नये अनिकेत / पूनम मनु

Gadya Kosh से
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"माँ, माँ, गज़ब हो गया..."

फोन पर शिल्पी की आवाज़ भर्राई हुई-सी महसूस हुई तो वाणी एकाएक घबरा उठी। "शिल्पु... क्या हुआ बेटा... तू इतनी घबराई हुई क्यों है...? सब ठीक तो है!"

" माँ, वह कोने वाली आंटी हैं ना... सोनू की माँ... उनका सामान जा रहा है। शिल्पी का दुखी स्वर जैसे किसी आने वाली विपदा की चेतावनी था।

"ओह! कैसे... मेरा मतलब कि ऐसा क्या हुआ... यूं अचानक..." माँ वीणा के दिमाग के तार लगा किसी उलझन-सी में फंस गए थे।

"पता नहीं माँ, आंटी नहीं हैं। कोई अंकल हैं। मैंने उनसे सामान ले जाने के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे लोग कमरा खाली कर रहे हैं।" शिल्पी का गला भर आया।

"मगर ऐसे-कैसे एकदम से... कुछ हुआ क्या? कुछ पता है तुझे...?" वीणा सचमुच चिंतातुर हो उठी।

"नहीं, मुझे कुछ नहीं पता... मैं तो जब ऑफिस से लौटी तो देखा आंटी का सारा सामान लगभग जा चुका था। बचा इक्का-दुक्का सामान अंकल समेट रहे थे।"

उसकी बात पूरी होती उससे पहले ही-"पर हुआ क्या था...?"

"मुझे क्या करना है माँ... क्या हुआ था से! जो बात है उसे तो समझ नहीं रही हो। यहाँ मेरी जान सांसत में फंस गई है। तुम हुआ क्या था... हुआ क्या था, करे जा रही हो।" शिल्पी अपनी माँ की फिजूल की बात पर झल्ला उठी।

"हाँ... हाँ... समझ तो रही हूँ। पर सोच रही थी पता नहीं बेचारी के साथ क्या हुआ...? खैर... छोड़ उसे। ये बता... अब क्या होगा। क्या करेगी तू?" वीणा को भी ग़लत दिशा में सोचते जा रहे अपने दिमाग की बेवकूफी का भान हुआ तो वह थोड़ा सकपकाई. पर जल्द ही मुद्दे पर आ गई.

"क्या करूंगी क्या... अब मेरे वश का कुछ नहीं। आप आ जाओ जल्दी। फिर सोचते हैं कि क्या करना है।" शिल्पी ने माँ के आने पर ज़ोर डाला।

पर सुनते ही वीणा पता नहीं किन चिंताओं में खो गई.

"नहीं बेटा! मैं अभी नहीं आ सकती। बीएससी के एडमिशन शुरू हो गए हैं। पहले रूपल का दाखिला करा दूँ। फिर देखूँगी।" उसने अभी आने में अपनी असमर्थता जताई.

"माँ, प्लीज़ कुछ तो करो! मुझसे अब ऐसे नहीं रहा जाता। माँ प्लीज़!" शिल्पी गिड़गिड़ाई मानों।

"अच्छा... एक काम कर, तू पहले फ्रेश हो जा। अभी ऑफिस से आई है ना... कुछ खा ले पहले। तू चिंता मत कर। तेरे पापा को आने दे। फिर सोचते हैं इस समस्या का हल। ठीक है! और हाँ... यदि लाइट चली जाए तो डरना नहीं। कमरे की कुंडी अंदर से अच्छे से बंद कर लेना। ठीक है। चल, रखती हूँ फोन अभी। तू भी आराम कर!" माँ ने बेटी को धीरज बँधाया।

पर धीरज दोनों में से किसी के पास नहीं।

वक़्त के नन्हें-नन्हें पाँव अब स्पष्ट नज़र आने लगे थे। फोन काटते ही माँ धम्म से पलंग पर ऐसे बैठी मानों दोनों घुटनों का कार्टिलेज (ग्रीस) एकसाथ खत्म हुआ हो। उधर अपनी फोल्डिंग पर बेतरतीब-सी बैठी शिल्पी बड़ी देर तक शून्य में ताकती रही।

