नया सवर्ण / शम्भु पी सिंह
तीन दिनों से खांसी बुखार जाने का नाम ही न ले। सामान्यतया हम खांसी-बुखार को सीरियसली नहीं लेते। एक दो दिन की बात है, चली जाएगी, कह टालते रहते हैं। लेकिन कभी-कभी वह जिद पर आ जाती है कि ऐसे तो जानेवाली नहीं, कुछ कठोर कदम उठाने ही होंगे, तब तो फिर डॉक्टर के पास ही इसका सही इलाज होता है। तीन दिनों से खांसी के कारण न खुद सोया, न किसी को सोने दिया। बच्चों ने तो दूसरे कमरे में अपना आशियाना बना दूरी बना ली, अब ये श्रीमती जी बेचारी क्या करें, न भी चाहें तो पास तो रहना ही होगा, बीवी जो ठहरी। रात जब भी उसकी नींद में खलल पड़ती, उठ कर बैठ जाती। -
"तुम भी न एक नम्बर के मख्खीचूस हो। पैसा बचाने के लिए बीमारी को टाल रहे हो। जो गला घोमचाता है न, उसे चार छौ लगता है। कितने दिनों से बक-बक कर रही हूँ, डॉक्टर को दिखा लो, लेकिन तुम मेरी सुनते कहाँ हो। देखना किसी दिन ये बुखार-खांसी कोई बड़ा नासूर बन जाएगा तब छाती पीटते रहना।" "बन्द करो ये बक-बक। एक तो मैं खुद ही परेशान हूँ और तुम मेरे से सहानुभूति जताने की बजाय ताने दे रही हो। तुम्हें समस्या है तो चले जाओ बच्चों के कमरे में। मैंने कभी कहा है साथ सोने को।" मैं खुद ही परेशान था, ऊपर से उसका ताना और भी असहनीय हो गया।
"हाँ! अब मेरे में रक्खा ही क्या है, जाने तो कहोगे ही। जब जाना था, तब गई नहीं, अब कहाँ जाऊंगी। ऊपर जाने का ही इंतजार है।" अंतिम वाक्य कहा तो उसने धीरे से, लेकिन दोनों के बीच दूरी इतनी कम थी कि मुझे सुनने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
"तो चली जाओ न, रोकता कौन है तुम्हें। सब जगह तो तेरी ही मर्जी चली है, यहाँ भी चला लो।" कहते हुए उतनी परेशानी में भी मैं अपनी हंसी नहीं रोक पाया। श्रीमती जी घूर कर देखने लगीं। "ओय मेरे लल्लू लाल! मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली। लाओ छाती में सुसुम घी लगा दूं, खांसी में राहत मिलेगी।" पति-पत्नी के बीच ऐसा नरम-गरम तो चलता ही रहता है। घरेलू इलाज ने थोड़ी तो राहत पहुँचाई।
"देखता हूँ कल सुबह सरकारी अस्पताल ही चला जाता हूँ। बाजार में कोई अच्छा डॉक्टर है भी नहीं। बस जो है सरकारी अस्पताल में ही है। वहाँ भी एक तो भीड़ बहुत रहती है, दूसरे ले देकर डॉक्टर एंटीबायोटिक दे देगा, बुखार तो छूट जाएगी, लेकिन कफ सूख जाएगा और खांसी से हालत खराब रहेगी।"
"अब क्या करोगे, डॉक्टर जो कहेंगे वही करना है न। एक सप्ताह तो तुमने घरेलू इलाज में ही गुजार दिया।"
"ठीक है जी कल सुबह दिखा ही लेता हूँ।"
सुबह-सुबह अस्पताल पहुँच गया। भीड़ थोड़ी लंबी थी। अब पचपन की उम्र में अपनी बारी का इंतजार करना संभव नहीं था। कम-से-कम घंटा भर तो लग ही जायगा। एक बार लंबी लाइन का मुआयना किया, शायद कोई परिचित दिख जाए तो लाइन में लगने से निजात मिलेगी। पीछे से आगे तक एक चक्कर लगाया, कोई नजर नहीं आया। निराश होकर लौटने ही वाला था कि पीछे से आवाज आयी-
"सुरेंद्र मालिक।" मैंने पलट कर देखा, एक सांवले रंग का जवान लड़का हाथ हिला रहा था।
"मैं तो नहीं पहचान पाया बेटा। कौन हो तुम?"
