नयी कहानी का प्लॉट / अज्ञेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात के ग्यारह बजे हैं; लेकिन दफ़्तर बन्द नहीं हुआ है। दो-तीन चरमराती हुई लंगड़ी मेजों पर सिर झुकाये, बायें हाथ से अपनी तक़दीर पकड़े और दायें से क़लम घिसते हुए कुछेक प्रूफ़रीडर बैठे हैं। उनके आगे, दायें, बायें, सब ओर काग़जों का ढेर लगा है, जो अगर फ़र्श पर होता, तो कूड़ा कहलाता; लेकिन मेज़ पर पड़ा होने की वजह से ‘काफी’ या ‘गेली’ या ‘आर्डरी’ कहलाने का गौरव पाता है।

दफ़्तर से परे हट कर दूसरे लम्बे-से कमरे में बिजली के प्रकाश में कम्पोजीटर अपनी उलटे अक्षरों की दुनिया में मस्त हैं। पीछे प्रेस की गड़गड़ाहट के मारे कान बहरे हो रहे हैं।

और कम्पोजिंग रूम के बाहर बरामदे में सम्पादक जी टहल रहे हैं। माथे पर झुर्रियाँ पड़ी हैं, कमरे के पीछे टिके हुए एक हाथ में स्लिपों की पैड है, दूसरे में पेन्सिल। सम्पादक जी बैठकर काम करनेवाले जीव हैं; लेकिन आज वे बैठे नहीं हैं। आज उन से बैठा नहीं जा रहा है। आज सम्पादक जी व्यस्त हैं; सन्त्रस्त हैं।

विशेषांक निकल रहा है। शुरू के पेजों में एक कहानी देनी है। लेकिन अच्छी कहानी कोई है नहीं। क्या करूँ? दो सड़ी-सी कहानियाँ हैं जो देने के काबिल नहीं हैं। लेकिन देनी तो होंगी। आग्रह करके मँगाई हैं। नखरे करके भेजी हैं। लक्ष्मीकान्त ‘शारदा’ का सम्पादक है, उसकी कहानी मँगाकर न छापूँगा तो जान को आ जाएगा। आलोचना में बैर निकालेगा। फ़ोटो भी छपाएगा, पैसे भी लेगा, उस पर देगा यह सड़ी-सी चीज़! नाली की दुर्गन्ध आती है। आख़िरी पेजों में सही... लेकिन पहली कहानी-कहानी तो चाहिए। कहाँ से लाऊँ, क्या करूँ?

लेखक बहुत हैं। मर गये लेखक। कम्बख़्त वक्त पर काम न आये तो क्या करूँ - आग लगाऊँ?

लेकिन - पहली कहानी। क्या करूँ? खुद लिखूँ? लेकिन - पहले ही मैं? दीवालियापन? लेकिन...

एकाएक घूमकर सम्पादक जी ने आवाज़ दी - “लतीफ़! ओ मियाँ अब्दुल लतीफ़!”

मियाँ लतीफ़, आकर सम्पादक जी के सामने खड़े हो गये। उन्होंने न आवाज़ का जवाब दिया था, न अब बोले। सिर्फ़ सामने आकर खड़े हो गये।

“देखो, लतीफ़, एक कहानी चाहिए। कल सवेरे तक।”

“जी। लेकिन-”

“कल सवेरे तक। एक कहानी। दो पेज। दूसरा फ़रमा।” कहकर सम्पादक जी ने और भी व्यस्तता दिखाते हुए टहलाई पुनः जारी करने के लिए मुँह मोड़ा।

“जी!” कहकर मियाँ अब्दुल लतीफ़ लौट पड़े और प्रूफरीडरों से कुछ हटकर एक टीन की कुर्सी पर बैठ गये।

मियाँ लतीफ़ का नाम कुछ और है। क्या है, उससे मतलब नहीं। सब लोग उन्हें मियाँ अब्दुल लतीफ़ कहते हैं। नाम से ध्वनि होती है कि वे पागल हैं। लेकिन हैं वे वैसे नहीं। उनमें एक खास प्रतिभा है। जो काम औरों से हताश होकर उन्हें सिपुर्द कर दिया जाता है, वह हो जाता है, चाहे कैसा ही हो। इस सर्वकार्य दक्षता का परिणाम है कि वह किसी भी काम पर नियुक्त नहीं हैं, सभी उन्हें या तो मदाख़लत का अपराधी समझते हैं, या एक आलसी और निकम्मा घोंघाबसन्त। प्रूफ़रीडर समझते हैं, वह मशीनमैन का असिस्टेंट है; मशीनमैन समझता है, वह कामचोर कम्पोजीटर है; काम्पोजीटरों का विश्वास है कि वह चपरासी है। चपरासी उन्हें कह देता है कि बाबू, मुझे फ़ुरसत नहीं है, इसलिए ज़रा यह चिट्ठी तुम पहुँचा देना।

