नया / चन्दन पाण्डेय

Gadya Kosh से
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तारीख: दो अगस्त दो हजार कुछ भी

सेवा में,

सम्माननीय प्रधानमंत्री महोदय, भारत सरकार, प्रधानमंत्री कार्यालय, नॉर्थ ब्लॉक, नई दिल्ली, 01.

विषय: अंक गणित के एक सदियों पुराने आसुरी सूत्र में थोड़े मानवोचित परिवर्तन की खातिर महामहिम प्रधानमंत्री से एक विनम्र दरख्वास्त.

महानुभाव,

मैं, राजेश कुशवाहा, भारत देश का, नागरिक नहीं, ग्रामीण हूँ. मेरे लिये यह फख्र की बात है जो मैं अपने मुल्क के प्रधानमंत्री से मुखातिब हूँ. श्रीमान, साथ ही मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी अर्जी सुनी जायेगी वरना, आवेदन की शुरुआत में ही अत्यंत निराशाजनक बात कहने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ, मेरे लिये जीवन के दूसरे सारे रास्ते बन्द हैं. मैं अपने कस्बे के निजी शिक्षण संस्थान में कक्षा दसवीं तक के होनहारों को भूगोल पढ़ाता हूँ. बैंक मैनेजर ने आज दोपहर का समय दिया था. पिताजी भी चाहते थे सावन के पहले पखवाड़े में ट्रैक्टर द्वार पर खड़ा हो. पिछले छह महीने से हम चक्कर काट रहे थे. सरपंच जी और लेने-देने वाले लोगों ने समय से साथ दिया. इसलिये दो चार लोगों से लेन-देन की बात तब बुरी नहीं लगती जब काम बन जाता है.

पढ़ाने से ज्यादा उबाऊ मुझे पढ़ना भी नहीं लगता है. इसलिये मैंने पहले पहल खेती का काम चुना. जमीन अपनी तो न थी, पर पट्टे के चलन और मेरे उत्साह ने बात बना दी

सर, मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि सीधे आपको सम्बोधित कर, मैं आपके पद की गरिमा का मजाक नहीं बना रहा, जैसा कि चलन है. भारत जैसे सोये हुए राष्ट्र के प्रधानमंत्री की गरिमा, शक्ति और दुश्वारियों का मुझे खूब भान है. दूसरे, जैसी मुश्किलें मुझे बख्शीश में मिल गयी हैं और छोटा मुँह बड़ी बात, जिस तरीके से मैं इस आसुरी सूत्रों से तथा शक्तियों से भिड़ा हूँ, उससे मुझे यह नैतिक साहस मिला कि मैं आपसे ही अपनी बात कहूँ. तीसरे, मैं मतदान करता हूँ, मैं उन बड़े लोगों मैं से नहीं हूँ जो इस लोकतंत्र का शामिल हिस्सा तो नहीं है पर अपने हिस्से की कमाई और अपराध खूब करते हैं. शिक्षक होना मेरी पसन्द का काम कभी नहीं रहा पर, जैसा कि आप आगे के हिस्से में देखेंगे, जरूरत भी अनोखा शब्द है. पढ़ाने से ज्यादा उबाऊ मुझे पढ़ना भी नहीं लगता है. इसलिये मैंने पहले पहल खेती का काम चुना. जमीन अपनी तो न थी, पर पट्टे के चलन और मेरे उत्साह ने बात बना दी. आज की तारीख में जमीन होती तो पता है उसके पट्टे का सालाना किराया कितना होता? आप इतने व्यस्त दिखाये जाते हैं कि आपको पता भी नहीं चल सकता, देश के अर्थतंत्र से कितनी चीजें छूटी पड़ी है. पैंतीस हजार रुपए प्रति एकड़. इसे आप विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ पढ़ें. और उससे भी अनूठी बात यह कि हम, गर्जू किसान, हर वर्ष इतना देते हैं, देने के लिये तैयार रहते हैं. बीज पानी बिजली दवाइयों के खर्चे, आपकी जानकारी के लिये बता रहा हूँ, इससे अलग हैं. पहले साल मैंने दो एकड़ के पट्टे लिए और साल की दो फसलें लीं. धान और टमाटर. टमाटर के बीज थोड़े खराब निकल गये, पर उसका किस्सा अलग. मेरी मेहनत बेकार नहीं गई थी, फायदा मिला था. पिताजी भी खुश थे और इस बार हम चार एकड़ का पट्टा लेने वाले थे कि उन्ही दिनों किसी निर्माण कम्पनी ने मेरे छोटे से गांव में चार पार पुल बनाने का परोपकारी जिम्मा लिया. जी, मैं जरा सा गलत हो रहा हूँ, शायद तथ्य कुछ ऐसे हैं कि मुख्यमंत्री के तीन लगातार चुनावों का खर्चा पानी ढोने वाली यह कम्पनी है जिसे विश्वास और साथ निभाने का तोहफा मिला – अगले पांच सालों तक ये कम्पनी जितना चाहे उतने पुल, भवन, बांध का निर्माण राज्य में कर सकती है. सारे टेंडर इसी कम्पनी के नाम गये.

