नर्गिस / मनोज शर्मा
वो घर की दहलीज़ पर हाथ बाँधे खड़ी थी सामने आते-जाते लोगों में अपनी शाम ढूँढ रही थी। कोई दूर से देख लेता तो एक पल के लिए दिल मचल जाता पर उसे वापिस लौटते देखते ही सारी उम्मीदें धराशाही हो जाती। लाॅकडाउन से पहले ही अंतिम बार कोई आया था शायद! वो बंगाली? जिसके पास छूटे पैसे तक नहीं थे फिर अगली बार रुपये देने का वादा करके सिर्फ़ पचास का नोट ही थमा गया था। उस रोज़ ही नहीं बल्कि उससे पहले से ही लगने लगा था अब इस धंधे में भी मेरी जैसी अधेड़ औरत के लिए कुछ नहीं रखा पर उम्र के इस पड़ाव पर कहाँ जाऊँ? उम्र का एक तिहाई हिस्सा तो यहीं निकल गया। सारी जवानी सारे सपने इसी धंधे में ख़ाक हो चुकी है। अब तो यही नरक मेरा घर है कभी जब कुछ सुंदर थी सबकुछ ज़न्नत लगता था पुष्ट शरीर में सुन्दर आकर्षण था। हर कोई गदरायी जवानी पर मचल जाता था। पैसे की चाह में सबकी रात रंगीन करना कितना अच्छा लगता था। आहा! पर अब तो लाइफ जहन्नूम बन चुकी है। लाॅकडाउन में पहले कुछ दिन बीते फिर हफ्ते और अब तो महीने। यहाँ कई दिनों से फांके हैं कैसे जी रही हूँ मैं ही जानती हूँ। सरकार कुछ नहीं करती हमारे लिए ना अनाज का दाना है अब और न ही फूटी कोड़ी। साला कोई फटकता अब।
नई-नई जब आयी थी तब बात ही अलग थी क्षितिज की ओर देखते हुए सोचती हुई कि कब आई थी! जैसे हर ओर शून्य हो! फिर कुछ याद करके हाँ! 12 साल पहले पर ठीक से याद नहीं। वो भी क्या दिन थे जब दर्जनों ड्रसैज और हर ड्रैस एक से बढ़कर एक कृत्रिम फूलों से सजी
कभी पिंक कभी गोल्डन और कभी वह रेशमी साड़ी व मखमली लाल चमकीला गाऊन। रोज़-रोज़ भोजन में तीन क़िस्म की तरकारी ताज़ा गोश्त व बासमती पुलाव पूरी नान! होठों पर जीभ फिराते हुए! क्या स्वाद था क्या खूश्बू थी। घर पर पैसा पहूंचता था तो वहाँ भी तूती बोलती थी। नये-नये कपड़े साजो-समान के क्या कहने थे बस राजकुमारी-सी फीलिंग रहती थी। हर ग्राहक की पहली पसंद उन दिनों मैं ही थी और प्राइस भी मनचाहा जितना मांगो उतना ही और कई बार तो डबल भी। हर शिफ्ट में लोग मेरा ही साथ मांगते थे सोने तक नहीं देते थे रात भर डेली-डेली और वह बूढ़ा ठरकी तो! (स्वयं में हंसकर) सब कुछ नोच डालता था और फिर निढ़ाल होकर पड़ जाता था। वो काॅलेज के लौंडे तो शनि की शाम ही आते थे पर मौका पाते ही चिमट जाते थे। हाँ पर एक बात तो थी यदि शरीर चाटते थे तो पैसा भी मिलता था और फिर कुछ घंटों में ही हज़ारों रुपये! आज देह भी साली काम की नहीं रही और एक धेला तक साथ में नहीं। साली! शक्ल ही बदल गयी जैसे कोई पहचानता ही न हो। बूढ़ा बंगाली या गुटका खाता वह ट्रक ड्राइवर या दो चार और उसी क़िस्म के लोग बस वही दो चार दिनों में। सब मुफ्तख़ोर हैं साले मुफ़्त में सब चाहते है अब यहाँ कुछ भी नहीं बचा। ये तो ज़िन्दगी का असूल है जब तक किसी से कोई गर्ज हो फायदा हो तभी तक उससे वास्ता रखते हैं वरना किसी की क्या ज़रूरत। अब तो काॅलेज के छोकरे मेरी सूरत देखते ही फूहड़ता से हंसने लगते हैं पास आना तो दूर रहा सौ-पचास में भी शायद अब कोई इस शरीर सूंघे। आंखे सोचती हुई धरती में गढ़ गयी फिर उस रोज़ जब दिल्ली आये कुछ समय ही बीता था। रेंलिंग पर हथेली टिकाए सूनसान सड़क को देखती रहती है।
