नफ़ीसा / पंकज सुबीर
"मुँहजलों, खंजीर की औलादों तुम्हारे माँ बापों ने ये ही सिखाया है कि दूसरों के घरों में जाकर चोरियाँ करो" आज फिर नफ़ीसा का पारा सातवें आसमान पर है, पूरे मोहल्ले में उसकी तेज़ आवाज़ गूँज रही है। मोहल्ले वालों के लिये ये कोई नई बात नहीं है, हाँ अगर सात आठ दिन तक नहीं सुनने को मिले तो ज़ुरूर लोग हैरान होने लगते हैं कि नफ़ीसा कहीं चली तो नहीं गई?
लेकिन नफ़ीसा जाएगी कहाँ? कौन है उसका? मोहल्ले के लोग नफ़ीसा को, उसकी गालियों को, सबको सहन करते रहते हैं, क्योंकि सब नफ़ीसा कि दास्तान जानते हैं, जिसको जानने के बाद कोई भी नफ़ीसा कि बात का बुरा नहीं मान सकता। हाँ कोई नया आदमी हो तो ज़रूर ख़ून खौल जाए कि ये क्या बात हुई भला, छोटी-छोटी बात पर इस तरह गाली गलौज?
नफ़ीसा कि दास्तान छोटी भले हो लेकिन उस छोटी-सी दास्तान में ही इतना कुछ है कि वह दास्तान छोटी नहीं कही जा सकती। ग़रीब घर की लड़की थी नफ़ीसा, पिता एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे, घर में नौ सदस्य थे, चार भाइयों और तीन बहनों में एक थी नफ़ीसा। ऊपर वाले ने ग़रीब परिवार में ज़रूर पैदा किया था, लेकिन ख़ूबसूरती देने में कोई भी कंजूसी नहीं की थी नफ़ीसा को। दूध-सा उजला रंग ऐसा था कि छूने से भी नील पड़ जाए। नफ़ीसा कि अम्मी जब भी जी भर कर उसे देखतीं, तो ठंडी सांस भर कर रह जातीं कि "हाय नसीब जली, इत्ती ख़ूबसूरती लेकर आई है, ख़ुदा जाने इत्ता नसीब भी लाई है कि नहीं।" नौ खाने वाले और एक कमाने वाला और कमाने वाला भी ऐसा नहीं कि ख़ूब कमाता हो। चारों माँ बेटी आस पास के घरों के बच्चों के कपड़े सीकर, कुछ बुनाई कढ़ाई करके गृहस्थी की कमज़ोर गाड़ी में अपना टेका लगाए हुए थीं। लेकिन फिर भी ऐसा कुछ नहीं था कि पेट भरने के अलावा कुछ और भी सोचा जा सके।
लेकिन हुआ ये कि नफ़ीसा का नसीब उसकी ख़ूबसूरती के कारण ही चमका। किसी शादी में बहनों के साथ सहमी सकुचाई खड़ी बड़ी-बड़ी आँखों वाली नफ़ीसा को परवेज़ ने देखा और रीझ गया, अगले दिन तो परवेज़ के अब्बू पैग़ाम लिये नफ़ीसा के घर बैठे थे। किसी को विश्वास ही नहीं हुआ था कि यह सब सच है। परवेज़ भले ही छोटी नौकरी में था, लेकिन था तो सरकारी मुलाज़िम, सरकारी गाड़ी चलाता था, दिखने दिखाने में भी ठीक ठाक था। घर से दूर, दूसरे शहर में रह कर नौकरी करता था। घर की, ख़ानदान की गिनती भी खाते कमाते परिवारों में होती थी। ऐसे में जब उस परवेज़ का रिश्ता नफ़ीसा के लिये आया तोे सचमुच विश्वास करने वाली बात ही नहीं थी। दुःखों को झेलते-झेलते आदमी की आदत ही ऐसी हो जाती है कि सुख अगर देहरी पर आकर खड़ा भी हो जाए तो आदमी को यही लगता है कि ज़रूर पड़ोसी के घर का पता पूछने आया है, यहाँ मेरी देहरी पर इसका क्या काम?
