नर्मदा तट पर सेल्युलाइड-घोंसला / जयप्रकाश चौकसे

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नर्मदा तट पर सेल्युलाइड-घोंसला
प्रकाशन तिथि :28 मार्च 2017


विज्ञान की कोख से जन्मे फिल्म माध्यम को भारतीय लोगों ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया है। उनके जीवन में मनगढ़ंत मायथोलॉजी का जो स्थान है, वही सिनेमा का भी बन चुका है। माताएं शिशु को घुट्‌टी पिलाती हैं और उसमें ही सिनेमा का भी समावेश कर देती हैं। यह आश्चर्यजनक इसलिए नहीं है कि हमारा देश हमेशा से कथा-वाचकों और श्रोताओं का अनंत देश रहा है। आश्चर्य केवल इतना है कि हमारी सोच में तर्क आधारित विज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है परंतु सिनेमा अपनी कथा कहने की ताकत के कारण हमारी विचार प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है। दुनिया के सभी देशों की जमा जोड़ संख्या के बराबर है भारत की दर्शक संख्या। सबसे अधिक फिल्में हिंदुस्तान में ही बनती हैं। हमने सिनेमा में भी एकलव्य परम्परा कायम रखी है।

कुछ समय पूर्व इंदौर में विभावरी संस्था के सुनील चतुर्वेदी, सोनल एवं सुधांशु शर्मा के सिनेमाई प्रयास मैंने देखे थे। इस संस्था ने देवास में छतों पर अाने वाले बरसाती जल को ट्यूब वेल में डालने का काम किया और अब देवास के ट्यूब वेल और कुओं में यथेष्ट पानी आने लगा है। हाल ही में गौतम जोशी और उनके साथियों ने दस मिनट की फिल्म में अपनी उस कहानी का पूरा विवरण प्रस्तुत किया है, जिसे वे एक कथा फिल्म की तरह बनाना चाहते हैं गोयाकि उन्होंने अपनी पटकथा की झलक बनी ली है ताकि पूंजी निवेशक को बताया जा सके कि धन कहां लगेगा और फिल्म कैसी दिखेगी। वे अपने इन नए कलाकारों के साथ ही पूरी फिल्म बनाना चाहते हैं। इसमें प्रयुक्त एक गीत में पूरी फिल्म के लिए ध्वनि अंकित किए जाने वाले गीत-संगीत के साथ पार्श्व संगीत की सटीकता का भी आप अनुमान लगा सकते हैं। फिल्म राजधानी मुंबई से बाहर किए गए इस तरह के काम हिंदुस्तानी सिनेमा को नई दिशा और गति दे सकते हैं गोयाकि अभिव्यक्ति के जनमाध्यम का विकेंद्रीकरण भी किया जा रहा है। विगत एक सौ पांच वर्षों में चुनिंदा परिवारों के लोग ही फिल्म बनाते रहे हैं और अब इसमें परिवर्तन संभव है। सीधी-सी बात है कि भारत के सबसे महंगे शहर से सिनेमा को मुक्त कराकर उसे छोटे शहरों और कस्बों में लाने का प्रयास प्रारंभ हो चुका है। मुंबई के स्टूडियो में कोई भी वस्तु लाना हो तो वस्तु से अधिक रकम उसे लाने में लग जाती है। छोटे शहरों में इस तरह की फिज़ूलखर्ची से बचा जा सकता है। इसी तरह की बात खाकसार ने किशोर साहू जन्म सदी के अवसर पर रायुपर में की थी और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह व सचिव संजीव बक्शी ने छत्तीसगढ़ में एक कमेटी का गठन किया है, जो प्रदेश में फिल्म शूटिंग को प्रोत्सािहत करेगी और वहां जन्मे कथाकारों तथा फिल्मकारों की सहायता करेगी। इस तरह के प्रयास से ही सिनेमा सृजन मुंबई से मुक्त होकर अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर सकेगा। गौतम जोशी की कथा में अंधविश्वास पर भी आक्रमण किया गया है। वहां मान्यता है कि शवदाह के समय ही आत्मा अन्य काया में प्रवेश पाकर लौट आती है। कथा में पिता बलिसिंह है, जो अत्यंत भ्रष्ट ठेकेदार रहे हैं और उनकी पत्नी अपने पुत्र गोपाल को शवदाह मान्यता से अवगत कराती है। संवेदनशील पुत्र अपने पिता के बदले किसी संस्कारवान व्यक्ति का शवदाह करना चाहता है ताकि उसके पिता की बदनामी नहीं हो। संस्कारवान व्यक्ति की तलाश में अत्यंत मनोरंजक घटनाएं घटित होती हैं, जो पूरे समाज के खोखलेपन को उजागर करती हैं। नर्मदा के किनारे बसी इस जगह में मां ने वृत ले रखा है कि वह पवित्र नर्मदा का जल उसी समय ग्रहण करेगी जब उसके भ्रष्ट पति का चरित्र उजागर होगा।

कथा अनेक सतहों पर प्रवाहित होती है और नर्मदा नदी एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत है। गंगा 2,550 मील लंबी नदी है और विश्व में लंबाई के मामले में चौदहवें क्रम पर आती है। नर्मदा लगभग 1,300 किमी तक प्रवाहित है। नर्मता को जीते-जागते ईश्वर के रूप में कल्पित किया गया है। अधिकतर सभ्यताओं का विकास नदियों के नट पर ही हुआ है। नदियां अपने से जुड़ी कथाओं इत्यादि के कारण अपने किनारे बसे लोगों का चरित भी रचती है। आर्य आचरण एवं सोच गंगा द्वारा बनाया गया है।

बहरहाल, मनोरंजक घटनाक्रम के अंत में बलि सिंह के शवदाह के समय वह कुत्ते के रूप में चिता से बाहर निकलता है और उसकी पत्नी अपने निश्चय के अनुसार जीवन में पहली बार नर्मदा का जल पीती है। नर्मदा सबसे कम प्रदूषित नदी है, क्योंकि इसके किनारे उद्योग ही नहीं निर्मित हुए है।अगर मध्यप्रदेश अपनी प्रतीक नदी नर्मदा के प्रदूषण मुक्त होने पर गर्व कर सकता है तो अपने औद्योगिक दयनीय दशा पर उसे शर्मिंदा भी होना चाहिए और कुपोषण में सबसे अधिक मौतें भी यहीं हुईं हैं। व्यापमं नामक घोटाले से भी वह कलंकित है। यह भी रहस्य ही है कि सबसे अधिक पिछड़ों में शामिल, व्यापमं घोटाले में कलंकित, सतत परिवर्तन के इस दौर में भी मध्यप्रदेश अपनी जहालत पर टिका है। कोई रहस्यमय अदृश्य राजनीतिक शक्ति मध्यप्रदेश सरकार को बचाए हुए हैं। बहरहाल, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री 'नमो नर्मदा' कहते नहीं थक रहे हैं तो कम से कम नर्मदा नामक अदृश्य पात्र की इस फिल्म 'गो टू हेल' को आर्थिक सहायता तो दे ही सकते हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने सत्यजीत राय को 'पाथेर पांचाली' बने के िलए राशि दी थी, क्या उसी तर्ज पर मध्यप्रदेश में भी कुछ हो सकता है?