ये कैसी विकट समस्या है जो हर दूसरे माह या हर पन्द्रहवें दिन उसके सामने आ खड़ी होती है। कितने संत्रास में कटने लगे हैं उसके दिन। कितनी बेकल हैं उसकी रातें आजकल। उफ! इन दिनों कितनी सतर्कता से धरती है वह अपने पाँव ज़मीन पर। हर अगला कदम उठाते डरती है कि कहीं कोई खींच न ले उसके पैरों के नीचे से उसकी ज़मीन। कितनी-कितनी सावधानियों के बाद भी ये समस्या उसके सामने जाने क्यों आ जाती है। आह! क्या करे।

इस कंक्रीट के जंगल में पत्थर जैसे हृदय लिए लोगों के बीच मानों उसका या उस जैसी विस्थापित लड़कियों का कोई वजूद ही नहीं। हर वक्त एक असुरक्षा की भावना पलती रहती है भीतर। दिन-रात। चौबीसों घंटे। जहाँ कोई अपना नहीं।

कैसी बिल्ली जैसी मानसिकता हो गई है उसकी आजकल। बिल्ली-कुत्ते, बंदर, इंसान हर किसी से डरी-सहमी।

' माँ...माँ को कैसे बताए कि कितना मुश्किल है सारा दिन ऑफिस में खटते रहने के बाद उस रास्ते पर लौटना। जिसपर पैर रखते एक अलग किस्म का भय घर कर जाता है उसमें। शाम होते ही एक अलग किस्म की बेचैनी जैसे उसकी राह तक रही होती है। अपनी चॉलरूपी बिल्डिंग के सामने पहुँचते ही कैसे उसका दिल भय से धड़क उठता है। सीढ़ियों पर सावधानी से पैर रखती है चौकन्नी बिल्ली-सी जो बिना आहट किए तीसरे तल पर पहुँचते ही पसीने से नहा जाती है सर्दियों में भी। अपने कमरे की ओर बढ्ने से पहले चोर निगाहों से देखती है वह पटना की रानी का कमरा। जिसके दरवाजे के नीचे से दिखता पायदान का एक मुड़ा-सा कोना उसे धीरज-सा बँधाता है कि रानी है। बिना ये सोचे कि उसका होना न होना उसके किसी काम का नहीं। वह अक्सर नाइट ड्यूटी में होती है और वह दिन में अपने दफ्तर। शायद ही एक-आध बार उससे उसका सामना हुआ हो तब भी... तब भी वह पायदान उसे किसी दूसरे ही तरीके की निश्चिंता से भर देता रहा है रोज़ ही। बाद इसके वह देखती है चुपके से उसके सामने वाले कमरे के दरवाजे के बराबर में रखे तुलसी के पौधे को। जो सोनू की माँ की वहाँ उपस्थिति की गवाही देता था।

वह कैसे बताए माँ को कि-आगे बढ़ने पर उसके दक्षिणमुखी कमरे के ठीक पहले घरघराती है बिहार की बेगम जान के कूलर की आवाज़। वह आवाज़... वह आवाज़ जो बांधे रखती है उसे उसके कमरे से और कैसे बताए कि उसके कमरे के ठीक सामने वाले कमरे में रहती राधिका भाभी के दरवाजे पर hardamहर वक़्त दिखती दो पुरानी चप्पलों की जोड़ियों से उसे घना प्रेम हो गया है इन दिनों...आपकी गैरहाजिरी में। और... और... राधिका भाभी के कमरे की पंक्ति में उनके दायीं ओर बगल के कुल तीन कमरे छोड़कर रहतीं पचपन वर्षीय पंजाबन आंटी जस्सी का नया कूलर जब अपनी मस्त आवाज़ में हर वक्त मस्ताता है। तब वह भूल जाती राधिका भाभी का ढके-छुपे शब्दों में किया गया उनका रहस्योद्घाटन कि "शिल्पी, पंजाबन से बचकर रहियो, मुझे तो इसके हाव-भाव ज़रा ठीक नहीं लगते। लगता है लेसबियन है ये।" बावजूद उसका स्त्री होना ही उसे सब डर से परे कर देता है।

कैसे बताऊँ और किसे बताऊँ कि अपने कमरे तक पहुँचते-पहुँचते तक कैसे उसकी सहमी नज़र झांक आती है हर उस कमरे की चौखट पर जहां-जहाँ स्त्रियों की अल्पकालिक ही सही, रिहाइश है।