"मैं अर्जुन चचा! अर्जुन तांती। सरजू का बेटा।"
"अरे अर्जुन! बहुत बड़े हो गए हो। तभी तो नहीं पहचान पाया। क्या करते हो। सरजू कैसा है?" अर्जुन पास के गाँव का ही लड़का है। इसका बाप सरजू तांती मेरे यहाँ हलवाहा रह चुका है। इसका बचपन मेरे घर में ही खाते-खेलते बीता है।
"बाबू नहीं रहे। गुजरे तीन साल हो गया। मैं भी दिल्ली में रहता हूँ। अब तो खेती बाड़ी का काम भी रहा नहीं। दिल्ली की एक फैक्टरी में काम करता हूँ। वीबी बच्चा यहीं रहता है। कल ही हम भी आये।"
"अर्जुन! तुम लाइन में हो?"
"हाँ मालिक! आप किसको दिखाने आये हैं? नम्बर लगा लिए?" "अरे मेरी ही तबीयत ठीक नहीं है। एक सप्ताह से बुखार, खांसी से परेशान हूँ। सोचा अब डॉक्टर को दिखा ही लूं, लेकिन लाइन इतनी बड़ी ..." अर्जुन ने बीच में ही बात काट दी।
"मैं हूँ न लाइन में। मैं नम्बर लगा दूंगा। आप सामने पेड़ के नीचे की बेंच पर बैठ जाइये। नम्बर लगाकर आता हूँ।"
"ठीक है बेटा! बड़ी कृपा होगी तुम्हारी। ये लो पांच रूपया।" पांच का सिक्का निकालकर उसे देने लगा। पुर्जी कटाने की सरकारी फीस है।
"क्या चचा! हम पांच रुपये के लायक भी नहीं रहे। आप रखिये पैसा। मैं कटवा दूंगा आपकी पुर्जी। बहुत खाया है आपका। कुछ तो मुझे भी करने दीजिए चचा।" अर्जुन ने पैसे लेने से मना कर दिया। बहुत भला लड़का है। कौन आजकल इतना ख्याल रखता है। दस साल का रहा होगा तभी का देखा आज मिला। पुर्जी तो उसने कटवा दी। दोनों पेड़ के नीचे के कंक्रीट के बेंच पर बैठकर अपनी-अपनी बारी का इंतजार करने लगे।
"तुम किसे दिखाने आये हो अर्जुन?"
"मैं अपनी घरवाली को लेकर आया हूँ चचा। वह देखिये जमीन पर लेटी है। उसके छाती में चोट है। मुहं से खून भी निकला है। बड़ी मार मारा है साले ने।"
"किसने मारा तेरी घरवाली को।" मैं एकटक उसे देखता रह गया। "कौन मारेगा चचा! पासवान सब मिलकर मारा है। घर के पास मेरा चार कठ्ठा जमीन है, जिसमें सब्जी उगाते हैं। बगल में चार घर पासवान है। वह सब घर का कचड़ा मेरे खेत में डाल देता है। कभी सब्जी बकरी से चरा देता है। घरवाली बोलने गयी तो मरद सब निकल कर गाली-गलौज करने लगा, तो घरवाली ने भी गाली दे दी। अब मरद होकर तुम किसी औरत को गन्दी-गन्दी गाली दोगे तो उसके मुंह से भी गाली निकल गई। इसी पर उन हरामजादों ने घरवाली की छाती पर मुक्का से मारा। हमको फोन गया, भागे-भागे ट्रेन में लटक कर आये हैं चचा!"
"ओहो! ये तो बहुत गलत हुआ। दिखाओ डॉक्टर को, देखो क्या कहता है।" तबतक मेरी पुकार हो गई। मैं दिखाने चला गया। लौटकर आया तो अर्जुन नहीं दिखा। शायद वह भी पत्नी को दिखाने अंदर गया होगा। मैं दवा लेकर घर आ गया। अर्जुन की मुलाकात ने मुझे वर्षों पीछे की याद दिला दी। अर्जुन का बाप सरजू तांती पास के राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे सरकारी जमीन पर बसा चालीस-पचास घरों के एक छोटे से गाँव में रहता था। गांव में रहने वाले अधिकांश जुलाहे। दस से पंद्रह घर पासवान और वही दस के आसपास मुसहरों का कुनबा। कुल मिलाकर दलितों के दबदबे वाली बस्ती।
