नपुंसक / सुकेश साहनी
पूरे हॉस्टल में हलचल मची हुई थी,नवाब किसी रेजा़ (मज़दूरिन) को पकड़ लाया था, उसे कमरा नम्बर चार में रक्खा गया था, पाँच लड़के तो ‘हो’ भी आए थे। शोर, कहकहों और भद्दे इशारों के बीच कुछ लड़कों ने शेखर को उस कमरे में धकेल कर दरवाज़ा बाहर से बन्द कर लिया था। भीतर ‘वह’ बिल्कुल नग्नावस्था में दरवाजे़ के पास दीवार से सटी खड़ी थी। वह बेहद डरी हुई थी। भयभीत आँखें शेखर को घूर रही थीं। शेखर को अपने आप से नफ़रत हुई। दिमाग में विचारों के चक्रवात घूमने लगे। यह सब नारी के साथ क्रूर,घिनौना मजाक! वह बाहर निकलकर सबको धिक्कारेगा। जगाएगा उनके सोए हुए जमीर को, मुक्ति दिलाएगा इस अबला को, आदि-आदि। वह सोचता रहा। बाहर अश्लील चुटकुलों पर अट्टहास हो रहे थे। फिर भी, थोड़ा समय गुज़र जाने के बाद ही वह कमरे का दरवाज़ा खुलवाने के लिए दस्तक दे सका।
कई जोड़ी सवालिया आँखें ‘कैसा रहा’ के अन्दाज़ में उस पर टिकी थीं। न जाने उसे क्या हुआ कि वह बेशर्माी से मुस्कराया और हाथ के इशारे के साथ अपनी बाईं आँख दबाकर बोला-‘‘धाँसू!’’ प्रत्युत्तर में सीटियाँ बजीं, ठहाके लगे, उसके कन्धे थपथपाए गए। इतनी ही देर में सातवाँ लड़का भीतर जा चुका था।
शेखर वहाँ से चलने को हुआ।
‘‘कहाँ यार? कई स्वर एक साथ उभरे।
वह अपने होठों को जबरदस्ती खींचकर मुस्कराया और हाथ के इशारे से उन्हें बताने लगा कि वह अपनी सफाई करके अभी लौटता है। अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपनी ही पद्चापों से उसके दिमाग में धमाके से हो रहे थे-नपुंसक ! नपुंसक ! नपुंसक....मुक्तिदाता!...नपुंसक!
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