मेरे गाँव के जितने जमीन मालिक हैं सब बाहर रहते हैं, बड़ी बड़ी नौकरियाँ करते हैं, और कहने को अपनी जमीन से खूब प्यार करते थे. जब उस कम्पनी ने जमीन की कीमत बढ़ानी शुरू की तो सबने रोते रोते अपनी जमीन बेच दी. सबको अपनी जमीन जाने का बहुत दुख हुआ था. कुछ लोग तो उस पैसे को बैंक मे रखते हुए भी बहुत रोये थे. सर, आपसे निवेदन है कि पत्र का यह पैरा कहीं बाहर कोट ना करियेगा, क्योंकि अपनी जमीन बेचने वालों मंे ज्यादातर बुिद्धजीवी थे और इन लोगों ने अपनी सारी उम्र शब्दों की बाजीगरी के सहारे क़ाट दी. वो आपको ही गलत साबित करने लग जायेंगे. वो ये साबित करेंगे कि जमीन बेचना उनकी मजबूरी थी. वो कोई आन्दोलन नहीं कर सकते थे क्योंकि इस देश मंे आन्दोलनों का हश्र वो लगातार देखते आये हैं.

उस समाचार चैनल और समाचार पत्र के सम्पादक का नाम आपने सुना ही होगा, मेरे ही गाँव का है और जमीन बेच कर सबसे ज्यादा पैसा उसी ने कमाया, इसलिये सबसे ज्यादा दुखी भी वही होगा. आप जैसे ही कुछ कहेंगे, वो सम्पादक आपकी सरकार और पार्टी के खिलाफ खबरें छापने लगेगा फिर आपको उसे मोटा विज्ञापन और राज्य सभा की कुर्सी देनी पड़ेगी. पर इसमें भी नुकसान आपका नहीं होगा. मेरा होगा. पिछले पांच वर्षों से मैं उससे नौकरी मांग रहा हूँ और वो मुझे पिछले पांच सालों से नौकरी नहीं देने का सटीक बहाना ढूंढ रहा है. उसे बहाना मिल जायेगा.

गाँव अब मेंढक का खुला हुआ पेट हो गया है, जिसे हाईस्कूल में जीवविज्ञान पढ़ने वाली कोई लड़की ठीक से सिलना भूल गई है. मेंढक अपनी आंतें बाहर झुलाये इधर उधर फुदक रहा है

वैसे मैंने पहले साल जिनकी जमीन पट्टे पर ली थी वे देश के बड़े नामी मास्टर और साहित्यकार हैं. एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं. और इस बात के लिये ख्यात हैं कि आज तक उन्होंने कभी किसी को अपना वोट नहीं दिया पर सरकारी विज्ञापन और वेतन उठाने में उस्ताद हैं. जब जमीन लूटी जा रही थी (मेरे हिसाब से लूटना ही था) तब मैं उनके पास गया था. राजधानी में रिहाइश रखते हैं. जब मैं उनके पास पहुंचा तब वे दो-दो आलेख लिख रहे थे. एक जमीन छीनने के पक्ष में और दूसरा, जाहिर है, जमीन छीनने के विरोध में. दोनों आलेख साथ ही साथ पूरे हुए. उन्होंने मुझे पढ़ाये. लगा कि वाह! क्या बुद्धिजीवी है! मेरे तारीफ करने से वो खुल गये और मेरे तत्कालीन सपनों पर पानी बहा दिया. कहा: जमीन का मन माफिक दाम मिल जाये तो सरकार को झूठ की परेशानी में डालने की क्या जरूरत? है कि नहीं? मैंने कहा: है. जिस किसी के पास मैं अपनी मुश्किल ले कर गया सबने यही कहा, “इसमें नया क्या है?” जबकि सभी जानते हैं कि हर रोज लगने वाली भूख नई होती है, रोज उगने वाला सूरज नया होता है और उतने ही महत्व का जितना पिछले रोज का सूरज या पिछली भूख. कुछ लोगों को मेरा दुख मजा देने लगा था और मेरा दुख सुनने के लिये मुझे दूर दूर से बुलावे आने लगे. मेरा दुख सुन के कहते, “इसमें नया क्या है?”

जब पुलों के बनने की कवायदें शुरु हुईं और जमीन जाती रही तब से मैंने कस्बे के मॉडर्न एकेडमी में पढ़ाना शुरू किया है. मेरी मार-पिटाई स्कूल में प्रसिद्ध है. जिस दिन मैं दाहिने हाथ से अंगूठी उतार बायें में डाल लेता हूँ उस दिन किस कक्षा पर शामत टूटेगी ये मैं भी नहीं जान रहा होता हूँ.

