नन्हों / शिवप्रसाद सिंह
चिट्ठी-डाकिए ने दरवाजे पर दस्तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटुली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आईं और गुस्से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँचीं।
'कौन है रे!' सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाजे से झाँका तो डाकिए को देख कर धक से पीछे हटीं और पल्लू से हल्दी का दाग बचाते, एक हाथ का घूँघट खींच कर दरवाजे की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गईं।
'अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी,' वे धीरे से फुसफुसाईं। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दीख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी।
'नहीं जी, कलकत्ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई गलती नहीं...'
'रामसु...' अधकही बात को एक घूँट में पी कर सहुआइन यों देखने लगीं जैसे पानी का धक्का लग गया हो। कनगुरिया का सिरा पल्ले में निश्चेष्ट कील की तरह अड़ गया था - 'अपने की ही है मुंशीजी...'
मुंशीजी ने चिट्ठी आगे बढ़ाई, कनगुरिया फिर हिली, पतंगे की तरह फड़फड़ाती चिट्ठी को पंजे में दबोच कर नन्हों सहुआइन पीछे हटीं और दरवाजे को झटके से भेड़ लिया। असँगन के कोने में पानी रखने के चबूतरे के पास खड़ी हो कर उन्होंने चिट्ठी को पढ़ा। रासुभग आ रहा है, लिखा था चिट्ठी में। केवल तीन सतर की इबारत थी पूरी। पर नन्हों के लिए उसके एक-एक अक्षर को उचारने में पहाड़-सा समय लग गया जैसे। चबूतरे के पास कलसी के नीचे, पानी गिरने से जमीन नम हो गई थी, जौ के बीज गिरे थे जाने कब के, इकट्ठे एक में सटे हुए उजले-हरे अँखुए फूटे थे। नन्हों सहुआइन एकटक उन्हें देखती रहीं बड़ी देर तक।
पाँच साल का समय कुछ कम तो नहीं होता। लंबे-लंबे पाँच साल! पूरे पाँच साल के बाद आज रामसुभग को भौजी की याद आई है। पाँच साल में उसने एक बार भी कुशल-मंगल का हाल नहीं दिया। एक बार भी नहीं पूछा कि भौजी जीती है या मर गई। जब अपना ही नहीं रहा हाल-चाल लेनेवाला, तो दूसरा कौन पूछता है किसे? नन्हों सहुआइन ने चारपाई के पास से माची खींची और उस पर बैठ गईं। हल्दी-सनी अँगुलियों के निशान 'कार्ड' पर उभर आए थे - जैसे वह किसी के शादी-ब्याह का न्यौता था। शादी-ब्याह का ख्याल आते ही नन्हों सहुआइन की आँखें चलवे मछली-सी चिलक उठीं। जाने कितनी बार सोचा है उन्होंने अपनी शादी के बारे में। कई बार सोचा, इस दुखदायी बात को फिर कभी न सोचूँगी। जो भाग में न था उस पर पछतावा क्या? पर वह औरत क्या अपनी शादी पर न सोचे और एक ऐसी औरत जिसकी शादी उसकी जिंदगी का दस्तावेज बन कर आई हो, जिंदगी सिर्फ उसकी गिरो ही नहीं बनी उसने तो नन्हों के समूचे जीवन को रेतभरी परती की तरह वीरान कर दिया।
गाँव की सभी औरतों की तरह नन्हों का भी ब्याह हुआ। उसकी भी शादी में वही हुआ जो सभी शादियों में होता है। बाजा-गाजा, हल्दी-सिंदूर, मौज-उत्सव, हँसी-रुलाई - सब कुछ वही।