और मियाँ लतीफ़ सब-कुछ कर देते हैं। कभी उन्हें याद आ जाता है कि वह सहकारी सम्पादक के पद के लिए बुलाए गये थे, तो वे उस स्मृति को निकाल बाहर करते हैं। उससे उनकी हेठी होती है। वे क्या केवल सम्पादक के सहकारी हैं? उन्हें ‘सहकारी’ कुछ कहा जा सकता है, तो ‘सहकारी विधाता’ ही कह सकते हैं...

ख़ैर। जैसे विधाता को सुख में कोई याद नहीं करता, वैसे ही अब काम ठीक चलने पर मियाँ लतीफ़ की पूछ नहीं है। वे अलग कोने में टीन की कुर्सी पर बैठे हैं, बायें हाथ में दवात है, दाहिने में कलम, घुटने पर स्लिप-बुक और मस्तिष्क में-मस्तिष्क में क्या है?

2

माथापच्ची।

दो पेज। दूसरा फरमा। कहानी अच्छी होनी चाहिए।

विशेषांक है।

रोमांस। रोमांटिक कहानी हो। रोमांटिक यानी प्रेम। प्रेम यानी - यानी-रोमांटिक। नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा।

क्या बचपन में मैंने कभी प्रेम नहीं किया? प्रेम न सही, वही कुछ अधचकरा खटमिट्ठा-सा ही सही! कुछ

मियाँ लतीफ़ को याद आया, जब वे गाँव में रहते थे, तब एक बार रोमांस उनके जीवन के बहुत पास आया था। गाँव से पूर्व की ओर एक शिवालय था, जिसके साथ एक बगीचा था, जिसमें नींबू और अमरूद के कई पेड़ थे। लतीफ़ स्कूल से भागकर वहाँ जाते थे। एक दिन वहीं अमरूद के पेड़ के नीचे उन्होंने देखा, उनकी समवयस्का एक लड़की खड़ी है और लोलुप दृष्टि से पेड़ पर लगे एक कच्चे अमरूद को देख रही है। लतीफ़ ने चुपचाप पेड़ पर चढ़कर वह अमरूद गिरा दिया। वह लड़की के पैरों के पास गिरा। लतीफ़ खड़े रहे कि लड़की उठा लेगी; लेकिन लड़की ने वैसा न कर उनसे पूछा, “क्यों जी, तुमने मेरा अमरूद क्यों गिरा दिया?”

“तुम्हारे खाने के लिए।” लतीफ़ ज़रा हैरान हुए; लेकिन उन्होंने जेब में से एक चाक़ू निकाला, जिसका फल कुछ टूटा हुआ था, फिर दूसरी जेब में से एक पुड़िया निकाली, अमरूद काटा और आगे बढ़ाते हुए कहा, “यह लो, नमक-मिर्च भी है। खाओ।”

लड़की ने अमरूद तो खा लिया; लेकिन खा चुकने के बाद कहा, “अब बिना पूछे मेरे अमरूद मत तोड़ना, नहीं तो मैं नहीं खाऊँगी।” और चली गयी।

हाँ, पहला दृश्य तो कुछ ठीक है। दूसरा?

एक दिन फिर मिले। अब की लड़की ने अपना नाम बताया किस्सो - लेकिन कहानी में किस्सो कैसे जाएगा? नाम बताया रश्मि। नहीं जी, यह बहुत संस्कृत है। रोमांटिक नाम चाहिए। किरण - लेकिन यह बहुत ‘कॉमन’ (प्रचलित) हो गया। हाँ, तो नाम बताया मदालसा। मियाँ लतीफ़ ने अपना नाम और उसका नाम एक अमरूद के पेड़ पर चाकू से खोद दिये। अमरूद पर नाम बहुत साफ़ खुद सकता है। - किस्सो-मदालसा-ख़ुश हो गयी। उसने लतीफ़ के - नहीं लतीफ़ कैसे?-

मदालसा ने चित्रांगद के गले में हाथ डालकर कहा, “तुम बड़े अच्छे हो। यहाँ हमारा नाम साथ लिखा है, अब हमारा नाम साथ ही लिया जाएगा।”

ठीक तो है। दूसरा दृश्य भी ठीक है। और नामों का जोड़ा क्या फिट बैठता है - “मदालसा-चित्रांगद!”

