नये साहित्य का नवीनतम काल-विभाजन / गोपालप्रसाद व्यास
(उस दिन अचानक आचार्य रामचंद्र शुक्ल फोन पर आगए। उन्होंने परलोक में भी साहित्य प्रचारिणी सभा की स्थापना कर डाली है और हिन्दी के आधुनिक साहित्य का नये सिरे से इतिहास लिखना प्रारंभ कर दिया है।)
“हमारी-आपकी तो शायद कहीं मुलाकात हुई है?” शुक्लजी ने हमसे फोन पर पूछा।
“जी हां, कई बार!”
“शायद आप काशी के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में बाबू गुलाबराय के साथ आए थे। तब मेरा मकान बन रहा था।” आचार्य ने कहा।
“जी हां, हम लोग आपके मकान पर हाज़िर हुए थे। उस वर्ष आपको मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।”
“हां, वह बड़े मौके पर मिला था। मकान के सिलसिले में उस समय रुपये की बहुत सख्त ज़रूरत थी। कहिए, कुशल से तो हैं?”
“जी हां, कृपा है आपकी।”
“सुनिए, एक बात पूछनी थी,” शुक्लजी ने कहा, “आप जो स्वर्गस्थ साहित्यकारों के इंटरव्यू ले रहे हैं वे कल्पित हैं, या वास्तविक?”
हमने उत्तर दिया, “शुक्लजी महाराज, अगर आप वास्तविक हैं तो लेखमाला भी वास्तविक है। अभी टेलीविजन तो दिल्ली में घर-घर चालू हुआ नहीं। इसलिए आवाज़ ही सुनी जाती है, शक्ल तो सामने आती नहीं।”
“शक्ल भले ही सामने न आए, मगर जो सामग्री सामने आ रही है, वह अदभुत है। क्या बताऊं, मैं तो जल्दी ही धरती से उठ गया, नहीं तो अपने इतिहास में आपका उल्लेख अवश्य करता।”
हमने कहा, “कोई बात नहीं। हमें तो आपके फोनिक आशीर्वाद से ही तसल्ली है। मगर क्या आप आजकल का साहित्य देखते हैं?”
“वह तो अपना पुराना व्यसन है। हम लोगों ने यहां भी एक साहित्य प्रचारिणी सभा खोल ली है। बाबू श्यामसुंदर दास उसके मंत्री है और भारतेंदुजी अध्यक्ष। पं. प्रतापनारायण मिश्र तो पहले से थे ही, इधर नवीनजी के आने से महफिल का रंग जमने लगा है। अक्सर नये साहित्य के संबंध में चर्चा होती ही रहती है।”
“तो नये हिन्दी साहित्य के संबंध में आपके क्या विचार हैं?” हमने आचार्य रामचंद्र शुक्ल से पूछा।
“बात यह है.....हलो-हलो! सुन रहे हैं न,” शुक्लजी ने कहा।
“हां, कुछ फोन में कड़कड़ की-सी आवाज़ आ रही है।”
शुक्लजी कहने लगे, “मैं शुक्ल-परवर्ती साहित्य को आधुनिक काल की चार धाराओं में विभक्त करता हूं। हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि इस काल में चार शाखाओं में हुई।”
“वे कौन-कौन सी शाखाएं हैं, शुक्लजी” ,हमने कागज-पेंसिल सम्हालते हुए कहा।
शुक्लजी बोले, “इन शाखाओं के क्रमशः नाम इस प्रकार हैं- राज्याश्रयी शाखा, विश्वविद्यालयाश्रयी शाखा, अखबाराश्रयी शाखा और फटीचरी यानी निराश्रयी शाखा।”
अपने कथन की व्याख्या करते हुए शुक्लजी ने आगे कहा, “राज्याश्रयी शाखा सरकार की कृपा पर अवलंबित रहने वाले साहित्यकारों की है। इनमें कुछ तो ब्रिटिश राज के पुराने राजभक्त हैं और कुछ की भर्ती सन् 47 के बाद हुई है। इनमें से कुछ तो संसद या विधानसभाओं में हैं, कुछ आकाशवाणी और सूचना-विभागों में, कुछ आफिसों और समितियों के सदस्य हैं। इनमें एक-दो राज्यपाल भी हैं। बाक़ी ऐसे लोग भी कम नहीं जो मंत्रियों, सेक्रेटरियों और डायरेक्टरों के कृपा-पात्र हैं। ये सब राज्याश्रयी शाखा के अंतर्गत आते हैं।”
शुक्लजी ने फोन पर ज़रा खांसकर कहा, “एक दिन मैंने बैठे-बैठे हिसाब लगाया था, छोटे-मोटे 999 हिन्दी साहित्यकार आज राज्याश्रय में पल रहे हैं। इन साहित्यकारों को मैंने चार कोटियों में बांटा हैं।”