एक बात में जरूर अंतर था कि नन्हों की शादी उसके मायके में नहीं, ससुराल में हुई। इस तरह की शादियाँ भी कोई नई नहीं हैं। जो जिंदगी के इस महत्वपूर्ण मौके का भी उत्साह और इच्छा के बावजूद रंगीनियों से बाँधने के उपकरण नहीं जुटा पाते वे बारात चढ़ा कर नहीं, डोला उतार कर शादी करते हैं। इसलिए नन्हों की शादी भी डोला उतार कर ही हुई तो इसमें भी कोई खास बात तो नहीं हो गई। नन्हों का पति मिसरीलाल एक पैर का लँगड़ा था, पैदाइशी लँगड़ा। उसका दायाँ पैर जवानी में भी बच्चों की बाँह की तरह ही मुलायम और पतला था। डंडा टेक कर फुदकता हुआ चलता। नाक-नक्शे से कोई बुरा नहीं था, वैसे काला चेहरा, उभरी हुई हड्डियों की वजह से बहुत वीरान लगता। घर में किराने की दुकान होती, जिसमें खाने-पीने के जरूरी सामानों के अलावा तंबाकू, बीड़ी-माचिस और जरूरत की कुछ सब्जियाँ भी बिकतीं। अक्सर सब्जियाँ बासी पड़ी रहतीं, क्योंकि अनाज से बराबर के भाव खरीदनेवाले अच्छे गृहस्थ्ा भी मेहमान के आने पर ही इस तरह का सौदा किया करते।
मिसरीलाल की शादी पक्की हुई तो नन्हों का बाप बड़ा खुश था, क्योंकि मिसरीलाल के नाम पर जो लड़का दिखाया गया वह शक्ल में अच्छा और चाल-चलन में काफी शौकी़न था। लंबे-लंबे उल्टे फेरे हुए बाल थे, रंग वैसे साँवला था, पर एक चिकनाई थी जो देखने में खूबसूरत लगती थी। इसीलिए लड़के वालों ने जब जोर दिया कि हमें बरात चढ़ा के शादी सहती नहीं, डोला उतारेंगे, तो थोड़ी मीन-मेख के बाद नन्हों का बाप भी तैयार हो गया, क्योंकि इसमे उसका भी कम फायदा न था। खर्चे की काफी बचत थी।
डोला आया, उसी दिन हल्दी-तेल की सारी रस्में बतौर टोटके के पूरी हो गईं और उसी रात को बाजे-गाजे के बीच नन्हों की शादी मिसरीलाल से हो गई। बाजों की आवाजें हमेशा जैसी ही खुशी से भरी थीं, मंडप की झंडियाँ और चँदोवे में हवा की खुशी-भरी हरकतें भी पूर्ववत थीं, पर नन्हों अपने हाथ भर के घूँघट के नीचे आँसुओं को सुखाने की कितनी कोशिश कर रही थी, इसे किसी ने न देखा। एक भारी बदसूरत पत्थर को गले में बाँधे वह वेदना और पीड़ा के अछोर समुद्र में उतार दी गई जहाँ से उसकी सिसकियों की आवाज भी शायद ही सुनाई पड़ती।
'कहो भौजी, बाबा ने देखा तो मुझको, पर शादी हुई मिसरी भैया की।' रामसुभग ने दूसरे दिन कोने में बैठी नन्हों से मुसकराते हुए कहा, 'अपना-अपना भाग है, ऐसी चाँद-सी बहू पाने की किस्मत मेरी कहाँ है?' भौजी मजाक के लिए बनी है, पर ऐसे मजाक का भी क्या जवाब? नन्हों की आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे जिन्हें वह पूरे चौबीस घंटे से लगातार रोके हुए थी। रामसुभग बिलकुल घबरा गया, उसने दुखी करने के लिए ही चोट की थी, पर घायल सदा पंख समेटे शिकारी के चरणों में ही तो नहीं गिरता, कभी-कभी खून की बूँदें-भर गिरती हैं और पंछी तीर को सीने में समाए ही उड़ता जाता है।
'ठीक कहा लाला तुमने, अपना-अपना भाग ही तो है...' नन्हों ने कहा और चुपचाप पलकों से आँसुओं की चट्टानों को ठेलती रही।
रामसुभग मिसरीलाल का ममेरा भाई है। अक्सर वह यहीं रहता है, एक तो इसलिए कि उसे अपना घर पसंद न था। बाप सख्ती से काम कराता और आना-कानी की तो बूढ़े बाप के साथ दूसरे भाइयों का मिला-जुला क्रोध उसके लिए बहुत भारी पड़ता। दूसरे, मिसरीलाल का भी इरादा था कि वह अक्सर यहाँ आता-जाता रहे ताकि उसे दुकान के लिए सामान वगैरह खरीदवाने में आसानी पड़े। रामसुभग के लिए मिसरीलाल का घर अपना जैसा ही था। उसने मिसरीलाल की शादी की बात सुनी तो बड़ा खुश हुआ था कि घर में एक औरत आ जाएगी, थोड़ी चहल रहेगी और मुरव्वत में अक्सर जो उसे चूल्हा फूँकने का काम भी कर देना पड़ता, उससे फुरसत