नर्तकियों की सेना / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
मेरे जाने का निश्चय हो गया और मैंने राजा साहब से कानपुर लौट जाने की आज्ञा माँगी। वर्षा भी जोरों पर होने लगी थी और छुट्टी भी समाप्त होने में चार-पाँव दिन रह गये थे। राजा साहब को सुन्दर आतिथ्य के लिये मैंने बहुत धन्यवाद दिया। भारत के राजाओं के रहन-सहन, उनकी जीवन-चर्या, उनके आमोद-प्रमोद के सम्बन्ध में थोड़ी जानकारी भी हो गयी थी और मैंने सोचा कि इन्हीं नोटों के आधार पर एक पुस्तक लिखूँगा इंग्लैंड लौटकर, क्योंकि साम्राज्य के लिये इससे बढ़कर और अधिक क्या सेवा हो सकती थी कि अपने राज्य का सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो सके।
राजा साहब ने मेरे जाने का दिन निश्चित किया और एक छोटी-सी पार्टी मेरी विदाई के उपलक्ष्य में दी और उन्होंने यह भी कहा कि आप को फिर अवसर मिले या नहीं, भारतीय नृत्य भी आप देख लें। हमारे नगर में भारत-विख्यात नर्तकियां हैं। आप उनका गाना सुनें और नृत्य अवश्य देखें।
पार्टी बहुत छोटी थी। केवल अंग्रेज अफसर थे, कुछ भारतीय और कुछ उनके मित्र। राजा साहब ने इस पार्टी में भोजन का तो प्रबन्ध तो किया सो किया ही, मदिरा का बड़ा अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। परिमाण में भी बहुत थी और ऊँचे दर्जे की भी थी।
पहले तो राजा साहब ने सबसे मेरा परिचय कराया इसके पश्चात जलपान आरम्भ हुआ। जलपान नाम का था, वह अस्ल में मद्यपान था। सब लोगों ने छककर रंग-बिरंगी मदिरा का पान किया। राजा साहब इतने अतिथि-प्रेमी थे कि जितने अफसर थे सबकी देख-देख स्वयं करते थे। मैं यद्यपि सेना में काम करता था, फिर भी वहाँ कुछ और अंग्रेज थे, उन्हें शराब पीते देख कर मैं दंग रह गया। बोतल खुलती थी और पलक मारते-मारते खाली।
सन्ध्या हो गयी, बिजली जगमगाने लगी और राजा साहब ने हम लोगों से एक दूसरे बड़े कमरे में चलने की प्रार्थना की। अतिथियों में कुछ तो राजा साहब की आज्ञा लेकर लौट गये। एक असिस्टैण्ट कलक्टर को चार आदमी पकड़कर कार पर बैठा आये क्योंकि उनमें स्वयं चलने की सामर्थ्य रह नहीं गयी थी। मैंने राजा साहब से कहा कि यदि कल तक यह इसी प्रकार से रहें तो कचहरी कैसे जायेंगे? उन्होंने कहा इतनी देर तक नशा नहीं रहता। फिर यह तो रोज कचहरी भी ऐसे ही जाते हैं। जब यह नशे में रहते हैं तभी इन्हें होश रहता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह काम कैसे करते होंगे? मैंने राजा साहब से कहा कि एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। हम लोग तो सैनिक हैं। रणक्षेत्र में तो मनुष्य जितना उन्मत्त रहे और जितनी अधिक हत्या करे उतना ही वीर समझा जाता है। इसीलिये शराब में ही शराबोर रहना वहाँ का धर्म है। किन्तु कचहरी-दरबार में मनुष्य को तो ऐसे रहना चाहिये कि बुद्धि ठीक रहे। राजा साहब बोले कि बुद्धि में क्या हो जाता है? और अफसरी करने में बुद्धि की विशेष आवश्यकता भी तो नहीं है।
मैंने राजा साहब से पूछा - 'अच्छा, यह तो बताइये, वहाँ इनके सामने मुकदमे भी तो आते होंगे। यदि यह नशे में रहते होंगे तो अनुचित फैसला न कर देते होंगे?' राजा साहब बोले - 'ये होश में रहें या बेहोश, फैसला एक ही प्रकार होगा और दूसरी बात यह है कि यह आई.सी.एस. पास हैं। यह परीक्षा प्रतियोगिता द्वारा होती है। उसमें उत्तीर्ण व्यक्ति भूल कैसे कर सकता है? फिर सरकार ने इन्हें नौकर रखा है। नौकरी के पश्चात् पेंशन भी मिलेगी। ऐसी अवस्था में भूल की कहाँ गुंजाइश है?'
