नदी / राजकमल चौधरी
श्यामल वहाँ जाना नहीं चाहता था। अब उसे नौकरी मिल गई है। ब्लूवर्ड कंपनी में छह सौ रुपए तनख्वाह की नौकरी, कंपनी की गाड़ी से दफ्तर आना-जाना, दफ्तर के कैंटीन में ठीक दो बजे लंच, लंच के बाद पिको-रेस्तरां की कॉफी स्टेनो लड़कियों की बेवजह मुस्कराहटें। श्यामल इसीलिए वहां जाना नहीं चाहता था कि उसकी नदी से मुलाकात हो जाएगी। नदी सारा दिन अपने घर में टेलीफोन के पास बैठी रहती है। बैठी हुई, या डनलोपिलो के सोफे में धंसी हुई। यह प्राकृतिक दृश्य अब उसे फीका और पुराना दिखता है।
लेकिन नहीं जाने का उपाय नहीं है। थापा को टाला नहीं जा सकता। थापा शाम को श्रीमती उपाध्याय के यहाँ जाना चाहता है, श्यामल को भी जाना ही होगा। अब तक हमेशा यही हुआ है। थापा, श्यामल और सुजानसिंह तीनों व्यक्ति हमेशा दफ्तर या बेरोजगारी का समूचा दिन बिताने के बाद एक साथ कहीं न कहीं जाते रहे हैं। ज्यादातर श्रीमती उपाध्याय के यहाँ।
वे सुबह के पाँच घंटे अपनी कोठी में लड़कियों का स्कूल चलाती हैं। एक पढ़ी-लिखी विधवा स्त्री के लिए इससे बेहतर रोजगार दूसरा नहीं होता है कलकत्ते-जैसे शहर में। तीन साल पहले थापा अपनी छोटी बहन को दाखिल कराने के लिए इस ‘कमलावती स्कूल‘ में गया था। न्यू-टालीगंज मोहल्ले में सबसे बड़ी गाड़ी और सबसे बड़ी कोठी कुलवीर थापा के पास है, श्रीमती उपाध्याय यह बात जानती थीं। बहन को स्कूल में भरती करने के बाद अक्सर थापा अपने दो दोस्तों के साथ श्रमती उपाध्याय के यहाँ जाने लगा।
श्रीमती उपाध्याय के पति कर्नल उपाध्याय की मृत्यु कार-दुर्घटना में हुई थी। वे स्वयं गाड़ी चला रहे थे, बगल में श्रीमती उपाध्याय बैठी हुई थीं और पिछली सीट पर बेसुध सोई हुई थी छह साल की छोटी-सी बच्ची-नदी। पता नहीं कैसे कैथेड्रल रोड के तिरछे मोड़ पर गाड़ी एक लंबे-चौड़े दरख्त से टकरा गई। कर्नल अपनी सीट से हिल भी नहीं सके। स्टीयरिंग का चक्का उनके सीने में धँस गया। श्रीमती उपाध्याय के लिए यह पहली दुर्घटना थी और संभवतः उनके जीवन की आखिरी दुर्घटना थी, जिसमें उनके दाएँ पाँव की हड्डी टूट गई। अब भी वे छड़ी के सहारे लंगड़ाकर चलती हैं। क्राच नहीं लेतीं। वह पुरानी हिलमैन गाड़ी अब भी उनके पास हैं। खुद भी ड्राइव कर लेती हैं। लेकिन हिलमैन के पीछे उनसे भी ज्यादा पागल बनी रहती है नदी। न्यू-टालीगंज ही नहीं दक्षिण-कलकत्ते की तेज़ लड़कियों में यानी अपनी कार तेज़ी से चलाने वाली लड़कियों में, नदी उपाध्याय का नाम है। यह नाम उसने काफ़ी खतरा मोल लेकर पैदा किया है। इसी हिलमैन ने उसके पिता की जान ली थी, उसे मालूम है। इसी गाड़ी के स्टीयरिंग चक्के पर नदी की भी जान चली जाएगी, श्रीमती उपाध्याय रोज़ शाम को अपने घर में आने वालों से कहती हैं। नदी, लेकिन, ऐसे उलहनों पर ध्यान नहीं देती। उसका अपनी गाड़ी के अंग-प्रत्यंग से आत्मीय परिचय है। छोटी-मोटी ख़राबियों के लिए वह हिलमैन को किसी कारख़ाने में नहीं भेजती, ख़ुद दुरुस्त कर लेती है।
नदी को अपनी हिलमैन के लिए पेट्रोल चाहिए, और अपने लिए चाहिए कोका कोला की बातलें, और कुछ उसे नहीं चाहिए। श्रीमती उपाध्याय का स्वभाव अपनी इकलौती लड़की से एकदम विपरीत है। वे स्त्री हैं, और स्त्रीयोचित सारी असुविधाएँ और अस्वाभाविकताएँ उनके चरित्र में हैं। वे सुरक्षा चाहती हैं, और जानती हैं कि अब सुरक्षा सिर्फ पैसे से होती है। इसलिए उनका संपूर्ण जीवन पैसों और पैसों और पैसों की परिधि में बंध गया है। इस परिधि से वे बाहर नहीं निककतीं-जरूरी होने पर भी नहीं। सुबह वे स्कूल चलाती हैं, और सारी दोपहर सोई रहती हैं। अपनी पलंग पर भी पड़ी रहने पर उन्हें यह महसूस नहीं होता कि उनकी दाईं टांग टूटी हुई है। महसूस होने से उन्हें दुख होता है।
शाम को मिलने वाले आते हैं ज्यादातर तीन ही व्यक्ति -- श्यामल, थापा और सुजानसिंह। पहली बार थापा ही अपने दोनों दोस्तों को वहाँ ले गया था। शायद नदी के जन्मदिन पर। शायद श्रीमती उपाध्याय के जन्मदिन पर। श्यामल को उसी दिन घुड़दौड़ के मैदान में आठ सौ पचासी रुपए तेरह आने मिले थे। तीनों दोस्तों ने एक रेस्तरां में बैठकर बीयर पी थी, और वहाँ थापा ने प्रस्ताव किया था, “मैं नदी के घर जा रहा हूँ। वहाँ बर्थ डे-पार्टी है। तुम लोग चलोगे? चलोगे तो अच्छा रहेगा। दरअसल थापा चाहता था कि श्यामल और सुजानसिंह उसके साथ नहीं जाएं। वह श्यामल से खासतौर पर डरता था। लेकिन वह अपने दोस्तों का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। पता नहीं, उसके परोक्ष में ये लोग कितनी बोतलें पी जाएँ, और बोतलों के बाद कहाँ-कहाँ हो आएँ दोस्ती का तकाजा यही है कि जहाँ भी जाएँ, कम-से-कम शाम होने के बाद और सोने के लिए अपने घर लौटने के पहले जहाँ कहीं भी जाएँ, साथ-साथ जाएँ। आज अगर थापा अकेले-अकेले कहीं आना-जाना शुरू करता भी, तो ये भी थापा के बगैर...। श्यामल रोजगारी के दिनों में कविता लिखा करता था, इसीलिए, वह ‘नदी‘, नाम के प्रति आकर्षित और आग्रहशील हुआ।