मिल जाएगी। पर नन्हों को देख कर रामसुभग को लगा कि कुछ ऐसा हो गया है जैसा कभी सोचा न था। नन्हों वह नहीं है जिसे मिसरीलाल की औरत के रूप में देख कर उसे कुछ अड़चन न मालूम हो। वह काफी विश्वास के साथ आया था नन्हों से बात करने, उसे जता देने कि रामसुभग भी कुछ कम नहीं है, मिसरीलाल का बड़ा आदर मिलता है उसे, यह घर जैसे उसी के सहारे टिका है और भौजी के लिए रामसुभग-सा देवर भी कहाँ मिलेगा और शादी के पहले तो नन्हों के बाप ने भी उसे ही देखा था पर जाने क्या है नन्हों की झुकी हुई आँखों में कि रामसुभग सब भूल गया। चारपाई के नीचे बिछी रंगीन सुहागी चटाई पर पैरों को हाथ में लपेटे नन्हों बैठी थी गुड़ीमुड़ी, उसकी लंबी बरौनियाँ बारिश में भीगी तितली के पैरों की तरह नम और बिखरी थीं और वह एकटक कहीं देख रही थी, शायद मन के भीतर किसी बालियों से लदी फसल से ढके लहराते हुए एक खेत को, जिसमें किसी ने अभी-अभी जलती हुई लुकाठी फेंक दी है।
रामसुभग बड़ी देर तक वैसे ही चुप बैठा रहा। वह कभी आँगन में देखता था कभी मुँडेरे पर। वह चाहता था कि इस चुप्पी को नन्हों ही तोड़े, वही कुछ कहे, अपने मन से ही जो कहना ठीक समझे, क्योंकि उसके कहने से शायद बात कुछ ठीक बने, न बने, पर नन्हों तो कुछ बोलती ही नहीं।
ब्याह के दूसरे दिन के रसम-रिवाज पूरे हो रहे थे, कमारी डाले में अक्षत-सिंदूर ले कर गाँव की तमाम सतियों के चौरे पूज आई थी, और सबसे मिसरीलाल की मृत माँ की ओर से वर-वधू के लिए आशीर्वाद माँग आई थी। रात-भर गाने से थकी हुई भाटिनें अपने मोटे और भोंडे स्वरों में अब भी राम और सीता की जोड़ी की असीसें गा रही थीं। कुछ बचे-खुचे लोग एक तरफ बैठे खा रहे थे, पुरवे-पत्तल इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
'अच्छा भौजी...' रामसुभग इस मौन को और न झेल सका। चुपचाप उठ कर आँगन में चला आया।
'क्या बबुआ, भौजी पसंद आई?' एक मनचली भाटिन ने मोटी आवाज में पूछा।
'हाँ, हाँ, बहुत।' रामसुभग इस प्रश्न की चुभन को भाँप गया था। उसने मुसकराने की कोशिश की, पर गर्दन ऊपर न उठ सकी। वह चुपचाप सिर झुकाए दालान में जा कर मिसरीलाल के पास चारपाई पर बैठ गया। उस समय मिसरीलाल दो-एक नाते-रिश्ते के लोगों से बातें कर रहा था। पीले रंग की धोती उसके काले शरीर पर काफी फब रही थी, पर उसके चेहरे की वीरानी में कोई अंतर न था, खुशी उसके चेहरे पर ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने जंग-लगी पिचकी डिबिया में कपूर रख दिया हो। उसके दाहिने हाथ का कंगन एक मरे हुए मकड़े की तरह झूल रहा था...' जाने क्यों आज रामसुभग को मिसरीलाल बहुत बदसूरत लग रहा था, शादी के कपड़ों में कोई ऐसा भद्दा लगता है, यह रामसुभग ने पहली बार देखा।
'सुभग,' मिसरीलाल ने बातचीत से निपट कर दालान में एकांत देख कर पूछा, 'कयों रे भौजी कैसी लगी - सच कहना, अपनों से क्या दुराव - गया था न, कुछ कह रही थी?'
'नहीं तो,' रामसुभग ने कहा, 'काफी हँसमुख है, वैसे मायका छूटने पर तो सभी दुलहिनें थोड़ी उदास रहती हैं।' मिसरीलाल अजीब तरीके से हँसा, 'अरे वाह रे सुंभू, तू तो भई दुलहिनें पहचानने में बेजोड़ निकला। उदास क्यों लगती है भला वह? किसी परिवारवाले घर में जाती, सास-जिठानियों की धौंस से कलेजा फट जाता, दिन-रात काँव-काँव, यहाँ तो बस दो परानी हैं, राज करना है, है कि नहीं?'