कितना बड़ा घर था पर अब समय के साथ-साथ
इसे छोटा और अलहदा छोड़ दिया गया है। कभी यह बीच में होता था जब सारी आंखे मुझे हरपल खोजती थी पर अब इसे काटकर या मरम्मत कर एक ओर कर दिया है ताकि मैं जवान और पैसे वाले ग्राहकों के सामने न आ सकूं शायद ही कभी-कभार कोई आंखे इस ओर घूरती हैं। और फिर ग़लती से यहाँ कोई पहुँच भी जाता है तो आधे पैसे तो दलाल ले जाता है। वो मूच्छड़ वर्दी वाला या वह टकला वकील और छोटे मोटे व्यवसायी या दूरदराज से आये नौकरीपेशा लोग ही यहाँ आते हैं। इतनी कम क़ीमत इस शरीर की सोचकर ही मन सहम जाता है। टीवी का स्वीच ऑन करती हुई खिड़की से बाहर सूनसान सड़क पर दो एक पियक्कड़ इस ओर घूर रहे हैं जाने कभी आये हो यहाँ किसी रोज़! अब तो याद भी नहीं! आज मेरा रूंदा चेहरा और अलसायी आंखे उन्हें आकृष्ट करने में पूरी तरह नाकाम है। शायद भूखा पेट किसी की हवस को पूरा करने में अब असमर्थ है और शरीर का गोश्त भी ढल चुका है। चैनल्स बदलते-बदलते किसी न्यूज़ चैनल पर टीवी पर कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखा। मर्तवान से मुट्ठीभर चने निकालकर धीरे-धीरे चबाने लगी। टीवी के चैनल्स बदलते-बदलते उसके चेहरे की निस्तब्धता जाती रही। कुछ ही देर में टीवी बंद करके वह पलंग पर लेट गयी। उसकी खुली आंखे छत पर घूमते-रेंगते पंखे की ओर कुछ देर देखती रही और फिर गहरी नींद में खो गयी।
सुबह कमरे के बाहर से चौधरी के चीखने की-सी आवाज़ सुनाई पड़ी।
रात का शन्य कहीं खो गया और सुबह का शोर चल पड़ा।
जाने क्यों लगा सींखचों से कोई कमरे में झांक रहा हो। आवाज बढ़ने लगी और गहराती गयी!
तीन महीने हो गये भाड़ा दिये हुए! चौधरी के स्वरकानों में पड़ने लगे!
तुम्हारे बाप का घर है?
मुझे शाम तक भाड़ा चाहिए कैसे भी दो!
वही पुरानी तस्वीर जो दस बारह के आसपास दो तीन महीनों में अक्सर सुनाई उभरती है।
सींखचों से झांककर देखा चौधरी का रोद्र रूप। लंबा-तगड़ा खलवाट व्यक्ति सफेद कमीज पर तहमत बाँधे मूंछों पर ताव देता गुस्से में चीख रहा था। वो बारी-बारी से हर बंद कमरे की ओर देखकर दांत पीसता और आंखे तरेर लेता।
उसके सामने कुर्सी सामने रख दी गयी पर वह खड़ा ही खड़ा और सबको आतंकित करता रहा।
अरे चौधरी साहब बैठ भी जाइये अब! अमीना बानो ने कुर्सी पर बैठने का दोबारा इशारा किया।
एक बनावटी हंसी लिए अमीना कितने ही दिनों से चौधरी को फुसला रही है।
अच्छा बताइये!
आप चाय लेंगे या कुछ और!
मुझे कुछ नहीं! सिरफ भाड़ा चाहिए!
आठ नौ साल की लड़की के कंधे को मसलते हुए अमीना ने चौधरी के लिए चाय बनवाकर लाने को बोला।
नहीं नहीं!
