नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था। वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से अपना पिंड छुड़ाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही थी। रेलवे स्टेशन से मड़इया गाँव तक अपने नाज़ुक सिर पर पसेरी भर की गठरी लादे हुए कोई डेढ़ घंटे की पैदल यात्रा के बाद जब उसने जग्गन कुँवर के घर में कदम रखा तब जाकर उसकी साँस में साँस आई। लेकिन, तभी उसे अपनी साँसें टूटती हुई-सी लगीं। आँखों में झाँई पड़ने लगी। दरअसल, एक तो थकान, दूसरे कई घंटों से लगी असह्य प्यास के कारण उसके गले में बबूल के काँटे जैसी चुभन महसूस हो रही थी। उसने जग्गन से टूटती हुई आवाज़ में कहा, "ताऊ! पानी, पानी, पानी।"

लेकिन, इसके पहले कि जग्गन, उसे घुड़कते हुए फिर मारने को हाथ उठाता, "हम तेरा ताऊ नहीं, तेरा मनसेधू हूँ," झुमका उसकी बात अनसुनी करते हुए वहीं जमीन पर निढाल गिरकर अचेत हो गई।

जग्गन घबड़ा-सा गया। उसने पहले चितेरा महतो को जोर-जोर से आवाज़ लगाई। जब तक सत्रह साल का गबरू चितेरा वहाँ आता, वह वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया कि अगर झुमका को कुछ हो गया तो उसका हजारों का घाटा हो जाएगा। उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोछा और फिर उसी गमछे को कई बार चपतकर ळाुमका के सिर के नीचे लगा दिया। फिर, उसने हड़बड़ाकर ळाुमका को हिलाया-डुलाया, यह सोचते हुए कि कहीं वह तेज घमसी और प्यास के कारण मुर्च्छित तो नहीं हो गई। लेकिन, वह मुश्किल से अपनी आँखों पर से आधी पलकें ही हटा पा रही थी। मतलब यह कि थोड़ी-थोड़ी ही होश में थी। जग्गन ने पहले तो उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे और उसका मुँह खोलकर लोटा-भर पानी उसके गले में उड़ेल दिया। यह भी नहीं सोचा कि इससे उसका दम भी घुट सकता है। पर, भूखी-प्यासी ळाुमका अचेतावस्था में ही बकरी की तरह सारा पानी गटागट पी गई थी। पता नहीं, थकाऊ नींद के हावी होने या नीने मुँह डेढ़ सेर पानी पीने के कारण, वह मुर्दा की तरह लस्त-पस्त हो गई थी। उसकी पलकें पूरी तरह बंद भी नहीं हुई थी कि उसके खर्राटे से सारा दालान गूँजने लगा। खरहरी जमीन पर ळाुमका पूरे ढाई घंटे तक नाक बजा-बजाकर बेसुध सोती रही जबकि जग्गन इस बात से आश्वत होकर कि झुमका की तबियत दुरुस्त है, बाहर मचिया पर बैठ गया और अपना हालचाल लेने आए पड़ोसियों को यह सफाई देता जा रहा था कि 'हम झुमका को भगाकर नहीं, बल्कि विधि-विधान से ब्याहकर लाए हैं...।'

कोई डेढ़ दिन तक खटारा बसों और ढुलक-ढुलक कर चलती छुक-छुक पसिंजर ट्रेनों की धक्कमपेल भीड़ में खड़े-खड़े यात्रा करते हुए झुमका कितनी थक गई थी, इसका उसे खुद अंदाज़ा नहीं था। क्योंकि वह रास्ते भर कौतुहल से हकबकाकर अज़नबी लोगों और नए-नए स्थानों को देखते हुए पल भर को भी नहीं सो पाई थी। अपने गाँव से वह पहली बार ऐसी यात्रा पर निकली थी और हाट-बाजार में दौड़ते-भागते लोगों को आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी। औरत-मर्द, लड़के-लड़कियाँ एक ही तरह के बेढंगे कपड़े यानी जींस पैंट और टी-शर्ट पहने हुए और कानों में मोबाइल का इयरफोन लगाकर खुद से बतियाते हुए एकदम बावले से लग रहे थे; उन्हें कौतुहल से देखते हुए झुमका खुद से ग़ाफ़िल हुई जा रही थी। ऐसे में, जग्गन उसके अल्हड़पन पर बार-बार लाल-पीला हो रहा था कि पूरे दस हजार में इस लौंडिया को अपनी मेहरारू बनाने के लिए खरीदा है। अगर जर, जोरू और जमीन को बुरी नज़र से नहीं बचाया गया तो आदमी हमेशा लफ़ड़े में ही फँसा रहेगा। इसलिए वह उसके सिर से ढल गए आँचल को बार-बार वापस उसके सिर पर रखते हुए भुनभुनाता जा रहा था जैसेकि कोई कुल्फ़ीवाला अपनी कुल्फ़ियों को सूरज की तपिश से बचाने का जतन कर रहा हो, "झुमका रानी! घूँघट में रहना सीख ले। क्या आँखें गड़ा-गड़ाके मर्दों को निहार रही हो? मेहरारू जात को आँखें नीची करके हाट-बाजार से गुजरना चाहिए।" लेकिन, झुमका पर उसकी झिड़क का कोई असर होने वाला नही था। वह या तो फ़िस्स से विहँसकर या खिसियानी चेहरा बनाकर उसकी बातों को टालती जा रही थी।

झुमका को जग्गन की हिदायतें एकदम नागवार लग रही थी। वह बार-बार झुँझलाकर रह जा रही थी कि 'आख़िर, ये बुढ़ऊ हमें बार-बार मेहरारू और जोरू क्यों कहते आ रहे हैं? मेहरारू तो हमारी माई है जिसने हम जैसे सात-सात बच्चों को जनम दिया है। अब जब हम भी बियाह के बाद माई बनेंगे तो कोई हमें मेहरारू कहे या जोरू, इसका हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।'

स्टेशन से बाहर आते समय जब जग्गन की जान-पहचान के एक अधेड़ आदमी ने उसे लगभग ललकारते हुए उस पर यह छींटाकशी की कि "अरे बुढ़ऊ जग्गन! ई उमर में अब घर बसाने का जी कर रहा है क्या" तब जग्गन उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए घुड़कने लगा था, "तेरी माँ को! तूँ काहे को जल-भुनकर राख हुआ जा रहा है? हम खानदानी ठाकुर हैं और ठाकुरों में सौ-सौ घर बसाने का दमखम होता है। नौ महीने बाद भेज देना भौजी को, सोहर और बधाई गाने।"

"ई नौबत कभी न आएगी, जग्गुआ! जब तलक तुम ई लइकी को खिला-पिलाके सयानी औ' जवान बनाओगे, तब तलक तुम कबर में समा जाओगे। तुम अपनी उमर तो जानते ही हो? हमसे भी छे बरिस उमरदराज़ हो।" वह अधेड़ आदमी जग्गन के नहले पे अपना दहला चलने से बाज नहीं आ रहा था।

बहरहाल, उनकी बेतुकी बातें झुमका के सिर के ऊपर से गुजर रही थीं। उसके भेजे में घर बसाने और नौ महीने बाद सोहर गाने वाला जुमला बिल्कुल नहीं समा रहा था। उसकी समळा में कुछ आता भी कैसे क्योंकि वह अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह रश्मों-रिवाज़ को समझकर उनका निर्वाह करने की बात सोच सके जबकि उसकी माई परसों घर आए जग्गन को बता रही थी कि 'झुमका भले ही देखने में ठिंगनी और कमसिन लगती है; लेकिन, उसे बारह साल का होने में कुल दो महीने ही बाकी हैं और उसे 'वो' भी आने लगा है? मतलब यह कि इसी उम्र में हम तो माई बन गए थे। फिर, यह झुमका क्यों नहीं?' लेकिन झुमका सोचती जा रही थी कि ग्यारह-बारह साल की भी कोई उम्र होती है क्या? उससे बड़ी-बड़ी उम्र की ठकुराने गाँव की कूल्हे मटकाती चौचक लौंडिया तो अपने बाप-दादों की उंगलियाँ थामकर हाट-मेले से गुड्डा-गुड़िया मोल करने जाती हैं।

ड्योढ़ी पर बैठी झुमका को 'वो' का मतलब थोड़ा-थोड़ा समळा में आ रहा था क्योंकि इस बारे में ख़ुद माई ने उसे कुछ दिनों तक पहले बतलाया था। वह फ़िस्स से शरमाकर माई पर मन ही मन खिसियाने लगी थी कि किसी ग़ैर आदमी से, भले ही वह उसके बाप की उम्र का हो, ऐसी ऊल-जुलूल बातें बताना अच्छा लगता है क्या? तब उसकी माई उसके गदराए गालों पर हाथ फेरते हुए बड़ी बेशरमी से बकबकाने लगी थी, "बारह बरिस की झुमका बूची इतनी सयानी है कि सोलह साल की उमरदराज़ मेहरारू से कमतर नहीं लगती है। चौका-बासन निपटाने के साथ-साथ, इतना डेलीसन लिट्टी-चोखा बनाती है कि हम सब जने अंगुरी चाटते रह जाते हैं।"

