नपुंसक आक्रोश / हरिनारायण सिंह 'हरि'

Gadya Kosh से
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"बेहया! बेशरम! तू हरजाई है। निकल जा मेरे घर से। मैं एक साल बाद घर आया हूँ। फिर यह किसका पाप तुम्हारे पेट में पल रहा है?" पुरुष विचार की तरह फुफकार रहा था।

औरत जो ग्लानि से सिर नीचा किये हुए थी, सहसा उसने गर्दन ऊँची की। उसका स्वर रुक्ष हो आया "चिल्लाते क्यों हो? अपने बाप से जाकर पूछो जिस भेड़िए की माँद में मुझे छोड़ गये थे।"

पुरुष का आक्रोश ठंढा पड़ गया। उसने गर्दन झुका ली।