मैं यहाँ चाय पीने नहीं आया!
भाड़ा लेने आया हूँ!
छोटी लड़की झगड़ा देखती हुई तीसरे कमरे में घुस जाती है।
उसी कमरे के बाहर झड़ते पलस्तर की ओर देखते हुए चौधरी ने कहा!
घर का कबाडखाना बना दिया है अमीना तुम लोगों ने!
ना साफ-सफाई न लिपाई पुताई देखो हर तरफ़ बस कुड़ा करकट और झर्झर होती दीवारें!
सोचा था! इस बार इस घर की मरम्मत करा दूंगा पर यहाँ तो भाड़ा तक नहीं मिलता कभी टाइम से!
मैं दस को फिर आऊंगा मुझे भाड़ा चाहिए जैसे भी दो! घर से पैसा मंगवाओ या कहीं और से मुझे नहीं मालूम।
अरे चौधरी साहब इन दिनों कोई नहीं आता यहाँ
दूसरी कुर्सी करीब सरकाकर चौधरी को समझाने की चेष्टा करती हुई अमीना ने कहा!
आपका भाड़ा क्यों नहीं देंगे हाथ जोड़कर देंगे। बहुत जल्दी सब ठीक हो जाएगा टैंशन न लो आप! आपके कारण ही तो हम सब हैं यहाँ वरना इस धरती है हमारा कोई वज़ूद कहाँ!
सामने एक कमरे से एक नवयौवना उठी दरवाज़ा खोलकर अमीना के पास आई और ऊंघने लगी। अम्मा क्या हुआ? कौन है ये बाबू?
क्या कह रहे हैं?
चौधरी की तरफ़ देखकर ज़बान पर जीभ फिराकर हंसने लगी। नवयौवना कि शक्लों सूरत पर अजीब मासूमियत है किंतु उसकी छाती पूरी भरी है जिसपर इस अल्हड़ नवयौवना को ख़ास गुमान है। उसके बदन पर एक टाइट स्काई टाॅप है
चेहरे पर गिरी ज़ुल्फे उसे ओर सुंदर बना रही है। चौधरी की नज़र अमीना से हटकर उस ओर चली गयी और रह-रहकर उसके गदराये बदन पर टिक जाती है।
अमीना कि तरफ़ देखते हुए चौधरी बोला!
कौन है ये?
नई आई है क्या?
पहले तो इसे कभी नहीं देखा?
लड़की अंगुलियों से बालों की लटों के गोले बनाती रही।
हाँ ये कुछ दिन पहले ही आई है मुस्तफाबाद की जान है। अभी सत्रह की होगी! अमीना कुछ विचार करती हुई! हूँ शायद दिसम्बर में।
क्या नाम है तेरा?
लड़की को देखते हुए चौधरी बोला।
लड़की चुप रही! पर मुस्कुराती रही!
अमीना ने लड़की की कमर सहलाते हुए कहा!
बेटी नाम बताओ अपना!
ये चौधरी साहब हैं अपने!
ये पूरा घर इन्हीं का है।
चौधरी किसी रसूकदार आदमी की तरह गालों पर अंगुली फिराने लगा।
लड़की ग़ौर से देखती रही कभी अमीना को तो कभी चौधरी को!
नर्गिस है ये!
नर्गिस नमस्ते तो करो! साहब को
लड़की ने हंसते हुए दोनों हथेली जोड़कर अभिवादन की मुद्रा में सीने तक ले आई पर चौधरी की आंखे अभी भी नर्गिस के सीने पर थी!
ओह नर्गिस! कितना अच्छा नाम है एक भौंडी मुस्कुराट लिए चौधरी बोला!
नर्गिस अपनी तारीफ सुनकर चहकने लगी और अमीना कि एक बाहं पर लहर गयी।
घड़ी में टाइम देखते चौधरी कुछ सोचते हुए कुर्सी से उठा। पहले इधर उधर देखा पर जल्दी ही लौटने की बात कहता हुआ देहरी की बढ़ने लगा।
अमीना अऽ चाय की एक प्याली तो ले ही लेते?
मुहं पर मास्क लगाते हुए उसने नर्गिस को भी मास्क लगाने की सलाह दी। फिर आऊंगा अपना सब अपना ख़्याल रखना!