सरकार के पैसों की कोई फिक्र भले नहीं पर पुलों ने हमारे गाँव का ढाँचा ही खराब कर दिया. छोटे से गाँव में चार-चार पार-पुल और दो हाई-वे. सामान्य पूर्णविराम के बाद इस खराब वाक्य को एक बार विस्म्यादिबोधक चिह्न के साथ पढ़ंे. मेरा गाँव अब किसी मेंढक का खुला हुआ पेट हो गया है, जिसे हाईस्कूल में जीवविज्ञान से पढ़ने वाली कोई लड़की ठीक से सिलना भूल गई है. मेंढक अपनी आंतें बाहर झुलाये इधर उधर फुदक रहा है. हम रोज रोज मिलने वाले लोग थे और अब तीज त्योहार पर मिलना भी मुहाल हुआ है. जमीन पर चलते सारे रास्ते बन्द कर दिये गये हैं ताकि ग्रामीणों को पार पुल की आदत लगे. साइकिल चढ़ाते हुए मेरी सांस फूल जाती है और मैं रोज ही देर कर जाता हूँ. जैसे कि आज.

जब मै उछल कर साइकिल पर चढ़ा तभी अचानक मेरा ध्यान राजकुमारी कुशवाहा और उनके बछड़े मुन्नन पर गया. मैंने देखा, मुन्नन अपना खुर खुजला रहे हैं और राजकुमारी देख रही हैं. कल भी मैने हू-ब-हू यही दृश्य देखा था और सोचा था शाम को खुरपका की दवा ले आनी है. पिताजी ने भी कितनी बार कहा होगा. करीब दस या बीस बार. जब से रिटायर हो कर आये हैं सब-कुछ ऐसे देखते-निरेखते हैं जैसे विछोह का अपराधबोध हो. उनकी बातचीत पर ना जायें, भाव भंगिमायें ऐसी बनाये रखते हैं जैसे अगले ही पल घर का तिनका-तिनका सहेज देंगे. सेवानिवृति के बाद जो डेढ़ लाख मिले हैं उनमें उनकी योजनायें सुनेंगे तो चौंक जायेंगे. पर अब ट्रैक्टर लेना है. और आज इंतज़ार की आखिरी तारीख थी. जब अपने राम खेती कर रहे थे तब तो कभी अपना ट्रैक्टर नसीब नहीं हुआ. किराये पर लेकर जुताई कराये. पिताजी की इच्छा है कि अपना ट्रैक्टर हो और किराये पर चले. आज बैंक मैनेजर कागजात पर दस्तखत कर देंगे और कल ट्रैक्टर अपने द्वार पर होगा. पर आज स्कूल आते हुए देर हुई तो डर लगा कहीं दोपहर में बैंक जाने से पहले प्रधानाचार्य किच-किच ना मचाये.

प्रधानाचार्य की खिड़की से झाँक कर देखा, झौं झौं चल रही है या नहीं? चल रही थी. राहत मिली कि आज देर से आने का सबब नहीं पूछा जायेगा. मेरा सारा ध्यान इस बात पर लगा था कि कहीं कोई ऐसी गलती न हो जाये जिससे आज दोपहर बैंक जाने की छुट्टी ही ना मिले. अध्यापक कक्ष में नागेन्द्र जी मिल गये. ये कक्षा सप्तम ‘ब’ के कक्षाध्यापक हैं और भाषा के काटे हुए हैं. परनामी के बाद बोल पड़े: राकेश जी, स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य में जो प्रभातफेरी आयोजित होनी है मैं उस दल का नेतृत्वकर्ता हूँ. तैयारियाँ जोर शोर से चल रही हैं, यही वजह है कि मैं व्यस्त हूँ. अतएव कृपया आप दोनों वर्गों की कक्षायें सम्मिलित रूप से ले लेवें.

मैने चॉक, डस्टर और रजिस्टर उठाते हुए कहा: क्यों ना मैं तीनों वर्गों की कक्षायें सम्मिलित रूप में ले लूँ? ऐसा मैंने क्यों कहा ये मैं भर ही जानता हूँ. मेरा बैंक लोन तीन लाख का है और आजकल मुझे सब कुछ तीन के पहाड़े में ही दिखता है. पर इसका अर्थ नागेन्द्र समझ नहीं पाये ‘अतएव’ बेहद विनीत मुद्रा में लटकते हुए कहा, “होs होs होs आप तो राकेश जी खा-म-खा कुपित हो जाते हैं, मैं तो अपनी समस्या का आसान निवारण ढूंढ़ रहा था.“ मैं जानता था कि नागेन्द्र भाषा का जानकार होने के साथ ही प्रधानाचार्य का चम्मच भी है. कोई खतरा मोल लिये बिना मैं सम्मिलित कक्षा के लिये तैयार हो गया. आज कल मुझे हुआ क्या है कि मैं ट्रैक्टर और तीन के अलावा कुछ सोच विचार भी नहीं पाता हूँ. दो कक्षायें साथ में चल रही थीं फिर भी माहौल हल्का और स्वस्थ था. नहीं पढ़ने के उस्तादों ने सुझाया , आचार्य जी सामान्य ज्ञान के प्रश्न पूछें. मैंने जाने कैसे पूछ दिया, ट्रैक्टर में कितने पहिये होते हैं? विद्यार्थियों को आप थोड़ी छूट दीजिये फिर देखिये इतने छोटे से प्रश्न का उत्तर देने मे वो कितनी घंटियाँ गवाँ देंगे? किसी ने कहा, चार. किसी ने कहा, छह. जिसने छह कहा वो तन कर खड़ा हो गया. जैसे समूची कक्षा से कहना चाहता हो कि है कोई माई का लाल जो बता दे ट्रैक्टर में छ: पहिये कैसे होते हैं? किसी विद्यार्थी ने उसके तनाव में दिलचस्पी नहीं दिखाई. सभी इस अन्दाज में ऐंठे रहे कि छह हो या सात, हमें क्या पड़ी है. मेरा दिमाग जरूर घूम गया था. मैंने डरते डरते कहा: ट्रॉली के पहियों को जोड़ कर बता रहे हो क्या? वो सकुचाकर बैठ गया.