'जाने क्यों ये अल्पकालिक रिहाइश अल्पकालिक ही रह जाती है। वह भी कितनी रीती, कितनी भावहीन रूखी सी.' एक बुदबुदाहट भीतर से उभरी।

जाने क्या हुआ है इन शहरों को। जो लड़कियों के अपनी ओर आने से विचलित से हैं और जाने क्या हुआ है ऐसे शहर में आकर रहने वाली उन लड़कियों को जो नौकरी की तलाश में अपना घर, गाँव, देस छोड़ परदेस आ पहुंची हैं। क्या मजबूरी है उनकी कि वे वहाँ रहने को विवश हैं। जहाँ पर हर कोई उनका शोषण अपने-अपने तरीके से कर रहा है। ये कैसा-सा डर है जो सब पर भारी है। पर फिर भी कोई उस शहर को छोड़ने के लिए राज़ी नहीं। क्यों उस जैसी हर लड़की अपना बोरिया बिस्तर समेट चल देती है किसी नई इमारत की ओर। पर शहर नहीं छोड़ती।

न चाहते भी जैसे सब स्त्रियाँ एक दूसरे से बंधी हैं। सत्तर-सत्तर कमरों की इन बड़ी-बड़ी इमारतों में कोई एक माह ठहरता है। कोई दो माह। कोई चार माह। एक तलाश सबके स्वभाव में उतर आई है इन शहरों में। सस्ते कमरे की तलाश। लड़कों के मुक़ाबिले अधिक त्रस्त हैं लड़कियां / स्त्रियाँ। जिस भी फ्लोर पर कोई स्त्री न रहती हो। वहाँ पर रात तो क्या दिन भी काटना मुश्किल है। हर आहट दहशत से भर देती है लड़कियों को। सुकून... सुकून तो जैसे सब छीन लिया है गया है इस पीढ़ी का। लगता है कोई षडयंत्र है जो रचा जा रहा है इनके विरुद्ध।

अभी पिछले माह ही तो उसने ये सोचकर लिया था यहाँ कमरा कि यहाँ पर तो कई परिवार हैं। कई स्त्रियाँ हैं। एक-दो चली भी गईं तो भी कोई न कोई तो रहेगी ही। पर पता नहीं क्या हुआ कि जहाँ बेगमजान अपनी ईद मनाने बिहार चली गईं। वहीं राधिका भाभी ने भी कहीं और फ्लैट ले लिया है। जहाँ पर वे चार दिन बाद शिफ्ट कर जाएंगे। ऊपर से आज सोनू की माँ का सामान भी गया।

ना... वह कह देगी माँ से। वह नहीं रहेगी यहाँ अब। उसके बसके नहीं हर तीसरे हफ्ते कमरा ढूँढना, सामान ढोना। विस्थापित वह तो बंजारन हो गई है। इंजीनियरिंग करते समय कब सोचा था मात्र पंद्रह हज़ार की नौकरी के लिए उसे ब्याह से भी पहले अपना मायका त्यागना होगा। इतनी दुर्गति तो शायद ससुराल वाले भी यकायक न करें जितने ये यहाँ के मकान मालिक करते हैं। निरंकुश सारे

'यहाँ कचरा क्यों डाला! कमरा खाली करो तुरंत। कोई टेंशन नहीं चाहिए हमें। निकलो यहाँ से। ये आपकी सहेली या ये बहन जो भी है कैसे यहाँ रह रही। रात को भी यहाँ रही... किससे पूछकर? कमरा जब एक के लिए लिया तो दो कैसे? एक घंटे में कमरा खाली चाहिए / अभी आदि आदि।'

ओफ! हर वक़्त अजब तानाशाही। लगता है जैसे हर मकान मालिक आपस में मिला हुआ है। किसी को रहम नहीं। किसी को दया नहीं। गधे-घोड़े सबको एक ही लाइन में रखते हैं। हर वक्त अंजाना-सा खौफ दिल को घेरे रहता है। भोजन करते यदि याद आ जाय कि आप गुड़गांव के कमरे में हैं तो स्वाद भी तुरंत कसैला हो जाए.