उपहार में देने के लिए थापा ने एक जापानी फूलदान ख़रीदा, और सुजानसिंह ने ख़रीदी बीयर के गिलासों की पूरी एक कतार। अलग-अलग रंगों के लगभग दो दर्जन गिलास होंगे। श्यामल के पास रेस में जीते हुए रुपए थे, इसीलिए उसने शाहखर्ची दिखलाई, और कश्मीर इम्पोरियम में जाकर उसने एक लंबा-चौड़ा कालीन खरीद लिया। कालीन देखकर श्रीमती उपाध्याय बहुत देर तक हँसती रही थीं। बोली थीं, “आप बहुत तेज़ दिमाग के आदमी हैं, श्यामल बाबू! यह उपहार मैं कभी भूल नहीं सकूंगी। मैं भूल भी जाऊँ, हमारी नदी नहीं भूल पाएगी। कितना वण्डरफुल है यह कश्मीरी कालीन!” ओह, थोड़ी ही देर बाद, वे ‘आप‘ ‘तुम‘ पर उतर आई थीं, ‘तुम एक प्याला कॉफी और लो, श्यामल! देखो, नदी, श्यामल को और कॉफी चाहिए!” श्यामल को ‘आप‘ कहा जाए, ‘बाबू‘ कहा जाए, यह सुनने में अच्छा नहीं लगता। इतना प्यारा आदमी है श्यामल कि पहली ही मुलाकात में एकदम दिल में बैठ जाता है।
थापा अपने सही मतलब में ‘बिजनेसमैन‘ है। मूलतः नेपाली होकर भी वह कलकत्ते के बंगाली और राजस्थानी बणिक समाज में शक्कर की तरह घुल-मिल गया है। उसके पिता कोडरमा-हजारीबाग में अबरख का कार-बार करते थे। अब थापा खुद सारा कार-बार संभाल रहा है। नेताजी सुभाष रोड, यानी पुरानी क्लाइव स्ट्रीट में उसने नया दफ्तर कायम किया है, और अबरख के कारोबार को जूट और लोहे-इस्पात के कारोबार तक आगे बढ़ाया है। पिता ज्यादातर बीमार रहते हैं, और कलकत्ते के नेपाली-समाज की परिधि से बाहर आना नहीं चाहते। बाहर आता है कुलबीर थापा। अभी वह कुल तीस-बत्तीस साल का तेज-तर्रार नौजवान है। उसके पास निजी सपने हैं, और व्यवसाय करने का निजी तरीका भी है, अपने सपनों को पूरा करने के लिए।
श्यामल उसके साथ प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ता था। दोनों दोस्त सपना देखते थे कि कॉलेज छोड़ने पर कलकत्ते में हिन्दी सिनेमा बनाएंगे, सत्यजीत रे की अपू-फिल्मों की तरह कोई आधुनिक और कलात्मक फिल्म! श्यामल हीरो बनेगा। और सत्यजीत रे बनेगा कुलबीर थापा। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर दोनों दोस्तों ने सुजानसिंह से दोस्ती की। सुजानसिंह की मां, आशालता देवी कलकत्ते के तीन सिनेमाघरों और एक अदद फिल्म-स्टूडियो की मालकिन हैं। थापा की लंबी-चौड़ी गाड़ी में बैठकर तीनों दोस्त शाम के बाद इस रेस्तरां में, इस कोठी के पोर्टिको से उस कोठी के पोर्टिको में, इस क्लब के बरामदे से उस क्लब के बरामदे में चक्कर काटते रहते हैं। शाम होने के बाद कोई बिजनेस नहीं, नो बिजनेस-थापा ने ही यह नारा प्रचलित किया है। शाम होने के बाद वे लोग सिर्फ तफरीह करते हैं।
श्यामल को अब तक नौकरी नहीं मिली थी। वह सात दिन अपने कमरे में पड़ा रहता था, किसी फिल्म की कहानी सोचता हुआ, कोई उपन्यास पढ़ता हुआ अथवा यह तय करता हुआ कि मां उसे जेब खर्च के लिए पैसे देगी या नहीं। श्यामल के घर में पुराने जमींदार-घरानों की तरह उसकी मां का शासन था। तहसील अब रही नहीं, जूट का लंबा कारोबार भी नहीं रहा। पिताजी भाइयों से अलग हो गए हैं, और बैठकखाने में पड़े-पड़े शतरंज खेलते रहते हैं। तिजोरी की चाबी मां के पास रहती है। परिवार में एक कुंवारी बहन है, एक विधवा चाची है, और दो-एक पुराने नौकर रह गए हैं। अपनी पत्नी से श्यामल का कोई मतलब नहीं है। रुपयों के लालच में पिताजी ने एक गलत परिवार की गलत लड़की से श्यामल का विवाह कर दिया था। पिताजी के बारंबार कहने-सुनने पर भी वह न तो अपनी ससुराल जाता है और न अपनी पत्नी को ही अपने घर ले जाता है। हालांकि इस बात का दुःख उसे अवश्य है। उसने क्यों शादी की और शादी कर भी ली, तो अब वह पत्नी को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाता है? पत्नी केवल अनपढ़ नहीं, बेशहूर भी है। श्यामल की मां तो एक क्षण भी ऐसी बहू को अपने घर रख नहीं पाएगी। श्यामल चाहता था कि अपने परिवार के बारे में ही वह एक फिल्म बनाए, परिवार किस तरह टूटता है, किस तरह कांच के गिलास की तरह जूट के फर्श पर बिखर जाता है।