माई के मुँह से अपनी तारीफ़ सुनकर पल भर को झुमका को लगा था कि वह, सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान में बोरी में पड़े उस्ना चावल की तरह है जिसे सेठ अपनी मुट्ठी से निकालकर ग्राहकों के सामने इसकी उम्दा गुणवत्ता का प्रदर्शन करता है और वापस बोरी में डाल देता है। उसे नवागंतुक जग्गन से बड़ा कोफ़्त हो रहा था। पहले तो इस आदमी को घर में आते-जाते कभी नहीं देखा था। लेकिन वह, माई से इस तरह आँखें मिचमिचाकर आत्मीयता से बतिया रहा था कि झुमका को उससे बड़ी ईर्ष्या होने लगी--मान न मान, मैं तेरा मेहमान।

जब झुमका ने तिरछैल शक्की निगाहों से मचिया पर जग्गन को बैठे देखा तो माई ने बड़ी मासूमियत से उसका परिचय उससे कराया, "ई दूर के हमारे पाहुन लगते हैं। सहर से आए हैं--गाँव की बुचियों का भाग सँवारने। बड़े आदमी हैं। सहर के पास मड़इया गाँव में इनका आलीसान कोठी है। नूकर-चाकर भी हैं। ई बूळा लो कि बहुत बड़े जमींदार हैं।"

वह पल भर को ठिठक गई कि क्या बात है कि माई उससे एक नए मेहमान की जान-पहचान कराकर उसे इतनी अहमियत दे रही है? बच्चों को इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि घर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है? उन पर तो बस, गली-कूचों में अपने संगी-साथियों के साथ खेल-खिलवाड़ करने का धुन सवार रहता है। उसने उस आदमी को कनखिया कर बड़े संदेह से देखा। लिहाजा, माई के मुँह से जग्गन की ठाट-बाट सुनकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। वह अथाह मन के कल्पना-सागर में उद्वेलित विचार-तरंगों में डूबने-उतराने लगी--'हम मेहनत-मजूरी करने वाले नीच-मलिच्छ जनों को सहरी जिनगी का सुआद चखना और पाँचों अंगुरी घी में डालके दिन-रात बिछौना में पड़े रहना कहाँ मयस्सर है?' तब, माई ने उसके चेहरे पर डूबते-उतराते भावों को तत्काल पढ़ लिया था। वह झटपट अपने होठों की प्रत्यंचा कानों तक खींचकर मुँह चियारते हुए भभककर बोल उठी थी, "बुची! तुम रंचमात्र भी फिकिर मत करो। ई गरीबखाने से तुम्हरी बिदाई जल्दी ही होने वाली है। अब ई बूझ लो कि तुम्हारे भी दिन बहुरने वाले हैं। ई कुँवर साहेब तोहें सहर ले जाने आए हैं--तुम्हरी जिनगी सँवारने। पहिले इस टोले की मनदुखनी और फिर सतपुतिया इनके साथ सहर जाके अपना-अपना भाग चमका चुकी हैं। अब तुम्हरी बारी आई है।"

शहर जाने की बात पर झुमका एकदम विहँस उठी। उसको लगा कि उसके पंख उग आए हैं और वह कुलांचे भर-भरकर आसमान में उड़ती हुई चाँद-सितारों से बतिया रही है। उसने ठकुराने गाँव की हमउम्र लड़कियों को अपने शहरी रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की लुभावनी चर्चाएं अपनी सखियों--केतकी और कजरी के मुँह से खूब सुनी है और कल्पनाओं में खुद भी शहर का सैर-सपाटा किया है।

पर, उसका मन अचानक अधीर हो गया, 'नहीं, वह अपने माई-बाबू और छुटभैयों-बहिनों को छोड़कर कहीं नहीं जाएगी। वह जितने उमंग से डीह बाबा के इनार (कुएँ) के इर्द-गिर्द और पुलिया के नीचे, भुतहे खंडहर में कंचा-गोली, गुल्ली-डंडा और लुका-छिपी खेलती है, क्या ऐसी मौज-मस्ती उसे शहर जाकर मिल पाएगी?'

उसका दिपदिपाता चेहरा मलिन पड़ गया। उसने जैसे ही मुँह बिचकाया, माई अपना हाथ उसके सिर पर फेरने लगी, "काहे घबराती हो, बबुनी? कुँवरजी तुम्हारा बड़ा ख्याल रखेंगे। कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं करेंगे जिससे तुम्हारे जी को दुःख पहुँचे। हाँ! तुम्हारे पढ़ाने-लिखाने का बंदोबस्त भी करेंगे।"

झुमका मन के भँवर में उलझ गई, "आख़िर, ई कुँवरजी को क्या मिलता है जो गाँव की उजड्ड छोरियों को सहर ले जाने का ज़िम्मा उठाते रहते हैं?"

तभी, माई फिर जग्गन की तारीफ़ में गाल बजाने लगी, "कुँवरजी को कौन नहीं जानता? ये बहुत बड़े समाजिक कारकर्ता जो ठहरे!"

झुमका ने जग्गन के चेहरे पर पड़ी ळाुर्रियों और उसके गंजे सिर के पीछे बचे-खुचे चुनिंदा सफेद बालों को बड़ी इज़्ज़त से देखा कि इनका अख़बार और टेलीवीज़न में बड़ा नाम होगा क्योंकि जो काम बाबूजी चाहकर भी नहीं कर पाए, वो ये करेंगे। मतलब, बाबूजी बच्चों को सरकारी पाठशाला में भेजने का जुगत कभी नहीं भिड़ा पाए और हमें खेत-खलिहानों की निराई-गुड़ाई में दिहाड़ी पर लगाते रहे। काम से कुछ ना-नुकर करने पर घोड़े की तरह बिदक जाते थे। फिर, झुमका यह सोचते हुए मन मसोसकर रह गई कि 'चलो, सहर जाकर अंगूठा-छाप रहने से बच जाएंगे। फिर, वापस तो माई के घर ही आना है। हमें तो इस आदमी का उपकार मानना चाहिए जो हमारी जिनगी में खुशी का बयार बहाना चाहता है।'

जब वह उठकर बाहर नीम तले शीतला मइया की छाँव में जाकर बैठी हुई अपने मन की बात अपनी सहेलियों के साथ बाँटना चाह रही थी तो उसका मन बिल्कुल उचाट लग रहा था। उसने वापस आकर गगरी में से चुन्नी निकाली और ओसारे में पड़ी बँसखट पर लेट गई--मुँह पर चुन्नी डालकर, ताकि भनभनाती मक्खियाँ उसकी नींद में खलल न डाल सकें और वह सपनों की दुनिया में बेख़ौफ़ विचर सके।

लेकिन, उसे नींद कहाँ आने वाली थी? उसके दिमाग पर शहर जाने का झक सवार होता जा रहा था। उस समय बाबूजी किसी बेहद ज़रूरी काम के बहाने सेठ चतुर्भुज मल्ल से मोहलत लेकर वापस आ चुके थे और सुबह से ही घर में डटे हुए अज़नबी जग्गन कुँवर से दुनियादारी और रोजगार-धंधे की बात कर रहे थे। उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि जग्गन कुँवर बिन बुलाया मेहमान नहीं है। माई-बाबू कई दिनों से उसकी बाट जोह रहे थे।

झुमका बहुत नहीं तो इस बात को इतना तो समळा ही रही थी कि उसके बाबूजी को दो जून की नून-रोटी के जुगाड़ के लिए आसमान-पाताल एक करने जैसी मशक्कत करनी पड़ रही है। सेठ ने तो उसके सारे बदन की सारी चर्बी निचोड़ ली है। पिछले साल की रोंगटे खड़ी करने वाली घटना उसके बालमन को बार-बार कुरेंद जाती है जैसेकि फफोलों को चाकू से गोद-गोदकर उनमें नमक-मिर्च भरा जा रहा हो।

