नन्हा बहादुर / ओमप्रकाश कश्यप

Gadya Kosh से
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आजकल हरे-भरे जंगल दिखते कहां हैं! पर वह सचमुच का हरा-भरा जंगल था. ऐसा ही जैसा उसको होना चाहिए था. शांत, शीतल और हरा-भरा. मगर शांत होने का मतलब यह नहीं कि शेर वहां दहाड़ते नहीं थे; या चिड़िया चोंच सिये रहती थीं. असल में वहां शेर भी दहाड़ते थे और चिड़िया मग्न-मन खूब फुदकती-चहचहाती थीं. वही क्यों, नदी भी वहां गाती-गुनगुनाती थी—कल-कल-कल-कल. पर वे सब अपने-अपने काम में मग्न रहते थे. पेट भरने को शेर यूं तो शिकार भी करता और लोमड़ी कभी न कभी धूत्र्तता दिखा ही जाती थी. लेकिन इतने-भर से उस हरे-भरे जंगल का जीवन बाधित नहीं होता था. वह हमेशा हरा-भरा और तरोताजा बना रहता. ठीक ऐसे ही जैसे किसी जंगल को होना चाहिए.

उस जंगल में एक नन्हा खरगोश रहता था. उसके थे बड़े-बड़े कान. अपने कानों पर खरगोश को था, ढेर-सा गुमान. वह जिससे भी मिलता यही कहता—

‘मेरे कान देखे, सफेदी में ये चांद को भी मात कर सकते हैं. और मुलायम इतने कि…’

‘कितने जी?’ कभी-कभी सामने वाला भी उसकी बातों में रस लेने लगता. पर उसके मजाक को पकड़ पाना नन्हे खरगोश की समझ से बाहर होता.

‘जैसे कि ढाक के फूल!’ नन्हा खरगोश झट से जवाब देता. दरअसल गरमी के दिनों में हवा में तैरते ढाक के फूल उसको बड़े ही लुभावने लगते थे. उनका पीछा करते हुए वह दूर तक चला जाता था. यहां तक कि आगा-पीछा, सुध-बुध सब बिसरा देता. ऐसे ही एक बार वह हवा में तैरते एक फूल से आंख-मिचैनी खेल रहा था. उसकी आंखों के ठीक सामने गेंद जितना बड़ा और गुबारे की तरह फूला हुए ढाक का फूल हवा में तैर रहा था. कभी वह ऊपर जाता, कभी नीचे. कभी-कभी तो इतना ऊपर चला जाता कि आंखों से ओझल ही हो जाता. उसके अगले ही पल वह नीचे उतर आता. उस समय नन्हे खरगोश को लगता कि बस पंजे में अब आया कि तब. लेकिन उसकी पकड़ में आने से पहले ही फूल हवा हो जाता था.

फूल का पीछा करते हुए नन्हा खरगोश खुद को पूरी तरह बिसरा चुका था. उसको यह भी ध्यान नहीं था कि शैतान भेड़िया जाने कब से उसके पीछे घात लगाए है. अवसर देख भेड़िया उसपर झपटने ही वाला था कि उसके कदमों की हल्की-सी आहट ने खरगोश को चैंका दिया. फिर तो समझते देर न लगी कि भेड़िया के रूप में मौत उसके पीछे पड़ी है. नन्हा खरगोश खूब तेज दौड़ता था. उसके साथी खरगोशों में इतना सामथ्र्य न था कि उसे दौड़ में पछाड़ सकें. मगर भेड़िया भी कम न था. उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश में नन्हा खरगोश एक झाड़ी में ऐसा घुसा कि बात जान पर बन आई. झाड़ी के लंबे और नुकीले कांटे उसके बदन को चीरते हुए चले गए. दायें कान में एक कांटा तो ऐसा धंसा कि उसकी चीख ही निकल गई. बड़े जोर का दर्द हुआ. बहुत देर तक वह दर्द से कराहता रहा. आखिर जब लगा कि संकट टल चुका है तो झाड़ी से बाहर आया. रोता-बिलखता मां के पास पहुंचा. मां ने एक बेल के पत्तों का रस घाव पर लगाया. कुछ देर बाद पीड़ा घटने लगी.

मां के उपचार से घाव तो तीन-चार दिन में भर गए. लेकिन दाग रह गए. सबसे बुरा यह हुआ कि कान का सिरा थोड़ा-सा लटक गया. अपने शरीर में खरगोश को कान ही सबसे प्यारे थे. उनका यूं लटक जाना उसके लिए बहुत बड़ा आघात था—

‘इससे तो अच्छा है कि भेड़िया मुझे खा ही जाता. सुंदर कान नहीं तो समझो जहान भी नहीं.’

उस घटना के बाद नन्हा खरगोश उदास रहने लगा. मां से बात भला कब तक छिपती. एक दिन मां ने पास बिठाकर नन्हे खरगोश को समझाया—

‘दुनिया में जो चीज जिसके लिए बनी है, यदि हादसे के बाद भी वह उस काम को ठीक-ठाक करती रहे, जो समझो कि कुछ नहीं बिगड़ा है.’ यह सीख उदासमना खरगोश के पल्ले न पड़ी.