पर-

किस्सो की शादी हो गयी। कह लो मदालसा; शादी तो हो गयी, और एक अहीर के साथ हुई, जिसने मुर्गियों का फ़ार्म खोल रखा था।

रोमांटिक। दुखान्त। मदालसा। चित्रांगद। अहीर को बलराम कह लो। लेकिन शादी तो हुई, मुर्गी फ़ार्म के मालिक के साथ तो हुई? रोमांटिक कहानी की नायिका रहे किस्सो ओर पाले मुर्गियाँ!

टन्-टन्-टन् ...टन्! घड़ी ने बारह बजा दिये।

मियाँ लतीफ़ उठे। उठकर उन्होंने कुरसी को घुमाया। अब तक उनका रुख प्रूफ़रीडरों की ओर था, अब ठीक उलटी ओर दीवार की तरफ़ हो गया, मानो कुरसी का रुख पलटने से विचार-धारा भी पलट जाएगी।

रोमांटिक की ऐसी-तैसी। यथार्थवाद का ज़माना है। क्यों न वैसा लिखूँ!

यथार्थवाद। सुबह भुने चने, दुपहर की खेसारी की दाल, शाम को मकई की रोटी और मूली के पत्ते का साग। कभी फ़ाका। पसीना और मैल और लीद-गोबर और ठिठुरन और मच्छर। और मलेरिया और न्युमोनिया और कुएँ का कच्चा पानी और नंग-धंड़ग बच्चे।

तो, वहीं से चलें। किस्सो और बल्ली। और उनका मुर्गियों का फ़ार्म। बिमारी आती है, मुर्गियाँ एक-एक करके मरने लगती हैं। चूज़े सुस्त होकर बैठ जाते हैं। किस्सो अंडे गिनती है और सोचती है, भविष्य में क्या होगा?

बल्ली का प्रिय एक मुर्गा है, विलायती लेगहॉर्न नस्ल का। एक दिन वह भी सुस्त होकर बैठ गया। दिन ढलते उसकी गर्दन एक ओर को, झुक गयी, शाम होते ऐंठ गयी। बल्ली हतसंज्ञा-सा देखता रह गया। किस्सो मुर्गे को गोद में लेकर धाड़ें माकर रोने लगी...

किस्सो-विलाप।

अब्दुल-लतीफ़ की। कहानी - और नायिका एक मुर्ग़े के लिए रोती है। कहते हैं, कालिदास ‘अज-विलाप’ बहुत सुन्दर लिख गये हैं। अज माने बकरा। ‘मुर्ग़ी-विलाप।’

अब्दुल लतीफ़। काठ का उल्लू।

घड़ी ने एक खड़का दिया।

3

अब्दुल लतीफ़ बाहर निकल आये। बरामदे से नीचे झाँककर देखा, एक अखबार के पोस्टर का टुकड़ा पड़ा था - “स्पेन-युद्ध : लाखों स्त्रियाँ-”

हाँ तो। आज संसार इतनी तूफ़ानी गति से जा रहा है, क्या उसमें एक भी प्लॉट काम का नहीं निकल सकती? प्लॉटों में अखबार भरे पड़े हैं। मुझे क्या ज़रूरत है रोमांटिक-रियलिस्टिक की, मैं सामयिक लिख दूँ-वही तो चाहिए भी।

लतीफ़ ने कई-एक अखबार उठाये और पन्ने उलटने लगा।

अबीसीनिया में घोर युद्ध। इटली आगे बढ़ रहा है। मुसोलिनी की आज्ञा, इटली के तमाम व्यस्क आदमी शस्त्र सम्हाल लें।

जर्मनी की घोषणा, हम पर जबरदस्ती प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, ताकि हम निकम्मे रहें; हमने तय किया है कि हम सब प्रतिबन्धों को तोड़कर अपने राष्ट्र का शस्त्रीकरण करेंगे।

ब्रिटेन में सब ओर पुकार : इंग्लैंड खतरे में है! हमारी शान्तिप्रियता हमारा सर्वनाश करेगी! अब शस्त्रीकरण में ही हमारा निस्तार है, अतः हम ज़ोरों से अस्त्र-शस्त्र और जहाजी बेड़ों का निर्माण करेंगे।

स्पेन से युद्ध... पक्ष लेने के लिए सभी राष्ट्र तैयार हो रहे हैं...