बेशक! बीते आषाढ़ का महीना हर प्रकार से तबाहकुन था। एक तो गर्मी सब कुछ लीलने को आतुर थी; दूसरे, आदमी, आदमी का खून चूसने के लिए बेताब हुआ जा रहा था। महीनों से आसमान रेत और रेह से भरे हुए एक भयानक रेगिस्तान की तरह इस कोने से उस कोने तक पसरा हुआ लग रहा था। घटा के घुमड़ने का नज़ारा देखने के इंतज़ार में हजारों आँखें पथरा गई थीं। पूरब दिशा से बादलों के उमड़-घुमड़कर पहुँचने से पहले ही किरणों की लपलपाती जीभ उन्हें निगल जा रही थी। जो मळाोले किसान थे, वे मानसून के इस झन्नाटेदार तमाचे को तो येन-केन-प्रकारेण बरदाश्त कर ले रहे थे--बाकायदा सरकारी ट्यूबवेलों से महंगे दामों पर पानी खरीदकर। लेकिन, खरपत मंडल यानी ळाुमका के बाबूजी के पास अपने खेत में पानी चलाने के लिए पानी मोल लेने का माद्दा नहीं था। वह पहले से ही महाजन के कर्ज़ में आकंठ निमग्न थे क्योंकि दो साल पहले अपनी बड़ी बिटिया धनुकी के ब्याह के लिए सेठ चतुर्भुज से जो कर्ज़ लिया था, उसने ऊँची-ऊँची सुनामी लहरों की तरह तांडव नृत्य करते हुए उसकी गृहस्थी की चादर को तार-तार कर डाला था। फसल की रोपाई के बाद नन्हे-मुन्ने पौधों को सूरज का ग्रास बनने से बचाने के लिए लाख कोशिशों के बावज़ूद, कोई जुगाड़-पानी नहीं बन पा रहा था। उसकी औकात वाले उस इलाके के कोई छः सात लाचार-बेबस किसान पहले ही आत्महत्या कर चुके थे। पर, वह तो ऐसे बुज़दिल किसानों की हमेशा नुक़्ताचीनी करने से बाज नहीं आता था। वह आख़िरी सांस तक ज़बरदार मौसम से पंजा लड़ाने के लिए डटा हुआ था, मन में यह संकल्प लेते हुए कि अपनी मौत से मरेंगे, लेकिन बेमौत नहीं मरेंगे।

उन दिनों सरकारी बाबू यदा-कदा सूखे क्षेत्रों का दौरा करने के नाम पर वहाँ भी भटककर आ-जा रहे थे ताकि किसी और किसान द्वारा सपरिवार आत्महत्या किए जाने की ख़बर के मीडिया तक पहुँचने से पहले ही उस ख़बर को रफा-दफा किया जा सके क्योंकि किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं पर उन्हें मंत्रियों और बड़े-बड़े हाकिमों के यहाँ से बार-बार तलब किया जा रहा था। उनकी मुअत्तली और बरख़ास्तगी का फ़रमान भी वहाँ से जारी हो रहा था। एक दिन, किसी सरकारी बाबू ने सिंकिया पहलवान खरपत का खून यह जानकारी देकर एकदम से बढ़ा दिया कि आजकल सरकार द्वारा किसानों का न केवल कर्ज़ माफ़ किया जा रहा है, बल्कि बेमियाद सूखा से उत्पन्न मुश्किल हालात से निपटने के लिए उन्हें काफ़ी राहत-रक़म भी दी जा रही है। उसका सीना खुशी से फूलकर फुटबाल हो गया। उसने राहत विभाग को इमदाद के लिए फटाफट अर्ज़ी देने के बाद एक योजना बनाई कि इसके पहले कि हमें राहत मुहैया हो, क्यों न हम सेठ चतुर्भुज से कुछ कर्ज़ लेकर अपने खेत के लिए खाद-पानी का बंदोबस्त समय रहते कर ले; वर्ना, जब तक सरकारी मदद दिल्ली से उस तक पहुँचेगी, बेरहम उमसती-घमसती गरमी उसकी फसल की बलि ले लेगी? उसे हाकिमों के आश्वासन पर इतना भरोसा हो गया था कि वह सोचने लगा था कि अब तो उसके एक फूँक मारते ही महाजन के सारे कर्ज़ का वारा-न्यारा हो जाएगा। इस हेकड़ी में उसने सेठ चतुर्भुज के उस इकरारनामे पर भी हँसते-हँसते अंगूठा लगा दिया जिसमें साफ-साफ लिखा हुआ था कि दो माह के भीतर सूद समेत सारा बकाया न मिलने पर उसका डेढ़ बीघा खेत, खड़ी फसल समेत, ज़ब्त हो जाएगा।

पर, ऊपरवाले को भी धन्नासेठों का घमंड बढ़ाते रहने में ही खूब मजा आता है क्योंकि उसकी पटरी दरिद्रनारायणों के साथ कभी नहीं बैठी है। इसीलिए, उसे फटेहाल खरपत का गुरूर बिल्कुल मंज़ूर नहीं हुआ। पलक झपकते ही दो माह ऐसे बीत गए जैसे चलनी में से सारा पानी बह जाता है। उसने दफ़्तरों से लेकर हाकिमों की कोठियों तक जलती रेत में चल-चलकर अपने गोड़ घिसे और गुहार-मनुहार कर, अपनी ज़ुबान भी छिलकर छोटी की। दरअसल, उसकी राहत राशि तो दफ़्तरों में आई थी; पर, उसे डी.एम., तहसीलदार, कानूनगो और लेखपाल से लेकर सरपंच तक डकार लिए बिना ऐसे पचा-खचा गए थे कि बदहज़मी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। सेठ चतुर्भुज की भी बरसों की दिली मंशा पूरी हुई थी। बार-बार चुग्गा डालने पर भी खरपत नाम की मुर्गी उसके जाल में नहीं फँस पा रही थी। पर, यह सब सेठ द्वारा पिछले ही महीने फ़ैज़ बाबा के दरग़ाह में उनके मज़ार पर चादर चढ़ाए जाने का सुपरिणाम था कि आख़िरकार, ऊँट पहाड़ के नीचे से गुजरने के लिए ख़ुद ही राजी हो गया। इकरारनामे के मुताबिक, खरपत मंडल का खेत, फसल समेत उसकी मिल्क़ियत का हिस्सा बन गया। मरता, क्या न करता? खरपत का दिमाग़ दानापानी की जुगाड़बाज़ी के लिए धारदार छूरी की तरह चल रहा था। उसने हार न मानने की जैसे क़सम खा रखी थी। दिन भर में कम से कम एक बार तो घर में चूल्हा जलाने का बंदोबस्त वह करता ही था। इसके लिए भले ही उसे नाको चने चबाना पड़े। आकाश और पाताल एक करना पड़े। लेकिन, उसने कभी कोई चोरी-चकारी, छिनैती-ळापट्टामारी नहीं की। एक समय ऐसा भी आया कि जबकि खेत-खलिहान छिन जाने की ग़मी मनाते हुए उसका हाल बेहाल हो गया था। फिर, जब कोठियों वाले काश्तकारों की चाकरी करते-करते उसकी नाक में दम आ गया तो वह बेकार-बेग़ार किसानों और मजदूरों के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेने लगा। पर, सरकारी बाबुओं की वहाँ भी चल रही अंधाधुंध लूटमारी से वह बिल्कुल आज़िज़ आ गया। सहकारी फार्मों में चल रहे 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम के तहत आठ घंटे तक तेज लू और घाम में खटने के बाद, जितना उसे अनाज मिलना चाहिए था, उसका आधा तो ठेकेदार रख लेता था और जब वह फार्म से बाहर आता था तो वहाँ बैठे सरपंच के मुस्टंडे गुंडे उसमें से भी आधा हिस्सा ळापट लेते थे। ले-देकर सेर-सवा सेर अनाज इतने बड़े परिवार का मड़ार पेट भरने के लिए और वह भी दो जून तक, ऊँट के मुँह में जीरा के समान था? कहीं और हाथ-पैर मारकर गुजारा नहीं किया जा सकता था। गाँव के सारे ताल-पोखरे भी सूखकर गहरे खड्ड बन गए थे; नहीं तो, फाकामस्ती के दिनों में वहाँ पानी में ळाब्बरदार पैदा होने वाले करेमुआ कासाग खाकर परिवार का पेट पाला जा सकता था।

एक दिन खरपत न तो कहीं काम के जुगाड़ में गया, न ही उसे कहीं से कोई बेग़ारी करने का न्यौता मिला। वह ओसारे में पुआल पर लाचार, औंधे मुँह, नंग-धड़ंग पड़ा हुआ था जबकि उसके बच्चे हथेली पर नमक लेकर चाटते हुए इस आस में आसपास मँडरा रहे थे कि अभी बाबूजी कहीं जाएंगे और नून-तेल का बंदोबस्त करके आएंगे। माई भी बार-बार रसोईं में जाकर कनस्तर और डिब्बे ठोक-बजाकर यह तसल्ली कर आ रही थी कि कहीं भूलवश, कुछ अनाज रखा तो नहीं रह गया है। जब उसे पूरी तरह तसल्ली हो गई तो वह बाहर ड्योढ़ी पर बैठ, कथरी सिलने में व्यस्त हो गई।