लेकिन कभी-कभी सुख सचमुच आपकी देहरी पर आपका ही पता पूछने आता है, जैसा नफ़ीसा के साथ हुआ, नफ़ीसा जैसा जीवन जी रही थी वहाँ पर परवेज़ को किसी भी लड़की के लिये सफेद घोड़े पर सवार होकर आया सपनों का राजकुमार कहा जा सकता था और वह राजकुमार हाथ थाम कर ले आया था नफ़ीसा को यहाँ, सपनों की दुनिया में।
शादी के बाद जब परवेज़ पहली बार उसे लेकर यहाँ इस मोहल्ले में आया था, तो कुछ ही देर में आस पड़ोस की महिलायें इकट्ठी हो गईं थीं। शादी में कोई नहीं जा पाया था इसलिये नई दुल्हन की मुँह दिखाई करने आईं थी। मोहल्ले में अधिकांश घर मध्यम वर्गीय परिवारों के ही थे जहाँ मुस्लिम घर एक ही था, परवेज़ का। उसके बाद फिर कई दिनों तक उन दोनों की दावतें आस-पास के घरों में चलती रहीं, आज नई दुल्हन का खाना शर्मा जी के यहाँ है, तो कल मालवीय जी के यहाँ। नई नवेली दुल्हन नफ़ीसा अभिभूत हो गई थी उस अपनेपन को देखकर। उसे यह सब एक सपना ही लग रहा था। यह एक अलग ही अनुभव था उसके लिये, एक ऐसा अनुभव जो उसे अंदर तक छू गया था, इस अपनेपन ने उसे अंदर तक भिगो दिया था।
न जाने कब नफ़ीसा उस मोहल्ले की ही हो गई, मोहल्ले की ढेर सारी ल़डकियों की नई भाभी। लड़कियाँ बस इस प्रतिक्षा में रहतीं कि कब नफ़ीसा घर के काम से फुरसत हो और उसे घेरा जाए। दो जनों के घर में वैसे भी कोई विशेष काम नहीं था। परवेज़ की नौकरी ऐसी थी की सुबह का निकलता तो रात को लौटता, इधर नफ़ीसा दिन भर ल़डकियों से घिरी रहती। परवेज़ के दिन भर बाहर रहने और मुहल्ले का एकमात्र मुस्लिम घर होने के बावजूद भी नफ़ीसा को कभी असुरक्षा कि भावना नहीं महसूस हुई।
साल भर बीतते-बीतते ही वह मोहल्ले में ऐसे रच बस गई, मानो बरसों से वहाँ रह रही हो। बड़ा लड़का असलम जब पेट में था, तो मोहल्ले की औरतें आते जाते लड़कियों को डांट लगातीं "अरी ल़डकियों वह पेट से है, उसे परेशान मत करो।" डांट खाकर लड़कियाँ कुछ देर के लिए इधर उधर होतीं और फिर गुड़ की मक्खियों की तरह नफ़ीसा को घेर लेतीं। नफ़ीसा ने कभी इतने स्नेह, इतनी आत्मीयता कि कल्पना भी नहीं की थी।
और फिर समय गुज़रता रहा, असलम का जन्म हुआ, उसके बाद नफ़ीसा कि व्यस्तता कुछ बढ़ गई। लेकिन फिर भी ज़्यादा परेशानी नहीं हुई, क्योंकि असलम को थामने वाले कई हाथ थे। ढेर सारी छोटी बड़ी बुआऐं असलम को संभाले रहतीं और नफ़ीसा सुकून से घर का काम निपटाती रहती। इसी बीच नफ़ीसा कि इन सहेलियों की भी विदा होना शुरु हो गई। विदा होते समय ये लड़कियाँ अपने माँ बाप से ज़्यादा अपनी नफ़ीसा भाभी के सीने से लग कर रोती थीं। ससुराल से मायके आते ही उड़ कर फिर नफ़ीसा के पास पहुँच जाती ससुराल के किस्से सुनाने।