श्यामल की फिल्म बन नहीं सकी। अपने दोस्तों के कहने पर उसने एक ब्रिटिश कंपनी में पब्लिसिटी अफसर की नौकरी कर ली। तनख्वाह अच्छी है, भविष्य भी अच्छा है। भविष्य अच्छा नहीं हा सकेगा, तो नौकरी बदल ली जाएगी, या कोई दूसरा धंधा शुरू किया जाएगा। दोस्तों के कहने पर श्यामल शाम को श्रीमती उपाध्याय के यहां जाने लगा।
जबकि इतने महीनों तक वहां जाते-आते रहने के बाद अब वह वहां जाना नहीं चाहता था। स्त्रियों की संगति उसे पसंद नहीं है। वह केवल अपने बिस्तरे में स्त्रियों को बरदाश्त करना चाहता है, इसके अतिरिक्त नहीं। उसे किसी रेस्तरां में दोस्तों के साथ बैठकर बीयर पीना और ज्यूक बाक्स सुनना ज्यादा पसंद है। लेकिन थापा कहता है तो जाना ही होगा।
श्रीमती उपाध्याय घर में नहीं थीं। दोपहर में ही गाड़ी लेकर चली गई है। अब लौट आने का वक्त हो गया है। नदी टेलीफोन के पास बैठी हुई थी, चुपचाप! इन लोगों को ड्राइंगरूम में खड़े देखकर भी वह अस्त-व्यस्त नहीं हुई उसी तरह हाथ बांधे हुए बैठी रह गई-मगर मुस्कराती हुई। उसकी मुस्कराहट यूडीकोली की हल्की फीकी गंधों में डूबी हुई थी। उसके बाएं हाथ में कोका कोला की अच्छी वाली नीली बोतल थी। ड्रेन पाइप पर टखने पर टखना चढ़ाए हुए बेतरतीबी से कतरे गए सूखे बालों में रिबन बांधे, वह कोका कोला कंपनी के फोर-सीटर विज्ञापनों की लड़की दिख रही थी।
श्यामल इस कोका कोला लड़की से बेहद नाराज था। ऐसी बातों पर नाराज होना भी चाहिए। शुरू-शुरू में नदी ने श्यामल को काफी तरजीह दी थी। वह अब भी देती है क्योंकि श्यामल अपने गर्म सूट में कभी उत्तमकुमार और कभी-कभी दिलीपकुमार-जैसा प्रतीत होता है। नदी प्रतीत करना चाहती है, करती है लेकिन उस कायदे से नहीं, जिस कायदे से श्यामल या उसकी उम्र के शहरी युवक चाहते हैं। शहरी युवक क्या चाहते हैं? तीन साल तक एक ही लड़की से रोमांस और चौथी साल उसी लड़की से शादी करना चाहते हैं!
सुजानसिंह एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। और तिपाई पर पड़े अखबार को उठाकर यहां-वहां पन्ने पलटने लगा। ...बिहार में अकाल की स्थिति भयानक हो गई है...प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अमरीका के दौरे पर हैं...वेस्टइंडीज की क्रिकेट टीम ने भारतीय टीम को पराजित किया...बहरामपुर में स्कूल-छात्रों ने राशन की सारी दुकानें लूट लीं...आम चुनाव नजदीक है...रीटा फारिया अपने मंगेतर से शादी नहीं करेगी, नागा विद्रोहियों ने यात्रियों से भरी हुई ट्रेन में आग लगा दी...। “अपनी टांग सीधी करो” कहता हुआ कुलबीर थापा आहिस्ते से नदी का पांव खिसकाकर सोफे पर बैठ गया।
“तुम जानवर है! लड़की लोग को तकलीफ देता है,” नदी ने अपने दोनों पांव थापा की गोद में डाल दिए, और एक बेहद नकली और बेहद मीठी अंगड़ाई लेकर नटखट बच्चों की तरह शैतानी-भरी हंसी हंसने लगी। श्यामल ने महसूस किया, उसी को जलाने और कुढ़ाने के लिए नदी ने यह अदा दिखाई है। यह अदा उसकी सबसे प्यारी अदा है। जब भी श्यामल विक्टोरिया-मेमोरियल, या बालीगंज-झील के किनारे किसी खाली बेंच पर, या तरतीबी से तराशी गई हरी-सुनहली घास पर बैठता था, नदी उसकी गोद में अपने टखने डाल देती थी-जीन्स, या ड्रेनपाइप या चुस्त सलवार या चूड़ीदार में कसे हुए सुडौल, लेकिन अमांसल नदी के टखने! श्यामल की सांसें नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे होने लगती थीं। पास से गुजरते हुए अथवा करीब में बैठे हुए लोगों की कतई परवाह नदी को नहीं है। कोई क्या सोचेगा, यह बात वह नहीं सोचती है। वह गाड़ी चलाना चाहेगी, तो भीड़ और ट्राफिक के नियमों की जरा भी चिंता नहीं करेगी। वह हंसना-खिलखिलाना चाहेगी, तो तय नहीं करेगी कि और लोगों पर इसका क्या असर पड़ता है। वह नंगी होना चाहेगी, तो अपने बाथरूम से लेकर अपने ड्राइंगरूम तक कहीं भी किसी वक्त जिस किसी के भी सामने नंगी हो जाएगी, प्राचीन हिंदू-मंदिरों की मूर्तियों की तरह नग्न और लज्जाहीन!
थापा ने नदी के हाथ से कोका कोला की बोतल छीन ली, और अपने मुंह में लगाकर गटगट पीने लगा। सुजानसिंह शरीफ आदमी है, वह इतने से भी नंगेपन में, अर्थात् इतने-से भी खुलेपन में विश्वास नहीं करता है। वह चुपचाप सिर झुकाए हुए अखबारों के पन्ने बदलता रहा। श्यामल ने धीमी आवाज में उससे कहा, “इससे बेहतर होता, हमलोग ट्रिंका-रेस्तरां में चलकर बैठते। वहां एक जिप्सी नाचनेवाली आई है...”