'हूँ,' रामसुभग गर्दन झुकाए चारपाई के नीचे देख रहा था, उसने वैसे ही हामी भर दी जैसे उसने पूरी सुनी ही न हो।
'मीसरी साह!' दरवाजे से कमारी ने पुकारा, 'बाबाजी बुला रहे हैं चौके पर कंगन छूटने की साइत बीत रही है।' मिसरीलाल धीरे से उठे और फुदकते हुए चौके पर जा बैठे। लाल चूनर में लपेटे, गुड़िया की तरह उठा कर नन्हों को कमारी ले आई और मिसरीलाल की बगल में बिठा दिया।
मिसरीलाल की शादी हुए एक सतवारा बीत चुका था। इस बीच जाने कितनी बार रामसुभग नन्हों के पास बैठा। नन्हों के पास बैठने में उसे बड़ी घुटन महसूस होती, उसे हर बार लगता कि वह गलती से आ गया, उसका मन हर बार एक अजीब किस्म की उदासी से भर जाता। वह सोचता कि अब उसके पास नहीं जाऊँगा, जो होना था सो हो गया, पर उसका जी नहीं मानता। नन्हों ने इस बीच मुश्किल से उससे दो-चार बातें की होंगी। कभी शायद ही उसकी ओर देखा होगा, पर पता नहीं उन झुकी हुई बरौनियों से घिरी आँखों में कैसा भाव है कि रामसुभग खिंचा चला आता है। वे आँखें उसे कभी नहीं देखतीं, कहीं और देखती हैं, पर उनका इस तरह देखना रामसुभग के मन में आँधी की तरह घुमड़ उठता है। वह बार-बार सोचता कि शायद नन्हों के बाप के सामने वह दूल्हा बन कर न खड़ा होता तो नन्हों आज यहाँ न होती। झुकी हुई पलकों से घिरी इन आँखों की पीड़ा उसी की पैदा की हुई है। वही दोषी है, वही अपराधी है। रामसुभग इसीलिए नन्हों के पास जाने को विकल हो उठता है पर पास पहुँचने पर यह विकलता कम नहीं होती। उसकी माँ ने बहू को 'मुँहदिखाई' देने के लिए दो रुपए न्योता के साथ भेजे थे, पर नन्हों को देख कर उसकी हिम्मत न होती कि वे रुपए माँ की ओर से उसे दे दे। वह बाजार से सिल्क का एक रूमाल भी खरीद लाया। रुपए उसी में बाँध लिए। पर रूमाल हमेशा उसकी जेब में पड़ा रहा, वह उसे नन्हों को दे न सका।
'क्यों लाला, इतने उदास क्यों हों?' एक दिन पूछा था नन्हों ने, 'यहाँ मन नहीं लगता, भाई-भौजाइयों की याद आती हेागी...'
'नहीं तो, उदास कहाँ हूँ, तुम जो हो...' रामसुभग ने मुसकराते हुए कहा।
'मैं... हाँ, मैं तो हूँ ही, पर लाला, मैं तो दुख की साझीदार हूँ, सुख कहाँ है अपने पास जो दूसरों को दूँ? उदासी में पली, उदासी में ही बढ़ी। जन्मी तो माँ मर गई, बड़ी हुई तो बाप को बोझ बनी। मैं भला दूसरे की उदासी क्या दूर कर सकूँगी...'
'देखो भौजी...' रामसुभग ने पूरी साझेदारी से कहा - 'जो होना था वह हो गया... दिन-रात घुलते रहने से क्या फायदा... कुछ खुश रहा करो... थोडा हँसा करो...'
नन्हों मुसकराने लगी - 'अच्छा लाला, तुम कहते हो तो खुश रहा करूँगी, हँसूँगी, पर बुरा न मानना, बेबान के काम में थोड़ी देर लगती ही है।'
उस दिन रामसुभग बड़ा प्रसन्न था। सिर का भारी बोझ हट गया। जैसे किसी ने कलकते हुए काँटे को खींच कर निकाल दिया। नन्हों का मुसकराना भी गजब है, वह सोच रहा था। उदास रहेगी तब भी, मुसकराएगी तब भी, हर हालत में जाने क्या है उसके चेहरे में जो रामसुभग का मन उचाट देता है। गाँव में घूमता रहे, बाजार से सौदा लाता रहे, लोगों के बीच में बैठ कर गप्पें हाँकता रहे... नन्हों के चेहरे की सुध आते ही एकरस सूत झटके से टूट जाता, सोई सतह में लहरें वृत्ताकार घूमने लगतीं। सन्नाटे में जैसे मंदिर के घंटे की अनुगूँज झनझना उठती।