असलम फिर आज़म फिर नवेद और जावेद एक-एक कर चार लड़के नफ़ीसा के आंगन में खेलने लगे, इस बीच समय भी काफ़ी गुज़र गया। नफ़ीसा कि छोटी बड़ी सहेलियों में से अधिकांश ससुराल चली गई, हाँ नफ़ीसा से उनका रिश्ता ख़त्म नहीं हुआ। लेकिन अपनी-अपनी गृहस्थियों में रमने के कारण उन लड़कियों का मायके आना भी कम होता था और इधर नफ़ीसा कि गृहस्थी भी फैल जाने से उसकी भी व्यस्तताऐं बढ़ गई थीं, सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था। कभी अकेले में बैठती तो उसे शादी के बाद के दिन याद आने लगते, जब फुरसत ही फुरसत थी।
जिस मकान में किराए से रह रहे थे उसी को ख़रीदने का फ़ैसला जब परवेज़ ने लिया तो रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था। काफ़ी दिनों तक ऊहापोह बनी रही थी। रिश्तेदारों का दबाव था कि अगर मकान ही लेना है तो शहर के उस हिस्से में लिया जाए, जहाँ मुस्लिम आबादी ज़्यादा है, सबका कहना था कि अपने लोगों के बीच में रहोगे तो ज़्यादा सुरक्षित रहोगे। तब पहली बार हैरानी में पड़ गई थी नफ़ीसा, अपने लोग ़ ़? तो फिर शादी के बाद से अब तक वह जिन लोगों के बीच प्यार और अपनेपन से रह रही है, क्या वह अपने लोग नहीं हैं?
परवेज़ रिश्तेदारों के दबाव के सामने कुछ टूटने लगा था। इस टूटन के पीछे भी एक कारण था, इन दिनों हवा में एक विचित्र-सी गंध आने लगी थी परवेज़ को। कभी-कभी अपने साथ के लोगों की आँखों में कुछ अजीब-सा तिरता हुआ नज़र आता था। ऐसा लगता था, अपनेपन के कच्चे धागे तनाव के कारण कभी भी टूट जाऐंगे। हालाँकि कहीं कुछ हुआ नहीं था, फिर भी हर घड़ी ऐसा लगता कि कहीं कुछ हो न जाए। परवेज़ की टूटन को देख कर नफ़ीसा तन कर खड़ी हो गई थी, उसका कहना था कि आज तक जहाँ से उसे, उसके बच्चों को अपना पन मिला है, मोहब्बत मिली है, अगर उन्हीं लोगों के बीच उसका परिवार महफ़ूज़ नहीं है, तो फिर कहाँ पर होगा। नफ़ीसा कि ही ज़िद के आगे परवेज़ को भी झुकना पड़ा और अंततः वही मकान जिसमें शादी का जोड़ा पहने, मेंहदी की ख़ुशबू से गमकती, सहमी-सी नफ़ीसा दुल्हन बन कर आई थी, वह मकान अब उसका घर भी हो गया था, उसका अपना घर।
