नर्मदा पार माने गाँव में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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हमने नर्मदा के उत्तर तटवर्ती उस शहर में रात गुजारी और अगले दिन उसे पार किया। जीवन में पहलीबार उस नर्मदा माई का दर्शन हुआ जिसकी महिमा बहुत सुना करते थे। हमें बचपन में यह भी बताया गया था कि जो वैष्णव आचारी बहुत ही कट्टर होते हैं वह नर्मदा में पाँव नहीं देते। उनकी धारणा है कि नर्मदा में तो असंख्य शिवलिंग (शिवमूर्तियाँ) हैं। अत: उनके संपर्कवाला जल स्पर्श करने से धर्म चला जाएगा। वैष्णवों और शैवों की इस नादानी और मूर्खतापूर्ण कट्टरता को क्या कहा जाए?धर्म के नाम पर ही ऐसी बेवकूफी संभव है।

खैर, हमने नर्मदा की तेज धारा की अनवरत रगड़ से गोल और चिकने पत्थरों का समूह वहाँ देखा और समझ लिया कि इन्हें ही शिवलिंग के नाम से पूजा जाता है। नर्मदा पार हो कर नरसिंहपुर पहुँचे और रात में वहीं ठहरे। दूसरे दिन पूर्व की ओर चले और ख्याल नहीं कि एक या दो दिनों में मानेगाँव पहुँचे। इसका उल्लेख पहले किया है। आगे बढ़ने के पूर्व यह कह देना है कि लगातार कई महीनों के मस्ताना पर्यटन ने हमें पक्का बना दिया। अनुभव भी खूब हुए। पहले तो हमें भूख इतना सताती थी कि बेचैन हो जाते थे। अगर एक समय भोजन न मिले तो आफत। एकादशी या उपवास करना भी असंभव था। फलाहार करने पर भी हम तिलमिला जाते थे। मगर यह सभी बातें जाती रहीं। अब तो यदि चौबीस घंटे में एक बार भोजन मिल जाता तो हम मस्त रहते।

नरसिंहपुर जिले (मध्यप्रांत) के मानेगाँव नामक ग्राम में एक बहुत ही संपन्न क्षत्रिय मालगुजार रहते थे। बिहार, बंगाल, युक्तप्रांत के जमींदारों के ही स्थान पर करीब-करीब उनके जैसे ही मध्यप्रांत के मालगुजार होते हैं। खेद है, मैं इस समय उनका नाम भूल रहा हूँ। उनके चार सुयोग्य लड़के थे जब हम वहाँ पहुँचे। हमारे साथी एक बार गृहस्थ की दशा में जा चुके थे। इसीलिए फिर हम दोनों गए। वे संन्यासियों के बड़े ही सेवक थे। पहले तो नहीं, पर, पीछे हमारे साथी को उन्होंने पहचाना और उन्हें संन्यासी देख खुश हुए। उन्होंने घर के सामने ही लंबेबाग में दो मंदिर शिव और विष्णु के पूर्व पश्चिम बनवा रखे थे। उन दोनों के बीच में पक्की लंबी फर्श थी। इससे साफ था कि उनके यहाँ शैव वैष्णव के झगड़े की नादानी की गुंजाईश न थी। स्वयं उन्हें वेदांत-दर्शन का बड़ा-ही शौक था। हालाँकि, संस्कृत के अनभिज्ञ थे। लेकिन वेदांत के जितने ग्रंथ हिंदी में लिखे गए, या संस्कृत आदि से जिनका कहीं भी अनुवाद हिंदी में हुआ था उन्हें उनने ढूँढ़ कर मँगा लिया था। इतना ही नहीं सबों को पढ़ा और समझा था। उनके गुरु एक अच्छे विद्वान विरक्त संन्यासी थे। उनसे ही उन्होंने सब ग्रंथ पढ़े थे और ज्ञान प्राप्त किया था। इसीलिए उस संन्यासी के और उसके करते अन्य संन्यासियों के भी परम भक्त वे बन गए थे।

उस विरक्त महात्मा की भी विचित्र कथा है। हमसे बाबू साहब ने कहा कि लाख कोशिश करने पर भी वे यहाँ ठहरते ही नहीं। महीना-आधा महीना रह के चुपचाप निकल जाते हैं और भटकते फिरते है, कष्ट भोगते हैं। फिर कुछ दिनों बाद अचानक आ जाते और उसी तरह चले भी जाते हैं। सौभाग्यवश वे वहीं थे उसी सामनेवाले बाग में जो सुंदर पक्का बँगला था उसी में ठहरते थे। हम लोग उनसे मिलने गए। देखा कि बँगले के भीतर दीवारों में अलमारियाँ बनी हैं और उनमें पुस्तकें सजी-सजाई हैं। ठाकुर साहब की सभी पुस्तकें यहीं थीं। महात्मा जी संस्कृत पढ़े-लिखे थे। हमारे वार्तालाप में उनने बताया कि क्यों बराबर वहाँ टिकते नहीं।