जो ब्याज दर मेरे सामने रख दी गई थी उसके बाद छोटी से छोटी संख्या भी मुझे हताश कर देने के लिये काफी थी. उसी वक्त मैंने यह तय किया कि मैं बच्चों के पास जाऊंगा

मेरे जेहन में तभी यह उभरा था कि ट्रैक्टर के साथ ट्रॉली मुफ्त नहीं मिलती है. उसे अलग से खरीदना पड़ता है. मतलब ट्रैक्टर से कमाई करने में ट्रॉली का साथ जरूरी है. माल असबाब की ढुलाई हो, शादी बारात में नाच ले जाना हो सबमें ट्रॉली ही महत्व रखती है. खेती से कमाई तो मौसमी कमाई है. मैं जानता हूँ कि मेरे पास ट्रॉली खरीदने भर के रुपए अगले साल छह महीने तक नहीं होने वाले हैं. आप यकीन करें महोदय, ऐसी लाचारी में एक शिक्षक का गुस्सा जायज है. मैने उस छात्र को खड़ा किया और डराने के अन्दाज में समझाया: जब तक कोई ऐसी कम्पनी नहीं आ जाती है जो ट्रैक्टर के साथ ट्रॉली भी बनाये तब तक मेरे प्रश्न का जबाव है, चार पहिये.

दूसरी घंटी के बाद मैं बैंक के लिये निकला. उपर आसमान देखा, बादल नहीं थे. मुझे इतनी खुशी हुई कि हुई ही नहीं. धान की रोपाई का हरा मौसम है. बारिश होगी और ट्रैक्टर मालिकों के भाव उछल जायेंगे. एक सौ बीस रुपए प्रति बीघे की दर चल रही है. कल जब मेरा ट्रैक्टर आ जाये तब जितना मर्जी हो उतना बरस लेना मेरे ईश्वर. पिताजी के साथ सेक्रेटरी साहब, सरपंच लोग भी बैंक आये थे. लोन के पैसे में से इन बेचारों ने अपना हिस्सा पहले से तय कर रखा था फिर भी ये इतने भले लोग हैं कि आज भी आये हैं.

मैनेजर साहब ने उठ कर स्वागत किया. चाय आई. पी गई. पिताजी ने कई एक कागजों पर अपने हस्ताक्षर परोसे. पिताजी ने यह भी सोचा कि लगे हाथ पेंशन के कागज भी तैयार हो जायें पर एक साथ सभी ने ऐसी तेजी दिखाई कि पिताजी खुशी के मारे चुप हो गये. मैनेजर साहब ने बताया कि खेती से फिर से सोना उगने लगे ऐसे ऐसे खाद, बीज, ट्रैक्टर, मौसम और पानी किसानों को उपलब्ध होने लगे हैं. सर, यहीं वो बात हुई, जिसे लेकर मैं आप तक आया हूँ.

बंगाली बाबू, जो क्लर्क और ना जाने क्या क्या थे, से मैंने आखिरकार पूछ ही लिया कि ब्याज कितना लगेगा? सर, जब से मैंने वो रकम सुनी है, जो मुझे बैंक को चुकानी है तब से मैं सच में बहुत परेशान हूँ. आप भी कहेंगे इसे पहले ही पता कर लेना था? पर क्या आप बैंक वालों की तकनीक से वाकिफ नहीं हैं? शुरुआत में उन्होने चीजों को इतना सरल करके बताया कि लगा, ये रहा ट्रैक़्टर और वो हुई कर्ज की वापसी. गाँव के वे लोग जो हमें कर्ज दिलाना चाहते थे उन्होने कभी यह जानने नहीं दिया कि ब्याज कितना होगा और चुकाने के साल कितने मिलेंगे?