एक अनकही विनती। एक अनकही प्रार्थना हर समय एक लड़की की दूसरी लड़की / स्त्री से, प्लीज़ कमरा छोड़कर मत जाना। नहीं तो उसे भी भागना होगा यहाँ से। सब टिककर रहना चाहते हैं पर... सबकी अपनी समस्याएँ हैं। कोई कहीं और सस्ता कमरा मिलते ही चल देता है तो कोई मकान मालिक के रवैये से परेशान होकर। पर वह तो हर सावधानी बरतती है हर बार... फिर उसे क्यों छोड़ना पड़ता है कमरा।

बेगमजान का भी तो कोई भरोसा नहीं। वह लौटे न लौटे। वह तो पहले ही कह गई थीं-'ये शहर उन्हें अच्छा नहीं लगता। वह तो मुरादाबाद में ही खोलेगी अपना होटल।' अगर वह वापस न लौटी तो! क्या करे वह... एक तो सारा दिन के थके हारे कमरे पर आकर खाना बनाओ. सुबह के जल्दबाज़ी में छूटे सारे काम निबटाओ. बाद इसके ऐसी किसी घटना से रूबरू हौओ. वह सिसक उठी।

'माँ... माँ... आपके पास रहना चाहती हूँ मैं। अपने घर में। सुरक्षित। सच... एक लड़की के लिए इस समस्त जगत में यदि कोई सुरक्षित स्थान है तो वह है उसकी माँ का घर। यदि कोई उसका सच्चा प्रहरी है तो वह है उसकी माँ। पिता के साये की घनी छांव हर दुख से दूर रखती है। माँ, कैसे बताऊँ कि आपकी अनुपस्थिति कितना असहाय कर देती है मुझे। आपके यहाँ न होने पर भी तलाशती रहती हूँ आपका होना इन सबके बीच। अब मैं आपके बिना नहीं रह सकती। माँ... माँ।' असपष्ट-सी बुदबुदाहट उसके इर्द-गिर्द।

"माँ मैं वापस आ रही हूँ। मुझे नहीं करनी ये नौकरी-वौकरी इससे अधिक तो मैं अपने शहर में अपने घर में रहकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ही कमा लूँगी।" शिल्पी ने माँ के फोन मिलाते ही विनती-सी करते हुए कहा।

पर ये झूठी शान थी कि मजबूरी... संवेदनाएँ दम तोड़ने लगीं——

"नहीं बेटा... तुम ऐसे नहीं आ सकतीं। तुम, तुम तो बहादुर हो ना। तुम्हारी चाची की दोनों बेटियाँ तो देखो, बेंगलोर में अकेले रहती हैं और तुम तो यहीं गुडगांव में हो। हर पन्द्रहवें दिन घर भी चली आती हो मिलने और दूसरी बात बेटा... तुम्हारे चाचा-चाची, दादा-दादी क्या कहेंगे। वे तो हमें ताने मार-मारकर ही मार देंगे और अपने अड़ौसी-पड़ौसी. ना... बेटा अपनी इज्ज़त का सवाल है ये। भले तुम हमें कुछ न दे पाती हो पर यहाँ तो सभी को ये लगता है कि इनकी बिटिया बहुत पैसा कमाती है। बड़ी कंपनी में इंजीनियर है। तेरे बहन-भाई अपने दोस्तों सखियों पर खूब रौब गाँठते हैं कि उनकी दीदी..."

माँ पता नहीं क्या-क्या कहती रहीं। क्या-क्या समझाती रहीं। उसे कुछ होश नहीं। वह तो ऐसे बैठी थी जैसे सम्मूर्छा में पहुँच गई हो। खाना बनाने की सोच से भी दूर...वह भूखी निढाल बिस्तर पर गिर पड़ी। माँ की दोबारा रिंग पर कठिनतः मुख से बस इतना निकला "ठीक है माँ...मैं, आपसे बाद में... बात करती हूँ।"

दो आँसू ढुलककर तकिये पर कब जा गिरे पता न चला। मुँदीं आँखें खोलने का साहस उसमें न था। वेदना से भरी वह भीतर ही कहीं हिम्मत बटोरने की कोशिश कर रही थी। सवेरे फिर उसे नए बसेरे की तलाश में जो निकलना था।