‘तुम भी न जाने किस जमाने की बात करती हो, मां. आजकल तो जो दिखता है, दुनिया उसी को सच मान बैठती है.’

मां केे जी में आया कि कहे कि जीवनमूल्यों की बेल सदाबहार होती है. मगर यह सोचकर कि अवसाद में डूबा हुआ बेटा उसे उपदेश समझकर नजरंदाज न कर दे, वह चुप्पी साधे रही.

उस घटना के बाद खरगोश का खेतों में चैकड़ी भरना, ढाक के फूल का पीछा करना, साथियों के साथ लुका-छिपी का खेल खेलना, सभी कुछ छूट गया. वह नदी किनारे बैठकर पानी में लटके हुए कान को देखता रहता. बेटे की हालत देख मां परेशान होती. इशारों-इशारों में समझाती, पर कोई परिणाम न देख निराश हो जाती.

‘प्रकृति हर हादसे का उपचार खोज लेती है. उसके आंचल में कोई न कोई तदबीर मेरे बच्चे के लिए भी जरूर होगी.’ मां के मन में छिपा विश्वास बोलने लगता. आस की लौ फिर से टिमटिमाने लगती.

कुछ दिन के बाद खरगोश ने नदी तट जाना भी छोड़ दिया. वह बिल से बाहर पैर न रखता. मां ने पूछा तो बोला—‘जब मुझे किसी में रुचि नहीं है तो दूसरों को मुझसे क्यों लगाव होगा.’

‘दूसरों से मिले बिना तुम यह कैसे जान सकते हो कि लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं.’ मां ने समझाने का प्रयास किया. पर बेकार. नन्हा खरगोश मुंह लटकाकर लेट गया.

सर्दी का मौसम बीता. बसंत आया. कुहरे और ठंड से जिन वृक्षों के पत्ते झड़े थे, उनपर नई कोपलंे उग आईं. लताएं फूलों से, फूल नई सुवास से भर गए. चारों और हरियाली ही हरियाली नजर आने लगी. पशु-पक्षी उमंग-भरे गीत गुनगुनाने लगे. प्रकृति का कण-कण उल्लास से भर गया. फिर भी नन्हे खरगोश की उदासी न छंटी.

बसंत का मौसम नई उमंगों का होता. जंगल के प्राणी उसको मिल-जुलकर उल्लास के साथ मनाते थे. नदी के पास एक फूलों की घाटी थी. हर वर्ष वसंतपंचमी के दिन वहां जोरदार उत्सव होता. जंगल के सभी प्राणी वहां जमा होते. तरह-तरह के खेल, करतब और नाच-गाने होते. पूरा जंगल खुशी से झूमने लगता.

नन्हे खरगोश और उसकी मां को भी उत्सव में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला. मां ने साथ चलने को कहा. मगर नन्हा खरगोश गर्दन झुकाए पड़ा रहा. उसकी मां के जाने के बाद पेड़ पर रहने वाले उसके पड़ोसी कौआ, कबूतर ने समझाया. रास्ते से गुजर रही चतुर लोमड़ी और ऊदबिलाव ने भी उससे साथ चलने को कहा. मेले में अच्छी दावत और मनोरंजन का प्रलोभन भी दिया, मगर नन्हे खरगोश पर कोई असर न पड़ा. आखिर वे सभी छोड़कर चले गए.

नन्हा खरगोश गर्दन जमीन पर टिका रोज की तरह शाम होने का इंतजार करने लगा. बहुत दिनों से उसका एक ही काम था, दिन निकलते ही उसके ढलने की प्रतीक्षा करना. रात आती तो सुबह के इंतजार में तारे गिनना.

वक्त के साथ चलो तो वक्त भागने लगता है, ठहर जाओ तो वक्त भी रेंगना आरंभ कर देता है. नन्हे खरगोश ने अपने लिए रेंगते हुए वक्त का साथ चुना था. जमीन पर गर्दन टिकाकर वह वक्त का रेंगना महूसस कर ही रहा था कि घाटी की बगल से धुएं के काले बादल-से उमड़ते हुए दिखाई पड़े. देखते ही देखते उन दैत्यों ने पूरा आसमान कब्जा लिया. हवा में बेचैनी बढ़ने लगी. अपने ठिकाने पर रह गए पशु-पक्षी फड़फड़ाने लगे. किंतु नन्हे खरगोश ने अपनी गर्दन जमीन पर टिकाए रखी.