“जी, हां, मुझे पता है। डांसर लड़की का नाम है मिस गोल्डफिश! मुझे बिल्कुल पता है, आज दोपहर वह चटर्जी के यहां लंच पर आई थी। मुझको खुद लेडी ने फोन किया था। मैं लंच पर जाती। मगर गाड़ी मां लेकर चली गई! ...सारा प्रोग्राम उलट गया। मैं गोल्डफिश से जिप्सी-नाच के दो-चार स्टेप सीखना चाहती थी,” नदी ने उदास होकर कहा। फिर उसने अपने दोनों पांव समेट लिए, और पांव में पांव फंसाकर जोगियों-साधुओं के आसन में बैठ गई, “एक सिगरेट पिलाओ, मिस्टर थापा।” सिगरेट का पैकेट और माचिस निकालते हुए, थापा ने बताया, “गाड़ी मैं ले आया हूं। पिताजी वाली वही पुरानी गाड़ी है, ओल्डस्मोबील। जहां कहीं जाने का इरादा हो चलो।”
नदी सोफे से कूदकर कालीन पर खड़ी हो गई, और तालियां बजाती हुई, लगभग नाचने लगी...ट्राट ट्रा-ट्रा-ट्रा ट्राट; ट्राट ट्रा-ट्रा-ट्रा ट्राट! बोली, “जरूर जाएंगे।...पहले क्वालिटी में गरम कॉफी लेंगे। इसके बाद ट्रिंका। लेकिन, श्यामल बाबू, मैं पहले से बता देती हूं एंड वार्न यू। ...मैं व्हिस्की या ब्रांडी, या जिन, या बीयर, कुछ भी नहीं लूंगी। अगर, मैं मूड में आ गई, तुम वही बातचीत शुरू करोगे। इसीलिए, बी केयरफुल। नो व्हिस्की, नो रम, नो साइडर, नो सोडा। मैं सिर्फ कोका कोला लूंगी। क्यों थापा, ठीक है न?” उसने अपनी आंखें उधर कीं।
लेकिन थापा की भारी-भरकम राजशाही गाड़ी में बैठकर ये लोग सीधे ट्रिंका-रेस्तरां में गए। श्रीमती उपाध्याय के लौट आने का इंतजार किसी ने नहीं किया। मां आएगी, तो नौकर उसे बता ही देगा कि श्यामल, थापा और सिंह के साथ बेबी, यानी नदी उपाध्याय चौरंगी गई है, कब तक लौटेगी, कोई ठीक नहीं। ...श्रीमती उपाध्याय अपने पलंग में बैठकर ही रात का भोजन लेंगी, और भोजन के बाद कोई जासूसी किताब या कोई फिल्मी पत्रिका पढ़ती हुई सो जाएंगी। अपनी लड़की पर उन्हें पूरा भरोसा है। किसी भी अंधी सुरंग में, अंधे कुएं में नदी डूब नहीं जाएगी। फिर भी, वे कहती हैं, पता नहीं, लड़की कब क्या कर बैठे।
श्यामल, सुजानसिंह, या थापा-इनमें किसी भी लड़के से नदी स्थायी रिश्ता कायम कर ले, शादी-ब्याह कर ले, श्रीमती उपाध्याय अब भी यही चाहती हैं। इसीलिए किसी चौथे लड़के को वे अपने घर में प्रश्रय नहीं देतीं। शरह के और लड़कों में नदी को संभालने की, बांध रखने की हिम्मत नहीं है। वैसे हिम्मत तो श्यामल के पास भी नहीं है। लेकिन तीनों लड़कों में सबसे ज्यादा आकृष्ट उसी के प्रति है यह औसत भारतीय स्त्रियों की तरह वे चाहती हैं, नदी शांत और अपने रेस्तराओं की जिंदगी में बेहाल नहीं रहे। बेहाल नहीं रहे, तृप्त हो जाए, श्रीमती उपाध्याय यही चाहती हैं।
लेकिन, थापा की भारी-भरकम राजशाही गाड़ी में बैठकर ये लोग सीधे ट्रिंका-रेस्तरां में गए। रेस्तरां में अब तक भीड़ नहीं जीम थी। अभी पार्क-स्ट्रीट की शाम शुरू हुई थी, बहुत देर थी अभी रात के आने में। रात आएगी, रात में बारह बजे के बाद। घड़ी की दोनों सूइयां जब बारह पर आलिंगनबद्ध होती हैं, देश के इस सबसे बड़े शहर के सबसे बड़े-बड़े लोग और सबसे बड़ी-बड़ी स्त्रियां अपनी गाड़ियों से उतरती हैं, और हंसती-खिलखिलाती हुईं, ट्रिंका या सेराजेड या मैक्सिम या मोकंबो या ब्लू-फाक्स या एल-मोक्को, या शेरी या प्रिंस या एंबेसी में दाखिल हो जाती हैं। दिन की मुसीबतों के बाद रात का यह आराम जरूरी है। जरूरी है अपने शरीर और अपने समाज की निरीह सीमाओं को भूल जाना...
भूल जाने के लिए ही श्यामल ने एक बार थापा की ओर अग्रिम कृतज्ञता की दृष्टि से देखा, और बगल में समर्पण की मुद्रा में खड़े बेयरे से कहा, “तीन आदमियों के लिए स्कॉच ले आओ, और एक औरत के लिए...”
