नर्स फ्लोरेंस नाइटिंगेल से सिस्टर निवेदिता तक / जयप्रकाश चौकसे

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नर्स फ्लोरेंस नाइटिंगेल से सिस्टर निवेदिता तक
प्रकाशन तिथि : 18 अप्रैल 2020


एक अस्पताल में भर्ती किए गए रोगियों में कुछ वायरल पीड़ित पाए गए। सुरक्षा की खातिर सेवारत डॉक्टर्स को पांच सितारा होटल में क्वारेंटाइन किया गया, परंतु नर्सों को ऐसी जगह रखा जहां सामान्य सुविधाएं भी नहीं थीं। भेदभाव रहित और वर्ग भेद से मुक्त समाज हमारा आदर्श है, परंतु यथार्थ कुछ और है। युद्ध में विजय का श्रेय सेनापति को दिया जाता है। युद्ध में घायल व्यक्ति के जमकर संघर्ष करने को सराहा तक नहीं जाता। इतिहास विजेता के दृष्टिकोण से लिखा जाता है और सबलटर्न इतिहास अर्थात साधारण सिपाही की आंख से देखा युद्ध विवरण कभी इतिहास में दर्ज नहीं होता। अवाम केवल आर.के. लक्ष्मण के कार्टून में दिखता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वायरस से लड़ने वाले डॉक्टर वर्ग को हम प्रणाम करते हैं, परंतु नर्स की उपेक्षा खटकती है।

आयरलैंड में जन्मी मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल के पिता शिक्षक थे। अपने पिता से उसने सीखा कि मनुष्य की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना है। मार्गरेट की सगाई के कुछ समय पश्चात उनके होने वाले पति की मृत्यु हो गई। घटना ने मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल का जीवन ही बदल दिया। ज्ञातव्य है कि स्वामी विवेकानंद के उदात्त विचारों का मार्गरेट पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्हें सिस्टर निवेदिता नाम भी स्वामी विवेकानंद ने दिया। सिस्टर निवेदिता ने कलकत्ता में लड़कियों की शिक्षा के लिए एक स्कूल की स्थापना की। इस संयोग को देखें कि मदर टेरेसा की तरह सिस्टर निवेदिता ने भी कलकत्ता को अपना कर्यक्षेत्र बनाया। चरक संहिता में भी रोगी की सेवा करने वाले का गुणगान किया गया है। सन् 1853 से 1856 तक रूस के खिलाफ एक युद्ध लड़ा गया। घायलों की सेवा करने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गईं। इसी के साथ नर्स शब्द का उपयोग किया जाने लगा। कलकत्ता में ‘भगिनी निवेदिता’ नामक फिल्म भी बनी थी। मात्र 43 वर्ष की आयु में सिस्टर निवेदिता की मृत्यु हुई और उन्हें दार्जिलिंग में खाके सुपुर्द किया गया। कब्र पर यह इबारत लिखी हुई है- ‘हीयर लाइज सिस्टर निवेदिता हू गेव ऑल टू इंडिया’।

एक विदेशी फिल्म का कथासार यूं है कि युद्ध में घायल एक फौजी की तीमारदारी नर्स ने की। उसके जख्म भरने में लंबा समय लगा और इस दरमियान नर्स से उसे प्रेम हो गया। नर्स से आने का वादा करके गया वह व्यक्ति कभी लौटा ही नहीं। बाद में जानकारी मिली कि वह शादीशुदा था। इस तरह मनुष्य की सेवा करने वाली नर्स को एक स्वार्थी व्यक्ति कभी नहीं भरने वाला जख्म दे गया। संभवत: महेश भट्‌ट ने भी इसी तरह की फिल्म बनाई थी जिसमें निदा के गीत और हैदराबाद के करीम का संगीत था। नन और नर्स में अंतर यह है कि नन क्राइस्ट की सेवा करती है और नर्स रोगी मनुष्यों की सेवा करती है। एक नर्स का जीवन कष्टों से भरा होता है। रोगी को समय पर दवा देना, मल-मूत्र एवं गंदगी के बीच अपना काम करना होता है। वे अपने हृदय में उठते आवेगों को संयमित रखती हैं। उनका ममतामयी स्पर्श भी इलाज का ही एक हिस्सा है। संगीतकार हेमंत मुखर्जी ने वहीदा रहमान अभिनीत गुलजार की फिल्म ‘खामोशी’ में मधुर गीत दिए हैं। वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है- वो कल भी मेरे पास थी, वो आज भी करीब है’। ‘खामोशी’ का क्लाइमैक्स दिल दहलाता है जब सिस्टर स्वयं पागल हो जाती है। भारत के महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु लंबे समय बीमार रहे। उन्होंने अपनी नर्स से विवाह किया। खाकसार के एक परिचित डायबिटीज रोगी थे। उन्हें इंसुलिन इंजेक्शन देने नर्स आती थी, जिसे प्रतिदिन पचास रुपए देने होते हैं। उस चतुर व्यापारी ने नर्स से विवाह करने को ही किफायत और लाभ का सौदा समझा। परंतु कालांतर में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्रों और नर्स विमाता के बीच अदालती कार्यवाही हुई। जीवन में शॉर्ट कट लंबे समय में कष्ट ही देता है। इस समय डॉक्टर, नर्स और नागरिक का तालमेल ही हमें बचा सकता है। नर्स के सफेद शफ़्फ़ाफ़ यूनिफॉर्म पर हमारी अवहेलना का कोई दाग नहीं लगना चाहिए।