बीच में रुककर शुक्लजी बोले, “आपको जल्दी तो नहीं है?” फिर आश्वस्त होकर बोले, “मैंने साहित्यकारों को चार कोटियों में विभक्त कर दिया है। एक वे जो विशुद्ध चारण हैं और शुद्ध जय-जयकारवादी हैं। दूसरे वे जो सरकार के प्रमुख सूत्रधारों की तो सराहना करते हैं, मगर जनता में अपने मुख को उज्ज्वल बनाए रखने के लिए तंत्र के कुछ कार्यों की कभी-कभी आलोचना भी कर लिया करते हैं। तीसरे वे हैं जो निंदा-स्तुति से दूर रहते हैं और केवल रीति-नीतियों का ही गुणगान करते हैं। इनका उद्देश्य यह है कि चाटुकारिता साहित्य में नहीं, जीवन में आनी चाहिए। यानी लोक और परलोक दोनों का इन्हें ख़याल है। ये अपना इहलोक तो राज्याश्रय से और परलोक साहित्य-साधना से बनाना चाहते हैं, जबकि दूसरे और पहले वर्ग के लोगों का ध्यान केवल इहलोक तक ही सीमित है। पर चारण-काल की तरह इन तीनों कोटि के लेखकों की कृतियां साहित्यिक दृष्टि से टिकाऊ नहीं हैं और अपने आश्रयदाताओं के साथ ही इनका भी महत्व नष्ट हो जाएगा। ऐसे लोगों के साहित्य में शब्दाडंबर और बोली की सुघड़ता तो ढूंढ़ने पर मिल जाती है, लेकिन भावों की मार्मिकता जो हृदय-संवाद की देन है और भावों की तन्मयता एवं विचारों के साधारणीकरण से आती है, इनमें नहीं पाई जाती। यद्यपि इस धारा के लोगों ने रिपोर्ताज़ से लेकर बड़े-बड़े उपन्यास और महाकाव्य तक लिखे हैं, पर वे सभी आंतरिक ऊष्मा से उद्वेलित न होने के कारण साहित्य की परिधि से बाहर हैं।”
विश्वविद्यालयाश्रयी शाखा का विश्लेषण करते हुए आचार्य बोले, “इस क्षेत्र में भी आजकल साहित्य का होलसेल प्रोडक्शन चल रहा है। हर प्रदेश में साहित्य के कई-कई कारखाने खुले हुए हैं, जहां से हर साल भारी तादाद में डॉक्टर ढाले जा रहे हैं। इधर एम.ए. पास करो और उधर डॉक्टर बनो! देश में साहित्य की बीमारी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है न? उपचार के लिए डॉक्टर चाहिए ही, साहित्य में भले ही कोई व्यक्ति या ग्रंथ स्वीकृत न हुआ हो, विश्वविद्यालय की लेबोरेटरी में उस पर तत्काल काम प्रारंभ हो जाता है। भारत सरकार को अपने निर्णयों में इस विश्वविद्यालयी तत्परता से सबक लेना चाहिए।
लोग कहते हैं कि हिन्दी में विज्ञान का साहित्य नहीं। विज्ञान में अनुसंधान होता है। आप बताइए कि भारत में अणु-अनुसंधान से भी अधिक खोज हिन्दी के नये बनने वाले डॉक्टरों ने अपने डॉक्टरेट के निबंधों में की है या नहीं? हमने विश्वविद्यालयी साहित्य को भी तीन भागों में विभक्त किया। पहला वह जो परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए लिखा जाता है, उसका छपने से या जनता के सामने जाने से कोई सरोकार नहीं। विश्वविद्यालयों के सैकड़ों शिक्षक-प्रशिक्षक इसी कोटि में आते हैं। दूसरी कोटि की रचनाएं वे हैं जो परीक्षार्थियों के लिए लिखी जाती हैं। इनका उद्देश्य लेखक के लिए रायल्टी और परीक्षार्थियों के लिए डिग्री प्राप्त करना होता है। ये रचनाएं पाठ्यक्रम स्वीकार करने वाली समिति के सदस्यों के विचारों के आधार पर तैयार की जाती हैं। साहित्य या जनता से इनका कोई लगाव नहीं होता। तीसरी कोटि की रचनाएं वे हैं जो शास्त्रीय कोटि के अंतर्गत आती हैं। प्रायः विभागों के अध्यक्ष अपने शिष्यों और संप्रदाय के लेफ्टिनेंटों पर प्रभाव डालने के लिए इन्हें लिखते हैं। ये आकार-प्रकार में काफी बड़ी होती हैं, क्योंकि इनके लेखकों का यह विश्वास होता है कि जितनी बड़ी पुस्तक उतना बड़ा लेखक! साथ ही यह भी कि जो अध्यक्ष तादाद में जितनी अधिक पुस्तकें लिख सकता है, वह उतनी ही अधिक सरकारी समितियों का सम्मानित सदस्य भी बन सकता है।”
“परंतु,” शुक्लजी बोले, “मेरी दृष्टि से ये रचनाएं भी शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। समीक्षा का भी एक सृजन पक्ष है, जो इस प्रकार के लेखकों की कृतियों में नहीं पाया जाता। पाठ्यक्रम बदलने के साथ ही इनके बारे में भी लोगों के विचार बदल जाते हैं। समीक्षा तो एक दृष्टि है, विचार है, अभिव्यंजना है। आप तो जानते ही हैं कि मैं इस मामले में क्रोंचे का प्रशंसक हूं। मुझे हिन्दी के अध्यापकों का व्यर्थ गुरुडम और चर्चित चर्वण तथा अमौलिक लेखन-पद्धति ज़रा भी नहीं सुहाती।”
शुक्लजी हमें बोलने का अवसर दिए बिना ही आगे कहने लगे, “आजकल अख़बारों के माध्यम से भी काफी साहित्य प्रकाश में आ रहा है। परंतु......”
परंतु वह 'परंतु' ही कह पाए थे कि छः मिनट समाप्त होगए और फोन कट गया।