“एक औरत के लिए भी स्कॉच,” थापा ने श्यामल की दृष्टि का मतलब समझकर उसके वाक्य को पूरा किया। नदी चीख पड़ी, नहीं, स्कॉच नहीं। मैंने पहले ही वार्न कर दिया है...मैं फकत कोका कोला लूंगी!” लेकिन बेयरा जा चुका था। बेयरा नदी उपाध्याय को जानता है। बेयरा शहर की सारी ऊंची और तेज लड़कियों को जानता है। जानना, और चुप रहना, टिप पाते रहने की एक खास हद तक चुप रहना, उनका पेशा है। इसलिए वह नदी के ‘नहीं‘ कहने पर भी रुका नहीं। वह चला गया, और थोड़ी देर में स्कॉच की भरी-पूरी बोतल और चारों दोस्तों के लिए छोटे-छोटे गिलास लेकर वापस आ गया। साथ में खाने के लिए भुनी हुई मछलियां। भुनी हुई मछली फ्राइड फिश, और सोने की मछली गोल्डफिश...गोल्डफिश अब तक रेस्तरां के हाल में या स्टेज पर नहीं आई थी। स्टेज पर आर्केस्ट्रा बज रहा था। क्लार्नेट और ट्रम्पेट और वायलिन और हार्मोनिका और मेडोलिन पर जिप्सी-संगीत की कोई चटखदार धुन नदी ने टेबुल पर पड़ी स्कॉच की बोतल को देखकर सिर झुका लिया था। रुमाल से वह बार-बार अपनी अंगुलियां पोंछ रही थी। एक साथ कई बातें सोच रही थी वह। स्कॉच उसे पसंद है। लेकिन उसे पसंद नहीं है श्यामल के साथ स्कॉच पीना। पीने के बाद श्यामल सिर्फ अपने प्यार की बातें करता है। नदी का हाथ अपने हाथ में थामकर वह कहता है, “अब तो हमें मिलते-जुलते हुए तीन साल हो गए, नदी डियर! अब और कितने दिनों तक।”
नदी ऊब जाती है। स्कॉच का सारा तमाशा खत्म हो जाता है। इसलिए, नदी स्कॉच नहीं पीएगी। वह कोका कोला पीएगी, और मिस गोल्डफिश के नीचे को, उसके थिरकते हुए पांवों को, उसकी सेक्स-अपील को पकड़ने और हासिल करने की कोशिश करेगी, “हम लोग आज श्रीमती उपाध्याय का पांव ठीक हो जाने की प्रार्थना करते हुए स्कॉच पीते हैं।” सुजानसिंह ने कहा, और अपना गिलास उठा लिया। गिलास में सुनहली व्हिस्की तैर रही थी, और व्हिस्की में तैर रही थी नदी की बड़ी-बड़ी आंखें। अचानक नदी ने खुद भी पीने का फैसला किया, और गिलास उठाकर वह एक ही घूंट में समूचा बड़ा पैग पी गई। ‘थैंक यू‘, श्यामल ने खुश होते हुए कहा। मगर नदी का गला जलने लगा था। बगैर सोडे की सादी व्हिस्की आग की तेज लपट होती है। नदी को लगा जैसे उसका सीना, उसका कलेजा, उसकी गरदन, और उसकी आंखें बिजली के जलते हुए चूल्हे में डाल दी गई हैं। मगर वह बर्दाश्त कर गई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी वह कई बार इसी तरह चूल्हे में डाल दी गई है।
चौथे पैग के बाद मिस गोल्डफिश रेस्तरां में आई। वह अकेली थी, और उसके हाथ में एक जापानी पंखा था। बहुत खूबसूरत दिख रही थी वह, अपनी सुनहली मछलीनुमा पोशाक में, और अपनी अधनंगी अदाओं में। जैसे यह मछली सिर्फ किसी डनलोपिलो बिस्तर में हाथ डालकर सो जाने के लिए पैदा हुई है, यह सुनहली मछली!
“मैं इस औरत से मिलना चाहती हूं, ...आइ वांट टू मीट...,” नदी ने पांचवां गिलास खाली करते हुए, तले हुए अंडे का एक टुकड़ा मुंह में रखते हुए शराब में डूबी हुई आवाज में कहा, और उसने अपनी कुर्सी से उठना भी चाहा। उठकर वह सीधे बाथरूम में जाना चाहती थी। लेकिन वह लड़खड़ा गई। उसने टेबुल का किनारा थामकर अपने शरीर को संभाल लिया, और वापस अपनी कुर्सी में फंस गई।
श्यामल मुस्कराया। सुजानसिंह ने कहा, “तुम उस औरत से मिलना चाहती हो। हमारा श्यामल तुमसे मिलना चाहता है। तुम्हारी मां श्यामल से मिलना चाहती है, थापा तुम्हारी मां से मिलना चाहता है। ...सिर्फ एक मैं हूं, मिस नदी उपाध्याय, जो किसी से मिलना नहीं चाहता, किसी आदमी से नहीं, किसी औरत से नहीं, जो स्कॉच की इस रंगीन बोतल से भी मिलना नहीं चाहता। मैं समझता हूं, मिलना-जुलना एकदम गलत बात है। जो कोई भी रास्ते में मिल जाए, संयोग से मिल जाए, एकदम बाइचांस, सिर्फ उसी से मिलना चाहिए। ...क्यों मिस उपाध्याय...क्यों मिस्टर थापा...मैं ठीक कह रहा हूं न?” इतना कहकर सुजानसिंह जाहिर करना चाहता था कि पांचवें बड़े पैग के बाद भी वह होश में है, और सुजानसिंह जाहिर करना चाहता था कि वह दार्शनिक है, वह वस्तुओं और स्थितियों के विषय में सोचने-समझने की दिमागी हैसियत रखता है।
सुजानसिंह की बात पर श्यामल मुस्कराया। वह काफी इत्मीनान में था, क्योंकि स्कॉच के हर दौर में चौथाई घूंट पीने के बाद अपने भरे हुए गिलास को थापा के खाली गिलास में बदल लिया था। थापा उसकी नीयत नहीं समझ रहा था, लेकिन थापा समझ रहा था कि श्यामल किसी खास नीयत में जरूर है। उसकी नीयत नदी के बारे में है। थापा को इसीलिए श्यामल के भरे हुए गिलासों से अपने खाली गिलास बदलने में कोई एतराज नहीं हुआ। वह नेपाली है। बर्फीली पहाड़ियों और हिल स्टेशनों में उसका बचपन बीता है। स्कॉच कभी उसे बेकाबू नहीं कर पाता। काबू में रहना उसने सीख लिया है। उसकी दोस्ती नदी की मां से है, इसीलिए, नदी से उसकी दोस्ती नहीं है, क्योंकि श्रीमती उपाध्याय काबू में, अपने काबू में रहना जानती हैं।
काबू में नहीं रह पाती है नदी उपाध्याय। महज यह साबित करने के लिए कि वह इस बात में भी थापा या श्यामल या सुजानसिंह से पीछे नहीं रह सकती, महज आंतरिक हीनता को दूर करने के लिए, वह अपने कब्जे में रह नहीं पाती है। वह दुबारा खड़ी होती है, दुबारा लड़खड़ाती है, और दुबारा वापस अपनी कुर्सी पर, बैठी रहती है।
“श्यामल बाबू तुम मुझसे क्या चाहता है?” नदी की दोनों आंखों में सुर्ख लकीरें फैल गई हैं। बालों में बंधा रिबन खुलकर बाएं गाल पर लहराने लगा है। टेबुल पर आगे की ओर झुक आई है। माथे पर पसीने की लगातार बूंदें... सूखे हुए होंठ...लो-कट से बाहर झांकते हुए मक्खन के बड़े गोले जैसे स्तन...नदी ने बाएं हाथ में खाली गिलास पकड़ रखा है, और वह श्यामल की ओर अचल मुद्रा में देखती हुई, बार-बार पूछ रही है, “तुम क्या चाहता है?...मुझसे! ...क्या चाहता है? मैं तुमसे शादी नहीं करना मांगती। शादी मैं तुमसे नहीं करूंगी।...क्यों करूंगी? बताओ तो आखिर, क्यों करूंगी?”