नर्गिस के सीने पर नज़र रखता और ज़बान पर होठ फिराता हुआ चौधरी चला गया।
एक-एक करके कमरों की सांकलें खुलने लगी। भूखे अलसाये चेहरे जो अभी तक कमरों में बंद थे। बाहर दालान में इकट्ठे हो गये मानो किसी ख़ास विषय पर ज़िरह करनी हो।
कौन था?
चौधरी?
एक अधेड़ उम्र की धंधेवाली ने अमीना हे पूछा।
हाँ चौधरी ही लग रहा था! दूसरी ने अनिच्छा से कहा!
और क्या हुआ तेरे सेठ का कल भी नहीं आया क्या?
रोशनी की तरफ़ देखते हुए एक ने पूछा।
नहीं लाकडाउन है ना!
साला फ़ोन पर ही मज़ा लेता रहा! पर मैंने भी पेटीएम से पांच सौ झाड़ लिए।
अरे यहाँ तो कोई ऐसा भी नहीं। एक-दूसरे को देखती बतियाने लगी।
जैसे भी हो अपने-अपने ग्राहको को बुलाओ नहीं तो चौधरी यहाँ से निकाल देगा! अमीना ने नेता भाव से सबको इकट्ठा करके कहा।
तीन महीने हो गये एक धेला तक नहीं दे पाये उनको।
और वह महारानी कहाँ है? उसे ये सब दिखता नहीं क्या? मेरे कमरे की तरफ़ देखकर अमीना ने आवाज़ दी।
चांदनी? औ चांदनी?
मैं जैसे सपने से जाग गयी हो!
एक बार तो दिल ने चाहा कि सांकल खोल कर
सबकी ज़ुबान पर लगाम लगा दूं। एक वक़्त था जब सारे मेरी आमदनी पर जीते थे पर आज मुश्किल घड़ी में ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं और ये चौधरी साला जब मूड़ करता था आ जाता था मूहं मारने पर देखो तो आज कैसे सुर बदल गये मरदूद के!
बाहर दालान में कुछ देर की बहस हुई एक-दूसरे
को सब देखते रहे पर नतीजा कुछ नहीं निकला। सबको लगा अब नये सिरे से शुरुआत करनी होगी। सुरैया पास ही खड़ी थी मेरी रूंआसी सूरत देख और करीब आ गयी। मेरी ठुड़ी को सहलाते हुए बोली चांदनी दी सब ठीक हो जाएगा। सब अपने-अपने कमरे में लौट गये। सुरैया न केवल शक्लों सूरत से बल्कि अच्छा गाती थी। लाॅकडाउन से पहले सबसे ज़्यादा गाहक इसी के होते थे कुछ तो शरीफ़ केवल गायकी के फ़न को तराशने आते थे और दो एक ने थो गाने के लिए
बुलाबा भी भेजा। ज़िस्म तो यहाँ सभी बेचती हैं पर उसके सुर की बात ही अलग है अगर वह यहाँ न आती और गायकी पर फोकस रखती तो ज़रूर ही नाम कमाती। वो भडुआ खाकी वाला रोज़ नई उम्मीद की किरण देकर मुफ्त में सुरैया को नौच जाता है। बेचारी पढ़ी लिखी है दस तक सकूल गयी है पर यहाँ आकर सब एक समान हो जाते हैं आई तो यहाँ बाप के साथ कुछ बनने पर इस हरामी खाकी वाले ने झूंठा झांसा देकर इस धंधे में उतार दिया। साला ख़ुद तो आता है दो चार और भी आ जाते हैं सुरैया ना सही मेरे जैसी अधेड़ ही मिल जाए।
सुरैया मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने कमरे में ले गयी। बेबस ज़िन्दगी मानो बेबस कमरे में क़ैद हो।
क्या हुआ रो क्यों रही हो? सुरैया ने मेरे बालों में अंगुलियाँ फिराते पूछा!
कुछ नहीं बस ऐसे ही! मेरे अवसाद से भरे शब्दों को सुनते वह गंभीरता से मुझे देखने लगी।
दोनों पलंग पर बैठ गये। वो अल्हड़ बालिका कि भांति पलंग पर झूलते पैरों को हिलाने लगी।
क्या हुआ परसो रात देर रात तक तुम्हारे कमरे से आवाज़े आ रही थी? सुरैया मेरे प्रश्न को ध्यान से सुनने लगी!
