी कुकर सीटी दे रहा था, चिड़िया-सी रोली की चहक बीच में... शेखर अंकल, मेरी पोयम सुनाऽ... ऊपर आ जाओऽ न प्लीज शेखर अंकल मच्छर दानी के अन्दर... आओऽ न...
"छिनाल... तुझे ही मिली...?" धीरे से रचना ने फुसफुसाहट सुनी! आशय समझ गई कि "तू भी होगी... तभी न मिली..."
रचना का मन हुआ कह दे चींटी पर भी विष होता है मालिक काट दे तो चटक जाये हाथी की सूंड भी...!
रचना को समझ नहीं आया कि शेखर रात को घर क्यांे नहीं गया! कभी वह देर तक रूकता नहीं था, अब्बल वह रात को आता ही नहीं था, बहुत ज़रूरी काम हो रोली की दवा वगैरह लानी हो तो आता था...
"पता नहीं... शेखर आज क्यांे...?" रचना बुदबुदा उठी।
"कोठा बना रही है घर को..." रचना के हिस्से का पुरूष दहाड़ने लगा था घबरा उठी थी रचना "तड़फ कर बोली थी" ऐसा न कहो मालिक... चला जायेगा शेखर... " रचना शेखर के लिये कोई अपशब्द सुनने को तैयार न थी, भोली रचना को उनके सम्बधों के बारे में जानकारी न थी वह तो स्त्री-पुरूष की दोस्ती को मन-बुद्धि के तल पर लेती थी, उसके संस्कारों ने दोस्ती के बीच देह का आदान प्रदान स्वीकार नहीं किया था, सलोनी भी छुपा गई थी, इससे पहले भी शेखर रात को रूकता हो उस जानकारी नहीं थी।
"अभी तो इसका मालिक गया था..., उन दिनों तो इसकी हँसी एक बार भी सुनाई दी...?" मालिक चिन्तित मुद्रा में बैठ गये थे गो कि फाँसी लगने वाली हो भय और क्रोध से फनफनाते फिर बाहर भीतर चहलकदमी करने लगे थे "भुक्खड़ है एक से भूख मिटती नहीं...?" उन्होंने निहायत भद्दी बात कह कर रचना कि गाल कोंची"ए! तू तो भूखी नहीं है न...? संतुष्ट तो होती है न... हमसे...? अभी बता दे..." रचना को लगा धरती फट जाये वह समा जाये उसमें! उसे मालिक की अश्लील बातों से बेहद तकलीफ होती ऐसे अवसरों पर उसके भीतर की औरत अंगारे-सी धधकने को होती जला डालने को आतुर मालिक की छोटी सोच के पुरजे" देह से पहले मन का जुड़ाव ज़रूरी है... मालिक... लेकिन आप नहीं समझोगे...? देह की भूख तो कुत्ते-बिल्ली भी संतुष्ट करते हैं...
रचना बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहती, तो भी उसके भीतर की स्त्री रचना को उकसाती रहती "ओऽ कायर! डर-डर कर कब तक जियेगी रचना सोचती" इस पत्थर के आदमी की जगह प्रशांत होता तो... रचना सोचती ' इस पत्थर के आदमी की जगह सौरभ होता तो... "कभी उसने प्रशांत और सौरभ की दुल्हन के रूप में देखा था ख़ुद को... वे दोनों भी तो उसके बचपन के दोस्त थे इंटर मीडियेट तक के साथी वह सोचने लगी थी" वह दोनों की दुल्हन कैसे हो सकती थी... सोच कर उसे धुएँ से भरे इस कमरे में भी हँसी आने लगी... उसका मन हुआ खिल खिला कर हँसे..., सलोनी की तरह...
... तो तेरा भी होगा कोई यार...? मालिक ताड़ गये थे उसके भाव उसके चेहरे पर बिछलता एक-एक उजली रेखा पर पैनी नज़र कि उधेड़ कर रख दे चमड़ी...!
पीछे से कूकर सीटी मार रहा था, फ़िज़ा में मसालों के साथ चिकन की गन्ध महक रही थी, रचना बाहर आ गई-धरती पर चाँदनी झिर-झिर बह रही थी...चाँदनी... ऊपर इठला रहा था चाँद, उसने आवाज़ दी "सलोनी!" सलोनी हड़बड़ी में बाहर आई "क्या हुआ रचना दी...?"
" शेखर, को कहो घर जाये...
"रात के ग्यारह बजे शेखर यहाँ क्यों है सलोनी...?" उसने पूछा तो सलोनी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी " चला जायेगा रचना दी... खाना खाकर चला जायेगा...
"घर में एक और स्त्री है... ठीक तुम्हारे जैसी... उसकी प्रतिक्षा में बैठी भूखी... कुछ सोचो सलोनी..." सलोनी की हिरनी आँखें टपकने लगी " शेखर चिकन लेकर आया था... रचना दी... उसे मेरे हाथ का कड़ाही चिकन पसंद है...
रचना उसके रोने पर भी नहीं पसीजी थी, सलोनी पहली मर्तबा रचना कि फटकार सुन रही थी "सलोनीऽ..., तुम्हें पता है यह शरीफों का मोहल्ला है... और मेरा घर... कोऽ...ठाऽ नहीं है..." अन्तिम वाक्य बोलते हुए रचना को बहुत ज़्यादा शक्ति जुटानी पड़ी थी।
"सलोनी हाथ जोड़ रही थी..." चुप हो जाओ रचना दीऽ... मैं शेखर को भेज रही हूँ... अब वह कभी नहीं आयेगा...