और सबसे ऊपर अपना दोष. मुझे नहीं पता, आप इस पर कितना भरोसा करेंगे पर कहना मेरा फर्ज है. हम, पिता और पुत्र, किसी जादू में उलझ गये थे और चाहते ही नहीं थे कि हमें कुछ बुरा भी मालूम चले. हम हर वक्त यही चर्चा करते रहते थे कि ट्रैक्टर आ जायेगा तो जीवन कैसा खुशहाल हो जायेगा? गाँव के बचे खुचे बीघों का आंकड़ा बिठाया करते थे. ट्रैक्टर अगर एक सपना था तो पिताजी ने मुझसे छुपा कर यह सपना मेरे लिये ही देखा था जब राज्य सरकार और एक सीमेंट कम्पनी ने मेरे खेती करने के स्वाभिमानी फैसले पर चार पार पुल बना दिये थे. पिताजी नौकरी के लिये रिश्वत दे नहीं सकते थे और मेरी सारी असफलताओं को स्वीकार करते हुए अपनी आखिरी जमापूंजी मुझ पर खेल गये. ऐसे में उन्हें यह सुनना भी बुरा लगता था कि कहीं अन्य जगहों पर भी किसी बहाने ब्याज की बात चल रही है.

मैं मन ही मन कोई बेहद मामूली दर सोचता जो बैंक मुझ पर थोपने वाला था. पर मुझे सरकार और जनतंत्र का ऐसा नशा था कि मैं यह जान लेने के बाद भी विश्वास नहीं कर पा रहा था कि, सरकार ने अपनी प्रजा के लिये इतनी ऊंची सालाना दर तय की है. आप सरकार हैं और मेरा यकीन करिये मैं इतनी मोटी और गैरजरूरी रकम चुका ही नहीं सकता. जब मेरी गर्दन फंसी है तब मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि चक्रवृद्धि ब्याज का यह सूत्र जानलेवा है. सामंती है यह सूत्र जिसके बिना पर कितनों की नींद रोज हराम होती है. सूत्र की काली आड़ ले कितने अपराधी अपना गुनाह महसूस तक नहीं कर पाते. रतजगे अब कर्ज के कारण होने लगे हैं ये आप किसी सर्वे में आसानी से जान सकते हैं. किसी सुदूर द्वीप में नहीं अपने ही भारत में आत्महत्याओं के अन्तहीन सिलसिलों की खबर आप तक नहीं पहुंचती होगी, इस पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है. लोग आत्महत्याओं मैं भी नया खोजने के आदी हो चुके हैं और अब मेरी उम्र के खिलाफ वो आत्महत्या की तकनीक आजमाना चाहते हैं.

आप मेरा यकीन करें, कर्ज की सबसे बड़ी चालाकी उसकी पहली किस्त में छुपी होती है. उसका मारक असर तब दिखता है जब हम पहली किस्त चुकाते हैं. बीस सालों तक मुझे चुकाना है. मैं तबाह हो जाऊंगा. मेरे साथ मेरे स्वप्न ध्वस्त हो जायेंगे. जब बीस सालों बाद मैं कर्ज चुकता कर उठूंगा, ये सर्वाधिक सुखद संकल्पना मैं आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ, तब मैं इस शेष और धूसर जीवन का क्या करूँगा. इस यकीन की भी कोई सुखद वजह नहीं है कि यह टैक्टर बीस सालों तक चलता चला जायेगा. आय का एकमात्र स्रोत यह ट्रैक्टर है. हम गाड़ी बंगला वाले लोग नहीं हैं. यकीनन, मैंने यह कर्ज किसी हराम आराम के नाम पर नहीं लिया है.

इसका समाधान आप कर सकते हैं. इस सूत्र की राक्षसी ताकतों को कुचल दीजिये. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जैसे विकास का कोई फर्क नहीं पड़ा. सत्तर के दशक में पुल बनवाने के लिये लड़ाइयाँ लड़ी गईं और उस समय सरकार ने इन चीजों को गैर जरुरी माना था तब भी हम ऐसे ही थे जैसे आज जब हर जगह, हर नदी नाले पर निर्माण उद्योग पनप रहा है. ये तर्क ही गलत है कि बैंक अपने कर्मचारियों के हित के लिये ब्याज लेता है. बैंक मुनाफा कमाने के लिये सूद लेता है जिसमें, बुरा न मानें, आप भी भागीदार हैं. ऐसे तमाम रास्ते निकाले जा सकते हैं जिससे इस सूत्र को थोड़ा मानवीय स्वरूप दिया जा सके. आप खुद इसका वर्तमान स्वरूप देख लें:

मिश्रधन= मूलधन(1+ दर/100)n जहाँ n = समय

अगर आप ऐसा करते हैं तो लोग खुद ब खुद इस सारी प्रक्रिया को नई बात मान लेंगे. सर, मानवीय स्वरूप से मेरा अर्थ किसी परोपकार से नहीं बल्कि सर्वजनहित से है. आप इस देश के प्रधानमंत्री हंै और सीधे अर्थों में कहें तो लोक कल्याण की जहीन भावना भी रखते हैं. आप यह भी जानते हैं कि गणित दोमुहाँ नहीं होता. एक मतलब एक. गणित में नौ और दो सचमुच के ग्यारह होते हैं. अंक झूठे नहीं होते. और बेईमान तो हर्गिज नहीं. उल्टे मैं तो कहूंगा कि गणित पालतू होता है. गणित चाह कर भी भौतिकी जितना आजाद और इतिहास जितना गलत नहीं हो सकता. फिर भी सभ्यताओं को शर्मिन्दगी तक पहुंचाने में इतिहास से ज्यादा गणित का इस्तेमाल हुआ है. फटा हुआ नोट भी अपने मूल्य के बराबर ही चलना चाहता है. इसका सीधा और सच्चा अर्थ है कि सूत्रों को एक बार जो आदेश आप देंगे, आप जैसी हस्ती जो सच को झूठ और झूठ को उतना ही बड़ा सच बना देने की क्षमता रखता हो, वो उसे मानने को विवश होंगे.

इस सूत्र में बदलाव सम्भव है. जाहिर है इसका विरोध आपके प्रिय बैंकर और आपके उतने ही अजीज देश के लाखों साहूकार करेंगे. मैं आपके सामने अपनी कक्षा की मिसाल पेश करता हूँ. जब मैं बैंक से बाहर निकला तो ग्राम प्रधान ने चेयरमैन की कोठी दिखाई और किसी आश्चर्यलोक में डूबते हुए कहा: कोई जानता था कि एक ट्रैक्टर के सहारे यह अभागा इतनी ऊंची पदवी तक जा पहुंचेगा. मैं उनकी बात पर विश्वास करना चाहता था पर तब तक पिताजी भी बैंक से बाहर निकल आये. वो जैसे किसी भी सुख, दुख से उबर चुके थे तभी शायद बाहर आते ही मुझसे उन्होंने मुन्नन के खुरपके की बात चला दी. किसी को जो सुहाया हो. सब के सब ट्रैक्टर के सपने में मगन रहना और रखना चाहते थे. पिताजी चाहते थे मैं खुरपके की दवा लेकर आऊँ. फिर जाने क्या सोच मुझे स्कूल भेज दिया और खुद दवा लेने चले गये. मैं जितना खुश होना चाहता हूँ, चाहकर भी नहीं हो पा रहा हूँ. ऐसी उदासी नहीं है जो सफलता के साथ साथ चली आती है. मुझे मुश्किल साफ साफ दिख रही है. स्कूल के अध्यापक कक्ष में किसी से बात करने की जरा भी इच्छा नहीं हुई. कुछ देर महापुरुषों की तस्वीरों के साथ उनकी जगतप्रसिद्ध सूक्तियों को देखता रहा. सप्तम ‘अ’ में भूकम्प पढ़ाना है. कक्षा तक पहुंचाने वाले गलियारे में अजब कसकता एहसास हुआ.

दोपहर के भोजन के बाद की यह पहली घंटी है. गलियारा खाली पड़ा है. पर कुछ इस तरह जैसे वहाँ उठती गर्द यह बता रही है कि यह अभी अभी खाली हुआ है. गलियारे में बच्चे नहीं हैं पर उनका गिरना, उठना उनकी आवाज वहीं मौजूद जान पड़ती है और जैसे ये सारी गतिविधियाँ भी उठ के जाने की तैयारी कर रही हों. मैं खूब परिश्रम से अपने आप को यह सोचने पर मजबूर करता हूँ कि अनुपस्थिति भी अपने आप में समय सापेक्ष होती है. इतना कुछ सोचते हुए मैंने खुद को एक बात याद दिलाने से रोक ले गया था कि पिताजी को रिटायरमेंट के बाद इतने कम पैसे क्यों मिले? श्यामपट्ट पर मंैने पाठ का शीर्षक लिखा. आज मैं नाराज था फिर भी विद्यार्थियों को पीटने की एक जरा इच्छा भी नहीं हुई. मेरी मन:स्थिति को विद्यार्थी बूझ लें, इतना समय मैंने उन्हें दिया और इस बीच समय में मैने श्यामपट्ट पर हीरे का चित्र बनाया. चित्र के नीचे कुछ लिखा और लिखने के बाद बोल बोल के पढ़ा – चक्रवृद्धि ब्याज. गणित से सब डरते हैं, मेरी मंशा ना समझ पाये छात्रों ने समवेत स्वर में कहा, आचार्य जी गणित अब और नहीं, सुबह से गणित की तीन घंटियाँ हो चुकी हैं.