वक़्त का दरिया, पलों की बूंदों से बने दिनों, महिनों और सालों को समेटे बहता रहा। चारों लड़के जवान हुए और नफ़ीसा के आंगन में शहनाइयाँ गूंज उठीं। नफ़ीसा का एक भाई काफ़ी पहले दुबई चला गया था, असलम आज़म और नवेद भी एक-एक कर के अपने मामू के पास चले गऐ। नफ़ीसा का आंगन भरता और खाली होता रहा और आखरी में रह गऐ नफ़ीसा परवेज़ और जावेद। जावेद को भी उसके मामू ने काफ़ी बुलाया, लेकिन वह अपने माँ बाप को छोड़कर नहीं जाना चाहता था। तीनों बड़े बेटों की बहुओं का सुख नफ़ीसा ज़्यादा दिन नहीं भोग पाई, शादी के पहले ही आने वाली बहुओं का पसपोर्ट वीज़ा तैयार हो जाता था। मेंहदी का रंग उतरते न उतरते तक तो वे हवाई जहाज़ में बैठ चुकी होती थीं।
जावेद को परवेज़ ने अपने ही विभाग में नौकरी पर रखवा दिया था। पूरी ज़िंदगी अफ़सरों की गाड़ी चलाते बीती थी, इसलिऐ परवेज़ की गुज़ारिश अफसर टाल नहीं पाए और जावेद को नौकरी मिल गई। नौकरी भले ही कच्ची थी लेकिन तीन साल बाद तो पक्की होनी ही थी। नफ़ीसा को बस जावेद की नौकरी पक्की होने का ईंतज़ार था, ल़डकी उसने देख ही रखी थी। उसकी बूढ़ी हड्डियाँ अब थकने लगीं थीं।
छः दिसम्बर की घटना के बाद जब चारों ओर धूल और धुंआ फैला तो दुबई से बेटों ने उन तीनों को दुबई आ जाने को कहा था, लेकिन ऩफीसा ने जवाब दिया था, हम अपने लोगों के बीच में हैं, महफूज़ हैं। दो दिन बाद जब शहर में तनाव के कारण कर्फ़्यू लगा तो पड़ोस के तिवारी जी उन तीनों को घर में ताला लगवा कर जबरन अपने साथ ले गए थे। वह रात रतजगे की रात थी, सबने आँखों में काटी थी वह रात।
स्थिति सामान्य होने के बाद एक बार फिर रिश्तेदारों ने दबाव डाला था कि यहाँ का घर बेच कर अपने लोगों के बीच रहने चलो, इस बार नफ़ीसा कि जगह जावेद आ गया था सामने। कहने लगा हम अपने लोगों में ही तो हैं, ये मकान छोड़ना उन लोगों पर शक़ करने का गुनाह करना होगा, जिन्होनें हमें अपने घर में महफूज़ कर आँखों में रात काटी है। नफीसा कुछ भी नहीं बोली थी, उसके जज़्बातों को उसके बेटे ने अल्फाज़ दे दिये थे। हाँ सुकून की सांस ज़रूर ली थी, उसके बेटे ने उसे तिवारी जी और मोहल्ले के दूसरे लोगों के सामने शर्मसार होने से बचा लिया था। इस बार उसकी अकेले की ताक़त नहीं थी कि वह परवेज़ को ये मकान बेचने से रोक लेती। मोहल्ला छोड़ने का मतलब था उन लोगों पर शक़ करना जिन्होंने जीवन भर अपनापन दिया।
लेकिन क़िस्मत को ही पता था कि नफ़ीसा का ये निर्णय कितना ग़लत होने जा रहा है। शहर में दूसरी बार जब आग फैली तो उसकी लपटों ने नफ़ीसा का दामन भी जला दिया। इस बार आग का कारण केवल इतना था कि एक मुस्लिम लड़की हिन्दू लड़के से प्रेम करने से पहले उसका धर्म पूछना भूल गई थी। प्रेम जैसी पवित्र चीज़ के कारण सारा शहर आग के हवाले