श्यामल शरमा गया। बगल के टेबुल पर बैठे हुए लोग, खासकर मोटी-सी एक औरत, श्यामल की ओर देख रहे थे। श्यामल शरमा गया। हालांकि, वह पूछना चाहता था कि नदी शादी करना नहीं चाहती है, तो वह श्यामल की मां से मिलने क्यों गई थी? लाल रंग की, तीखे लाल रंग की रेशमी साड़ी पहनकर दुल्हन की तरह सोने-चांदी के जेवरों से सिंगार करके क्यों गई थी? लेकिन श्यामल पूछ नहीं पाया। वह शरमाकर चारों गिलास में स्कॉच डालने लगा। इस बार वह स्वयं भी एक पूरा पैग लेना चाहता था। वह चाहता था, स्कॉच की ताकत से ताकतवर होना चाहता था, जानवर बन जाना...वह दरअसल क्या चाहता था, उसे ठीक-ठीक अब तक मालूम नहीं था।
दफ्तर में उसने एक बंगाली स्टेनो लड़की से दोस्ती शुरू कर ली थी। इसलिए वह नदी उपाध्याय के घर में आना नहीं चाहता था। लेकिन थापा की बात उससे टाली नहीं गई। उसे खुद भी इच्छा हुई कि वह नदी से आखिरी बार मुलाकात करे और आखिरी बार उससे अलग हो जाए। नदी ऐसी लड़की थी जिससे ब्याह करके वह कलकत्ता-शहर की ऊंची से ऊंची सोसायटी में प्रवेश पा सकता है। प्रवेश पाना वह चाहता है, अपना बिजनेस शुरू करने के लिए, अपनी फिल्में बनाने के लिए, और अपनी जिंदगी जीने के लिए...
लेकिन नदी तो नदी नहीं है, पत्थर की चट्टान है। वह श्यामल के साथ अपनी कार में डाइमंड हार्बर तक जाती है, और पिघलती नहीं, पत्थर की चट्टान बनी वापस चली आती है। श्यामल उसे चूमता है, तो एतराज नहीं करती, सिर्फ अपने नन्हें-से रुमाल से अपने ताजा होठ पोंछ लेती है। वह शरमाती नहीं। डरती भी नहीं। एतराज भी नहीं करती। लेकिन वह अपनी कार की पिछली सीट से उतरकर मैरेज-रजिस्ट्रार के दफ्तर में जाना नहीं चाहती।
क्यों नहीं चाहती?
क्योंकि अपनी या पराई कार की पिछली सीट पर बैठना उसे अच्छा नहीं लगता। वह स्टीयरिंग का चक्का और हार्न अपने हाथों में थामकर अगली सीट पर दाईं ओर बैठना चाहती है। बैठती भी है। महीना भर पहले श्यामल उसे हुगली के किनारे घुमाने ले गया था, जबकि गाड़ी नदी स्वयं चला रही थी। ईडेन-गार्डेन और आट्रम-घाट से बहुत आगे, ‘मेन-ऑफ-वार‘ जेटी की ढलान पर गाड़ी रोक दी गई। जेटी के इर्द-गिर्द भटकते हुए, शाम को आने वाली कारों का इंतजार करते हुए, मछुओं के तीन-चार लड़के दौड़े आए। कोका कोला की बातलें आ गईं। सिगरेट आ गया। शराब भी आ सकती है-सामने हुगली नदी के अंधेरे में चमकते हुए जहाजों से चोरी-चोरी लाई गई शराब भी आ सकती है। लेकिन शराब नहीं आई। नदी ने मना कर दिया। लेकिन नदी अपनी हिलमैन-गाड़ी की पिछली सीट पर चली आई। श्यामल ने उसे बुला लिया। श्यामल ने कहा, “तुम बहुत ठंडी औरत हो, नदी! यू आर कोल्ड!” नदी हंसने लगी। बोली, “तुमने, श्यामल बाबू, मेरी गरमी कहां देखी है! मैं गरम होती हूं, तो अचानक कोयले के खान की तरह गरम हो जाती हूं।” और यह बोलकर वह गाड़ी की पिछली सीट पर चली आई। उसे मालूम है, हुगली नदी के इस एकांत घाट पर अपनी-पराई गाड़ियों में लदकर लोग सिर्फ गरम और सिर्फ ठंडे होने के लिए आते हैं। यहां इसीलिए आना चाहिए। मगर इससे ज्यादा कोई बात नहीं, रजिस्ट्रार का दफ्तर, फिर भी, हजारों मील दूर है। उसे अब और नजदीक किया नहीं जा सकता। श्यामल पूछता है, “मैं तुम्हारी मां से कहूं?”
“क्या कहोगे?”
“जो तुमसे कहता हूं। और क्या कहूंगा?”
“नहीं!”
“क्यों नहीं!”
“मैं नहीं चाहती हूं, इसलिए तुम मेरी मां से नहीं कहोगे कि तुम मेरे साथ इस गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ चुके हो, इसीलिए तुमसे मेरा ब्याह कर दिया जाए! क्योंकि बैठ चुकना एकदम और बात है, और ब्याह करना एकदम और बात!”
“मैं नहीं मानता।”
“क्यों?”
“क्योंकि, दोनों एक ही बात है।”
“नहीं!”
“क्यों नहीं?”
“इसलिए कि इस गाड़ी की पिछली सीट पर सिर्फ हम और तुम, सिर्फ दो लोग बैठे हुए हैं। लेकिन ब्याह के बाद सिर्फ दो लोग नहीं रहेंगे। सैकड़ों लोग हो जाएंगे। तुम्हारी मां, और मेरी मां तुम्हारे पिताजी, तुम्हारा अंकल लोग, तुम्हारी बहनें, तुम्हारे भाई, और इतना लंबा-चौड़ा यह समाज! इन सारे लोगों की हमेशा-हमेशा की मौजूदगी के कारण हम जब तक जी चाहे, जब तक चाहे हुगली के इस घाट पर या पार्कस्ट्रीट के किसी रेस्तरां में, या कहीं और बैठे नहीं रह सकेंगे।”
“लेकिन, मैं तुम्हें अपनी बीवी बनाना चाहता हूं।”
“मुझसे नहीं होगा।”
“क्यों नहीं।”
“बस, मेरी मर्जी नहीं है।”
“अच्छी बात है, मर्जी नहीं है, तो अब मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा।”
“नहीं आओगे?”
