नरगिस की मां जद्दनबाई की यात्रा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 मार्च 2017
संजय दत्त का बयान है कि उनकी नानी जद्दनबाई उत्तर प्रदेश की रहने वाली थीं। इस समय उत्तर प्रदेश के चुनाव सुर्खियों में हैं तो उन्हीं का हिस्सा बनने के लिए यह बयान दिया गया है। गोयाकि बतौर अभिनेता वे परदे पर तो कुछ अभिव्यक्त नहीं करते परंतु बयानों में स्वयं को उजागर कर रहे हैं। उनकी लंबी अभिनय यात्रा में राजकुमार हिरानी ही उनसे अभिनय करा पाएं हैं। संजय दत्त से यह उम्मीद तो की नहीं जा सकती कि अपने देश के इतिहास की उन्हें सतही जानकारी भी हो परंतु अपने परिवार के बारे में भी उन्हें ज्ञान कम ही है। जद्दनबाई की शादी के बाद बिदाई हो चुकी थी परंतु लौटती हुई बारात पर डाकुओं ने हमला किया और दहेज तो लूटा ही परंतु उनके पति को भी गोली मार दी। उस बेचारी युवा विधवा पर ससुराल वाले बड़ा अत्याचार करते थे तथा उसे 'जन्मजली अभागी' करार दिया गया था।
प्रतिदिन की तरह वे नदी के घाट पर कपड़े धो रही थीं और मायके की याद में कोई लोक गीत गुनगुना रही थीं। उधर से एक जत्रा मंडली गुजर रही थी और एक स्त्री ने उनकी व्यथा-कथा सुनी तो अपने साथ भाग जाने का आग्रह किया। इस तरह वे मंडली के साथ कोलकाता आईं और उन्हें एक कोठे को सौंप दिया गया। उस दौर में दो तरह के कोठे होते थे- एक में केवल ठुमरी और नृत्य होता था जैसा हम कमाल अमरोही की मीना कुमारी अभिनीत 'पाकीज़ा' में देख चुके हैं। याद कीजिए वह मधुर गीत 'ठाडे रहियो ओ बांके यार..।' दूसरे किस्म के कोठे में शरीर का व्यापार होता था।
इस जन्म से हिंदू कन्या को कोठेवालों ने नया नाम दिया जद्दनबाई। उसके माधुर्य के चर्चे होने लगे। उसी दौर में पंजाब के एक खानदानी रईस के सुपुत्र मोहन बाबू कोलकाता से जहाज में बैैठकर लंदन जाने वाले थे, जहां उन्हें मेडिकल विज्ञान का अध्ययन करके डॉक्टर बनना था। जहाज के आने में कुछ दिनों के विलम्ब के कारण मोहन बाबू को कोलकाता रुकना पड़ा। एक दिन वे घूमते-फिरते जद्दनबाई के कोठे पर जा पहुंचे और जद्दनबाई के सौंदर्य और माधुर्य के इस कदर दीवाने हो गए कि उनसे विवाह की जिद पकड़ ली। व्यावहारिक बुद्धि की जद्दनबाई ने उन्हें समझाया कि वे यह आत्मघाती जिद छोड़ दें। जद्दनबाई ने अपने पहले पति से तलाक ले लिया था और उन दिनों वह उनके लिए तबला बजाता था। मोहन बाबू पर इश्क का भूत सवार हो गया और उनके परिवार ने उन्हें अपने से अलग कर दिया तथा वे सारी जायदाद से वंचित कर दिए गए।
मजबूर होकर जद्दनबाई को अपने इस जुनूनी आशिक से विवाह करना पड़ा और उनकी पुत्री हुई नरगिस। जद्दनबाई मुंबई फिल्म उद्योग में अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई आईं जहां उनकी ठुमरी गायकी को भरपूर प्रशंसा मिली। उन्होंने फिल्म निर्माण प्रारंभ किया, जिसमें अपने पहले पति से जन्मे पुत्र अनवर खान को नायक बनाया। इस असफल फिल्म के घाटे को पाटने के लिए उन्होंने नरगिस को अभिनय क्षेत्र में उतारा,जबकि नरगिस के पिता अपनी पुत्री को डॉक्टर बनाकर अपने अधूरे सपने को पूरा करना चाहते थे। उन्होंने नरगिस को कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही नरगिस ने कांग्रेस के अधिवेशन में बतौर स्वयंसेविका कार्य किया। वहां नेहरू ने उन्हें सफेद साड़ी पहनने की सलाह दी और ताउम्र नरगिस ने सफेद साड़ी पहनी। अत: यह मिथ्या है कि राज कपूर ने उन्हें सफेद साड़ी पहनने का मशविरा दिया था। नरगिस के प्रभाव में राज कपूर ने अपनी फिल्मों की नायिकाओं को सफेद साड़ी पहनकर जलसों में जाने की सलाह दी।
जब युवा राज कपूर अपनी पहली फिल्म 'आग' के लिए नरगिस को अनुबंधित करने गए तो जद्दनबाई ने उनके पृथ्वीराज का पुत्र होने के नाते अनुबंध किया अन्यथा नए निर्माता निर्देशक के साथ वे काम करने की इजाजत नहीं देतीं। अनुभवी जद्दनबाई ने फिल्म 'बरसात' की शूटिंग के पहले दौर में ही भांप लिया था कि नरगिस राज कपूर प्रेम-कथा प्रारंभ हो गई है और यह फले-फूले नहीं, इसलिए उन्होंने कश्मीर में तीस दिन की आउटडोर शूटिंग की इजाजत नहीं दी और मजबूरी में राज कपूर को खंडाला में ही शूटिंग करनी पड़ी। 'बरसात' निर्माण के दौरान ही जद्दनबाई की मृत्यु कैंसर के कारण हो गई। अत: नरगिस प्रेम में आकंठ लीन हो गई। उनके नौ वर्ष केसाथ में उन्होंने 17 फिल्मों में काम किया। 'जागते रहो,' के अंतिम दृश्य में मंदिर के आंगन में पौधों को जल देती हुईं नरगिस रातभर से प्यासे नायक को जल पिलाती है। यह इन दोनों का अभिनीत आखिरी दृश्य था, फिर तो ताउम्र ही 'प्यासे' रहना था। इस दृश्य के पार्श्व में शैलेन्द्र लिखित गीत की पंक्तियां हैं, 'किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियों के सहारे, जागो मोहन प्यारे..नगर नगर सब गलियां जागीं, डगर डगर सब जागीं। दरअसल, राज कपूर की 'जागते रहो' और गुरुदत्त की 'प्यासा' सांस्कृतिक प्यास की कहानियां हैं और आज वह अखिल विश्व की प्यास बन चुकी है। पूरा विश्व ही मरुस्थल हुआ जा रहा है और हमें बार-बार नखलिस्तान का भ्रम सता रहा है।