दोपहर में खरपत ओसारे से निकलकर बाहर नाद पर बैठ गया। तभी एकदम से रामधन कहार ने उधर से गुजरते हुए उसकी तबियत का ज़ायज़ा लिया, "खरपत भाई! आज काम-धंधे से छुट्टी लिया है क्या? सुनते हैं, तुम्हारी बढ़िया कमाई हो रही है। लेकिन, तुम्हारे बदन पर कहीं चर्बी तो नज़र नहीं आ रही! बीमार-उमार चल रहे हो क्या? नुरूल हक़ीम को दिखाया कि नहीं।" उसने उसके प्रति अपनत्व दिखाने का भरसक नाटक किया।

लेकिन, उसकी व्यंग्य से छौंकी-बघारी बानी खरपत के गले से नीचे नहीं उतर पाई। उसे लगा कि पहले तो रामधन ने उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है; फिर, चोट को सहलाने की कोशिश कर रहा है। इसलिए, उसने पिच्च से नाद में थूका और फिर, अकड़ते हुए खड़ा हो गया, "हाँ, इतना कमा लिया है कि अब बैठे-बैठे रोटी तोड़ रहे हैं।" पर, रामधन समळा गया कि उसके व्यंग्य का जवाब कटाक्ष से दिया जा रहा है। वास्तव में, खरपत की हालत वैसी नहीं है, जैसी कि उसकी है। जब से लालू के रहमो-करम से उसके बेटे की कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर कुली की नौकरी पक्की हुई है, उसका सिर आसमान पर चढ़ गया है। सारा मड़इया गाँव जानता है कि हर महीने की चौथी-पाँचवी तारीख तक डाकखाने में उसके बेटे द्वारा भेजा हुआ पैसा आ जाता है जिससे उसकी पाँचों अंगुलियाँ घी में रहती हैं। तेल-फुलेल, दाना-पानी पर खर्चा-वर्चा करने के बाद उसके पास इतना पैसा तो बच ही जाता है कि शाम को ठेके पर जाकर पउवा हलक से नीचे उतार सके।

उसने तत्काल खरपत की कमर में हाथ डाल दिया, "खरपतुआ! बुरा मान गए क्या? हम तो ळाुट्ठो-मुट्ठो का गाभी (व्यंग्य) बोल रहे थे। हमें तुम्हारा हाल पता नहीं है क्या?"

उस वक़्त, खरपत, एक मगरूर मर्द होकर भी भलभलाकर आँसू बहाते हुए हिल्ल-हिल्ल कर बिलखने लगा था क्योंकि जब से सूखा, सूखे के बाद अकाल और अकाल के बाद सरकारी हाकिमों की अंधेरगर्दी परवान चढ़ती जा रही थी, किसी ने उससे सीधे मुँह बात तक नहीं की थी। लोगों को सामने से कतराते हुए देख, वह जोर-जोर से बड़बड़ाने लगता था, "ई टोले के लोग भी हमें भिखमंगा बूझते हैं क्या कि हमें देखते ही पैंतरा बदल देते हैं? अरे, हम इनके आगे हाथ पसारने थोड़े ही जाएंगे। छूछे हाथ और नीने मुँह मर जाएंगे; लेकिन, इनकी थाली जुठारेंगे तक नहीं। कोई चीज मांगने-जांचने की तो बात ही दूर रही।"

पर, आज रामधन सीधे आकर उससे टकरा गया था। वह मन ही मन भुनभुनाने लगा, "आज कोई बात जरूर है। नहीं तो, रामधन जैसा कुरुच्छ प्राणी उससे इस तरह आकर नहीं भेंटता-चिपकता।"

तभी रामधन ने उससे छिटककर उसके मुँह पर एक जोर का डकार लिया और इस बार मुस्कराते हुए उसको यह अहसास दिलाया कि इस डकार में बैंगन के भुर्ते और शुद्ध देशी घी से चिपड़ी हुई सोंधी-सोंधी लिट्टी की गंध मिली हुई है; इसे लहसुन-मिर्च की चटनी समळाने की भूल कतई मत करना। दरअसल, हरी चटनी तो वो खाते हैं जिनकी टेंटी में अठन्नी से ज़्यादा पैसा नहीं होता।

उसने अपने झक्क सफेद कुर्ते की बगली में हाथ डालकर बटुए में रेज़ग़ारी खनखनाते हुए, खरपत के उत्तर का इंतज़ार नहीं किया।

"खरपतुआ! तूं तो पढ़ा-लिखा है। इस टोले में एक तो दंतखपटा कोइरी मिडिल पास है, दूसरा तूं है--जो मिडिल से ज़्यादा पढ़ा-लिखा है; मतलब यह कि हाई स्कूल फेल है। इतना हुनरदार होकर भी तूं सेठ की दुकान पर बेग़ारी करता है, भट्ठों पर ईंटा पाथता है और ठाकुरों के खेत कोड़ता है। अगर हम तेरी तरह पढ़े-लिखे होते तो सरकारी पाठशाला में चपड़ासी की नुकरी तो जरूर कर लेते। हेडमास्टर केशरीलाल साफ हमसे कहते हैं कि पहिले मिडिल पास का सट्टीफीकेट लाओ; फिर, प्यून बनने का ख़ाब देखना। हम चाहते हैं कि हमरे गाँव का ही कोई भला-मानुस पाठशाला का चपड़ासी बने। दँतखपटा कोइरी को इ जानकारी दी तो ऊ कहने लगा कि उसका पूत तो पहले से ही ठेकेदारी कर रहा है। उसके पेट पर तो पहिले से ही चर्बी चढ़ा है। फिर, ऊ नुकरी क्या करेगा?"

रामधन की इस बकबक से खरपत के हाथ जो बेशकीमती जानकारी हाथ लगी, उससे उसके सीने में भूडोल आ गया। उसने रामधन को फटाफट निपटाया। उसके बाद अंदर जाकर हाथ-मुँह धोया और फ़ैज़ बाबा के दरगाह की ओर मुँह करके मन्नत मांगी। सिर पर अंगोछा लपेटा और मूँछ को पानी से तीखा बनाकर थाली में अपना मुँह देखा; फिर, लगभग भागते हुए सरकारी पाठशाला की सीढ़ियों पर दस्तक दिया।।

उस समय शाम म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अंधेरे में लपककर छिपने की ताक में थी। उसने खुद को धन्यवाद दिया क्योंकि हेडमास्टर साहब पाठशाले में ताला लगाने के बाद अपनी फटफटहिया (मोटरसाइकिल) पर सवार हो ही रहे थे कि वह उनके आगे साष्टांग लेट गया। फिर, झटपट उठकर करबद्ध खड़ा हो गया।

"साहेब! हम हैं खरपतुआ, माने कि खरपत मंडल, सुपुत्र रामपुकार मंडल, मिडिल पास, हाई स्कूल फेल...।" वह इतनी तेज से हाँफ रहा था कि आगे कुछ और नहीं बोल सका।

हेडमास्टर ने फटफटहिया को धकाधक किक मारकर स्टार्ट किया। उसके बाद उसका सांगोपांग जायजा लेते हुए और अपनी मोटी-मोटी मूँछों को सहलाते हुए अचकचाकर रह गए, "मतलब?"

खरपत ने एक लंबी साँस ली और ख़ुद पर काबू पाते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "सरकार! आप हमारा मतलब नहीं समझे क्या?"

हेडमास्टर केशरी लाल ने मोटर साइकिल बंद कर दी और लगभग गुर्राते हुए अपनी ऐनक उतारकर आँख मलने लगे, "बड़े बकलोल इंसान हो! अरे! तुम तो पहिले से ही मिडिल पास हो; फिर, इहाँ काहे आए हो? अपने किसी लौंडे के लिए कोई फर्ज़ी सर्टीफीकेट चाहिए तो कान खोलकर सुन लो--हमने गोरखधंधा बंद कर दिया है...।"

खरपत, मोटरसाइकिल के अगले पहिए के आगे घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गया, "सरकार! हम सुने हैं कि ई पाठशाला में कौनो प्यून की जगह खाली है। आपको तो अभी हम बताए कि हम मिडिल पास, हाई स्कूल फेल हैं। हम ई चोखा टोला के सबसे दमदार कन्डिडेट हैं। आपके मालूम हो कि हम वोही किसान हैं जिसका खेत-बार सब महाजन के पेट में समा गया; न कोई हाकिम हमारा गुहार पर मदद को आया, न कोई सरकारी रसद-माल मिला। फिर भी हम मर-जी के अपने पलिवार को पास-पोस रहे हैं। हमसे बढ़िया हाल वाले किसान सुसाईड करके जिनगी से हार मान चुके हैं। लेकिन, हम हैं कि लड़ ही रहे हैं, लड़ ही रहे हैं। हम बड़ा जीवट वाला इंसान हूँ। जदि आप हमें प्यून की नुकरी पर रखेंगे तो आपको तनिक भी पछतावा नहीं होगा...।"