चैती हवा में गर्मी बढ़ गई थी। उसमें केवल नीम की सुवासित मंजरियों की गंध ही नहीं, एक नई हरकत भी आ गई थी... उसकी लपेट में सूखी पत्तियाँ, सूखे फूल, पकी फसलों की टूटी बालियाँ तक उड़ कर आँगन में बिखर जातीं। दोपहर में खाना खा कर मिसरीलाल दालान में सो जाता और रामसुभग बाजार गया होता या कहीं घूमने। नन्हों घर में अकेली बैठी सूखे पत्तों का फड़फड़ाना देखती रहती। उसके आँगन के पास भी खंडहर में नीम का पेड़ था। ऐसे दिनों में जब नीम हरी निबौरियों से लद जाता, वह ढेर-सी निबौरियाँ तोड़ कर घर ले आती और उन्हें तोड़-तोड़ कर ताजे दूध-से गालों पर तरह-तरह की तस्वींरें बनाती... शीशे में ठीक ऐपन की पुतरी मालूम होती। रामलीला में देखा था, राम और सीता बननेवाले लड़कों के गालों पर ऐसी ही तस्वीरें बनती थीं...।
हवा का एक तेज झोंका आया, किवाड़ झटके से खड़खड़ाया, देखा, सामने रामसुभग खड़ा था मुस्कराता हुआ।
'भौजी,' वह पास की चारपाई पर बैठ गया - 'एक गिलास पानी पिला दो। बड़ी प्यास लगी है।'
'कहाँ गए थे इतनी धूप में?' नन्हों उठी और आँगन के कोने में चबूतरे पर रखी गगरी से पानी ढाल कर ले आई।
जाने क्या हो गया था उस दिन रामसुभग को कि उसने गिलास के साथ ही नन्हों की बाँह को दोनों हाथों से पकड़ लिया। एक झटके के साथ बाँह काँपी और साँप की तरह ऐंठ कर सुभग के हाथों से छूट गई। गिलास धब्ब की आवाज के साथ जमीन पर गिर पड़ा।
'सरम नहीं आती तुम्हें...।' नन्हों साँपिन की तरह फुफकारती हुई बोली - 'बड़े मर्द थे तो सबके सामने बाँह पकड़ी होती। तब तो स्वाँग किया था, दूसरे के एवज तने थे, सूरत दिखा कर ठगहारी की थी। अब दूसरे की बहू का हाथ पकड़ते सरम नहीं आती...।'
'मैं तो भौजी तुम्हें यह देने आया था...।' रामसुभग ने रूमाल निकाला जिसकी खूँट में दो रुपए बँधे थे।
'क्या है यह?' - नन्हों ने गुस्से में ही पूछा।
'मुँहदेखाई के रुपए हैं। कई बार सोचा देने को, पर दे न सका।'
उसने रूमाल वहीं चारपाई पर रख दिया और लड़खड़ाता हुआ बाहर चला गया। सारा आँगन झूले की तरह डोल रहा था। गाँव की गलियाँ, दरवाजे जैसे उसकी ओर घूर रहे थे। उसी दिन वह अपने गाँव चला गया।
दो महीने बीत गए, रामसुभग का कोई समाचार न मिला। मिसरीलाल कभी उसकी चर्चा भी करता, तो नन्हों को चुप देख, एक-दो बातें चला कर मौन हो जाता। दुकान के लिए सारी चीजें रामसुभग ही खरीद कर लाता था। उसके न होने से मिसरीलाल को बहुत तकलीफ होती। किसी लद्दू, टट्टू या बैलवाले से सामान तो मँगवा लेता पर चीजें मन-माफिक नहीं मिलतीं और उनके साथ बाजार जा कर चीजें खरीदने में उसे काफी दिक्कत भी होती। दोपहर के वक्त, जब कि सूरज सिर पर तपता होता, लू में डंडे के सहारे टेकता, पसीने से लथपथ किसी तरह वह घर पहुँचता। इस तरह की आवा-जाही में एक दिन उसे लू लग गई और वह बिस्तर पर गिर पड़ा। नन्हों ने आम के पने पिलाए। हाथों और पैरों में भुने आम की लुगदी भी लगाई, पर ताप कम न हुआ। पीड़ा के मारे वह छटपटाता रहा। नन्हों घर से निकलती न थी, किसी से मदद माँगना भी मुश्किल था। उसने कमारी को बुला कर रामसुभग के गाँव भेजा। कहलाया कि कुछ सोचने-विचारने की जरूरत नहीं है, खबर मिलते ही जल्दी-से-जल्दी चले आवें। तीन-चार घड़ी रात गए रामसुभग मिसरीलाल के दरवाजे पर पहुँचा तो वहाँ काफी भीड़ थी। भीतर औरतों के रोने की चीत्कार गूँज रही थी। बाहर मिसरीलाल का शव रखा था। नन्हों विधवा हो चुकी थी।