सर, मैं आपको बताऊँ, चाहता तो दो एक पल में अपने लोन पर लगने वाला मिश्रधन मैं पता कर सकता था पर मैं बुरी तरह अकेला पड़ चुका था और डर चुका था. जो ब्याज दर मेरे सामने रख दी गई थी उसके बाद छोटी से छोटी संख्या भी मुझे हताश कर देने के लिये काफी थी. उसी वक्त मैंने यह तय किया कि मैं बच्चों के पास जाऊंगा. सारे बच्चों ने सूत्र रट रखे होंगे पर नये की सम्भावना इन्हीं के पास है या इतना तो विश्वास से कह सकते हैं कि नये की सम्भावना यहाँ ज्यादा है.

मैं धीरे धीरे अपना आपा खो रहा था और श्यामपट्ट पर चॉक को किरकिराते हुआ लिखा: तीन लाख. छात्र मेरी खामोशी से परिचित थे इसलिये उनमें से किसी ने नहीं पूछा, यह तीन लाख है क्या? फिर मैं तन्मय हुआ और शिक्षक के किरदार में लौटा, श्यामपट्ट पर लिखा साफ किया और पुन: लिखा:

मूलधन= 300000 रूपये समय = 20 वर्ष

दर =  9% मिश्रधन = ? किस्त प्रति महीने = ? 

सवाल दो थे और चॉक को मेज पर रखते हुए मैं पूरा का पूरा तैयार हो चुका था. यही मेरे लिये आखिरी मौका था जब मैं विद्यार्थियों में जरूरी अनुशासन या खौफ भर पाता. समूची कक्षा चुप थी. मेज पर दो बार डस्टर पटकते हुए मैंने कक्षा को निहारा. जब सारे मेरी तरफ देखने लगे तब कोई भी दया मेरे सारे स्वप्नों को धराशायी कर सकती थी. मैंने सबको दिखाते हुए दाहिने हाथ से अंगूठी निकाल कर बाईं में डाल ली. मेरी आवाज में जो गम्भीरता थी वो हरेक की आवाज में तब पाई जा सकती है जब उसका सर्वस्व दांव पर लगा हो. मेरी तरफ से जो बच्चों ने जो सुना वो यह था, “यह प्रश्न अंकगणित का है और ऐसे सवाल आप पांचवीं कक्षा से हल करते आ रहे हैं, मैं यह नहीं जानता कि आप इसे कैसे करेंगे पर मैं सबकी कॉपी देखूंगा. आज जो छात्र मार कुटाई से बचना चाहता है उसके लिये शर्त है कि उसका उत्तर सबसे न्यूनतम हो. आपके पास अगले पाँच मिनट हैं”.

छात्रों को सवाल दे जब मैं खिड़की तक आया तो बाहर एक गाय चर रही थी. मुझे राजकुमारी और मुन्नन याद आये. मुन्नन का खुरपका याद आया. खुरपका नया मर्ज नहीं है, सर्वाधिक विश्वसनीय तथ्यों तक जायें तो बाबर के घोड़े को खुरपका था. पर तकलीफ यह कि मेरे जेहन में खुरपके की दवाई की कोई शक्ल नहीं थी. इतना निचाट था कि लगा मैं फफक पड़ूंगा. मैं यह कर्ज तुरंत के तुरंत वापस करना चाहता था.

मैं ट्रैक्टर और इसके सपनों को किसी अतल गहरी खाई में फेंक आना चाहता था. मैं पट्टे की ही सही पर खेती की जमीन चाहता था. इस बार मैं शर्तिया टमाटर की लहरदार पैदावार लेता पर जमीन पर पुल बन चुके थे. कर्ज बैंक से मिल चुका था और स्वप्न लंगड़े कुत्ते की तरह मेरे आगे आगे दिख रहा था. मुझे लगा मैं किसी विद्यार्थी को उठाऊँ और उसे पैरों से पकड़ कर उसका सर अपनी मेज पर दे मारूँ. जहाँ मुझे हत्या करने तक का अधिकार मिला था वहीं मैं अपने गुस्से को दबा नहीं पा रहा था. सबने सवाल हल कर लिये थे पर दिखाने से डर रहे थे और इसी कारण सर अभी भी कॉपी पर झुकाये हुए थे. मेरी आवाज अभी भी दमदार थी, जब मंैने आदेश दिया: लिखना बन्द. पहली बेंच के एक लड़के को कान से उठाया और जब तक वो रो पाता तब तक मैंने उसे आदेश दे दिये थे: सबकी कॉपी जमा करो. तकरीबन या कुल तीस कॉपियाँ थीं. खिड़की से मेज तक आने जितने समय में जाने क्या हुआ कि मेरी आंखें झिलमिला गईं. अट्ठाईस वर्ष के नौजवान या बूढ़े के लिए यह अनुचित है. मेरी उम्र रोने की हर्गिज नहीं है. मुझे अपनी यह हरकत कत्तई बर्दाश्त नहीं हो रही थी पर पुस्तिकाओं में मुझे जरा भी कुछ दिख नही रहा था. वैसे भी मैं इतना कमाने वाला नहीं हूँ जो अगर कोई सूत्र ढूंढ भी ले तो लागू कर पाये. आपके लिये यह खेल चुटकियों का है. आप चाह लेंगे तो इसे संविधान में भी दाखिल करा सकते हैं. शायद बच्चों ने मेरे आँसू भाँप लिये थे तभी वो बिना किसी आज्ञा के कक्षा से बाहर चले गये. जब कुछ भी सम्भव ना हो सका तो मैने विद्यार्थियों की कापियाँ समेटी और बाहर निकल आया.

