नन्हे सवालों के जवाब कैसे दें ? / जयप्रकाश चौकसे

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नन्हे सवालों के जवाब कैसे दें ?
प्रकाशन तिथि : 08 जनवरी 2013


पश्चिम के मीडिया का यह शगल है कि भारत में हुई दुर्घटनाओं के आधार पर इसके पाषाण युग के बने रहने का डंका पीटा जाता है। कोई एक सदी तक हमें सांपों, साधुओं और अशिक्षितों का देश कहते रहे, तो कभी हमें जादू-टोना और सामाजिक कुरीतियों के कारण बर्बर कहा गया। दिल्ली में घटी दुर्घटना भी वहां की सुर्खियों में छाई है। हमारे अपने, जो वहां बसे हैं, फोन पर हिदायतें देते रहे हैं कि सांझ ढले घर से मत निकलना। संचार साधनों के विकास के बाद भी भारत की भ्रामक तस्वीर शायद इसलिए प्रस्तुत की जाती है कि स्वयं को सुसंस्कृत दिखाने की चेष्टा है।

चार माह पूर्व ओहियो (अमेरिका) में १६ वर्ष की कन्या के साथ चार फुटबॉल खिलाडिय़ों ने दुराचार किया। पूरी घटना का फिल्मांकन किया गया और वहां मौजूद नागरिकों ने रोकने का प्रयास नहीं किया। वर्ष २००९ में अमेरिका के रिचमंड में ऐसी ही घटना हुई और अपराधी को ९ वर्ष का कारावास दिया गया। इस तरह की दुर्घटनाएं पेरिस में और लंदन में भी हुईं, परंतु किसी भी जगह ऐसा विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ, जैसा भारत में हुआ। यह संभव है कि भारतीय समाज में सतह के नीचे सतत आक्रोश की लहरें हिलोरें ले रही थीं। इस घटना ने कैटेलेटिक एजेंट का काम किया और समाज के प्रेशर कुकर का वॉल्व उड़ गया। समाज धरती की तरह अनेक सतहों वाला बर्तन है। धरती की भीतरी सतह में पानी उबलता रहता है और एक सतह ऐसी भी है, जिसमें अनेक सूर्यों-सा ताप है। समाज की ऊपरी जड़ता से हमें भीतर के भूकंप की कल्पना नहीं होती। कुछ विरले लोग सुशुप्त अवस्था के ज्वालामुखी का अनुमान लगा लेते हैं। महान नेताओं ने भी यह काम किया है। वर्तमान में किसी भी राजनीतिक दल में ऐसा नेता नहीं है, जो भारत की भीतरी वेदना को समझ सके। इसे आंकने के लिए कवि का हृदय चाहिए, परंतु कवि नेता नहीं हो पाते। यह एक आदर्श कल्पना है कि संपूर्ण न्याय तभी होगा, जब कवि राजा होगा या राजा कवि।

आज परिवारों के सामने नए संकट आ गए हैं- मीडिया के कारण नन्हे बच्चे पूछते हैं कि बलात्कार क्या होता है? इन नन्हे सवालों के जवाब देने में बुजुर्गों को पसीना आ जाता है। स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल नहीं किया गया है और इस विषय पर काफी विवाद भी हुए हैं। अगर स्कूलों में यौन शिक्षा शामिल होती, तो संभवत: बच्चों को इस तरह के सवाल पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। बहरहाल, यह भी ज्ञात हुआ है कि सोनी पर प्रस्तुत 'क्राइम पेट्रोल' नामक कार्यक्रम में दिल्ली की बेदिली का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया जा रहा है। संभवत: इस लेख के प्रकाशित होने के पहले प्रसारण हो चुका होगा। अगर बच्चे इस प्रसारण को देखकर दहल जाएं या नए सवाल खड़े करें तो क्या होगा? इससे स्पष्ट है कि आणविक विकिरण की तरह के प्रभाव सामाजिक घटनाओं से भी होते हैं और समाज की सारी सतहों में कंपन होने लगता है। भूकंप की तीव्रता नापने वाला रिक्टर स्केल समाज के कंपन को नहीं नाप सकता।

दिल्ली में युवा वर्ग ने जो आंदोलन किया, उसका प्रभाव अन्य शहरों पर भी पड़ा। आक्रोश सभी जगह था और गौरतलब है कि आक्रोश की अभिव्यक्ति के मामले में दिल्ली राजधानी सिद्ध हुई। भले ही प्रशासन के मामले में वह राजधानी नहीं साबित हो रही है, जो देश की अखंडता के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। समाज के मूड को समझने में पाठकों द्वारा संपादक को लिखे पत्र सहायता करते हैं। शाहिद मिर्जा ने संपादक के नाम अनेक पत्र लिखे, तब राजेंद्र माथुर ने उन्हें पत्रकारिता के पाठ पढ़ाए और कालांतर में शाहिद मिर्जा ने इस क्षेत्र में नाम कमाया। सिनेमाघरों में दर्शक की प्रतिक्रिया भी समाज के भीतरी कंपन को समझने में सहायता देती है। आज मसाला फिल्मों को बार-बार देखने का यह कारण भी हो सकता है कि अवाम घोर नैराश्य में है और वह स्थिति से पलायन करने के लिए इस तरह की फिल्मों की ओर आकर्षित है और मसाला फिल्मों के सुपरहीरो का सनकीपन और औघड़ता उसके मन में भी उठे इसी तरह के भावों से तादात्म्य स्थापित कर रही है। शिक्षण संस्थाओं के परिसर में युवा वर्ग की चपलता के साथ ही उसके आक्रोश के संकेत भी आप देख सकते हैं। युवा का मस्ती-मंत्र का जाप भी कहीं उसके दर्द की ही अभिव्यक्ति है। 'तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो' की तर्ज पर ही उनकी मस्ती को देखना चाहिए।

सारे देशों की सुर्खियों को देखने से अनुमान होता है कि आर्थिक खाई से बड़ी खाई मनुष्य के रिश्तों में आ गई है। प्राय: यकीन किया जाता है कि असली संघर्ष दो वर्गों के बीच है - अमीर और गरीब। परंतु अब मर्द बनाम औरत का द्वंद्व सामने नए रूप में आ रहा है। सदियों से चले आ रहे संघर्ष नए स्वरूप में उभरर सामने आते हैं। मीडिया की सुर्खियों में जो विवाद हम देखते हैं, उसके परे भी अनेक विवाद हैं। टेक्नोलॉजी ने अभिव्यक्ति के नए माध्यम प्रस्तुत किए हैं तथा ट्विटर एवं फेसबुक पर प्रस्तुत विचार भी समाज के बदलते तेवर का ज्ञान हमें कराते हैं। इस नए संसार के उदय होने के बावजूद पूर्वग्रह और अंधविश्वास टस से मस नहीं होते। नेताओं के बयान और ट्विटर पर अभिव्यक्त विचार एक-दूसरे के विरोधी हैं। हिंसा और असहिष्णुता की लहरें सतह के नीचे सतह के ऊपर दिखाई देने वाले असंतोष से कहीं अधिक गहरी हैं।