हो गया था। मोहल्ले वाले तो कहते हैं कि वह लोग बाहरी थे जिन्होंने परवेज़ और जावेद का क़त्ल किया, लेकिन नफ़ीसा का कहना था कि मारने वाले भले ही बाहर के थे, लेकिन क्या बचाने वाला कोई अपना नहीं था? उस घटना के बाद लड़कों ने आकर नफ़ीसा का सामान बाँध दिया था कि अब नहीं रहने देंगे यहाँ। मगर ऩफीसा एक बार फिर बिफर पड़ी थी, चीखती हुई आँगन में आ गई थी "अच्छा? इन मोहल्ले वालों के गुनाह माफ़ कर दूँ? चली जाऊँ यहाँ से? ताकि ये सुकून से रह सकें? नहीं...! मैं यहीं रहूँगी, इनकी छाती पर मूँग दलने के लिये। आते जाते जब इस बूढ़ी बेवा को देखेंगे, तो इन्हें अपना गुनाह तो याद आएगा।" उँगली से मोहल्ले के मकानों की तरफ़ इशारा करती हुई चीखती नफ़ीसा फूट-फूट कर रो प़डी थी।
और तब से यहीं है नफ़ीसा, इतनी ही क़डवाहट से भरी, लेकिन तमाम कड़वाहट के बाद भी कोई उसे कुछ नहीं कहता। कभी जिस मुँह से फूल झड़ते थे आज उसी मुँह से गालियाँ झड़ती हैं, मगर फिर भी लोग चुप रहते हैं। सबको अपना अपराध बोध चुप कर देता है।
नफ़ीसा के आँगन में दीवार के सहारे खड़ा है अमरूद का पेड़, जिसकी ज़्यादातर शाखाऐं दीवार के बाहर हैं। इन शाखों पर लगे अमरूद मोहल्ले के बच्चों को ललचाते हैं और बावजूद इसके कि नफ़ीसा कि गालियों का ख़ौफ रहता है, बच्चे अमरूद तोड़ने का मौका ढूँढते रहते हैं।
"मुँहजलों, अमरूद खाने का शौक है तो अपने बापों से बोलो, क्या बाज़ार में अमरूद नहीं मिलते? कैसे-कैसे माँ-बाप हैं, बच्चे चोरियाँ कर रहे हैं फिर भी चुप हैं, अरे कल को डाकू बनेंगे डाकू ऽ-ऽ ऽ।" नफ़ीसा का मुँह चालू है।
"कलमुंहों, तुमको ढाई घड़ी की आये, ख़ुदा कि मार हो तुम पर। मुर्दुदों, गारत हो तुम पर, हाथ तो आओ एक बार, ऐसे गिन-गिन के जूतियाँ लगाऊंगी कि अमरूद खाना ही भूल जाओगे।" नफ़ीसा कि चिल्ला चोट को सातवें आसमान तक पहुँचते देख जैन साहब घर से निकल पड़े। रिटायर्ड तहसीलदार जैन साहब उन लोगों में है जिन का लिहाज़ नफ़ीसा रखती है। उनको आते देखा तो चुप हो गई।
"क्या बात है दुल्हन क्यों चिल्ला रही हो?" जैन साहब ने कहा। नफ़ीसा जब से शादी होकर आई तब से ही दुल्हन कह कर बुलाते हैं उसे जैन साहब।
नफ़ीसा कुछ नहीं बोली तो थोड़ा हँसकर बोले जैन साहब "ये रोज़-रोज़ की किच-किच अच्छी लगती है क्या? ये बाहर लटक रहीं शाखें कटवा क्यों नहीं देती दुल्हन?"
नफीसा ने दीवार की ओट से जवाब दिया "फले हुए पेड़ को काटना गुनाह होता है और फिर किसी की कोई चीज़ अगर बाहर रखी है, तो क्या हर किसी का हक़ हो जाएगा उस पर?"