कब? अच्छा परसो!
वही कमीना आया था! वो वर्दी वाला भडुआ!
तीन और भी थे मुहं पर मास्क बाँधे थे। मैंने हरामजादे से जब पूछा? दरोगा साहब कुछ बात बनी मेरे गाने की! साला हंसने लगा और सीने को छूने लगा।
उसका मुंह सूखे पान से भरा था बीड़ी की राख फेंकते हुए बोला! रानी हो जाएगा सब! देखती नहीं अभी सब बंद है! और पीछे से उसने आगोश में भर लिया। मैंने कहा अच्छा दरोगा साहब थोड़े पैसे ही दे दो?
साले का सारा नशा जाता रहा और गाली गलोच करने लगा।
चलो ओय देविन्द्र ओय थापा! साली! वर्दी वाले से भी पैसे मांगती है!
सारा धंधा चौपट कर दूंगा साली! ज्यादा बात करती है!
सारा कमरा थूक-थूक कर भर दिया! हरामखोर ने
मैंने कितना कहा इन दिनो काम बिल्कुल नहीं कुछ तो दे जाओ?
पर साले हरामी ने एक धेला नहीं दिया।
चांदनी दी आप ही बताओ? अब कैसे चलेगा?
सब साले मुफ्त में मज़ा चाहते है कुत्ते कहीं के!
वो बोलती रही! मैं सब ध्यान से सुनती रही!
पर अब चारा भी क्या है! जब पेट की प्यास बुझाने को पैसा नहीं तो कोई क्या देह को दिखाए। साला रात भर के लिए अपने कमरे पर ले जाना चाहता था। बोलता था! मेरी रानी ऐश करवा दूंगा चल तो बस एक बार!
और जब मैंने मना किया तो मुझे घसीटने लगा। अमीना मैम ने समझा-भुझाकर उसे चलता किया। हरामजादा! पी-पीकर नशे में धुत था। बहुत झगड़ा फसाद हुआ दी।
पाॅकेट से ही पैसे देने पड़े उन हरामी वर्दीवालों को!
साले कहते या तो एक बार दे!
या पैसा दे फिर!
फिर रोती हुई सुरैया ने कहा!
लो! चांदनी दी बिस्कुट खाओ! बिस्कुट का पैकेट खोलकर दो थीन बिस्कुट मेरे हाथ में थमाते हुए।
तुमने बताया क्यों नहीं मुझे?
सुरैया ने मेरी आंखों में झांकती हुई देखती रही। चांदनी दी अब क्या किसी को तंग करू। तुम्हें मैं अपना मानती हूँ! फिर ये सब देखकर तुम और अधिक दुःखी हो होगी।
वैसे भी ये तो रोज़ के ही काम है!
वर्दी वालों को तो पैसा ऊगाना होता है कहीं से भी! अब किस-किस को समझे।
दी हम लोगों की तक़दीर में ही ये सब ही लिखा है तो फिर क्या कर सकते हैं?
सुरैया कि रोती आंखे मुझे देखती रही!
कुछ देर दोनों चुप रहे।
सुरैया! एक काम करोगी मेरे लिए?
हाँ हाँ! दी कहो ना?
नर्गिस जो अभी नयी लड़की आयी है ना?
हाँ हाँ दी!
उसे यहाँ से कहीं दूर भेज दो जहाँ वह ज़िस्म ब़ाजारी न कर सके!
अभी तो वह बच्ची है! उसमें मैं अपनी सूरत देखती हूँ! इस जुम्मेरात जब अमीना बाई एक दो घंटे के लिए बाहर जाए तब किसी भी तरह उसे वापिस भिजवा दो। तुम्हारा ऐहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी।
तुम पांच छह सौ का इंतज़ाम कर दो मैं ही उसे घर छोड़ आऊंगी सुरैया।
अरे दी अभी सब बंद है तुम कैसे जाओगी।
और उस लड़की को भी तो समझाना होगा! वो तो अभी नासमझ है। देह ही निखरी है अभी दिमाग़ से तो नादान ही है! दार्शनिक भाव से!