बोलते-बोलते उसके होठ सूखकर फट गए और जब उसने मुँह चियारकर पूरी तन्मयता से अपनी बात पूरी की तो उसके फटे होठों से खून बहने लगा।

हेडमास्टर का मन जुगुप्सा से भर गया। पता नहीं कैसे अपनी अक्खड़ी और बदमिज़ाजी के लिए कुख्यात हेडमास्टर का दिल टिघर गया? उन्होंने 'हुँह' कहा और आँखें मिचमिचाते हुए किसी विचार-तंद्रा में खो गए। जब तक वे खामोश रहे, खरपत का दिल डूबता जा रहा था। कुछ मिनट बाद, उन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ाई और एकदम घुड़कने के अंदाज़ में अपनी निग़ाहें खरपत पर जमा दीं, "खड़े हो जाओ। हमने कहा कि खड़े हो जाओ।"

खरपत को लगा कि वह गलत समय पर आया है जबकि हेडमास्टर जी घर को जा रहे थे। वह उसी समय हाथ जोड़े हुए आतंकित-सा खड़ा हो गया। पर, उसने हिम्मत नहीं हारी, "जी, हमारी दरख़ास्त नामंजूर हो तो हमें माफ़ कर दीजिएगा। आप खिसियांगे तो हमको एकदम्मे अच्छा नहीं लगेगा...।"

हेडमास्टर ने फटफटहिया के मिरर में आपना चेहरा देखा और फिर, फटफटहिया बंदकर मूँछों पर ताव दिया, "देखो, खरपत मंडल! कल मार्निंग में विद्यालय खुलते ही अपना सर्टीफीकेट लेकर आ जाना।"

खरपत को जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने फटे होठों से रिसते खून पर अपनी जीभ फेरी और फिर जोश से भर गया, "जी बाबू साहेब! आपकी बड़ी मेहरबानी होगी जो हम दुखियारे पर आपका किरिपा होगा...।" वह पेट में हवा भरते हुए घिघिया उठा "परनाम, साहेब!" और करबद्ध नमस्कार करते हुए चलने को हुआ।

हेडमास्टर की दिलचस्पी खरपत में बढ़ गई थी। उन्होंने खरपत को रोका, "देखो, अगर विद्यालय का चपरासी बनाएंगे तो तुम्हें सारी ड्युटी बजानी होगी...।"

खरपत फिर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "जी, मालिक! काहे नहीं? हम सारी ड्युटी बजाएंगे। आपको तनिक भी सिकायत का मौका नही देंगे...।"

"हाँ, पाठशाला का चपरासी होने का मतलब हमारा भी चपरासी...हमारे घर का भी...।" हेडमास्टर अपने चाबुक का भरपूर प्रयोग कर रहे थे।

"जी साहेब! हम खूब समझ रहे हैं..." वह हिनहिनाकर रह गया। वह तो जैसे उनकी सारी शर्तें मानने को पहले से तैयार बैठा था।

उन्होंने गरदन उचकाकर फिर उसे पुकारा, "अरे सुनो, खरपत! पाँच बजे विद्यालय बंद होने के बाद सीधे हमारे घर पर हाजिरी लगानी होगी। गाय-गोरुओं का सानी-पानी लगाना होगा। फुलवारी में पौधे सींचना होगा। सारे घर में झाड़ू-पोछा लगाना होगा। उसके बाद, हाट से साग-सब्जी लाने के बाद ही तुम्हें घर जाने की इज़ाज़त होगी...।"

"जी बाबूसाहेब! आपका सारा हुकुम सिर-आँखों पर।"

पाठशाले की चपरासीगिरी से खरपत के खुश होने के दो कारण थे। एक तो उसकी गृहस्थी की गाड़ी ट्रैक पर आने लगी थी; दूसरे, टोले में उसका मान-सम्मान फिर वापस मिलने लगा था। यह सब फ़ैज़ बाबा की मेहरबानी थी। इसलिए, वह हर ज़ुम्मेरात को दरगाह पर मत्था टेकने से कभी नहीं चूकता था। उसकी लुगाई ने भी हर शुक्रवार को बड़े नेम-धरम से संतोषी माँ का व्रत-पाठ शुरू कर दिया था। पूरा घर एक दुःस्वप्न के बाद फिर से अपने सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होता जा रहा था।

इसी दरमियान एक अज़ीब घटनाचक्र घूमने लगा। हेडमास्टर ने खरपत नाम के बैल को सुबह दस बजे से रात के ग्यारह बजे तक तो हल में जोत ही रखा था। इतने पर भी खरपत को प्रसन्नचित्त देखकर, उन्हें लग रहा था कि साढ़े सात सौ रुपए में वे उससे जो काम ले रहे हैं, वह बहुत कम है और वह उसे खैराती में इतना रुपया दे रहे हैं जबकि वह ऐसा बैल है कि उस पर जितना भी बोळा लादते जाओ, वह घुटने टेकने वाला नहीं है। आख़िर, वह यहाँ से पगहा तोड़ाकर जा भी कहाँ सकता था? जब दऊ बरसेंगे तो वह ऐसा सोच भी सकता है क्योंकि बारिश होने के बाद ही खेत-खलिहानों में काम शुरू होगा और तभी उसे दिहाड़ी पर बेगारी करने का मौका मिल सकेगा। इसलिए, जब हेडमास्टर केशरी लाल ने उस पर बारंबार दबाव डाला कि उसे इसी वेतन में पाठशाला पहुँचने से पहले सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान पर भी सुबह छः बजे से साढ़े नौ बजे तक ड्युटी बजानी है क्योंकि सेठजी उनके पुराने जिगरी दोस्त हैं तो वह मन मारकर यह बेग़ारी करने के लिए भी राजी हो गया। दुनियाभर के लोगों को तो इश्क़-मोहब्बत, जुआ-सट्टेबाज़ी, दारू और दंगे की लत होती है; पर खरपत को तो कठिन से कठिन काम करने की लत पड़ी हुई थी। वह ऐसा जुळाारु शख़्स था जिसे बेकार बैठने से अच्छा, बेगारी करना लगता था। सेठ चतुर्भुज तो उसकी जांबाज़ मेहनत देखकर ही दंग हो गया था। उसके दिमाग में एक ख़ुराफ़ात आया कि क्यों न खरपतुआ को येन-केन-प्रकारेण बंधुआ मज़दूर बनाकर आरामतलब ज़िंदगी का आजीवन लुत्फ़ उठाया जाए।

सो, सेठजी ने एक दिन पूरी तैयारी के साथ अपनी साज़िश का जाल बिछाया।

खरपत के लिए चढ़ते आषाढ़ का वह दिन एक ख़ौफ़ बनकर आया था। उसकी लुगाई और बच्चों को क्या पता था कि उस दिन जब खरपत काम पर जाएगा तो शाम को उससे उनकी मुलाक़ात घर के बजाए, हवालात में ही होगी? सबेरे से ही खरपत, चतुर्भुज सेठ की दुकान में अपना खून-पसीना एक करने में लगा हुआ था। जब साढ़े नौ बजने को आया तो उसने सेठजी से पाठशाला जाने की अनुमति मंागी। जब तक वह गीले गमछे से हाथ-मुँह पोछकर तैयार होता तब तक सेठ ने चुपके से खूंटी पर टंगे उसके कुर्ते की जेब में तीन सौ रुपए डाल दिए और साथ में, उन नोटों के नंबर भी नोट कर लिए। बुड़भक खरपत कुर्ता पहनकर सीधे पाठशाला पहुँचा। इधर सेठ चतुर्भुज ने पुलिस चौकी में उसके ख़िलाफ़ फ़ौरन चोरी का रपट लिखाकर, उसके पीछे-पीछे कुछ सिपाहियों को भी लगा दिया। बेचारा खरपत पाठशाला में बच्चों को पानी पिलाते वक़्त रंगे-हाथ पकड़ा गया। सिपाहियों ने उसकी बगली से उसी नंबर के नोट बरामद किए, जिसके बाड़े में सेठ नो उन्हें बताया था। उसे चौकी में ले जाकर बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठा से पूजा-पाठ की। लेकिन उसी वक़्त, खुद सेठ चतुर्भुज घड़ियाली आँसू बहाते हुए उसे रिहा कराने चौकी पर आ धमके। उन्होंने ळाट कराहते-कलपते खरपत को निचाट में ले जाकर उसकी चोट पर मरहम-पट्टी लगाने की नौटंकी खेली,"खरपतुआ! जो हुआ, सो हुआ--इसमे किसी का दोष नहीं है, आदमी की नीयत का क्या भरोसा--सब क़िस्मत का बदा था। इसलिए, अब आगे की सोच। हमारे पास तुम्हारे फिक्र को ख़त्म करने का एक फार्मूला है। अगर हमारा एक शर्त मान लोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हम अभी तुम्हें इहाँ से छुड़ा ले जाएंगे।"