रूस में फ़ौजी तैयारियाँ...

चीन में लड़ाई...

जापान में सैनिकों की सरगर्मियाँ...

मंचूरिया...

संसार-भर में अशान्ति है। एक नहीं, असंख्य कहानियों का प्लॉट यहाँ रखा है, कोई लिखनेवाला तो हो! लेकिन प्लॉट क्या बनाया जाए?

धीरे-धीरे लतीफ़ के आगे चित्र खिंचने लगे, विचार आने लगे।

एक बड़ी तोप। बहुत-सा धुआँ। इधर-उधर गड़गड़ाहट की ध्वनि। जहाँ-तहाँ लाशें। और जाने क्यों और कैसे, एक ही शब्द-कुटुम्ब। और इस सबको घेरे हुए ऊपर-नीचे, दायें-बायें सर्वत्र फालतू खाद्य-वस्तुओं के जलने की दुर्गन्ध...

और टन्-टन्-टन... तीन!

नहीं। हाँ, उनकी कहानी युद्ध के बारे में ही तो होनी चाहिए - संसारव्यापी युद्ध के बारे में। हाँ। नहीं। हाँ, शुरू तो की जाये। हाँ।

‘सर्वत्र अशान्ति के बादल-समझ लीजिए कि प्रलय-पावस में अशान्ति-रूपी घनघोर घटा उमड़ी आ रही है। सब ओर कारखाने हैं-जो कल कपड़ा बुनने की मशीनें बनाते थे, तो आज बन्दूकें बना रहे हैं; कल मोटरें बना रहे थे, तो आज लड़ाकू टैंक बना रहे हैं; कल खिलौने बजा रहे थे, तो आज बम फेंकने की मशीनें बना रहे हैं; कल शराब बनाते थे, तो आज भयंकर विस्फोटक पदार्थ बना रहे हैं। सारा देश पागल-सारा यूरोप पागल-सारी दुनिया पागल! इस विराट पृष्ठ-भूमि के आगे हमारी कहानी का नायक खड़ा है और सोचता है, क्या मैं अकेला इस सबको बदल सकूँगा, ठीक कर सकूँगा?’

उँहुक। सब ग़लत!

नहीं।

लतीफ़ ऊँघने लगे। उन्होंने एक स्वप्न देखा। कि सवेर छह बजे घर पहुँच रहे हैं। सब लोग सो गये हैं, शायद भूखे ही सो गये हैं, क्योंकि पहले दिन सवेरे लतीफ़ घर से चले थे, तब उनके शाम तक कुछ प्रबन्ध करने की बात थी। किवाड़ बन्द हैं। लतीफ़ ने किवाड़ खटखटाया, फिर दुबारा खटखटाया। आखिर उनकी पत्नी ने आकर दरवाज़ा खोला और उन्हें देखते ही बन्दूक की गोली की तरह कहा - “खाना खा आये?” फिर क्षण-भर रुककर - “नहीं, कहाँ खा आये होंगे। मिला ही नहीं होगा। भरा पेट होता, तो भला घर आते? लेकिन यहाँ क्या रखा है? यहाँ रोटी नहीं है। जाओ, हमें मरने दो।” फिर वह किवाड़ बन्द करने को हुई; लेकिन न जाने क्या सोचकर रह गयी और एक हाथ से मुँह ढाँप कर भीतर चली गयी। मियाँ लतीफ़ स्तब्ध रह गये, केवल देखते रह गये।

तभी एक झोंके से स्वप्न टूट गया। वे चौंककर उठ बैठे। और उन्होंने देखा, कहानी बिलकुल साफ़ होती चली जा रही है-बन गयी है। उन्होंने क़लम उठाई और तेजी से लिखना शुरू किया। अन्तिम वाक्य उनके सामने चमकने लगे -

‘...और वह देखता है कि उसका भोजन आधिक्य के कारण उसकी आँखों के आगे जला जा रहा है, और संसार के सब राष्ट्र उस पर पहरा दे रहे हैं कि कहीं वह आग बुझा न दे, कुछ खा न ले। और देखते-देखते उसे लगने लगता है, वह अकेला नहीं, व्यक्ति नहीं है, वह सारा संसार ही है, जो अपने ही इन शक्ति-सम्पन्न गुलामों के अत्याचार से पिसा जा रहा है, गुलाम जो अपने मालिक के भोजन को फालतू माल कहकर जलाये डाल रहे हैं... भूख का बन्धन उसके भीतर वह प्रेम जगाता है, वह विश्वैक्य जगाता है, जो धर्म और दर्शन और बुद्धिवाद नहीं जगा सके थे। वह पूछता है, क्या सभ्यता ही हमारी गुलामी का कारण है? क्या सभ्यता का नाश कर दिया जाय?