मैं जानती हूँ पर रहाँ मौका पाते ही उसे भी।
हरामी है सब साले!
वो चौधरी ही कहीं एक दो दिन में! उस कुत्ते की नज़र ही गंदी है। अब तो उसका वह छोकरा भी!
नहीं नहीं दी! ऐसा नहीं होगा।
सुनो! एक बात बताऊँ! यहाँ पास ही काॅलेज है। उसमें एक पढ़ने वाला लौंडा शरीफ़ है उससे फ़ोन पर बात करती हूँ। वो कोई पढ़ाई कर रहा है धंधे वाली औरतों के जीवन पर!
शायद वह कुछ हैलप कर दे! जैसे भी हो हम सब तो यहाँ बर्बाद हो गयी अब और किसी नयी को यहाँ न खराब होने दें।
ठीक है दी! आज दोपहर में जब सब सोये होंगे तब बात करते हैं।
अच्छा मैं भी अब चलती हूँ! तुमसे बतियाकर सच में सुकुन पाती हूँ! बहुत उम्मीद है तुमसे।
अरी दी! ये बिसकुट तो खाती जाओ!
नहीं नहीं बस! अब और नहीं!
पर चलते-चलते सारा पैकेट मेरे हाथों में रखती हुई मुस्कुरा देती है!
कमरे में लौटकर मानो सब भूल गयी हूँ। खुदा न चाहा तो ये नेक काम हो जाए। हमारा तो अब कोई नहीं हो सकता पर उसकी तो पूरी ज़िन्दगी बन जाएगी। वो लड़का ज़रूर कुछ करेगा! आज ही उसका फ़ोन भी आना है! मेरी ज़िन्दगी पर कुछ लिख रहा है वो! हाँ रिसर्च कर रहा है। ये लोग पढ़े लिखे हैं ज़रूर कुछ हैलप करेंगे!
मेरा दिल कहता है ज़रूर नर्गिस के लिए वह कुछ करेगा। क्या नाम था उसका?
जो भी हो इस जहन्नुम भरी ज़िन्दगी से इस लड़की को भेजना ही पहला काम होगा। सरकार और ग्राहको भरोसे भी कब तक बैठे रह सकते हैं। कोई किसी का नहीं इस नर्क में।
अभी लौट गयी तो कोई अपना भी लेगा!
नहीं तो ये भी हम जैसी हो जाएगी!
ज़रूर कुछ होगा! अच्छा होगा!
यकीनन्।
तीन महीने बाद!
ओहह कितना अच्छा लग रहा है आज तीन महीने बाद! नर्गिस कैसी होगी! सुरैया बात हुई कोई सुरैया से?
हाँ दी! कल रात हुई थी! सुरैया चहकती हुई।
मैं जैसे ख़ुशी से झूम गयी!
ये नया सूट कब लाई सुरैया? पहले तो कभी न देखा इसमें!
दी ये सूट उस पढ़ने वाले साहब ने दिया है। बहुत अच्छे हैं ये पढ़ने वाले लोग! हमारे जज़्वात समझते हैं। कभी छुआ तक नहीं पर हर संभव मदद देते हैं। आपकी बहुत तारीफ़ करता है वो!
कौनसा! उसने उत्सुक्ता से कहा!
अरे वही! जिसने नर्गिस को यहाँ से उसके घर तक भिजवाया था! और न केवल भिजवाया बल्कि उसके घर वालों को अच्छे से समझाया!
अच्छा!
हाँ दी!
एक बात कहूँ!
कहो ना!
वो प्रोफेसर बन जाएंगे काॅलेज में जल्दी ही!
अच्छा!
हाँ वह बोलते हैं मेरे संग घर बसायेंगे।
अरे वाह! सुरैया तेरा सपना अब पूरा हो जाएगा।
दी! आप बहुत अच्छी हो!
सब तुम्हारी बदोलत ही संभव हुआ है। तुम सच में महान हो!
अरे नहीं! सुरैया मैं इस लायक कहाँ!
दी! अगर उनकी किताब छप गयी ना तो वह तुम्हें भी तुम्हारे घर पर भिजवा देगा!
अरे नहीं! सुरैया मेरा हमारा तो यहीं है सब स्वर्ग या नरक!
दोनों चहकते हुए घंटो बतियाते रहे।