अभी मैं सरयू के तट पर बैठा हूँ और बहुत दूर से कोई नाव आती दीख रही है. रामायण के किस्सों का निहायत आखिरी प्रसंग लगातार याद आ रहा है. जैसे-जैसे अन्धेरा बढ़ता जा रहा है अपनी ही लिखावट देखने में मुश्किल आ रही है. आपको लिखते हुए मेरी कोशिश रहेगी कि बच्चों की उत्तर पुस्तिकाओं का पुलिंदा भी आप तक जा पहुंचे. इससे कोई रास्ता मिलेगा. कई बार मंजिल तक पहुंचाने वाले रास्ते से ज्यादा जरुरी उस रास्ते का पता लगाना होता है जो हमें मंजिल के रस्ते पर ले आये. देर सबेर जो भी मिलता है मंजिल तो उसे समझ ही लिया जाता है.

मुझे अन्धेरे की फिक्र नहीं है, मुझे फिक्र उस आने वाली नाव के मल्लाह की है. उसके आने से पहले यह खत पूरा कर लूँ तभी उससे अपना हाथ दिखा पाऊँगा. आज तक ज्योतिष में विश्वास करने का कोई कारण नहीं था, अब नहीं करने का कोई कारण नहीं है. इस मल्लाह की ज्योतिष के किस्से मशहूर होने की काबिलियत रखते हैं. मैं इससे तीन सवाल करूंगा. पहला: मेरा अतीत कैसा रहा है? दूसरा: मेरे पिताजी को सेवानिवृति के बाद इतने कम पैसे क्यों मिले या दूसरा सवाल यह भी हो सकता है कि पुल बनने और नहीं बनने के पहले के जीवन में आये फर्क को मिटाया जा सकता है? परंतु तीसरा सवाल तो यही रहेगा: क्या मैं ट्रैक्टर की ड्राईवरी सीख सकता हूँ?

ट्रैक्टर ड्राईवरी जरूरी है. क्योंकि जिस अन्दाज का कर्ज है उसमें किसी बाहरी ड्राईवर को सात सौ महीना और दो जून का खाना देना अतिरिक्त खर्च होगा. अगर मैं खुद ड्राईवर रहूँ तो इतना रूपया हर महीने की किस्त में जुड़ता चला जायेगा. यह तब तक जब तक आपकी तरफ से हमारी मदद का कोई सूत्र ना आये. मुझे कर्ज की माफी भी नहीं चाहिये. मुझे इंसाफ के अलावा साबुन सोटा सर्फ कुछ नहीं चाहिये. और इंसाफ है कम ब्याज. कर्ज लिया है और उसे चुकाना हमारा धर्म है पर अनाप शनाप ब्याज के साथ नहीं. इसके लिये, सर, मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप चक्रवृद्धि ब्याज के सूत्र में कोई ना कोई मानवोचित परिवर्तन जरूर करायेंगे.

भवदीय, राकेश कुशवाहा बौली, लार देवरिया(उ.प्र.) पिनकोड: 20001 ............................................................................

पत्र की प्रतिलिपि: 1) ईश्वर के लिये : आदरणीय महोदय, आपके बारे में कितना कुछ सुना है, लोग आपकी पूजा करते हैं, सदियों से आपके लिये जान लेते रहे हैं, आपको सर्वशक्तिशाली कहते हैं पर मैने आज तक आपका कोई कारनामा नहीं देखा. इस बार कुछ चमत्कार दिखायें. इस गन्दे सूत्र में एक जरा मानवीय बदलाव भी समूची मानवता के हित में होगा. लोग नीन्द भर सोयेंगे और पेट भर खायेंगे. नस्लें सुधर जायंेगीं और आप पर हो रहे अथाह खर्चे का एक औचित्य भी दिखेगा. यह आपके लिये आखिरी मौका है, मेरे ईश्वर.

2) अमेरिकी राष्ट्रपति के लिये : क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपका नाम ईश्वर के बाद लिया. दरअसल यह जमाने की पुरानी टेर है वरना सच्चाई से आप भी वाकिफ हैं कि आपमें और ईश्वर में मुकाबिला हो तो कौन बीस छूटेगा. क़ृपया, आप मेरे जीवन मरण के इस सवाल में जरा भी दिलचस्पी दिखायें, फिर तो आपकी देखा देखी यह नकलची और पिट्ठू दुनिया इस जीवन मरण जितने मुश्किल सवाल को हल करने में भिड़ जायेगी. क्या पता, ईश्वर से आप इस बार बाजी मार ले जायें, यह आपकी ताकत का सत्यापन होगा.