उनका कहना था और हमारे आज तक के अनेक अनुभवों ने उसे ठीक माना है कि गृहस्थ लोग पहले तो खूब ही प्रेम करते और जी-जान से सेवा करते हैं। वे ऐसा करते-करते विरागी साधु-संतों को फँसा लेते हैं। लेकिन जब देखते हैं कि ये महात्मा लोग एक प्रकार से उनके आश्रित और आलसी बन गए, फलत: बाहर जा नहीं सकते तो जान या अनजान में अनादर करना शुरू कर देते हैं। साधु बेचारा भी लाचार बर्दाश्त करता है। क्योंकि आराम के जीवन ने बहुत दिनों के बाद साधारण गृहस्थ और उसमें वस्तुगत्या कोई अंतर रख छोड़ा ही नहीं। इसलिए कहीं चले जाने में उन्हें कष्टों और भूख-प्यास का महान भय सताता रहता है। इस पर हमने उनसे कहा कि इन बातों को जानते हुए भी आप कैसे फँस सकते हैं?सजग रहिए और जब ऐसा देखिए तो सटक सीताराम हो जाइए। यों रह-रह के भागने का क्या मतलब?आप अपने को इतना दुर्बल दिल का क्यों मानते हैं कि फँस जाएगे?उन्होंने उत्तर दिया कि जब बिजली एकाएक चमकती है तो मजबूत से मजबूत दिलवालों की आँखें खामख्वाह झप जाती है। यही हालत इंद्रिय-सुखों की है। वे बड़े से बड़े त्यागी, विरागी और विवेकी तक को फँसा लेते और बंधन में डाल देते हैं। इसीलिए मैं रह-रह के बाहर भागता और क्षुधा-तृषा आदि के कष्टों का सामना करता हुआ अपने को भीतर और बाहर दोनों ही तरफ से दृढ़ रखना चाहता हूँ। बात तो ठीक ही है। हमने सह्त्रो संन्यासी देखे हैं जो प्रारंभ में विरागी और त्यागी होते हुए भी इसी प्रकार सांसारिक बन गए। हालाँकि, अंत तक अपने आप को महात्मा ही समझते रहे।

उस त्यागी संन्यासी का उसके प्राय: वर्षों बाद अचानक दर्शन हमें हृषीकेश में मिला। मगर फिर वहाँ से भी वे एकाएक चलते बने। जहाँ तक स्मृति बताती है। हम लोग मानेगाँव महीनों रह गए। वहाँ खूब वेदांत चर्चा होती थी। ठाकुर साहब चतुर और पठित पुरुष थे। इसलिए तर्क-वितर्क और वेदांत के सूक्ष्म प्रश्नों पर उनसे वार्तालाप खूब ही होता था। ठाकुर साहब का कहना था कि यथाशक्ति मैं चार दान करता हूँ। बाहर से जो कोई साधु-फकीर या भूखा-नंगा आता है उसे अन्न-वस्त्र देता हूँ। कोई भी निराश लौटने नहीं पाता। मुक्त दवा देने का भी प्रबंध कर रखा है, जिससे देहातों में असहायों को औषधि दान कर सकूँ। पुस्तकालय और वेदांत ग्रंथों का संग्रह कर के लोगों को ज्ञान देता हूँ। आनरेरी मजिस्ट्रेट की हैंसियत से निष्पक्ष और सुलभ न्याय का दान करता हूँ। बातें भी ठीक ही थीं। हमने अपनी आँखों देखा। अपने चारों सुपुत्रों को भी उनने यही शिक्षा दी थी कि बराबर चारों दान जारी रखें। इस प्रकार मैंने उन्हें कोरा वेदांती नहीं पाया। किंतु वेदांत ज्ञान का व्यावहारिक रूप उनमें देखा। असल में वे आदर्श गृहस्थ थे।

काश, और लोग भी उनसे यह शिक्षा ग्रहण करते और वैसे ही वेदांती हमारे देश में असंख्य पाए जाते! यहाँ तो वेदांत ज्ञान विषयलालसा, धन संग्रह और कर्तव्य विमुखता का साधन बन गया है। वेदांती कहा करते हैं कि हम तो अखंड निर्लेप ब्रह्मस्वरूप हैं। हमारा कोई कर्तव्य है नहीं। कहते हैं कि वेदांतियों के मुहल्ले में कोई मुर्गी कहीं से भटक कर आ निकली तो उन्होंने उसे उदरस्थ कर लिया और पीछे पूछने पर उत्तर दिया कि संसार तो स्वप्नवत मिथ्या है। फिर तुम्हारी मुर्गी कहाँ से आई?

मैं भी जब आज इतने दिनों के बाद उक्त ठाकुर साहब के चारों दानों और वेदांत ज्ञान का विचार करता हूँ तो अपने ऊपर तरस आता है कि उन दिनों तो मैं पक्का वेदांती था, फिर भी उन जैसा कर्तव्यपरायण और व्यावहारिक मनुष्य क्यों न बना?आखिर उन्हें देख कर भी मुझे यह अक्ल बहुत दिनों तक-प्राय: दस वर्षों तक-क्यों न सूझी और भटकता फिरा?असल में मेरा वेदांत तब अपरिपक्व था और उनका था परिपक्व। इसी से मुझे तब यह बात न सूझी। पीछे परिपक्व होने पर सूझी है। लेकिन मैंने उनके उन चारों दानों को हृदय से पसंद किया यह इसकी सूचना थी कि मेरे भीतर कोई प्रसुप्त सी चीज है जो कालांतर में उस ओर मुझे घसीटेगी।

अस्तु जीवन में पहली बार वहीं पर हमने खीर खाई जिसमें नमक भी मिला था। कहा गया कि ईधर यह चाल है। पता नहीं, अब है या नहीं।