बगल के गाँव में दो सौ से अधिक मुस्लिम बहुल आबादी, जिसमें शेख़, सैयदों की गिनती के परिवार, शेष अंसारी बुनकर, धुनियाँ का परिवार। जिनका मुख्य पेशा करघा चलाना और शेख, सैयदों के घरों, खेतों में काम करना। जुलाहों को भी मुस्लिम बुनकरों का साथ मिल गया था। आजादी से पहले इन जुलाहों का मुख्य पेशा बगल की मुस्लिम बस्तियों में कपड़ा बुनने का काम था, लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे करघों की संख्या घटती गई और ये सभी रोजी रोटी के लिए मजदूरी करने लगे। साथ-साथ काम करने के कारण मुस्लिम बिरादरी से खान-पान से लेकर त्यौहार मनाने तक, जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे का साथ मिलता रहा। जबतक करघा में जान बाकी था, तबतक तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों के बीच इनकी पैठ बनी रही। आजादी से पहले तो हिंदुओं, मुसलमानों के बीच अच्छी छनती थी। उठना-बैठना, मरणी-हरनी में सभी साथ होते। आजादी की लड़ाई ने तो और भी करीब ला दिया, लेकिन पाकिस्तान की घोषणा और उसके बाद हुए कत्लेआम ने दोनों बिरादरी के मन में खटास पैदा कर दी। तब से मुस्लिम समुदाय के बुनकर सवर्णों के टोलों में कपड़ा बेचने नहीं जाना चाहते। अब रोजी-रोटी का सवाल था। खरीददार तो इन्हीं टोलों में अधिक था। बबुआन पहनने-ओढ़ने के शौकीन, राजा था तब और अब जमींदारी नहीं रही, तब भी ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं। ज्यादा मोलभाव भी नहीं करते। जमींदार और जमींदारी की ठसक उन्हें ऐसा करने नहीं देती। प्रजा के प्रति ऐसी उदारता उनके अहं का ही हिस्सा थी।
उस इलाके में रहनेवाले अधिकांश ब्राह्मणों की रोजी-रोटी भी बबुआन की दया पर ही निर्भर थी। पंडितों के लिए भी मौके-कुमौके पर दिये जाने वाले दान दक्षिणा में कपड़ों की खरीदारी भी बबुआन ही किया करते। पूजा-पाठ, श्राद्ध कर्म में मिले दक्षिणा से ही परिवार पलता। तो सवर्णों में क्षत्रियों की बादशाहत कायम थी। आजादी के बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच हिन्दुओं, मुसलमानों के आदान-प्रदान ने दोनों समुदाय में एक गहरी खाई तो खड़ी कर ही दी थी। इसका परिणाम आपसी सौहार्द्र पर तो पड़ा ही, रोजी-रोटी पर भी आफत आन पड़ी। कहते हैं न जब कोई समस्या खड़ी होती है, तो निदान भी साथ-साथ निकल आता है। मुस्लिम बुनकरों ने भी रास्ता निकाल लिया। जुलाहों से बुनकर का काम कम, इन्हें तैयार कपडों को बेचने में लगा दिया। अब मुस्लिम कपड़ा बुनने लगे और जुलाहे गांव-गांव जाकर उन बुने कपड़ों को बेचने में लग गए। पहले मुस्लिम बिक्रेता बबुआनों की ड्योढ़ी के आगे नहीं बढ़ पाते थे, वहीं हिन्दू होने की वजह से जुलाहों को घर के आंगन में जगह मिल गई। महिलाओं के बीच कपड़ों की बिक्री ने रफ्तार पकड़ ली। मुस्लिम बुनकरों का जुलाहों को बिक्री के काम में लगाने का फैसला उनकी आय में मील का पत्थर साबित हुआ।
दस मील के दायरे में दो गाँव में यादवों की बहुतायत थी, कुछ गाँव कोयरी, कुशवाहों और धानुक मंडल की बहुतायत वाली बस्ती थी। दो-तीन बस्ती भूमिहार बहुल भी थी। तीन-चार गांवों पर क्षत्रियों, ब्राह्मणों का कब्जा था, लेकिन हर गाँव में मुसहर, पासवान, धानुक जाति के दो-चार घर बसाए गए थे। सामाजिक समरसता की अनूठी मिसाल थी। जुलाहों को कपड़ों की बिक्री में लगाये जाने से अचानक उस इलाके में बुनकरों के कपड़ों की मांग बढ़ गई। जुलाहों को भी अच्छी आय होने लगी। अब मुस्लिम समुदाय के लोगों ने कपड़ा बेचने का काम लगभग छोड़ ही दिया। हाँ केवल मुस्लिम बहुल इलाकों में उनकी पैठ पूर्ववत बनी रही। आजादी के बाद डेढ़ से दो दशक तक इस व्यवसाय से जुड़े लोगों के जीवन में करघा चूल्हे को जलाने में प्रमुख भूमिका निभाता रहा। