नर कंकाल / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
शहर अभी भी दो किलोमीटर दूर था और उन्हें सिनेमा के लिए देर हो सकती थी। इसलिए अजय तेज स्पीड से मोटरसाईकिल चला रहा था।
'अजय, धीरे चला। ज्यादा जल्दी मत कर' विवेक ने सलाह दी।
'अबे, धीरे चलूंगा तो फिल्म निकल जायेगी।'
'जल्दी के चक्कर में कहीं एक्सीडेंट हो गया तो?'
'एक्सीडेंट कैसे हो जाएगा? मैं कोई अनाड़ी हूँ?' अजय ने पूरे आत्म -विश्वास के साथ कहा।
'अजय ,खिलाड़ी भी मात खा जाते हैं। तुझे पता ही है ,आजकल लोग कितने संवेदनहीन हैं। कुछ हो गया तो सड़क पर ही पड़े रहेंगे। न कोई अस्पताल ले जायेगा और न ही पुलिस को खबर करेगा। लोग इतने स्वार्थी हैं कि उनसे तो जानवर भी अच्छे हैं। ' अचानक अजय को लघुशंका हुई। निवृत्त होने के लिए उसने मोटरसाईकिल रोकी। विवेक भी निबटने के लिए सड़क के किनारे की झाड़ियों की ओर गया और चौंककर अजय के पास लौट आया। घबराकर बोला - 'अजय, झाड़ियों में नर कंकाल पड़ा है। ' अजय और विवेक दोनों ने जाकर देखा। नर कंकाल ही था।
'पुलिस को खबर कर देते हैं' अजय को सूझा।
'छोड़ यार ,कौन झंझट में पड़े। फटाफट निकल लेते हैं। ' विवेक ने समझाया।
दो सजीव कंकाल मोटरसाईकिल पर सवार हुए और शहर की और दौड़ने लगे।