नया बरस / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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हम दोनों की मुलाकात एक बड़ी से जेल में हुई थी। मैं कितने बरस से इस क़ैद में थी, कुछ याद नहीं आता था और किस गुनाह की सजा काट रही थी, अब वह भी याद नहीं। हाँ पहले ही दिन जेलर साहब ने बताया था कि गुनाह इतना बड़ा है कि तुम्हारी रिहाई होना मुश्किल है। उस दिन से इस कैदखाने को ही अपना घर समझने लगी थी। वैसे भी बाहर कोई अपना सगे वाला था भी नहीं, जो इंतज़ार करता मेरे रिहा होने का, इसलिए इन पत्थरों की ऊंची दीवारों से ही प्रेम हो गया था मुझे। सारा दिन पत्थर की चक्की पर नमक पीसने का काम मिला था मुझे और मैं बहुत खुश थी नमक के पहाड़ बनाकर। सफेद, खारे पहाड़ बनाते हुए मेरे हाथों में छाले पड़ गए थे और फिर धीरे-धीरे इस नमक से देह भी गलने लगी थी।

मुझे अब लगने लगा था कि मैं दुनिया कि सबसे खारी स्त्री हूँ और अपने खारेपन पर मुझे गुरूर भी था। हर गुरूर एक दिन टूटता ही है, मेरा भी टूटा उस दिन जिस दिन तुम इस जेल में आये, न जाने किस गुनाह की सजा काटने आये थे तुम। तुम्हें पत्थर तोडऩे का काम मिला था। तुम दिनभर पत्थर तोड़ते और तुम्हारी देह से पसीने की नदी बहती और ये नमक वाली नदी अक्सर मेरे नमक के पहाड़ से आ मिलती थी। हम दोनों के बीच पत्थरों की एक बहुत बड़ी दीवार थी। दीवार के उस पार से तुम्हारे छैनी-हथौड़े की अक्सर आवाज़ आती थी और मेरी पत्थर की चक्की की आवाज़ से ताल मिलाती थी। हम दोनों अलग-अलग अपराध के अपराधी थे और दंड भी हमारा अलग ही था, लेकिन फिर भी हम दोनों के बीच कई सारी बातें कॉमन (समान) थी, जैसे दोनों ही पत्थरों से जूझते थे, दोनों ही नमक बनाते थे, मेरी आंखों से नमक बहता था तुम्हारी देह से, दोनों की देह नमक से गल रही थी और दोनों ही पत्थरों से गीत-संगीत रचते।

हाँ एक बात और समान थी, हम दोनों के हाथों में अनगिनत छाले थे, छालों की संगत में हम नमक बनाते थे। हम दोनों ही कमाल करते थे। तुम्हें देखकर मैंने जाना कि मुझसे ज़्यादा तुम्हारे भीतर खारापन है और यही खारापन मुझे तुम्हारी तरफ़ खींचने लगा था। कई बरसों तक पास-पास रहते हुए भी हम दोनों एक-दूजे से अनजान ही थे, लेकिन फिर दोनों के बीच एक अनोखा रिश्ता बन चुका था। नमक का रिश्ता, खारेपन का नाता।

दिनभर की थकान और चुभन से बेजार होकर जब मैं सलाखों के पास आकर रोज़ खड़ी हो जाती और तुम्हें देखने लगती, तब तुम भी अपने छैनी-हथौड़ों को कोने में टिकाकर बीड़ी सुलगाकर आंखें बंद करके अपनी थकन उतारते। बीड़ी के ख़त्म होते ही तुम एक नज़र मुझ पर डालते और दर्द से मुस्काते। बदले में मैं भी हंस पड़ती। तुम्हारे प्यार से देखनेभर से मेरे हाथों के छाले जलना भूल जाते। यूं ही वक़्त गुजर रहा था। कई बरस बीत चुके थे।

अब मुझे लगता था तुम भी मेरी तरह उम्रकैद की सजा काट रहे हो और हमारा ये रिश्ता मौत के दिन तक बना रहेगा। तुम्हारा रोज़ शाम मुझे बस एक बार देख लेना मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत पल होता था। जानते हो? उस एक पल के लिए मैं दिनभर बिना रुके चक्की पीसती थी। उन दिनों मुझे कभी भी अपने गुनाह या सजा का खयाल नहीं आता था, न रिहाई का विचार ही आता था। जीवन जैसे बहुत हल्का और सुन्दर हो चला था। पहली बार जाना कि क़ैद में रहकर भी आप कितने आजाद हो सकते हैं अगर मन आजाद हो तो। बरस बीत रहे थे तुम मेरे जीवन का हिस्सा बन रहे थे। अब तुम बिन जीने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। दिनभर चक्की पीसते हुए हाथ और बरसों से नमक के बीच रहकर मैं ख़ुद पत्थर-सी मज़बूत और समंदर-सी खारी हो चुकी थी, लेकिन तुम्हारे लिए भीतर का एक कोना बहुत ही कोमल और मिठास से भरा हुआ क्यों था, नहीं जान सकी। उस दिन तुम्हारे आने की राह देख रही थी कि तभी ख़बर मिली कि तुम्हारी रिहाई होने वाली है। अच्छे व्यवहार की वज़ह से तुम्हें जल्दी ही क़ैद से मुक्ति मिल गई है। ये सुनकर मेरे होश खो गए। इतने बरसों का रिश्ता क्या एक पल में ख़त्म हो जायेगा? तुम क्या सच में चले जाओगे? तुम मुझे अकेले छोड़कर कैसे जा सकते हो? ऐसे बेकार के सवाल ख़ुद से पूछती रही और चक्की पर सिर रखकर सो गई। उस दिन आंखों से इतना नमक बहा कि कई नमक के पहाड़ बन गए। 2016 फरवरी की शाम थी शायद...तुम जा रहे थे, मुझे न जाने क्यों लगा कि तुम ज़रूर आओगे मुझसे आखिरी बार मिलने...मैंने तुम्हें इशारे से बुलाया भी था ...चाहती थी तुम मुझसे मेरा नाम पूछो, पता पूछो, गुनाह और सजा भी पूछो मेरी रिहाई की तारीख पूछो, तुम्हारी आंखों में क्या छिपा है, तुम्हारी आवाज़ कैसी है, ये सब जानना चाहती थी, लेकिन तुम नहीं आये। मेरे बुलावे का तुमने कोई मान ही नहीं रखा। तुम बहुत जल्दी में थे न...और तुम उस दिन मुझसे बिना मिले चले गये।

ये बरस बहुत दुख लेकर आया था, तुम्हें गए हुए पूरा बरस बीत चुका। आज जेल में सभी कैदी नए साल का जश्न मना रहे हैं। अपने गुनाह, अपनी सजा, अपनी रिहाई से बेख़बर कैसे खुश हैं सब...और मैं इन नमक के पहाड़ों के बीच तुम्हें क्यों याद करती हूँ, जबकि तुमने जाते समय एक बार भी मुझे मुड़कर नहीं देखा, कभी कोई ख़बर नहीं ली।

आज सोचती हूँ क्यों किसी एक के लिए अपना जीवन दुखों से भर लिया जाये। बस बहुत हुआ ...आज से चक्की पीसना बंद, नमक बनाना बंद...आज ही जेलर साहब से कह दूंगी मुझे उस बंजर ज़मीन पर फूल उगाने का काम दिया जाये। नमक बनाने से बेहतर है मैं ख़ुशबू बनाऊँ। नए बरस का स्वागत नमक से नहीं, फूलों से होना चाहिए।