खरपत तो ताज़्ज़ुब के सैलाब में डूब गया कि ये तिगड़मबाज़ सेठ अब जुआ और पचीसी का कौन-सा दाँव उसके साथ खेलने की फिराक़ में है। अब अगर इसने और कोई चालबाजी चलने की कोशिश की तो उसके परिवार का तो वारा-न्यारा हो जाएगा। चूंकि उसे अपने परिवार के जीवनयापन की दुश्चिंता सता रही थी; इसलिए, वह अपने गुस्से पर धीरज का भारी पहाड़ रखते हुए, गिड़गिड़ा उठा, "आप जिस तरह से भी हो सके, हमें इहाँ से छुड़ाके ले चलिए; नहीं तो हमारे बाल-बच्चे भूखे-पियासे मर जाएंगे...।"

सेठजी मन ही मन मुस्करा उठे--हरामज़ादे को अपनी कर्मठता पर बड़ा ग़ुरूर था। अब इस मगरूर आदमी को कीड़े-मकोड़े की तरह रेंगते हुए देखने का टाइम आ गया है। वह तो पहला पासा चलकर उसके खेत पर काबिज़ हो ही गए थे; अब यह दूसरा पासा चलकर इसे इस लायक नहीं छोड़ेंगे कि वह फिर किसी जानवर से बेहतर ज़िंदगी जी सके।

सेठजी का चेहरा चमक उठा, "खरपत! तू कितना होशियार है--यह बात मेरे सिवाय किसको पता है?"

खरपत, डबडबाई आँखों से सेठ के अंदर छिपे काइएं इंसान का साक्षात दर्शन कर रहा था।

सेठ ने आदतन बाईं आँख मारते हुए अपनी शर्त का खुलासा किया, "अगर तुम सारी उम्र सेठ चतुर्भुज मल्ल की चाकरी करने को राजी हो जाओ तो हम अभी तुम्हें यहाँ से मुक्ति दिला सकते हैं। बदले में, हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखो नहीं मरने देंगे। हम तुम्हें उतना दाना-पानी देते रहेंगे जितने से तुम ज़िंदा रह सको और हमारी ख़िदमत कर सको। बोलो, है मंजूर; वर्ना, हम तो चलते हैं। हवालात तुम्हें मुबारक हो!"

खरपत ने सेठ के पाँव पकड़ लिए।

"हज़ूर! हम फ़ैज़ बाबा की किरिया (कसम) खाते हैं कि हम चाकरी करते-करते आपके ही ड्योढ़ी पर दम तोड़ेंगे। बस, आप हमे इस नरक से उबार लीजिए।" उसने सिर पर हाथ रखकर, वफ़ादार बने रहने का वादा किया; फिर, सेठ के लिए नफ़रत से मुँह में भर आए ख़खार को निगलते हुए अपनी भींगी आँखें रगड़-रगड़ कर पोछी।

खरपत को अच्छी तरह पता था कि पिछले सात पुश्तों से उसके खानदान में किसी जनानी को ऐसा बुरा समय नहीं देखना पड़ा था जैसाकि उसकी लुगाई यानी मुरळाौंसी को देखना पड़ा। खरपत तो मुँह-अँधेरे उठकर काम पर निकल जाता था और रात ग्यारह बजे ही टायर की चप्पल छपछपाते हुए घर में दाख़िल होता था। इस कमर-तोड़ मेहनत के बदले में उसे क्या मिलता था--बस, तीन पाव आटा, सवा-पाव उस्ना चावल और डेढ़ सौ ग्राम खेसारी की दाल। इससे ज़्यादा के लिए मुँह खोलने पर सेठ चतुर्भुज उसे ताबड़तोड़ गाली-गलौज़ से उसकी ज़ुबान पर ताला लगा देता था। दरअसल, खरपत ख़ुद ही अपनी बेवकूफ़ी की वज़ह से सेठ द्वारा फैलाए गए जाल में फँसता चला गया था। अगर उसने सरकारी बाबुओं की ज़ुबान पर यक़ीन नहीं किया होता और सेठ के साथ इकरारनामे पर आँख मूँदकर अंगूठा नहीं लगाया होता तो आज उसको यह दिन नहीं देखना पड़ता। मौज़ूदा हालात में उसे सेठ को दी गई अपनी ज़ुबान के मुताबिक उसकी जीवनपर्यंत ग़ुलामी करने के सिवाय कोई और चारा नहीं था। उसमें इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह कहीं और भागकर किसी रोज़गार की तलाश करे और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करे। सेठ ने उसे धमकियाते हुए कड़े शब्दों में चेतावनी दे रखी थी कि चाहे वह पाताल में चला जाए, वह अपने आदमियों से उसे ढुँढवा ही लेगा और तब वह उससे और बुरी तरह, यानी साँड़ की तरह पेश आएगा।

इसी दरमियान, एक दिन उसने किसी मुलाकाती को सेठ से उसकी दुकान पर बतकही करते हुए पाया। चूँकि बातचीत से मामला कुछ संवेदनशील-सा लग रहा था, इसलिए उसने काम में व्यस्त रहने का बहाना बनाकर उनकी बातचीत को पूरे ध्यान से सुना। सेठ उस आदमी को आश्वासन दे रहा था कि वह जल्दी ही उसके लिए किसी 'सुगिया' का बंदोबस्त कर देगा; मगर, उसके लिए उसे बढ़िया सेवा-पानी करनी पड़ेगी। प्रत्युत्तर में, मुलाकाती उसे संतुष्ट करने का वादा करते हुए वापस लौट गया। खरपत को यह समझने में ज़्यादा सिर नहीं खपाना पड़ा कि ये 'सुगिया' कोई और नहीं, बल्कि गाँव की लड़कियाँ हैं जिनका सेठ खरीदफ़रोख्त करता है। उसे अचानक याद आया कि कैसे गाँव की कुछ लड़कियाँ एकबैक गायब होती रही हैं जिनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं मिल सकी क्योंकि उनका सौदा करने वाले उनके माँ-बाप ने उनकी तलाश में समाज को दिखाने भर के लिए ही इधर-उधर हाथ-पैर मारे थे। यह अफ़वाह पहले से ही हवा में था कि अमुक ने अपनी बिटिया का शहर में सौदा कर दिया है। नफ़रत से उसका मुँह खखार से भर गया कि कैसे-कैसे लोग हैं जो अपनी बेटियों को बेचकर चैन की बंसी बजा रहे हैं और मजे से रोटी खा रहे हैं।

दूसरे दिन, जब खरपत दुकान में दुछत्ती से कुछ अनाज की बोरियाँ नीचे उतार रहा था कि तभी सेठ खुद उठकर उसके सामने आया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, "खरपतुआ! तनिक सुस्ता-सुस्ताके काम किया कर, नहीं तो पीठ में साल पड़ जाएगा।"

खरपत समझ गया कि सेठ जरूर कोई मतलब की बात करने वाला है क्योंकि वह मतलब में ही इतनी हमदर्दी से पेश आता है।

सेठ ने उसके उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और उसका हाथ पकड़कर और उसे खींचकर अपने बगल में बैठाया।

"खरपतुआ! हमें तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की चिंता हमेशा सताती रहती है। अब हम तुमसे इतना काम लेते हैं तो इसका माने तो ई नहीं है कि हम तुम्हारी भलाई नहीं चाहते हैं।"

खरपत ने अपना सिर खुजलाया और पसीना पोछा, "सेठजी, हम इतने में ही खुस्स हैं। आपके इहाँ, हमरी दिहाड़ी चलती रहे, बस इसी में हमरा हित है।"

"देख, खरपतुआ! हमसे कौनो बात छिपी नहीं है। तुम्हारी बड़की बिटिया जवान हो रही है और उसका चिंता हमें भी खाए जा रहा है। आख़िर, तुमको उसका हाथ पीला करना है कि नहीं?" सेठ ने उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाते हुए उसकी दुखती रग पर हाथ रख ही दिया।

"सेठजी! हम उसके बियाह-गौने के लिए अपनी मड़ई आपके इहाँ रेहन पर रख देंगे।" खरपत सोच रहा था कि अपने मन की बात सुनकर सेठ की बाँछें खिल जाएंगी; मगर, नखरेबाज सेठ के माथे पर तो उसके लिए चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उसे सेठ का इरादा बेहद तबाहकुन लगा।

"अब तुम हमें एकदम्मे कस्साई समळा बैठे हो क्या? अरे, हमें तुम्हें बेघर थोड़े ही बनाना है।" सेठ ने बड़ी आत्मीयता से उसके कंधे को सहलाया।

"देख, हमारे पास एक ठो रिस्ता आया है--तुम्हारी बिटिया के लिए। कल जो आदमी हमसे मुलाकात करने आया था, वो अपना घर बसाना चाहता है।"

खरपत चौंक गया, "सेठजी! अब ई अन्याय हमारे बच्चों के साथ मत कीजिए। अरे! ऊ आदमी तो हमसे भी उमरदराज़ है। हमरी ळाुमका तो अभी बारह बरिस की भी नहीं हुई है। ई बेमेल बियाह के लिए हम कभी तैयार नहीं होंगे। आखिर, ळाुमका बबुनी हमारी बिटिया है, दुस्मन नहीं।"

"देख, खरपतुआ! तेरे जैसा सोळाभक इंसान तो हम आज तक नहीं देखे। अरे! लड़की को क्या चाहिए? खाने को बढ़िया खाना, पहिनने को चटख-चमकदार कपड़ा, रहने को दुमहला मकान औ' मटरगश्ती करने के लिए हाट-बाजार। तो, ई सब जग्गन कुँवर उसको मुहैया करा देगा। रही उसके उमरदराज होने की बात तो ऊ ऐसा मर्द है जो इतनी ज़ल्दी बूढ़ा होने वाला नहीं है। तुम्हारी बिटिया को वो खूब मौज़ देगा। अब तुम ही बताओ कि आदमी की कीरत देखी जाती है या उसकी सकल-सूरत?"