इतनी बातें हो रही थीं कि हम लोग हॉल में पहुँच गये। बड़ी सुन्दर सजावट थी। हम लोग बैठे ही थे और सिगरेट जलायी जाती थी कि दो महिलायें आयीं। दोनों का चेहरा सुन्दर था, बड़ी बारीक साड़ियाँ पहने थीं और अलंकारों से भी सज्जित थीं। मैं समझ गया कि यह नाचेंगी। मैंने राजा साहब से कहा कि हम लोग सात-आठ आदमी हैं और यह दो, बारी-बारी से नाचना होगा।
राजा साहब ने एक बड़ी आश्चर्यजनक बात बतायी कि भारत में यूरोप की भाँति स्त्रियाँ और पुरुष एक साथ नहीं नाचते। केवल स्त्रियाँ ही नाचती हैं और नाचने के लिये उन्हें कुछ देना भी पड़ता है।
एक ने नाच आरम्भ किया। उसके साथ बाजे भी बज रहे थे। तीन बाजेवाले साथ थे। हम लोग दो-दो आदमी साथ नाचते हैं और थोड़ा-बहुत उछलते-कूदते हैं, हर ताल के साथ। यहाँ तक कि देखते-देखते वह स्त्री फिरकी के समान घूमने लगी और इतनी तेजी से जैसे लट्टू घूमता है। फिर एकाएक देखा कि वह कमरे में चारों ओर घूम रही है। पाँव के साथ हाथ भी चल रहा था, सिर भी चल रहा था, गरदन भी चल रही थी, आँख भी चल रही थी और हम लोगों की ओर तिरछी, आड़ी, बेड़ी निगाह भी पड़ रही थी। नाच मुझे बड़ा आकर्षक जान पड़ा। मुझे छुट्टी होती तो और कई दिनों तक नाच देखता।
इस नाच में एक गुण अवश्य था। देखनेवालों को मादक बना देता है। बैरी सेना के सम्मुख यदि तोप और टैंक न चलाकर पंक्तियों में ऐसा नाच करा दिया जाये तो बहुत-से सैनिक, कम से कम जिनकी अवस्था बीस से पैंतीस साल की है, सो जायें या बेसुध होकर गिर पड़ें। मैं कानपुर जाकर कर्नल साहब से कहूँगा कि कमांडर-इन-चीफ साहब को एक पत्र इस सम्बन्ध में लिखें और जैसे पैदल, सवार, तोपखाना, सफर सेना का एक-एक विभाग होता है, उसी प्रकार एक विभाग नर्तकियों का हो और सबसे आगे हो।
इनके सामने जो न गिरे उसके लिये विशेष प्रबन्ध करना होगा क्योंकि उसके ऊपर गोली का भी प्रभाव पड़ेगा कि नहीं इसमें सन्देह है। हाँ, एक कठिनाई होगी। यदि भारत सरकार ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तो पर्याप्त संख्या में यह मिल सकेंगी कि नहीं। इनकी भर्ती इतनी सरलता से हो सकेगी कि नहीं, क्योंकि और लोगों के लिये तो सरकार की ओर से कर्मचारी नियुक्त हो गये और इधर-उधर से लोग भर्ती हो जाते हैं और सरकार उन्हें सिखाकर लड़ने के योग्य बना देती है। इन्हें तो प्राप्त करने में कठिनाई होगी क्योंकि राजा साहब कहते थे कि देश के धनी-मानी सज्जनों की छत्र-छाया में इनका लालन-पालन होता है। राज दरबार की यह अलंकार हैं।
सम्भव है, जब हम उन्हें भर्ती करने लगें तब भारतीय नरेशों को बुरा लगे और कहें कि हम लोगों में और ब्रिटिश सरकार में जो संधियां हुई हैं उनमें इसके लिये कोई धारा नहीं है। फिर शीघ्र पार्लियामेंट को कोई नया विधान बनाना पड़ेगा।
यह गम्भीर बात थी और मैं इस सम्बन्ध में क्या कर सकता था? परन्तु बात महत्व की थी और देशी नरेशों और धनी वर्ग से सम्बन्ध रखती है इसलिये उन्हें रुष्ट करना भी उचित नहीं था। क्योंकि राजा साहब से यह भी पता लगा कि बहुत-से लोग चन्दा इत्यादि तो दे देंगे, इन्हें देंगे कि नहीं ठीक नहीं कहा जा सकता।
जो हो, यह बहुत ही विचार करने की बात है और भारत सरकार को इस पर बड़ी गम्भीरता से विचार करना होगा। परन्तु मेरा प्रस्ताव बहुत ही मौलिक और व्यवहारात्मक और साम्राज्य की दृष्टि से लाभप्रद है।
मैं दूसरे दिन राजा साहब के यहाँ से विदा होकर कानपुर के लिये रवाना हो गया।