नदी / सुधाकर अदीब

Gadya Kosh से
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नदी खामोश थी। वह बड़ी गहरी थी। अधिकतर - गूँगापन उसका पुराना स्वभाव था। नदी में अनेक स्थलों पर खतरनाक भँवरें भी थीं जो कभी-कभी असावधान स्नानार्थी और कभी-कभी चालाक से चालाक तैराक को भी लील जाती थीं। डूबने की ऐसी दुर्घटनाओं पर यदि अभागे मृतक के परिवारवाले भाग्यशाली हुए तो खोजबीन करने पर उन्हें डूबनेवाले का शव कुछ किलोमीटर के फासले पर आगे रेत के किसी ढूह पर अथवा नदी तट से लगा हुआ मिल जाया करता था। बहुत से मामलों में अंतिम संस्कार का अवसर ही हाथ न लगता था।

नदी अपने किनारे के पक्के घाटों और वहाँ मौजूद घंटा ध्वनि करते हुए छोटे-बड़े मंदिरों पर उचटता हुआ दृष्टिपात करते हुए नित्यप्रति बहा करती थी।

नगर क्षेत्र के नालों तथा उद्योग-धंधों के प्रदूषित उत्प्रवाहों को निरंतर झेलते रह कर भी उदार बने रहना उसकी आदत में शुमार हो चला था।

नए घाट की पक्की सीढ़ियों पर पंडों का साम्राज्य था। वह स्नानार्थियों को तिलक-चंदन करके, नाम-गोत्र पूछ कर बछिया की पूँछ पकड़ा कर, दान-दक्षिणा वसूल कर उन्हें इहलोक के साथ-साथ परलोक को भी सुधार लेने का पुण्यलाभ प्रायः जबरदस्ती दे दिया करते थे। ...प्रतिदिन एक बछिया की पूँछ सैकड़ों लोगों को पकड़ाई जाती। नदी सोचती थी कि परलोक में आखिर एक बछिया बिचारी कितने सहस्र लोगों को वैतरणी पार कराएगी? ...अपनी जलधार में फूलों को विसर्जित करते भक्तों को देख कर नदी का ध्यान बँट जाता और वह फिर से आगे की दिशा में पहले-जैसी बहने लगती।

नदी के चौड़े सीने पर इस पार से उस पार तक बुलंदियों को छूता हुआ एक किलोमीटर लंबा पुल था जो कि अपने-आप में एक अलग आकर्षण का केंद्र था। यह पुल उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल को उसके मध्य भाग से जोड़ता था। चौबीसों घंटे भारी-मझोले- छोटे वाहनों का उस पर आवागमन जारी रहता। रात के समय जब सभी घाट सूने होते और नदी अंधकार में डूबी अलसाई हुई सी बहती होती, उस समय पुल पार से आनेवाली गाड़ियों की स्थानीय पुलिसवाले विशेष चेकिंग करते। कहीं किसी ट्रक में स्मगलिंग का माल तो नहीं जा रहा है? किसी कार में बदमाश तो नहीं सवार हैं? ...इस तरह रात के अँधेरे में दुनिया भर का कारोबार मस्ती के साथ चला करता।

वर्षाकाल में नदी उधराने लगती। उसका जलस्तर ऊँचा होता जाता। वह अपना पाट चौड़ा करती जाती। नदी किनारे के गाँव के गाँव तब जलप्लावित होने लगते। ...नदी जब पुल के निकट लगा खतरे का निशान पार करती तो दूर-दूर तक नदी के इस किनारे के गाँव जलमग्न हो जाते। लोगों के झोंपड़े बह जाते। लोग सुरक्षित ठिकानों की तलाश में भागते। स्त्रियाँ-पुरुष बच्चे सब। वे सब लोग उन दिनों उपरहार की भूमि की ओर परिवार सहित... गाय-गोरू, भैंस-बकरी, तोता-मैना के पिंजड़ों सहित भाग कर निकल आते।

उनमें से कुछ लोग फिर भी अपना घर-दुवार न छोड़ पाते और वहीं बंदरों की तरह पेड़ों पर चढ़ जाते। पेड़ों पर मचान डाल लेते। और नदी का जलस्तर नीचे उतरने की वहीं से कई-कई दिनों तक मनौतियाँ मनाते और प्रतीक्षा करते।

उन दिनों बाढ़-राहत कार्य के लिए उस जलमग्न-क्षेत्र में कई मछुआरों की नावों का सरकारीकरण हो जाता। लेखपाल उन नावों में लाल झंडा लगवा देते और अपने पास केवटों का लेखाजोखा रखते। इस प्रकार बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के लोगों को सवारी की मुफ्त सुविधा सरकार की ओर से मिल जाती। जलप्लावन से तबाह होनेवाले घरों के पुनर्निर्माण की खातिर आँसू पोंछने के लिए कुछ सरकारी रकम भी बाढ़ प्रभावित लोगों को दी जाती। रकम बाँटनेवाला अमला भी उससे कुछ-न-कुछ लाभ उठता। बर्बाद हो चुकी खेतीपाती का कुछ पुरसाहाल फिर भी न हो पाता।

सरकार भी सालों-साल आने वाली इस नदी प्रेरित बाढ़ से तंग आ चुकी थी। इसलिए जिला प्रशासन की सिफारिश पर एक दिन सरकार ने नदी के किनारे इस बाढ़-प्रभावित इलाके को हर साल नदी के प्रकोप से बचाने हेतु एक कच्चा तटबंध बनाने की योजना को स्वीकृति दे दी। और तटबंध बनने लगा...