रामसुभग मिसरीलाल के क्रिया-कर्म में लगा रहा, नन्हों से कुछ कहने की उसे फुर्सत ही न मिली। कभी सामने नन्हों दिख भी गई तो उसमें इतना साहस न हुआ कि सांत्वना के दो शब्द भी कह सके। काँच की चूड़ियाँ भी किस्मत का अजीब खेल खेला करती हैं। नन्हों जब इन्हें पहनना नहीं चाहती थी तब तो ये जबर्दस्ती उसके हाथों में पहनाई गईं और अब इन्हें उतारना नहीं चाहती तो लोगों ने जबर्दस्ती उसके हाथों से उतरवा दिया। कार-परोजन के घर में इतनी फुर्सत ही कहाँ थी कि नन्हों बैठ जाती। परंतु कभी-कभी दोपहर में दो-एक घड़ी फुर्सत मिलती तो वह अपनी उसी सुहागी चटाई पर बैठी हुई चुपचाप आँगन में देखा करती। रामसुभग उसके इस देखने के ढंग से इतना परेशान हो जाता कि काम-काज के बीच में भी नन्हों की वे तिरती आँखें उसके हृदय को बेधने लगतीं। आँगन में इधर-उधर आने-जाने में वह घबराता।
कहीं नन्हों पर नजर न पड़ जाए, इसीलिए गाँव के दूसरे लोगों को काम सौंप कर वह बाहर के कामों में सुबह से शाम तक जुता रहता। किरिया-करम बीत जाने पर वह घर में कम ही बैठ पाता। अक्सर सौदा-सामान खरीदने बाजार निकल जाता या खाली रहा तो गाँव में किसी के दरवाजे पर बैठा दिन गुजार देता।
कई महीने बीत गए। बरसात आई और गई। पानी सूख गया। बादलों का घिरना बंद हो गया। बौछारों से टूटी-जर्जर दीवारों के घाव भर गए। नई मिट्टी से सज-सँवर कर वे पहले-जैसी ही प्रसन्न मालूम होतीं। ऐसा लगता जैसे इन पर कभी बौछार की चोट पड़ी ही न हो, कभी इनके तन पर ठेस लगी ही न हो।
उस दिन चमटोली में गादी लगी थी। कातिक की पूनो को हमेशा यह गादी लगती। बीच चौकी पर सतगुरु की तसवीर फूल-मालाओं से सजा कर रखी हुई थी। अगरबत्तियों के धुएँ से चमरौटी की गंदी हवा भी खुशबूदार हो गई थी। कीर्तन-मंडली बैठी हुई थी। गाँव की औरतें, बूढ़े-बच्चे इकट्ठे हो कर भजन सुन रहे थे :
जो तुम बाँधे मोह फाँस हम प्रेम बंधन तुम बाँधे
अपने छूटन की जतन करहु हम छूटे तुम आराधे।
जो तुम गिरिवर तउ हम मोरा
जो तुम चंदा हम भए हैं चकोरा।
माधव तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं
तुम सों सो तोर कवन सों जोरहिं।
काफी देर तक कीर्तन चलता रहा। नन्हों लौटी तो उसके मन में रैदास के गीत की पंक्तियाँ बार-बार गूँजती रहीं। 'तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं' वह धीरे-धीरे गुनगुना रही थी। दालान का दरवाजा रामसुभग ने बंद कर रखा था। साँकल खटखटाई तो उसने आ कर दरवाजा खोला।
'इतनी रात को इस तरह तुम्हारा गली-गली में घूमना ठीक नहीं है, भौजी...' जाने कहाँ का साहस आ गया था उसे। रामसुभग दरवाजा बंद करते हुए बोला।
'हूँ,' नन्हों ने और कुछ न कहा।
'मैं तुम्हीं से कह रहा हूँ।'
नन्हों एक झटके के साथ घूमी। रामसुभग के चेहरे पर उसकी आँखें इस तरह टिकी थीं मानो बेध कर भीतर घुस जाएँगी, 'इतनी कलक होती है तो पहले ही ब्याह कर लिया होता। इस तरह डाँट रहे हो लाला, जैसे मैं तुम्हारी जोरू हूँ। खबरदार, फिर कभी आँख दिखाई तो।' रामसुभग माथा पकड़ कर बैठ गया। गुस्से और ग्लानि के मारे उसका सारा बदन जल रहा था, पर मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसने चादर खींच कर मुँह ढक लिया और भीतर-ही-भीतर उफनता-उबलता रहा।