"दुल्हन पेड़ के फल पर तो सब का हक़ होता है? देख मैं भी तोड़ रहा हूँ मुझे तो नहीं कहेगी चोर?" कह कर हँसते हुए एक अमरूद तोड़ लिया जैन साहब ने।
"आप तो पूछ के तोड़ रहे हो? पूछ के तोड़ना चोरी थोड़े ही होती है, रूको ज़रा, बाहर तो सब कच्चे ही हैं, नासपीटे बचने भी नहीं देते। मुर्दुद निगाह ही लगाए रहते हैं, ज़रा अमरूद पर पीलापन दिखा नहीं कि मुर्दुवे ले उड़ते हैं। दांत तो बचे नहीं आपके, कच्चे अमरूद कैसे खाओगे? मैं अंदर से पक्के-पक्के तोड़ के देती हूँ।" थोड़ी ही देर में दुपट्टे में अमरूद लेकर आ गई नफ़ीसा "ये पके हुए तो आपके लिये हैं, अधपक्के वाले छोटू की दुल्हन को दे दीजियेगा, लड़की पेट से है मन करता होगा।" नफ़ीसा कि आवाज़ में काफ़ी फ़र्क़ था।
कोट की जेब में अमरूद रखते हुए बोले जैन साहब "दुल्हन तुझे इतना पता है कि बहू पेट से है तो आकर देख भी जाती।" जैन साहब की बात सुनकर नफ़ीसा ने उनकी तरफ़ देखा, उसकी आँखों में जाने क्या था जिसे देख कर आगे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई जैन साहब को। वे चुपचाप चले गए, नफ़ीसा भी घर में चली गई। शांति होते ही छुपे हुए बच्चे भी निकल कर अपने-अपने घरों की और दौड़ गए। जैन साहब का पोता प्रशांत ही इस अमरूद चोर गिरोह का सरगना है और नफीसा भी ये बात जानती है। आज भी अमरूद की डाल पर लटके और बाद में कूद कर भागते प्रशांत को देख लिया था उसने, फिर भी उसने जैन साहब से कुछ नहीं बोला। जैन साहब के पहुँचने के बाद शांति हो गई, जैन साहब नहीं आते तो नफीसा कि गालियाँ अभी और भी चलनी थीं।
आज शहर में फिर तनाव है। पैसों के लेन देन को लेकर कल दो गुटों में झगड़ा हो गया था और शहर के दुर्भाग्य से दोनों गुट पिछले बार के प्रेम वालों की तरह इस बार भी अलग-अलग संप्रदाय के थे। इस झगड़े को एक बार फिर "धर्म ख़तरे में है" सिद्ध कर दिया गया था। एक बार फिर धर्म के रक्षक अपने-अपने धर्म की रक्षा करने निकल पड़े थे हाथों में डंडे, फरसे, तलवारें और पैट्रोल की कुप्पियाँ लेकर। धर्म की रक्षा का एक मात्र तरीक़ा इनकी नज़रों में ये ही होता है कि दूसरे धर्म वालों को मार दो अपना धर्म अपने आप बच जाएगा। इन धर्म रक्षकों के रक्षा कार्य के चलते जब शहर में कर्फ़्यू लगा तब स्कूल जा चुके बच्चे घरों को नहीं लौट पाए थे। माँ-बाप स्कूलों में फ़ोन कर-कर के बच्चों की कुशलता का पूछ रहे थे।
बारह बजे वह ख़बर आई जिससे कर्फ़्यू की ख़ामोशी में डूबा मोहल्ला जैन परिवार की महिलाओें की चीख पुकार से गूँज उठा। ख़बर आई थी कि तीन बत्ती चौराहे पर दंगाइयों ने एक स्कूली बच्चों से भरे आटो में आग लगा दी है और प्रशांत भी उसी में था। चीख पुकार सुन कर कर्फ़्यू के बावजूद दौड़ती हुई नफ़ीसा जैन साहब के घर पहुँची, घटना का पता चला तो पत्थर की तरह जड़ होकर खंभे से टिकी रह गई। जैन साहब सरकारी गाड़ी में बैठकर कहीं जा रहे थे, नफ़ीसा को देखा तो बोले "दुल्हन बाहर मत खड़ी रहो, अंदर चली जाओ, कर्फ़्यू लगा है"।
