नन्हे आंसू की लंबी दास्तान / जयप्रकाश चौकसे

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नन्हे आंसू की लंबी दास्तान
प्रकाशन तिथि : 01 अप्रैल 2013


मनुष्य को हंसाना कठिन है, परंतु रुलाना आसान है। इसका यह अर्थ है कि सुख देने से आसान है कष्ट देना। कविता के क्षेत्र में प्रेम के बाद सबसे अधिक आंसुओं पर लिखा गया है, यहां तक कि उपनाम भी 'अश्क' रख लिया गया है। हिंदुस्तानी सिनेमा ने भी आंसुओं का जमकर दोहन किया है और मीना कुमारी ने तो रोने-धोने वाली इतनी फिल्में कीं कि उन्हें बिना कारण भी रोना आ जाता था। आंख के निकट एक ग्लैंड है, जिसके अधिक सक्रिय होने की अवस्था में आंसू अपने आप भी बहने लगते हैं। जितने काम आप हंसकर नहीं निकाल पाते, उससे अधिक काम टसुए बहाने से हो जाते हैं। बच्चे भी इस कला में निपुण हो जाते हैं। पारिवारिक जीवन में आंसुओं से अपनी नाजायज मांगें मनवाने का इतिहास पुराना है। सच्चे पश्चाताप के आंसुओं से आत्मा के अपराध धुल जाते हैं और सीने पर भार कम हो जाता है। आंसुओं को हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल, स्वयं के प्रति सहानुभूति जगाना एक अत्यंत लिजलिजा और घिनौना काम है।

एक प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा और टेलीविजन पर उसने अपनी सेवाओं को गिनाते हुए रोना शुरू किया कि क्या यह मेरे परिश्रम का पुरस्कार है कि मुझ जैसे देशप्रेमी पर आरोप लगाया जा रहा है। इस सार्वजनिक रुदन का यह प्रभाव हुआ कि आरोप की जांच रद्द कर दी गई कि इतने बड़े व्यक्ति को हमने रुला दिया। सार्वजनिक रूप से बहाए आंसू सहानुभूति की लहर पैदा करते हैं। आंसू एक अपील है, जो खारिज नहीं की जा सकती। जो लोग किसी क्षेत्र में प्रसिद्ध नहीं हैं और उन्हें सेलिब्रिटी हैसियत प्राप्त नहीं है, उनके आंसुओं का कोई मोल नहीं है। उनके सार्वजनिक रूप से आंसू बहाने को ढोंग कहा जाता है।

आंसुओं का फिल्मों में अत्यंत कलात्मक प्रयोग हुआ है। फिल्म विधा के पहले कवि चार्ली चैपलिन ने कहा था कि उन्हें बरसात का मौसम पसंद है, क्योंकि उसमें आंसू छुप जाते हैं। स्टीवन स्पीलबर्ग की 'ई.टी.' में दूसरे उपग्रह से आया व्यक्ति धरती से बिदा लेते हुए आंसू बहाता है और राकेश रोशन ने अपनी फिल्म 'कोई मिल गया' में अंतरिक्ष प्राणी को धरती से लौटते समय रुलाया है। स्पीलबर्ग की 'आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस' में भी रोबो अपनी सरोगेट मां के कैंसर पीडि़त होने पर आंसू टपकाता है। राज कपूर ने अपनी 'मेरा नाम जोकर' में मां की मृत्यु के बाद भी 'शो मस्ट गो ऑन' की भावना के अनुरूप अपना आइटम प्रस्तुत किया, परंतु उस सर्कस आइटम का हिस्सा था पंप द्वारा जोकर की आंख से आंसुओं का फव्वारा निकलना, जिस पर हंसते ताली बजाते दर्शक देख ही नहीं पाते कि असली आंसू भी बहे हैं। 'फुटपाथ' में दिलीप कुमार नकली दवा बनाने के कारखाने में काम करता है और अनेक लोगों की नकली दवा से मृत्यु होती है तो वह अदालत में कहता है कि उसे अपनी सांसों में सैकड़ों मुर्दों की गंध महसूस होती है। पात्र की आंख में आंसू थम गए हैं, वह दर्शक की आंख से बहते हैं। अभिनय का यही कमाल है कि पात्र की पीड़ा से दर्शक रोए न कि स्वयं पात्र रोए।

खाकसार की 'शायद' में कासिफ इंदौरी के शेर का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ है कि सरासर गलत है मुझपे इल्जामे बलानोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब। 'जंगली' में हसरत साहब कहते हैं 'ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं।' शैलेंद्र 'अनाड़ी' में कहते हैं 'मरकर भी किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे, जीना इसी का नाम है।'

नन्हे आंसू की दास्तान लंबी है। एक सरफिरा बादशाह अपने आंसू को इतना महत्वपूर्ण मानता था कि उन्हें शीशी में सुरक्षित रखता था। महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने ताजमहल देखकर लिखा 'वक्त के गाल पर थमा हुआ आंसू है ताजमहल'। यादों का आंसुओं से गहरा संबंध है। जयशंकर प्रसाद लिखते हैं 'जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तिष्क में स्मृति सी छाई। दुर्दिन में आंसू बनकर आज बरसने आई।'हरिकृष्ण प्रेमी की कविता है - 'मैं शहीद की मां हूं, मेरी आंखें पानी मत बरसाओ।' सुमित्रानंदन पंत की कविता है - 'यह सांझ ऊषा का आंगन, आलिंगन विरह मिलन का, चिरहास अश्रुमय आनन रे इस मानव जीवन का।'

बहरहाल, योद्धाओं की एक पहाड़ी कौम है, जिसमें रोना आने पर, जवान खून बहाने लगता है। यह भी लोकप्रिय संवाद है कि आंसू बहते नहीं देख सकता, खून बहते हुए देख सकता हूं। खून और आंसू का भी गहरा रिश्ता है। कुछ लोग आनंदित होने पर भी रोने लगते हैं।

आजकल जीवन की जटिलता ने संवेदना घटा दी है और अब रोना आसान नहीं है, परंतु सामाजिक व्यवहार का तकाजा है कि कई बार आंसू बहाना लाजमी हो जाता है। मगरमच्छ के आंसू की कहावत पुरानी है, अत: दिखावे के लिए रोना मात्र वर्तमान का अभिनय नहीं है। मनुष्य के अवचेतन की रसायनशाला में जब्त किए हुए आंसू, अनबहाए हुए आंसू चरित्र को फौलाद का बना देते हैं। आंसुओं का संचय शक्ति है। बहरहाल, अनेक मनुष्यों के रोने का इतिहास केवल उनका तकिया जानता है, जिस पर रात के वक्त तन्हाई में आंसू बहाए जाते हैं। रोने के लिए सशक्त कंधे सबको नसीब नहीं होते, न ही सांसद बहन सबके नसीब में है। वक्त रहते मनुष्य आंसू बहा ले तो फिर सचमुच रोने या रोने के प्रदर्शन की आवश्यकता ही नहीं होती।