और तब से पाँच बरस बीत गए। आज पहली बार रामसुभग की चिट्ठी आई है कि वह कलकत्ते से गाँव आ रहा है। ये पाँच बरस जाने नन्हों ने कैसे बिताए हैं। रामसुभग उसी रात को लापता हो गया। रोते-रोते नन्हों की आँखें सूज गईं। मेरा कोई न होगा, मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूँ। वह अपने को धिक्कारती, कलपती। कभी मन पूछता - पर इसमें मेरी क्या गलती थी, मैं तो गादी देखने-भर चली गई थी, कौन नहीं गई थी वहाँ, मैंने क्या कर दिया था ऐसा। हाँ, गलती जरूर थी। मैं विधवा हूँ, उत्सव-तमाशा मेरे लिए नहीं है।
'बबुआ नहीं हैं क्या?' दूसरे दिन शाम को कमारी ने पूछा था, 'देखो दुलहिन, मेरी बात मानो, सुभग से ब्याह कर लो, तुम्हारी जात में यह मना भी नहीं है, कब तक ऐसे रहोगी...।'
'चुप रह...।' नन्हों ने उसे बरज दिया था। दूसरे ही क्षण शरम से गड़ गई थी। जाने क्यों लोग मन के छुपे राज को भाँप लेते हैं। जिसे जितना छिपाओ, उसे उतनी ही जल्दी लोग खींच कर सामने कर देते हैं।
'चुप तो रहूँगी दुलहिन, पर पछताओगी, ऐसा दूल्हा हाथ न आएगा। वह जिंदगी-भर तुम्हारे लिए कुँवारा नहीं बैठा रहेगा, ऐसा मौका हमेशा नहीं आता...' तुम्हारे बाबूजी ने उसी को देखा था, मिसरीलाल से तो ब्याह धोखे से हुआ।'
'मैं कहती हूँ चुप कर...।' नन्हों की आखें डबडबा आईं - 'मेरी जिनगानी में धोखा ही मिला है, तो उसे कौन मेट सकता है।'
कमारी सकपका कर चुप हो गई। आँसुओं की धार सँभालना उसके वश के बाहर था। वह चुपचाप दरवाजा भेड़ कर चली गई।
'नन्हों चाची, नन्हों चाची...' दुकान से कोई लड़का चीख रहा था, नन्हों माची पर से उठी और दुकान की ओर लपक कर चली।
'क्या है रे - क्यों चीख रहा है ऐसे?'
'यह देखो, किसना बेर ले कर भाग रहा है...' जन्नू ने हकलाते हुए कहा। वह ललचाई आँखों से लाल-लाल बेरों से भरी टोकरी को देख रहा था।
'अच्छा, भाग रहा है तो भागने दे, तू भी ले और भाग यहाँ से, हल्ला मत मचाओ यहाँ।' लड़के जेबों में बेर भर खिलखिलाते हुए बाहर चले गए। नन्हों ने दरवाजा बंद कर लिया और रसोई में चली गई।
कलकत्ते की गाड़ी शाम सात बजे के करीब आती थी। नन्हों आँगन में चारपाई डाले लेटी थी। झिलँगी चारपाई थी, मूँज की। पैरों में रेशों की चुभन अजीब लगती। हवा पहले जैसी सर्द न थी। हल्की गर्मी गुलाबी रंग की तरह हर झकोरे में समाई हुई थी। नन्हों के खुले हुए काले बाल सिरहाने की पाटी से जमीन तक लटके हुए थे। वह चुपचाप नीले आसमान के तारों को देख रही थी। आँगन की पूर्वी दीवार की आड़ से शायद चाँद निकल रहा होगा, क्योंकि उजला-उजला ढेर-सा प्रकाश मुँडेरे की छाजन पर मिट्टी की पटरियों से टकरा कर चमक रहा था।
साँकल खड़की।
'भौजी।'
सुभग पाँच साल के बाद लौटा था।
नन्हों ने दरवाजा खोला। सुभग था सामने। अँधेरे में वह उसे देखती रही।
'आ जाओ।' पंखुड़ियों के चिटकने जैसी आवाज सन्नाटे में उभर कर खो गई। दोनों बिलकुल खामोश थे। रामसुभग आँगन की चारपाई पर आ कर बैठ गया। एक अजीब सन्नाटा दोनों को घेर कर बैठ गया था।
खा-पी कर रामसुभग जब सोने के लिए अपनी चारपाई पर गया, तो माची खींच कर नन्हों उसके पास ही बैठ गई।
'क्यों बाबू, बहुत दिनों के बाद सुध ली।' नन्हों ने ही बात शुरू की - 'बहुत दुबले हो गए हो, बीमार तो नहीं थे?'
