नमस्ते की वापसी / अशोक भाटिया
कालोनी की यह गली नम्बर पांच है। बाकी गलियां भी इस जैसी हैं। इन घरों के सब आदमी भी एक जैसे। दुकान-दफ्तर से आए, खाया-पिया, टी.वी देखा और सो गये, न दीन के, न दुनिया के। लेकिन पड़ोस को लेकर एक मामले में चौकन्ने। अब इस गली के कुमार को ही ले लीजिए। कल तक कुमार अपने पड़ोसी श्रीलाल को अदब से नमस्ते किया करता था। उम्र और ओहदे को सलाम किया ही जाता है। लेकिन जब से कुमार के पिता चल बसे, उसके हिसाब-किताब भी बदल गये हैं। पहले तो कुमार ने अपने घर की जर्जर रसोई को शानदार बनवाया। इसके साथ उसकी गर्दन थोड़ी तन गई और पड़ोसी श्रीलाल को रोज़ मिलने वाली नमस्ते ढीली पड़ गई। कई बार वह नमस्ते न के बराबर, मरियल-सी होती। कुमार ने आंगन में मार्बल लगा लिया। घर का मुंह माथा भी संवार लिया। फिर क्या था, कुमार ने श्रीलाल को नमस्ते करनी बंद कर दी। श्रीलाल को माजरा समझ में आ गया था लेकिन उसे रोज़ की एक नमस्ते कम हो जाने का बड़ा दुःख था।
श्रीलाल का अपना मकान जर्जर हालत में था। पड़ोस की कोठी के तरोताज़ा हो जाने के बाद श्रीलाल का मकान और भी खस्ता हाल दिखाई देता था। दीवारों पर से सीमेंट की गिरती हुईं पपड़ियाँ मानों घर की हालत पर आंसू बहाती थीं। जब पूरा परिवार ही श्रीलाल के पीछे पड़ गया, तो मजबूर होकर उसने सारे घर को संवार दिया। दरवाजे पर नई कार भी टिका दी। उसे अपना घर कुमार के घर से अधिक सुंदर लगने लगा था; और कार तो बोनस के नंबर थे। इसका कुमार पर क्या असर पड़ा है - श्रीलाल यह जानने को बेचैन था।
आखिर, कुछ दिन बाद उसे असर दीख भी गया। जब कुमार का सामना श्रीलाल से हुआ, तो कुमार ने उसे एक करारी नमस्ते ठोक दी। ऐसा लगा जैसे सदियों से वह नमस्ते कुमार के जिगर में अटकी हो और बाहर आने का मौका तलाश रही हो। श्रीलाल ने भी उस लापता हो चुकी नमस्ते को दोनों हाथों से लपका, रुमाल से साफ किया और जेब में बड़े ध्यान से रख लिया।
नमस्ते कर कुमार हारे हुए जुआरी की तरह गर्दन झुकाकर अपने घर में घुस गया। इधर श्रीलाल की गर्दन में मानो जिराफ की आत्मा प्रविष्ट हो गई थी।