‘सभ्यता क्या जबाव देती?’

कहानी लिखी गयी। लतीफ़ उठे और सम्पादक के पास ले गये।

सम्पादक ने कहानी उनके हाथ से छीन ली, जल्दी से पढ़ गये, पढ़कर कुछ शिथिल हो गये, फिर एक तीखी दृष्टि से लतीफ़ की ओर देखकर बोले - ‘तुम्हें क्या हो गया?’

“क्यों?”

सम्पादक जी ने धीरे-धीरे, मानो बड़ी एकाग्रता से कहानी को फाड़ा। दो टुकड़े किये, चार किये, और रद्दी को हाथ से गिरा दिया, टोकरी में डालने की कोशिश नहीं की। फिर संक्षेप में बोले - “फिर लिखो!” और मानो लतीफ़ को भूल गये।

“चार बज गये हैं।”

“अभी छह घंटे और हैं। दो पेज मैटर-काफ़ी समय है।”

“अच्छा, मैं ज़रा घर हो आऊँ।”

“हूँ।”

4

यथार्थता स्वप्न से आगे है। घर पहुँचने पर लतीफ़ ने किवाड़ खटखटाये, फिर खटाखटाये; लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला। थककर वे सीढ़ी पर बैठ गये। तब उनके सामने स्पष्ट होने लगा कि वे कहाँ हैं, क्यों हैं? यानी दीखने लगा कि वह कहीं नहीं हैं, कुछ नहीं हैं, बिला वजह हैं-धब्बे की तरह हैं, सलवट की तरह हैं। उनका हृदय ग्लानि से भर गया। उन्होंने चाहा, अपना अन्त कर दें। जेब में हाथ डाला, तो वहाँ चाकू तो था नहीं, पेन्सिल थी। लतीफ़ ने दृढ़ता से उसे खींचकर इस्तीफ़ा लिखना शुरू किया। उन्हें मालूम नहीं था कि वे किस पद पर से इस्तीफ़ा दे रहे हैं, अतः उन्होंने ‘अपने पद से’ लिखकर काम चला लिया।

इस्तीफ़ा लेकर वे दफ़्तर पहुँचे। लेकिन सम्पादक जी दफ़्तर में थे नहीं।

लतीफ़ टीन की कुर्सी पर घुटने समेट कर बैठ गये और खिड़की से बाहर झाँकने लगे। बाहर पौ फट रही थी। ऊषा में चमक नहीं थी, उसके भूरेपन ने केवल रात के स्निग्ध अन्धकार को मलिन कर दिया था।

तभी लड़के ने आकर कहा, “चलिए, माँ बुला रही हैं। रात-भर बाहर रहे हैं, अब तो चलिए। नाश्ता हो रहा है।”

लतीफ़ ने चौंककर कहा, “’क्या?”

“मामा के यहाँ से गुड़ आया था, उसके गुलगुले बना लिए हैं।”

लतीफ़ कुछ सोच में पड़ गये, कुछ उठने की तैयारी में रह गये।

“और माँ ने कहा है, तनख़्वाह के कुछ रुपये तो लेते आना। तीन-चार दिन में भैयादूज है, कई जगत भेजने होंगे।” कहती हुई लड़की भी आ गयी।

मियाँ लतीफ़ ने एक गहरी साँस लीं। अपना इस्तीफ़ा उठाया और उसकी पीठ पर अपनी पिछले महीने की तनख़्वाह का एक हिस्सा पाने के लिए दरख़्वास्त लिखने लगे।

तभी सम्पादक जी आ गये। लतीफ़ को यों घिरा हुआ और लिखता देखकर बोले, “यह क्या है?”

पास आकर उन्होंने मोड़े हुए काग़ज पर इस्तीफ़ा पढ़कर कागज़ छीनते हुए फिर पूछा, “यह क्या है?”

“कुछ नहीं, मैं नयी कहानी लिखने लगा हूँ।”

सम्पादक जी को एकाएक कुछ कहने को नहीं मिला। उन्होंने बाहर जाने के लिए लौटते हुए कहा, “तुम रहे सदा वही अब्दुल लतीफ़!”

लेकिन अब्दुल लतीफ़ तब तक लिखने लग गये थे।

(आगरा, नवम्बर 1936)