खरपत सचमुच गहरे सोच में पड़ गया।

सेठ फिर बोल उठा, "खूब सोच-विचार ले। अपनी मेहरारू से भी राय-सलाह कर ले। हम ताल ठोंकके कहते हैं कि तुम्हारी बिटिया जग्गन की लुगाई बनके बड़े ठाठ से एक ठाकुर परिवार में राज करेगी। तुम तो ठहरे मलेच्छ जात के जबकि जग्गन खाँटी रघुबंसी छत्री है।"

खरपत तो उसकी बात सुनकर बेज़ुबान हो गया था। क्योंकि सेठ ने आसमान का रिश्ता पाताल से करने की बात कही थी। सेठ ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "देख, ई बड़े फ़ायदे का सौदा है। मतलब ये कि तुझे एक पैसा भी नहीं खर्चना पड़ेगा। उल्टे, तुझे दस हजार रुपया दिया जाएगा जिससे तूँ अपनी फटेहाली पर बढ़िया से पैबंद लगा सकता है। बोल, अगर ये शर्त तुळो मंजूर है तो हम आगे बात बढ़ाएं; नहीं तो चोखा गाँव के बहुत सारे लोग अपनी बिटिया जग्गन को देने को तैयार हैं।"

उस दिन खरपत एक पल को भी सुकून से नहीं बैठ पाया। उसका भी मन डोलता जा रहा था कि इतने बड़े घराने से रिश्ता बनाकर उसे बड़ी इज़्ज़त मिलेगी। पर, वह बड़े असमंजस में था। वह यह सोचकर ज़्यादा बेचैन था कि मुरझौंसी झुमका को जग्गन के साथ बियाहने की बात मानेगी कि नहीं। वह उसे किस तरह मनाएगा? पाठशाला में भी वह सेठ चतुर्भुज की बातों में ही खोया हुआ था। उसका मन बार-बार उसे उकसा रहा था कि 'खरपतुआ! अगर तूं अपनी एक बिटिया का ऐसे सौदा कर लेगा तो बाकी परिवार तो राजी-खुशी से जीवन गुजार सकेगा। दस हजार रुपया कम नहीं होता है। इतने रुपए से तूं सेठ की बेग़ारी और पाठशाला में गाँड़घिसाई से निज़ात पा सकता है। बड़े मजे में एक ठेलागाड़ी खरीदकर जूस या कुल्फ़ी बेचने का धंधा शुरू कर सकता है।'

रात को घर पहुँचकर वह इतना चिंतामग्न था कि जब मुरळाौंसी ने उसके लिए छिपली में लिट्टी-चोखा परोसा तो वह कायदे से कौर बनाकर खा भी नहीं पा रहा था। मुरझौंसी बहुत देर तक उसे ऐसी हालत में देखकर उकता-सी गई, "झुमका के बाऊ! कौनो अनर्गल बात हो गया है क्या? न तो ठीक से खाना खाय रहे हो, न हमसे तबियत से बतियाय रहे हो...।" तब, खरपत ने छिपली को एक किनारे टरकाकर, लोटाभर पानी पीया और खैनी मसलते हुए होठ के नीचे दबाया। फिर, मुरझौंसी को लेकर बँसखट पर पसर गया। पहले, उसने उसे जी-भर प्यार किया; उसके बाद, एकबैक उठ बैठा। उसकी इस हरकत पर मुरझौंसी मुँह फुलाकर औंधे मुँह लेट गई। तभी खरपत ने बैठे-बैठे झुककर अपना मुँह उसके कान से सटा दिया, "झुमका की माई! एक ठो हमरी बात मान लो तो तुम्हें कुछ दिन तलक मुफ़लिसी और फाकामस्ती से छुटकारा मिल सकता है...।"

मुरझौंसी का मुँह ताज़्ज़ुब से खुला रहा गया, "ऊ कइसे, झुमका के बाऊजी?"

उसने मुरझौंसी के कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, "झुमका को सहर पठा दो...।"

मुरझौंसी भभक उठी, "मतलब ये कि तुम उसको कोठे पे बिठाके चैन की नून-रोटी खाना चाहते हो। अरे, तुम उसके बाप हो कि दुस्मन?"

खरपत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, "अरे, सहर का माने कोठा ही नहीं होता है। और ई बात कान खोलके सुनलो! हम झुमका के ही बाप नहीं, बल्कि उससे छोटे-छोटे पाँच और बच्चों के बाप हैं। तुम क्या बूझती हो कि हम ळाुमका को रंडीखाने भेज रहे हैं?"

मुरझौंसी आँख मिचमिचाते हुए उसे ताकती रह गई, "हम तो इहै बूळा रहे थे।"

खरपत ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "उसके लिए एकठो बढ़िया रिस्ता आया है; बदले में दस हजार रुपिया भी मिलेगा।"

मुरझौंसी ठुड्डी पर हाथ रखकर बड़े हैरत में पड़ गई, "ळाुमका के बाऊजी! ई कौन-सी पहेली बुळाा रहे हो? इस जहान में क्या कोई अइसा भी आदमी है जो हमारी बुचिया से बियाह भी करेगा औ' पइसा भी देगा?"

खरपत उसकी पीठ सहला-सहलाकर उसे समळााने लगा, "तुम क्या ई बूळाती हो कि जैसे गाँव-जवार में बियाह औ' गौने पे लेन-देन का रसम चल रहा है, वैसे ही सहर में भी चल रहा है? अरे, तुम गाँव में बैठके बुद्धू की बुद्धू ही रह गई। जमाना कितना बदल गया है कि बड़े-बड़े घरानों में लोग लइकी को लछमी मानने लगे हैं!"

उस रात मुरझौंसी सचमुच अपने आदमी के कहने में आ गई। खरपत ने उसे दिन में ही तारों के दर्शन करा दिए थे। उसने उसे अपने लल्लो-चप्पो में इतना बहला-फुसला लिया कि सारी रात उसकी आँखों के सामने कुरकुरे रुपए ही नाच दिखाते रहे। अगले दिन, खरपत ने सेठ के मार्फ़त, जग्गन कुँवर को फौरन चोखा गाँव आने का न्यौता भिजवा दिया।