थोड़ी ही देर में पूरा आसमान काला हो गया. लगा कि काले जहर की भयानक नदी चारों ओर से उमड़ी चली आ रही है. कि कोई भीषण बबंडर हो काली हवाओं का. नन्हे खरगोश की बेचैनी बढ़ने लगी. उसने अपनी गर्दन उठाई. तभी पैरों की धमक से आसपास की जमीन कांप गई. नन्हा खरगोश अपने स्थान पर खड़ा हो गया. सहसा युवा हाथी उसके सामने आकर खड़ा हो गया. उसकी सांस तेज-तेज चल रही थी. मानो दूर से दौड़ लगाकर आया हो.

‘देखो, तुम्हारा नाम जो भी हो, मेरी बात सुनो!’ उखड़ी हुई सांसों को काबू करता हुआ युवा हाथी बोला—‘जंगल में भयानक आग लगी है. और वह तेजी से घाटी की ओर बढ़ रही है, जहां जंगल के समस्त प्राणी जमा हैं. अगर ऐसा हुआ तो वसंतोत्सव में भाग लेने गए हजारों प्राणी मारे जाएंगे. तुम अभी दौड़कर जाओ और उन सबको सावधान कर दो.’

‘तुम खुद क्यों नहीं चले जाते!’ नन्हे खरगोश ने पूछा.

‘मैं तो जा ही रहा हूं. तुम दिखे तो सोचा कि इस काम को तुम्हें सौंपकर अपने साथियों के दल में जा मिलूं जो नदी के पानी से आग पर काबू पाने की कोशिश में लगे हैं.’ नन्हा खरगोश मना करने ही जा रहा था कि उसको अपनी मां की याद आ गई. फौरन उसका इरादा बदल गया—

‘ठीक है, मैं जाता हूं, पर आइंदा मुझसे किसी मदद की उम्मीद मत रखना.’ कहकर वह मुड़ा.

‘जल्दी करो, और हां रास्ते में सो मत जाना.’

‘वह कहानी मैंने भी सुनी है, मैं गलतियों से सबक लेना जानता हूं.’ कहते ही खरगोश ने कुलांच भरी और जंगल की ओर दौड़ पड़ा.


आग बहुत भीषण थी. एक ही झटके में हजारों पेड़-पौधे उसकी भेंट चढ़ गए. खूबसूरत जंगल का बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका था. फिर भी सभी प्रसन्न थे. भीषण आग से सुरक्षित बच निकलने की खुशी मनाने के लिए ही उन्होंने एक सभा आयोजित की थी.

‘हमें हाथियों के दल को धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने अपनी सूंड में पानी भर-भरकर बरसाया. उनके बिना आग पर काबू पाना असंभव था.’ जंगल के मंत्री शेर ने हादसे के बाद हाथियों के दल को सम्मानित करते हुए कहा था. इसपर सभी जंगलवासी खुश होकर तालियां बजाने लगे. तालियों का शोर थमा तो शेर ने कहना शुरू किया—

‘एक नन्हा-सा जीव और है. सही मायने में उसी ने जंगल के सैकड़ों प्राणियों की जान बचाई है. जब वह घर से चला उस समय तक आग जंगल के चप्पे-चप्पे पर फैल चुकी थी. पर वह नन्हा बहादुर अपने प्राणों की परवाह किए बिना घाटी तक पहुंचा और उत्सव में भाग ले रहे प्राणियों को सावधान कर दिया. वह यदि घाटी तक न पहुंचने की हिम्मत न दिखाता तो न जाने कितने निर्दोषों की जान जाती.’

नन्हा खरगोश उस समय अपनी मां की गोद में बैठा हुआ था. अपना नाम सुनकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा. बाद में बुलावा आने पर वह मंच तक पहुंचा. शेर ने उसका स्वागत किया. नन्हा खरगोश वापस लौटने लगा तो शेर ने उसे वापस बुलाया. फिर उसके बराबर में खड़ा होकर ऐलान किया—

‘आज के बाद हम इसको नन्हा बहादुर कहकर पुकारेंगे. यह निडर होकर जंगल में कहीं भी आ-जा सकता है. जंगल का कोई भी हिंस्र पशु नन्हे बहादुर और उसकी मां पर हमला नहीं करेगा.’

शेर के ऐलान का सभी ने तालियां बजाकर स्वागत किया. नन्हे खरगोश के लिए तो यह सब जैसे एक सपना था.

‘मैं ठीक ही सोचती थी कि प्रकृति हर हादसे का उपचार खोज लेती है.’ घर लौटते समय खरगोश की मां ने कहा था. उस समय दोनों हर्ष और उल्लास से भरे हुए थे.

‘आज एक बात मैंने भी सीखी है, मां!’ नन्हा बहादुर बोला.

‘कौन-सी बात?’

‘जाने दो, उसमें नया कुछ नहीं है, तुम अक्सर मुझे समझाया करती थीं.’

‘फिर भी, मैं सुनूं तो?’

‘तुमने न जाने कितनी बार दोहराया होगा. परंतु आज मैं समझा हूं कि यदि मन में कुछ करने का संकल्प हो तो शारीरिक कमियां बाधा नहीं बनतीं.’

मां बिना कुछ कहे, अपने ‘नन्हे बहादुर’ से सट गई.