बाद में रचना ने खिड़की से देखा शेखर सलोनी का चेहरा थामें बेतहाशा चुम्बन की बौछार करते हुए रो रहा था" डोन्ट वरी सलोनी... दूसरा ठिकाना खोज लेंगे... तुझे रचना दी को पहले बता देना चाहिये...
रचना ने सुना सलोनी अपमान से आहत सुबकते हुए कह रही थी "मुझे क्या पता था शेखर सड़े तालाब की मछली नदी का पानी नहीं पहचानती!" सलोनी ने अगले दिन शिफ्ट कर लिया था, ' पता नहीं शेखर ने एकदम कैसे खोज लिया घर..." सलोनी कह रही थी।
रचना ने व्यंग किया था " किसका घर...? दिनेश का या शेखर का...?
"हम तीनों का अपनी चिड़िया के साथ" खिलखिल हँसी थी सलोनी" मिलने आती रहुँगी रचना दी... लेकिन...
"लेकिन क्या सलोनी?"
"शेखर की पत्नी को आप झूठ कहेंगी..."
"लेकिन क्या?" खीझ उठी थी रचना।
"यही कि शेखर यहाँ नहीं आता था... उसने पुलिस में कम्पलेंट की है..."
"ओह!" रचना के माथे पर बल पड़ गये" मुसीबत को न्योता दे दिया सलोनी ने ...! पुलिस की कल्पना से ही रचना को कंप कंपी छूटने लगी थी...
अब रचना हर आहट पर भयभीत रहने लगी... मालिक और कस कर उसके गले का फन्दा खींचते, रचना का मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगा..., कुछ दिन बाद वह अस्पताल पहुँच गईं, ठीक होने में उसे कुछ वक़्त लगा...
"सड़े तालाब की मछली..." "सड़े तालाब की मछली" उनके जेहन में आवाज़ हथौड़ी-सी बजती...
एक शाम हाइवे पर टहल रही थी कि घर्ररऽ उसके पांवो पर एक्टिवा ठहर गई, वह हड़बड़ा कर पीछे हटने वाली थी कि उसके कन्धे पर खनन् न्न चूड़ियों भरी कलाई बज उठी"रचना दीऽ..." अपनेपन से लवरेज सुगंध की महक, रचना ने देखा नीले शलवार सूट में इठलाती सलोनी एकदम नई नकोर पहले से भी कमसिन दिख रही थी, कन्धों तक झूलते कर्ली काले बाल, चेहरे का सांवला पन गायब, अब गुलाब-सा खिला चेहरा, गुलाबी होठों के बीच सफेद मोतियों की लड़ी-सी दंतुलियाँ ' बधाई दोऽ... रचना दी इन्टर कालेज में जाॅब लग गई...
रचना को साथ लेकर सलोनी घर आई, वह शेखर के बारे में जानने को उत्सुक थी।
"शेखर!" उसका साथ तो वहीं छूट गया था, पुलिस केस था न... रचना दीऽ, बखेड़ा होता...
"...और दिनेश...?"
पहले से बेहतर है... नौकरी भी अच्छी मिल गई है...
तभी उसका मोबाइल बज उठा।
वह हँसी वहीं धूप-सी उजली हँसी...
' विकास... विशिष्ठ बी॰टी॰सी॰ की ट्रेनिंग में मेरे साथ था...
रचना सनातन प्रश्नों की गठरी लेकर सलोनी की आँखों में देखती रही... वहाँ नीला जल चमक रहा था। नदी की देह इठला रही थी "शेखर ... छूट गया अंधेरे में... विकास मिल गया... ज़िन्दगी मेहरबान है रचना दीऽ... सोचती हूँ विकास न मिलता तो मेरा क्या होता... शेखर का विछोह कैसे सह पाती...? खिल-खिल हँसी के टुकड़े रचना के इर्द गिर्द विछलने लगे... रचना उन्हें संभालती हुई पूछने लगी थी" शेखर की याद में मन अकुलाता तो होगा न सलोनी...? आख़िर वह बचपन का दोस्त था... और लम्बे समय तक तुम्हारी ज़िन्दगी में रहा...
"अरे! नहीं रचना दीऽ... उसकी आँखों में गोया महुवा टपकने लगा उसी इठलाती हँसी का फन्दा रचना को लपेटने लगा था" भूतोऽ... न... भविष्यति... पीछे मुड़कर देखना गवारा नहीं... भविष्य की चिन्ता करनी नहीं... कल विकास भी छूट गया तो... कोई ग़म नहींऽ... ज़िन्दगी रूकती नहीं है रचना दीऽ...
रचना उजबक-सी उसे देख कर सोचने लगी बचपन से संस्कारों के प्रेतों का बोझ ढोने... अपने ही अंधेरे में क़ैद घुट-घुट कर जीने की आदी अपनी सोच को सही माने या सलोनी को...?
तभी उसका मोबाइल घनघना उठा, सलोनी उसी कोने से फुसफुसा कर मुस्कराती हुई बातों में डूब गई थी रचना चुपचाप दरवाज़ा खोल कर निकल गई थी।