नया त्यौहार / मनोहर चमोली 'मनु'

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हम उदारवादी हैं। ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’, ‘बहुजन हिताय’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसी सैकड़ों सूक्तियां हैं, जो हमारी हैं और विश्व में प्रसिद्ध हैं। हमारा सिर कट जाता था। पर ‘पगड़ी’ किसी के आगे नहीं झुकती थी। हम पर अंगुली उठ जाए तो घोर अपमान की पराकाष्ठा समझी जाती थी। नाक का ही तो प्रश्न था कि कौरवों ने सुई की नोक के बराबर भूमि भी पाण्डवों को देने से इंकार कर दिया था। परिणाम महाभारत। सूपर्णखा की नाक ही तो कटी थी, परिणाम? सीता हरण। हम ऊँची नाक वाले हैं। हम भारतीयों का वश चले तो नाक को मस्तक से भी ऊँचा स्थान दे दें। पर ये सब बीसवीं सदी तक की साख थी। आम भारतीयों के लिए तो आज भी है।

आज स्थितियां उलट हैं। ये इक्कीसवीं सदी है। सब कुछ बदल गया है। नेता भी। इन नेताओं ने मानव देह तो नहीं छोड़ी, अलबत्ता मानवीय गुण और संवेग तो छोड़ ही दिए समझिए। गध कभी रोता नहीं। उफ तक नहीं करता। न ही अपने स्वामी के प्रति बगावत करता है। गधा चिकना घड़ा तो नहीं है। मगर नेता?

वो दिन दूर नहीं जब इन नेताओं को दूसरा जीव समझ लिया जावेगा। कारण? खैर छोड़िए। सीधे मुद्दे पर आते हैं। हां तो हम पाते हैं कि ‘जूता’ निंदा का पात्रा नहीं, अछूत-सा है। आज भी अधिकांश भारतीय जूते को घर की देहरी पर उतारते हैं। घर के भीतर नहीं ले जाते। ले जाना विवशता है तो उसके रखने की एक निकृष्ट सी जगह है। वाहनों पर तो बुरी नजर वालों के लिए जूता टंगा होता है। लाल और चमकदार रंग से लिखा होता है- ‘बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला’ यानि बुरी नजर से देखा तो ‘जूता’ है।

सामाजिक बहिष्कार के लिए निकृष्ट कार्य करने वाले को गधे पर बिठाकर जूतों की माला पहनाकर घुमाये जाने की इक्की-दुक्की घटना सबने देखी ही होगी। ‘जूता’ किसी भी दृष्टिकोण से सम्मानीय नहीं माना जाता है। पर हमारे नेताओं ने जूते के प्रति नजरिए को बदल डाला है। स्वाधीनता आंदोलन में जेल गए भारतीयों को जैसे आज भी आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उसी प्रकार सुनते हैं कि देश जूते खाने वाले नेताओं को एक विशेष दिवस पर अलंकरण समारोह में सम्मानित करेगा। बताते हैं कि जिस प्रकार हम स्वाधीनता और गणतंत्र दिवस मनाते हैं, उसी प्रकार गली-मुहल्लों में ‘जूतखाय दिवस’ मनाया जाएगा। अभी उस सटीक दिवस की घोषणा नहीं हुई है। यह माना जा रहा है कि उसे होली और दीवाली जैसे त्यौहारों के आस-पास न रखा जाए। ताकि इस नये त्यौहार की चमक फीकी न पड़ने पावे।

इस नई सदी के पहले दशक में जूते खाने वाले नेताओं की सूची संकलित की जाएगी। खास नियम बन चुके हैं। मसलन सार्वजनिक स्थलों में विशेषकर भाषण देते समय श्रोताओं द्वारा जूते खाने वाले नेताओं को वरीयता दी जाएगी। प्रथम दृष्टया जूतों की बौछार को छद्म माना जाएगा। एक सभा में एक ही नेता पर जूता फेंका गया हो। जरूरी है कि जूता हवा में जरूर उछला हो। जूते खाने वाला नेता ही होना चाहिए। नेताओं के लिए मतदाता फोटो पहचान पत्रा की तरह एक कार्ड बनेगा। नेता को एक आवेदन भरना होगा, जिसमें शपथपूर्वक यह घोषणा करनी होगी कि जूता फेंकने वाला करीबी रिश्तेदार नहीं था। जूता इरादतन उसी को इंगित कर फेंका गया था।

इन नियमों में दलों में अखिल भारतीय स्तर की बैठकें हो चुकी हैं। विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि सभी दल इस ‘जूता फेंक’ लगभग स्थापित हो चुकी परंपरा को आत्मसात् कर चुके हैं। जूता बनाने वाली कंपनियों ने भी उपने उत्पादों में ऐसे जूतों के मॉडल उतारे हैं, जो झट पांव से उतारे जा सकते हैं। हल्के मगर दूर तक पफेंके जाने वाले जूतों की खरीददारी बढ़ गई है। ऐसे जूतों की मांग भी बढ़ गई है, जो धूलरहित हों और हाथ में पकड़ते समय आरामदायक हों। अलंकरण समारोह में नकद धनराशि और एक मुश्त पेंशन राशि पर दलों में एक राय नहीं बन पा रही है। मगर यह तय है कि जूता खाना दलीय स्वाभिमान का हिस्सा तो मान ही लिया जाएगा। यह इस देश; उदारवादी में ही संभव है।