गाड़ी जाते ही बदहवास-सी नफ़ीसा अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ी। घर पहुँच कर आँगन में पड़ी कुल्हाड़ी उठाई और अमरूद के पेड़ पर मारने लगी। काटती जा रही थी और चिल्लाती जा रही थी "या ख़ुदा ये क्या कर दिया? छोटे बच्चे को तो बख्श देते? कीड़े पड़ें उनके हाथों में जिनने ये किया है, ख़ंजीर की औलादों तुम दोज़ख़ की आग में जलो, तुम्हारे होतो सौतों की मय्यत उठे, कैसे फूल समान बच्चे को जला दिया रे ए ऽ-ऽ ऽ ऽ। हिजड़ों की औलादों तुम सबकी जोरुएँ, बेटियाँ, पोतियाँ सब बेवा हो जाएँ।" नफ़ीसा का चीखना रोने में बदल गया।
गश्ती पुलिस के वाहन ने देखा तो रुक गया? एक पुलिस ऑफिसर चीखा "ए बुढ़िया ...! क्या कर रही है? पता नहीं है शहर में कर्फ़्यू लगा है?" नफ़ीसा ने कुछ जवाब नहीं दिया केवल पेड़ काटती रही।
"ऐ बुढ़िया अभी गोली पड़ जाएगी, पता नहीं कर्फ़्यू लगा है" पुलिस आफिसर ने अवहेलना देखी तो गुस्से में चिल्लाया।
"अच्छा...?" लाल भभूका आँखें लिये चीखी नफ़ीसा "एक बूढ़ी बेवा पर ही चलाओगे गोली? जिनने छोटे-छोटे बच्चों को जला दिया उन पर क्यों नहीं चलाते? या ख़ुदा कैसा फूल-सा बच्चा था और मैं मुँहजली अमरूद तोड़ने पर गालियाँ सुनाती रही, कोसती रही। कीड़े पड़ें मेरी काली ज़ुबान में, या अल्लाह ऽ-ऽ । मैं ही बद्दुआ देती रहती थी, या ख़ुदा क्यों सुनी तूने मेरी, मैं मुर्दार औरत, मेरी ज़ुबान पर फिटकार पड़े, मेरी मय्यत उठा देता, पर तूने तो फूल से बच्चे को ।" कह कर रोती हुई नफ़ीसा फिर से कुल्हाड़ी चलाने लगी।
ऊहापोह में पुलिस ऑफिसर कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा फिर बोला "देखिये बड़ी बी हमें मजबूरी में आपको गिरफ्तार करना पड़ेगा" नफ़ीसा ने कोई जवाब नहीं दिया उसी प्रकार कुल्हाड़ी चलाती रही, अचानक एक जीप आकर रुकी उसमें से जैन साहब प्रशांत को लेकर उतरे। नफ़ीसा ने देखा तो कुल्हाड़ी फैंक के दौड़ी, प्रशांत को सीने से चिपटा लिया और ज़ार-ज़ार रोने लगी "या ख़ुदा तेरा शुक्र है, या अल्लाह तूने एक बूढ़ी बेवा कि फ़रियाद सुन ली।" घरों की बंद खिड़कियाँ धीरे-धीरे खुलने लगीं। जैन साहब ने पुलिस ऑफिसर से कुछ कहा और वह गाड़ी में बैठ गया, धुंआ उड़ाती गाड़ी चली गयी। कर्फ़्यू के ख़ौफ़ज़दा सन्नाटे को चीरता हुआ नफ़ीसा का रुदन पूरे मोहल्ले में गूँजने लगा। ये रुदन पास के मोहल्ले में दंगाइयों द्वारा लगाई गई आग के धुंए के साथ मिलकर धीरे-धीरे आसमान की ओर उठ रहा था। आसमान, जहाँ कहा जाता है कि वहाँ पर ईश्वर, ख़ुदा, गाड जैसी कोई शै है, रुदन के स्वर के साथ लिपटा हुआ धुंआ वहीं जा रहा था।