ननद भौजाई / राजकमल चौधरी
पदुमा बहुत दुखी और अत्यंत चिंतित-सी आंगन में आई। आंखों में अपराध और पश्चाताप की सलज्ज रेखा थी। अपनी भौजी से बिना कुछ बोले ही, पूरब की कोठरी में घुस गई। रसोई घर से भौजी ने पूछा, “लाल दाई हैं क्या?”
बिना कोई उत्तर दिए, पदुमा आईना-कंघी लेकर घर से बाहर आई और आंगन में रखी चटाई पर बैठ गई, अत्यंत उदास-सी।
पसीने से भींगे मुंह को आंचल से पोछती हुई रामगंजवाली, रसोई घर से बाहर हुई और ननद के उदास नेत्र, शिथिल चेष्टा और झुके मस्तक देखकर सन्न हो गई, ‘रुपए-आठ आने भी नहीं मिले क्या?‘
नजदीक आकर, बड़े स्नेह से पदुमा के मस्तक पर हाथ फेरती, रामगंजवाली बोली, “क्यों भई? इस तरह मन क्यों दुखी है? बंगट बाबू से भेंट नहीं हुई क्या?”
"नहीं भौजी, ऐसी बात नहीं है! बंगट से तो भेंट हुई थी, दो रुपए भी दिए हैं, लेकिन एक विचित्र बात हो गई। ओह अनर्थ हो गया, भौजी! मैं आपसे क्या कहूं!” -सूखे होठों को जीभ से चाटती हुई पदुमा बोली।
आंचल में बंधे एक रुपए के दो नोट निकालकर पदुमा ने भौजी के हाथ में रख दिए। भौजी की चिंता समाप्त हुई-अब कुछ भी हो। हाथ में दो रुपए हैं, तब कौन चिंता, किस बात की चिंता?
पदुमा और पदुमा की भौजी-दोनों विधवा हैं। पदुमा की उम्र तेईस-चौबीस, रामगंजवाली की बत्तीस-तैंतीस। और दोनों निस्संतान, दोनों स्वाधीन प्रकृति की।
पदुमा का गांव, वनग्राम बहुत विशाल गांव है। गांव में हाईस्कूल, थाना, पोस्ट ऑफिस, अस्पताल और हाट-बाजार। इसीलिए इन दो विधवा ब्राह्मणियों का जीवन-निर्वाह कोई बड़ी बात नहीं है। दो हजार घर की इस बस्ती में दो सौ बंगट अवश्य ही हैं।
लेकिन फिर भी आज रात पदुमा बहुत दुखिता थी। भौजी ने फिर पूछा, “लाल दाई! आप बहुत बच्चों की तरह करती हैं। इस तरह काम नहीं चलेगा। मुझे बताइए, क्या हुआ है। कहीं रास्ते में थानावालों ने तो नहीं पकड़ लिया? आज-कल रात-भर सिपाही लोग गाछियों-बगीचियों में ही भटकते रहते हैं।”
“किस सिपाही की मजाल है कि मुझे पकड़ेगा। मुझे क्या दरोगा साहब नहीं पहचानते हैं? मैं आपको कैसे कहूं कि क्या हुआ है, भौजी! यही समझिए कि मैं जीवित नहीं हूं! मर गई हूं।”
भौजी हंस पड़ीं, “यह तो समझी कि आप मर गईं! लेकिन, यह कहिए कि किसने मारा, कैसे मरीं।”
तब, पदुमा ने अपनी रात्रि-कथा प्रारंभ की-
“मंदिर के पास ही बंगट मिल गया। मंदिर के पिछवाड़े में ले जाकर मैंने कहा, ‘ओए बंगट, पांच रुपए चाहिए।‘ वह बोला, ‘तुम भुतही गाछी की ओर चलो, मैं रुपए लेकर आता हूं।‘ मंदिर में और कुछ करने का साहस नहीं हुआ उसे। मैं भुतही गाछी में पाकड़ के पेड़ के नीचे खड़ी-खड़ी उसका रास्ता देखती रही। बहुत देर बाद बंगट आया। मेरे ब्लाउज में दो रुपए खोंस दिए और हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘अभी दो ही रुपए हुए। बाकी तीन अलस्सुबह आकर दे दूंगा।‘ और फिर काफी दे तक चुम्मा-चाटी लेता रहा। मैं हड़बड़ाई हुई थी कि अधिक देर हो जाएगी तो भौजी बिगड़ेंगी, लेकिन वह छोड़ता ही नहीं था। कभी बांहों में भर ले, कभी और ही कुछ करे। फिर मेरा मन भी अपने काबू में नहीं रहा। लगा जैसे समूची गाछी झूला बन गई हो और मैं बंगट के साथ आकाश में उड़ी जा रही हूं।”
अकस्मात पदुमा को बांहों में भरकर जोर से दबाती हुई रामगंजवाली बोलीं, “लाल दाई, बात को इतना मत छितराइए। यह कहिए कि फिर क्या हुआ?”
पदुमा कहती रही, “तब बंगट ने मुझे निर्वस्त्र कर दिया। मुझे तो समझ लीजिए कोई होश ही नहीं थे। लेकिन, इतने में जोर-जोर से गीत गाता एक सिपाही गाछी में घुसा। सिपाही को देखते ही बंगट उसी अवस्था में मुझे छोड़कर भागा। मुझसे रह नहीं गया। कैसा भीरु था वह। मैं भी बंगट के पीछे-पीछे दौड़ी। लेकिन वह तो अंधेरी गाछी में अदृश्य हो गया। लाख खोजूं, मिले ही नहीं। एक-दो बार नाम लेकर भी चिल्लाई, कोई पता नहीं। वह सिपहिया तो अपना रास्ता पकड़े चला गया था और मैं गाछी-गाछी ही भटकती रही। बहुत देर बाद कहीं से बंगट चिल्लाया, ‘पदुमा! अरी ओ पदुमा! दौड़ी री!‘ जिधर से बंगट के शब्द आए थे, उधर ही दौड़ी। देखती हूं, एक गाछ के नीचे बंगट नंगा पड़ा है, छटपटा रहा है, चिचिया रहा है। लेकिन, भौजी मैं तो जैसे भांग खाई मस्त थी। चांदनी रात में बंगट की समूची देह, सारे अंग एक बारगी देखकर नहीं रहा गया। रत्ती-भर भी होश नहीं रहा कि कहां हूं, क्या कर रही हूं, क्यों कर रही हूं। इससे अधिक क्या कहूं, भौजी, इसके बाद क्या हुआ वह अभी भी याद नहीं आता है। लेकिन, जब होश आया तो देखती हूं कि बंगट नहीं है, मात्र उसका शरीर ही है।”
“बाप रे !” - रामगंजवाली चिल्लाई।
पदुमा भी चिल्लाई, “भौजी, बंगट को सांप ने काट लिया था, इसीलिए वह मेरा नाम लेकर चिल्लाया था। भौजी, मैं मरे हुए व्यक्ति के साथ सोई, अब कैसे बचूंगी!”
पदुमा रोने लगी। बहुत देर तक रोती रही।
तब भौजी ने कहा, “लाल दाई, जाइए, तालाब से नहा आइए और देह पर गंगाजल छींट लीजिए। और कर ही क्या सकती हैं। जब जीवित पुरुष के साथ सोने में कोई लाज नहीं, तो मृत पुरुष से क्या लाज?”
पदुमा उठकर नहाने हेतु विदा हो गई।
मूल मैथिली से अनूदित वैदेही, जून 1960