'नहीं तो,' रामसुभग बोला - 'पाँच साल तक भुलाने की कोशिश करता रहा भौजी, पर भूलता नहीं। मैंने कई बार सोचा कि चल कर तुमसे माफी माँग लूँ, पर हिम्मत न हुई। अब की मैंने तय किया कि जो कहना है कह ही जाऊँ। मैंने अनजाने में गलती कर दी भौजी। मैं नहीं जानता था कि मेरी तनिक-सी गलती इतना फल देगी। मैंने जो कुछ किया मिसरी भैया की खुशी के लिए ही, पर कसूर तो है ही, चाहे वह जैसे भी मन से हो।' रामसुभग ने जमीन पर देखते हुए कहा - 'मेरे कसूर को तुम ही माफ कर सकती हो।'
'कसूर कैसा लाला, तुम जिसे कसूर कहते हो वह मेरे भाग्य का फल था। तुम समझते हो कि बाबूजी को कुछ नहीं मालूम था। मालूम तो उन्हें भी हो गया जब डोला भेजने की बात हुई। बिगड़नेवाली बात को सभी पहले से जान लेते हैं बाबू, जिनके पास बल है उसे नहीं होने देते, जो कमजोर है उसे धोखा कह कर छिपाते हैं। बाबू को सब मालूम हो गया था, पर अच्छे घर के लिए जो चाहिए वह बाबू कहाँ से लाते। इसमें तुम तो एक बहाना बन गए, तुम्हारा क्या कसूर है इसमें...।' नन्हों ने आँचल से आँखें पोंछ लीं। रामसुभग बेवकूफ की तरह आँखें फाड़ कर अँधेरे में नन्हों को देखता रहा।
'अच्छा बाबू, थके हो, सबेरे बातें कर लूँगी।' नन्हों उठ कर अपने घर में चली गई।
रामसुभग तीन दिन तक रहा। तीन दिनों में शायद ही वह एक-दो बार गाँव में घूमने गया। दिन-रात नन्हों से बातें करना ही उसका काम था - दुनिया-भर की बातें, कलकत्ते की, बाप की, माँ की, भाइयों और भौजाइयों की। नन्हों रामसुभग को एकदम बदली हुई लगती। उसकी आँखों में जब पहले-जैसी तीखी चमक नहीं थी, उसके स्थान पर ममता और स्नेह का जल भरा था। अब वह एकटक सुनसान कोने को नहीं देखती थी, पर बरौनियों में नमी अब भी पहले जैसी ही थी। नन्हों को इस नए रूप में देख कर सुभग का मन नई आशा से भरने लगा। तो क्या यह सब हो जाएगा - क्या भाग्य की गणना फिर सही हो जाएगी? पर नन्हों से कुछ कह पाना उसके लिए सदा ही कठिन रहा है। वह आज भी पिछली दो घटनाओं को भूला नहीं था, पर नन्हों भी तो ऐसी पहले न थी।
आज नन्हों को फिर पुरानी बातें याद आ रही हैं। रैदास के गीत की पंक्ति न जाने फिर क्यों बार-बार याद आने लगी है।
'जो तुम तोरहु तो हम नाहिं तोरहिं, तुम सों तोर कवन सों जोरहिं?'
वह खुश है, प्रसन्न है। पर रामसुभग को चैन नहीं। शायद चलने की बात करूँ तो वह कुछ खुल के कहेगी। इसी आशा से उस दिन सुबह ही सुभग ने कहा - 'भौजी, अब मैं गाँव जाऊँगा, आज रातवाली गाड़ी से।'
'क्यों बाबू, मन नहीं लग रहा है?'
'मन तो लग रहा है... पर...।'
'अच्छा, ठीक है।'
रामसुभग इस उत्तर से कुछ समझ न सका। वह मन-मारे अपने कमरे में बैठा रहा। शायद चलते वक्त कुछ कहे, शायद फिर लौट आने के लिए आग्रह करे।
शाम को अपना सामान बाँध कर जब सुभग तैयार हुआ, तो नन्हों अपने घर से निकल कर आई।
'तैयारी हो गई लाला?'
'हाँ।'
नन्हों ने आँचल से हाथ निकाला और रामसुभग की ओर हाथ बढ़ा कर कहा - 'यह तुम्हारा रूमाल है लाला।'
रामसुभग काठ की तरह निश्चेष्ट हो गया - 'पर इसे तो मैंने 'मुँहदेखाई' में दे दिया था भाभी।'
'बाबू ने तुम्हारा मुँह देख कर अनदेखा सुहाग सौंपा था, तुम्हारी माँ ने उसी के अमर रहने के लिए रुपए दिए थे आशीर्वाद में। बड़ों ने जो दिया उसे मैंने माथे पर ले लिया। मैं कमजोर थी बाबू, भाग्य से हार गई। पर आज तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ, आज मुझे तुम हारने मत दो। तुम्हारा रूमाल मेरे पाँव बाँध देता है लाला, इसी से लौटा रही हूँ, बुरा न मानना ।'
रामसुभग ने धीरे से रूमाल ले लिया। नन्हों उसका जाना भी देख न सकी। आँखें जल में तैर रही थीं। दीए की लौ जटामासी के फूल की तरह कई फाँकों में बँट गई। नन्हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल न चढ़ा सकी।