मेन ऑफ वार जेटी की उस शाम के बाद आज पहली बार श्यामल नदी के घर गया था। नदी उसे अपने घर में देखकर आश्चर्यचकित नहीं हुई थी। न ही उसने श्यामल का मजाक उड़ाना चाहा था। वह लगभग भूल गई थी कि श्यामल ने उसक घर नहीं आने का वादा किया है। लेकिन आज इस ट्रिंका रेस्तरां में, स्कॉच के पांचवें या छठे या सातवें या दसवें पैग के बाद नदी को अपने जीवन का बीता हुआ सारा कुछ याद आ रहा है... एक-एक क्षण पिताजी की मृत्यु के बाद कैसे उसकी मां ने अपनी और उसकी रक्षा की है...कैसे कमलावती स्कूल शुरू किया गया...किस तरह परिवार के शुभचिंतकों ने श्रीमती उपाध्याय के लंगड़ेपन का और बेहद तेजी से बड़ी होती हुई अपनी लड़की का और अपनी गाड़ी, अपने ड्राइंगरूम अपनी बोलचाल की मिठास का जायज और ज्यादातर नाजायज फायदा उठाया है...और अब क्यों उसकी मां चाहती है? श्यामल क्यों चाहता है? कमला किस फायदे के लिए? धीरे-धीरे नदी के दिमाग में उभरती हुई पुरानी यादें और नई घटनाएं धुंधली पड़ती गईं...धुंधली पड़ती गईं। और स्कॉच की नीली गहराई में पर्त-दर-पर्त डूबने लगी।
डूबती गई यह नदी? ...गोल्डफिश अब स्टेज पर गई थी, आर्केस्ट्रा अपने पूरे उभार पर था। समूचा रेस्तरां शोर-गुल, बातचीत और सिगरेट के धुएं में डूबा जा रहा था। भीड़ का कहीं अंत नहीं था। कितने ही लोग टेबुलों की कतारों के बीच यहां-वहां खड़े थे, और हाथ में बीयर, या ह्विस्की या कम-से-कम कोका कोलाका गिलास थामे हुए इस जिप्सी नाचने वाली का इंतजार कर रहे थे। थापा अपनी कुर्सी घुमाकर बगल के टेबुल पर बैठे हुए अपने किसी परिचित से बातें कर रहा था। सुजानसिंह आर्केस्ट्रा के सुर में सुर मिलाकर पमेला मिडवार्ड का एक गीत गुनगुना रहा था:
आइ वीप आइ वीप आइ वीप
व्हेन यू लोअर माई स्कर्ट
व्हेन यू वाश अप द डर्ट
हाउ मच पेशेन्स आइ कीप
आइ स्लीप आइ स्लीप आइ स्लीप
आइ वीप आइ वीप,
श्यामल ने बेयरे द्वारा लाए गए बिल का एक स्लिप उठाया। सुजानसिंह ने अंगरेजी गीत को हिन्दी में लिख लिया, और थापा की ओर बढ़ा दिया:
मैं रोती हूं रोती हूं रोती हूं
जब तुम खींचते हो मेरा लिफाफा
जब तुम धोते हो अपना साफा
मैं अपना धीरज नहीं खोती हूं
मैं सोती हूं सोती हूं सोती हूं
मैं रोती हूं रोती हूं
थापा गीत की एक-एक पंक्ति जोर-जोर से पढ़कर अपने पड़ोसियों को सुनाने लगा। गीत की धुन में और आर्केस्ट्रा की उत्तेजक स्वर लहरी में कोई फर्क नहीं था। सारा वातावरण के अनुकूल ही था। “मैं अपना धीरज नहीं खोती हूं”, तीसरी बार जब थापा अपनी बगल में बैठी हुई नदी की ओर मुखातिब होकर सुनाने लगा, तो नदी चौंकी। नदी ने चौंककर वह कागज थापा के हाथ से छीन लिया, और खुद पढ़ने की कोशिश करने लगी, “जब तुम खींचते हो मेरा लिफाफा मैं रोती हूं रोती हूं रोती हूं।” लेकिन वह पूरा गीत पढ़ नहीं सकी। उसका सिर चकराने लगा। उसे लगा कि उसका सब धीरज टूट गया है। उसे लगा कि वह सचमुच पत्थर की चट्टान के भीतर रुकी हुई नदी है, और उसे लगा कि अब चट्टान फट जाएगी, और वह नदी की तरह वह बह निकलेगी।
व्हेन यू ओलर माइ स्कर्ट
जब तुम खींचते हो मेरा लिफाफा
हाउ मच पेशेन्स आइ कीप
मैं अपना धीरज नहीं खोती हूं
आइ वीप आइ वीप
मैं रोती हूं मैं रोती हूं
सुजानसिंह के इस गलत गीत के गलत अनुवाद में श्यामल को बड़ा मजा आ रहा था, और कुलवीर थापा को बड़ा मजा आ रहा था, और ‘आइ वीप‘ की धुन में सुजानसिंह अपना सिर हिलाता हुआ टेबुल पर अंगुलियों की थाप लगा रहा था। लेकिन नदी को महसूस हुआ कि वह नदी की तरह बह निकलेगी। अब रुकेगी नहीं। उसकी आंखों में ट्रिंका-रेस्तरां का समूचा हॉल भूकंप के लगातार धक्कों से हिल रहा था। और स्टेज से लेकर बरामदे तक के सारे लोग, आर्केस्ट्रा के लोग, बेयरे, पैंट्री के लोग, मिस गोल्डफिश, और उदार, दर्शनीय, अधखुली देशी-विदेशी पोशाकों में सजी हुई सारी औरतें चीख रही थीं, चीखती जा रही थीं, “मैं रोती हूं, रोती हूं!” जब पहली बार नदी अपनी हिलमैन कार में बैठकर अकेली अपनी कोठी से निकल रही थी, आज से लगभग चार साल पहले, श्रीमती उपाध्याय ने उसके बालों में हाथ फेरते हुए कहा था, “और जो कुछ करोगी, मगर मर्दों के साथ बैठकर व्हिस्की नहीं पीओगी! और चाहे जो कुछ करोगी!” श्यामल अपना बायां हाथ नदी की दाईं जांघ पर क्यों सहला रहा है? सुजानसिंह पास खड़े बेयरे का कमरबंद पकड़कर उसे क्या समझा रहा है? गाड़ी कहां है? नदी की हिलमैन गाड़ी कहां है? मां कहां चली गई? अब तक क्यों नहीं लौट आई है वह? मिस गोल्डफिश, मिस सुनहली मछली, तुम नदी के पास क्यों नहीं आती हो? क्यों नहीं उसकी बाहों में बांहें डालकर उसे फॉक्सट्राट, या सम्बा-सम्बा, या अपने जिप्सी नाच के कदमों, और तिहाइयों, और चक्करों में क्यों नहीं घुमाती हो? पापा...कर्नल पापा, तुम क्यों मर गए? तुमने गाड़ी चलाते हुए मां को चूमना क्यों शुरू किया कि गाड़ी दरख्त से टकरा गई? इस रेस्तरां में इतना अंधेरा क्यों है? थापा कहां गया? श्यामल का बायां हाथ कहां चला गया? सुजानसिंह, मुझे अपनी गाड़ी की अगली सीट पर बैठा दो, सुजानसिंह! गाड़ी में बैठते ही मैं ठीक हो जाऊंगी। एकदम ठीक हो जाऊंगी। मुझे हुआ क्या है? मेरी आंखों को क्या हो गया? हर चीज नीली ही नीली क्यों दिखती है? क्यों दिखती है? क्यों? मैं नदी उपाध्याय उम्र इक्कीस साल पांच महीने तेरह दिन, मैं रो दूंगी। एकदम रो दूंगी, मैं आइ वीप, आइ वीप आइ वीप!