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में मिल से बने कपडों ने बाज़ार को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। तब करघों का जिंदा रहना मुश्किल होने लगा। जब करघा ही न रहा तो बुननेवाले और बेचने वालों की क्या दरकार। रोटी पर आफत आन पड़ी। ले-देकर मजदूरी ही सर्वसुलभ हल था। कुछ मुस्लिम बुनकरों ने राजमिस्त्री का काम संभाल लिया, बाकी बचे बुनकरों के साथ जुलाहे भी उसी राजमिस्त्री के साथ मजदूरी करने लग गए। जान-पहचान पुरानी थी तो काम मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। मिट्टी के बने मकान ईंट से बनने लगे। मुस्लिम समुदाय से अधिक नजदीकी जान-पहचान के कारण शेष हिंदुओं में जुलाहों की साख घटती गई। इसका फायदा पासवानों ने उठाया। सवर्णों को जुलाहों के खिलाफ माहौल बना दिया। सवर्ण भी जुलाहों से अधिक तबज्जो पासवानों को देने लग गए। जुलाहों की बहुतायत वाले गाँव में भी पासवानों का दबदबा कायम था।
नौंवे दशक तक सामाजिक संरचना में सवर्णों की बादशाहत कायम रही। जुलाहों की बस्ती के बहुसंख्यक जुलाहों को यह बात अखरती कि सामाजिक फैसलों में पासवानों को तरजीह क्यों दी जाती है। सवर्णों की चाकरी करने की तो उसकी आदत बन चुकी थी, अब सरकारी कानूनों ने सवर्णों से कुछ राहत दिलायी तो पासवानों और पिछड़ी जातियों के छुटभैयों ने भी रौब दिखाना शुरू कर दिया। राजकाज में भी भारी फेरबदल हो चुका था। सवर्णों की जगह पिछड़ों की सरकार बन चुकी थी। जुलाहों को लगा अब तो सवर्णों की दाल नहीं गलने वाली, लेकिन कल तक सवर्णों की चाकरी को बाध्य वर्ग आज पासवानों, रजकों, यादवों, कुशवाहों, कुर्मियों की चाकरी को मजबूर था। सरकार कुछ भी कहे सामाजिक समरसता के नाम पर जितने भी ढोल पीटे, समस्या इस डाल से उस डाल पर शिफ्ट हो गई।
दवा का थोड़ा असर तो हुआ। एक दिन के बाद ही बुखार तो जाती रही, लेकिन अभी खांसी ने पूरी तरह अपनी जगह नहीं छोड़ी थी। सुबह चाय के बाद समाचार पत्र पढ़ने की आदत पड़ गयी है। पेपर ही पलट रहा था कि आवाज आयी-
"देखो कोई बाहर आया है।" श्रीमती जी ने आवाज लगाई थी। पेपर को हाथ में लिए मैं बाहर आ गया।
"अरे अर्जुन तुम। कैसी है तेरी घरवाली?"
"मालिक! बहुत ठीक तो नहीं है। डॉक्टर कह रहे हैं एकाध दिन देख लेते हैं, नहीं ठीक हुई तो पटना ले जाना होगा। छाती में अंदर गहरी चोट है। औरत जात मर्द का मुक्का भला कैसे बर्दाश्त कर पाएगी।"
"ठीक है देख लो, एक दो दिन। पुलिस में केस दर्ज कराया कि नहीं।"
"क्या केस दर्ज करायें मालिक। दरोगा जात का भूमिहार है। केस करने गए तो गाली देकर भगा दिया। बोला अभी आये हो केस करने, कल तुम सब दलित एक हो जाओगे और जाति सूचक सम्बोधन का आरोप लगा दोगे, तो हमी अंदर हो जाएंगे। सामाजिक रूप से मामला सलटाओ। सवर्ण या पिछड़ा के साथ का मामला होता तो हम उसकी नानी याद कर देते। दलित-दलित के बीच हम नहीं पड़ेंगे। पासवान अब दलित रहा कहाँ? दलित में पासवान और रजक सवर्ण हो गया तो पिछड़ा में यादव और कोयरी-कुर्मी। तुम तांती और मांझी कब सुधरोगे।"
"अरे! दरोगा ऐसा कैसे कह सकता है। किसी जात का हो, अगर मारपीट हुई है तो उसे केस तो दर्ज करना ही चाहिए।"
"कहा तो ठीके न मालिक। हमारे साथ जो व्यवहार पहले साला सवर्ण सब बात करता था, वैसे ही आज पासवान और यादव करता है। हम तो कल भी शोषित थे, पुराने सवर्णों के, अब नए सवर्णों के हाथों हो रहे हैं। अब तो हर रोज एक नया सवर्ण पैदा हो रहा है। किस-किस की चाकरी करें।" मेरे ही सामने बाकियों के साथ उसने मुझे भी गाली दे दी, मैं समझ कर भी नासमझ बना रहा और वह बोलकर भी समझ नहीं पाया।