चंठ जग्गन कुँवर को बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी मुस्कराने की आदत थी। रोना तो उसे आता ही नहीं था। किसी ने भी उसको कभी दाँत पीसते हुए, इतने गुस्से में नहीं देखा था। पर, बात ही ऐसी थी कि उस दिन वह गुस्से में मुस्कराना भूल गया। ळाुमका उसके साथ पूरे पाँच साल तक उसकी बीवी का, मन से या बेमन से, फ़र्ज़ निभाती रही। लेकिन एक दिन वह उसके घर से ऐसे चंपत हुई कि किसी को कानो-कान भनक तक नहीं मिली। अगर वह किसी ऐरे-गैरे के साथ भागती तो जग्गन को इस बात का कोई ख़ास मलाल नहीं होता। थाने में रपट लिखाकर चुम्मारके बैठ जाता। लेकिन, वह तो उसके ही घरेलू नौकर--चितेरा महतो के साथ भागी थी। जग्गन चप्पे-चप्पे में ळाुमका की छानबीन खत्म करने के बाद, आख़िरकार, इस नतीजे पर पहुँचा कि ळाुमका बेशक, चितेरा के साथ ही भागी होगी। काफी समय से दोनों के बीच लुका-छिपी चल रही थी और यह सब देखकर भी जग्गन को उनके संबंधों पर यह सोचकर कोई संदेह नहीं हो रहा था कि मलेच्छ चितेरा तो उसका नौकर है; उसकी क्या मज़ाल कि वह हमारी औरत पर हाथ डाले? पर, उनके बीच नाज़ायज़ ताल्लुकात पहले से ही बन गए थे। अगर उसे जरा-सा भी अंदेशा हुआ होता तो वह पहले तो ळाुमका को ज़िंदा आँगन में गाड़ देता; फिर, चितेरा का सिर, धड़ से अलगकर उसकी लाश चील-कौवों को खिला देता। ळाुमका की इस हरकत से उसकी सारे गाँव में थू-थू हो गई थी। गाँववाले ताने और फितरे कसने से बाज़ नहीं आ रहे थे कि...जवान औरत को सम्हालना जग्गन बुढ़ऊ के वश की बात नहीं थी...मरभक्क ळाुमका, जग्गन का दूध-दही, मांस-मछली और माल-मलाई चाँभकर दो बरस में ही बच्ची से पूरी औरत बन गई थी; उसके गदराए ज़िस्म से जवानी फूट-फूट कर बह रही थी...उसे तो चितेरा जैसा ही छरहरा मर्द चाहिए था जो उसे ढूँढे बग़ैर घर में ही मिल गया...ळाुमका पाँच साल तक जग्गन के साथ उठती-बैठती-सोती रही...इतने समय में भी जब वह अपनी मर्दानगी साबित नहीं कर सका तो बेशक! उसमें ही कोई खोट रहा होगा...तभी तो उसने जवानी के दिनों में शादी नहीं की थी...उसे अपनी मर्दानगी पर भरोसा नहीं हो रहा था, वरना, मड़इया गाँव के ठाकुर तो, जवानी क्या, बुढ़ापे में भी इधर-उधर मुँह मारते रहने से बाज नही आते; घर का दूध पीते रहना उन्हें कहाँ रास आता है; उन्हें तो बाहर की गाय-भैसों का मलाईदार दूध गटकना ही भाता है...जग्गन के पड़ोसी ठाकुर पटाखा सिंह को ही देखो; उसका दावा है कि मड़इया गाँव के खेत-खलिहानों में मजूरी करने वाले ज़्यादातर लड़के उसके ही पैदा किए हुए हैं...खेतों की निराई-गुड़ाई करने वाली शायद ही कोई घसियारिन उससे महफ़ूज़ बची होगी--और वे लौंडे तो उन्हीं के पेट से निकले हैं।

जग्गन कुँवर गलती से पुलिस चौकी रपट लिखाने चला गया। यों तो उसे यह बात अच्छी तरह पता रही होगी कि उसने नाबालिग झुमका को अपनी लुगाई बनाकर एक बड़ा कानूनी जुर्म किया है। पर, ठाकुरी तैश में उसे इसका कुछ ख्याल आया ही नहीं। लेकिन, यह क्या? पुलिस चौकी में पहले से मौज़ूद ळाुमका और चितेरा को देख, पल भर को तो उसके होश ही फ़ाख़्ता हो गए कि आख़िर, बात क्या है। क्या चोर ख़ुद थानेदार के पास अपनी ग़ुनाह कबूलने आया है?

चितेरा ने दीवान के कान में फुसफुसाकर कहा, "सा'ब जी! यही जग्गन है...।"

दीवान की भौंहें तन गईं, "अच्छा! तूँ खुद चलकर अपना ज़ुर्म कबूलने आया है?" वह लाठी ठकठकाते हुए जग्गन के दाएं-बाएं चहलकदमी करने लगा।

जग्गन अपना सिर खुजलाने लगा, "आप भी क्या बात करते हैं, दीवानजी? हम तो खुद ही इस हरामज़ादे के ख़िलाफ़ इहाँ रपट लिखाने आए हैं। इसने हमारी लुगाई को भगाया है...।" उसने चितेरा की तरफ़ इशारा किया।

दीवान ने अपनी लाठी की नोक उसके सीने पर टिका दी, "अच्छा! ये तेरी लुगाई है? तुळो पता है कि ये नाबालिग लड़की है? तेरे ऊपर लगातार पाँच सालों से इसके साथ रेप करने का संगीन ज़ुर्म बनता है। इसके लिए तुळो सात साल की जेल होने से ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता...।"

वह हकला उठा, "लेकिन, दीवानजी! ई हमारी बीबी है...।"

"हाँ, हमें सब मालूम है कि तू इसे चोखा गाँव से खरीदकर लाया था, ब्याहकर नहीं...।" दीवान ने गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं।

जग्गन ने चितेरा की ओर बड़े गुस्से में देखा, "आस्तीन का साँप...।"

दीवान जग्गन को एक भद्दी गाली देते हुए घुड़का, "एक और भारी गुनाह किया है तूने?"

जग्गन का मुँह खुला रह गया, "क्या?"

"तूने कोई तेरह साल पहले एक नौ साल के अनाथ बच्चे को अपना यहाँ जबरन बंधक बनाकर नौकर रखा था। वह तेरह सालों से तेरे घर में जी-तोड़ बेग़ारी कर रहा है। तूने तो उस बच्चे मतलब चितेरा की ज़िंदगी ही गुड़ गोबर कर दी। क्या तुझे पता है? चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से मेहनत-मज़दूरी कराना कानूनन ज़ुर्म है। इसके लिए भी तुळो दो साल तक जेल की हवा खानी पड़ेगी।" खुद्दार दीवान शेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था।

जग्गन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, "सा'ब जी! आपके मालूम हो कि हम बहुत बड़े रईस ख़ानदान के ठाकुर हैं...।" "तो क्या हुआ? कानून की नज़र में सभी अपराधी एक-से होते हैं।" दीवान गुर्रा उठा।

"दीवानजी! कुछ ले-देके मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दीज़िए और हमारी लुगाई हमें वापस सौंप दीज़िए...।" उसने उसके कान में फुसफुसाकर कहा।

"हरामी के पिल्ले! तूँ अब तो सारी हदें लाँघता जा रहा है...।" दीवान ने लाठी को कुर्सी के सहारे टिकाते हुए, एक जोरदार तमाचा जग्गन के मुँह पर जड़ा और उसे धक्का देकर हवालात में डाल दिया।

जग्गन सारे हिकमत लगाकर भी मुक़दमा हार गया। उसे नौ साल का कठोर कारावास मिला। जबकि कोर्ट के आदेशानुसार झुमका, चितेरा महतो के साथ वापस मड़इया गाँव आकर, जग्गन के ही घर में रहने लगी। हालांकि दोनों ने न तो मंदिर में, न ही कहीं और जाकर सार्वजनिक रूप से शादी की। लेकिन, कोर्ट ने उन्हें पति-पत्नी के रूप में रहने का आदेश जारी कर दिया था। जब गाँववालों ने इस पर आपत्ति की तो दीवान ने गाँववालों को सख़्त चेतावनी देते हुए, दोनों की हिफ़ाज़त के लिए उनके घर पर तब तक एक हवलदार तैनात किए रखा जब तक कि मामला ठंडा नहीं पड़ गया। बहरहाल, बूढ़ा जग्गन कायदे से जेल में तीन साल भी पूरा नहीं कर सका। एक रात जेल में ही उसकी मौत हो गई। चूँकि उसका कोई वारिस नहीं था; इसलिए, ख़ुद चितेरा ने उसे मुखाग्नि दी।

आजकल चितेरा ने अपने ससुर खरपत मंडल को सपरिवार मड़इया गाँव बुला लिया है। उसने स्वर्गीय जग्गन की मिल्कियत का कानूनन वारिस होने के नाते अपने ससुर को उसके खेतों में खेती करने का मालिकाना हक़ दे दिया है। सेठ चतुर्भुज, जग्गन की अकूत ज़ायदाद पर अपनी गीध नज़र जमाए हुए, अभी भी मड़इया गाँव आते रहते हैं। पर, चितेरा महतो से अपनी दाल न गलने के कारण वे उसकी ख़ुशामद करने से बाज नहीं आते हैं। इसकी वज़ह साफ है: चितेरा ने जग्गन से ही सीखा है कि सेठों के आगे चुग्गा डालकर अपना उल्लू कैसे सीधा किया जाता है। बहरहाल, उसने सेठ से दो टूक शब्दों में ऐलॅान कर रखा है कि 'हम ही ठाकुर जग्गन कुँवर के असली वारिस हैं। मतलब यह कि ठाकुर का वारिस, ठाकुर होता है। कोई शक? इसलिए, तुम्हारे गोरखधंधे से होने वाले मुनाफ़े में हमें उतने का ही हक़ है, जितने का चचा जग्गन को था। हाँ, तुम्हारे धंधे में हम उतने ही मनोयोग से मदद करते रहेंगे, जितने मनोयोग से चचा जग्गन किया करते थे।'

सेठ वापस चोखा गाँव जाते हुए दबी आवाज़ में बुदबुदाया, "हम अच्छी तरह आपकी बात समझ रहे हैं, नए ठाकुर सा'ब! आपकी मेहरबानी से मिल-बाँट कर खाने में कोई हर्ज़ नहीं है।"

(समाप्त)