नदी उपाध्याय ने अपनी दोनों बांहें सामने टेबुल पर फैला दीं और भुनी हुई मछलियों के खाली प्लेट पर सिर डालकर सो गई। टेबुल पर पड़े हुए गिलास, प्लेट, क्वार्टर प्लेट, कांटे, चम्मच, और स्कॉच की बोतल, नीचे फर्श पर बिखर गईं सारी आसपास के टेबुलों के लोग मगर जरा भी चौंके नहीं। वे लोग पिछले दो घंटों से इस टेबुल का तमाशा देख रहे थे, जबकि किसी-न-किसी टेबुल पर ऐसा ही कोई-न-कोई तमाशा हर रात होता है। हर रात एक न एक नदी बहती है नदी बह जाती है ...शराब में या नंगेपन में या मूर्खतापूर्ण साहस में डूबी हुई नर मांस और पैसों की भूखी कोई नदी! नदी खाली प्लेट पर सिर डालकर सो गई, और जुकाम से बोझिल, भारी सांस के जोरदार खर्राटे लेने लगी। थापा ने हीनता और अपमान से लज्जित होते हुए अपने होंठ सिकोड़ लिए, और आकस्मिक डर का प्रदर्शन करते हुए पूछा, “अब क्या होगा?”
“अब क्या होगा?” अपना गाना और गुनगुनाना रोककर सुजानसिंह ने पूछा। श्यामल ने कुछ पूछा नहीं, चुपचाप टेबुल पर गिलास में पड़े हुए बिल उठाकर पैसे गिनने लगा। एक बिल अब भी नदी की अंगुलियों में फंसा हुआ था। श्यामल ने उसे भी खींच लिया। ज्यादा नहीं अब तक कुल एक सौ अट्ठासी रुपए और कुछ पैसे खर्च हुए। थापा और सुजानसिंह फटी-फटी निगाहों से श्यामल की ओर देख रहे थे, वह क्या कर रहा है, और वह क्या करना चाहता है? यह सारा तमाशा श्यामल ने ही खड़ा किया है, इसलिए वह जो करेगा, वही करेगा।
अंत तक उसी ने किया। उसने बेयरे को बुलाकर बिल के पैसे चुकाए, और दस रुपए का लंबा टिप भी दिया, फिर खड़े होकर उसने बेयरे के कानों के पास मुंह ले जाकर नदी के बारे में कोई बात उसने कही। बेयरा समझ गया। बोला, “जी हां हुजूर, आप जो कहते हैं, वही होगा।” सुजानसिंह समझ नहीं सका कि श्यामल क्या करना चाहता है। उसने दुबारा अपना सवाल दुहराया “अब क्या होगा, श्यामल?”
“अब क्या होगा? अब कुछ नहीं होगा। हम लोग अपने-अपने घर जाएंगे, या थापा की गाड़ी में बैठकर सारी रात खिदिरपुर रोड पर घूमते रहेंगे, या फिर फ्री-स्कूल स्ट्रीट के किसी प्राइवेट मकान में बैठकर शराब पिएंगे और एंग्लो-इंडियन लड़कियों को समझाते रहेंगे कि हमलोग इस बात को मानते हैं कि ईसा मसीह का पुनर्जन्म होगा, और समूची यह दुनिया स्वर्ग बन जाएगी, दरअसल हमलोग अपने तई इस बात की पूरी कोशिश कर रहे हैं,” श्यामल ने कहा, और पांवों में जूते डालकर रेस्तरां से निकल चलने की तैयारी करने लगा। तीसरे पैग के बाद जूते उतारकर वह आसन लगाकर कुर्सी पर बैठ गया था। जब पांवों में जूते डालते वक्त उसने महसूस किया कि उसके पांवों में कांटे चुभ रहे हैं-मछलियों के कांटे। यह मजाक नदी ने किया था। उसी ने खाई गई भुनी हुई मछलियों के कांटे श्यामल के जूतों में डाले थे। मगर श्यामल ने कांटों की परवाह नहीं कीं जूते पहनकर वह बोला, “अब चलो, दोस्तों! कहीं और चलें।”
“लेकिन, नदी को इसी तरह यहीं छोड़कर चले जाओगे?”
“हां, छोड़कर चले जाएंगे।”
“क्यों?”
“इसलिए कि वह सो गई है। सोए हुए को जगाना अच्छी बात नहीं।”
“तुम यही फैसला करते हो?”
“हां! यह मेरा निजी मामला है, और मैं यही फैसला करता हूं।”
“ठीक है! चलो।”
थापा और श्यामल की यह बातचीत सुनकर सुजानसिंह को आश्चर्य हुआ कि थापा इस हालत में नदी को यहां अकेले छोड़ देने को तैयार कैसे हो गया है।
लेकिन उसने कोई सवाल-जवाब नहीं किया, और वह चुपचाप श्यामल और थापा के पीछे-पीछे, भीड़ से बचता हुआ, और भीड़ से टकराता हुआ ट्रिंका-रेस्तरां से बाहर आ गया, पार्कस्ट्रीट के सबसे रंगीन बरामदे में चला आया।
तीनों दोस्त चुपचाप ओल्डस्मोबील की अगली सीट पर बैठ गए। श्यामल ने कहा, “थापा साहब, गाड़ी फ्री-स्कूल-स्ट्रीट में ले चलो।”
-नीहारिका, जुलाई 1967