इधर नदी अपनी ही मौजों में व्यस्त रहा करती। वह हर घटना और गतिविधि का अपने हृदय की गहराइयों तक मजा लिया करती।

मछुवारे जब अपनी लकड़ी की कमजोर नावों पर सवार हो कर अपने जाल नदी की छाती पर फेंकते तो वह टुकुर-टुकुर उनकी हरकतों को निहारती।

मछुआरों के जालों में फँस कर तड़पती हुई मछलियों से उसे सहानुभूति होती। किंतु साथ में वह दुविधा भी होती कि ये गरीब अगर ऐसा नहीं करेंगे तो बेचारे जिएँगे कैसे? आखेट तो उनकी जीविका है। ...नदी यह भी सोचती कि अगर उसने उनके उस दैनिक-अभियान में रोड़े अटका दिए तो फिर उसके समक्ष मनुष्य की इस जिंदा रहने की कवायद का यह अनोखा नजारा भी समाप्त हो जायेगा। कदाचित नदी मनुष्य को अपने से कटा हुआ भी नहीं देखना चाहती थी।

निषाद समुदाय के छोटे-छोटे बच्चे नदी के घाटों के किनारे गोताखोरी कर श्रद्धालुओं के फेंके हुए पैसे नदी की बलुहा तलहटी से उठा कर अपनी लँगोटी में जमा करते रहते। उनकी यह हरकत भी नदी के लिए कौतूहल का विषय हुआ करती। वे बच्चे गोताखोरी के ठेकेदार को आधा पैसा दे देते और जान पर खेल कर नित्यप्रति अपने कर्तव्यपथ पर डटे रहते।

नदी उन शिकारी चिड़ियों पर भी अपनी पैनी निगाह गड़ाए रहती जो उसकी सतह पर उभरनेवाली छोटी-छोटी मछलियों पर झपट कर उन्हें अपनी चोंच में उठा कर फिर से ऊपर उड़ जातीं। जीव-जंतुओं का यह खेल भी उसके लिए काफी दिलचस्प होता।

नदी इधर अपनी अठखेलियों में और जीवन-जगत के सामान्य कार्य-व्यापार के अवलोकन में मगन थी और उधर बाढ़-नियंत्रण-विभाग के अभियंताओं के द्वारा उसके दाहिने पार्श्व पर एक लंबे तटबंध का निर्माण जोर-शोर से जारी था।

पंडे चंदन घिस रहे थे। ...मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। ...मंदिरों में घंटे बज रहे थे। ...घाटों-बाजारों में दुकानदार लइया-चना-रामदाना-जलेबी-नमकीन बेच रहे थे। ...श्मशान घाटों में शवदाह हो रहे थे। ...घरों में नए शिशु जन्म ले रहे थे। इन्हीं सबके बीच एक दिन करोड़ों रुपयों की लागत से कच्ची मिट्टी का तटबंध बन कर तैयार हो गया।

तटबंध को नदी की धार से सुरक्षित रखने के लिए उससे सटा कर नदी की ओर काफी दूर तक पत्थरों के बोल्डर डाल कर कटर्स बनाए गए थे। यह कटर्स नदी की धार को विचलित करके तटबंध से दूर करते थे।

विज्ञान ने प्रकृति पर विजय पाना चाहा। यह विजय उसे कुछ वर्षों के लिए मिल भी गई। नदी तटबंध से हट कर लगभग आधा किलोमीटर दूर चली गई और इस ओर रेत के ढूहों का भारी खजाना छोड़ गई। तब नदी बाढ़ के दिनों में अपने दूसरे सिरे पर स्थित जिले के गाँवों को अपना निशाना बनाने लगी।

इधर इस तटबंधवाले जिले के बालू के ठेकेदारों की चाँदी हो गई। नदी की छोड़ी हुई धवल रेत को वह अपने ट्रकों और ट्रैक्टर-ट्रालियों में भर-भर कर बेंचने लगे। इस प्रकार ठेकेदारों द्वारा की जा रही खुदाई से नदी की तलहटी में बड़े-बड़े गहवर पुनः स्थापित होने लगे।...

नदी सारा तमाशा खामोशी के साथ देख रही थी। तटबंध पर बने बाँस और फूस के झोंपड़ों में ठेकेदार, अफसर, पुलिसवाले यदाकदा पिकनिक मनाते वहीं दाल-बाटी-चोखा और कभी-कभी मुर्गा-मुर्गी पकते। शाम को सोमरस की छनाई चलती। मोटर साइकिलें और जीपें धूल उड़ाती तटबंध के मुआयने के लिए घूमतीं। ...इसी बीच उधर दूसरे छोर पर उस जिलेवाले अपना एक नया तटबंध बनाने में लगे थे। वहाँ के बिचौलिए भी अपनी जेबें भर रहे थे।

नदी को यह सब अधिक दिनों तब बर्दाश्त नहीं हुआ। आखिरकार उसने सभी को एकसाथ सबक सिखाने का फैसला कर लिया।

इस साल भारी वर्षा के चलते उसने तड़प कर इस पुराने तटबंध पर हमला बोल दिया। कटर-बोल्डर्स सब बह गए। क्रेटस-डाल कर ढहते हुए तटबंध को यहाँ-वहाँ के बचाने के लिए बाढ़ नियंत्रण विभागवालों के सभी युद्धस्तरीय प्रयास भी विफल हो गए। अब नदी के मिजाज ने प्रचंड रूप धारण कर लिया था। उसकी निर्मम धारा ने तटबंध पर प्रहरी की भाँति सैकड़ों कद्दावर पेड़ों को भी देखते यों उखाड़ दिया जैसे त्वचा पर उगे हुए बालों को कोई तेज-ब्लेड, जड़ से काट डालता है। समूचे तटबंध को लील कर नदी दर्जनों गाँवों के भीतर घुस गई। चारों ओर हाहाकार मच गया। प्रकृति एक बार फिर विज्ञान को मुँह चिढ़ाने लगी।