नवयुग / तेजेन्द्र शर्मा

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कैलाशनाथ ने आज तय कर लिया था कि सब कुछ अपने ही हाथों जलाकर राख कर देगा। कम-से-कम उसे इस बात का तो संतोष रहेगा कि उसने संसार को अपनी भावनाओं से खिलवाड़ नहीं करने दिया। उसकी 15 वर्ष की मेहनत आज तक बेकार ही जाती रही है। इस बीच कितना लिखा है उसने। कहानी, कविता, उपन्यास सब कुछ ही तो लिखा है। किन्तु क्या कारण है कि कोई भी पत्रिका या प्रकाशक उसका लिखा कुछ भी छापने को तैयार नहीं होता। क्या कमी रह जाती है उसके लेखन में? वह कई बार प्रमुख पत्रिकाओं में छपी कहानियों व कविताओं से अपनी कहानियों व कविताओं की तुलना करता। उसे सदा यही लगता कि उसकी अपनी रचनाएँ छपी हुई रचनाओं से इक्कीस ही हैं, फिर क्यों उसकी रचनाएं छप नहीं पाती हैं? कई कई पत्रिकाओं वाले तो उसकी रचनाएँ लौटाते ही नहीं, हालाँकि वह टिकट लगा लिाफा भी साथ भेजता है। बस डाक टिकट हज़म हो जाते हैं। जब लिखना शुरू किया था तो सोचा था, समाज में एक क्रांति ला दूँगा। बदल डालूँगा समाज की कुरीतियों को। आग लगा दूंगा समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार को और पन्द्रह वर्ष बाद अपनी ही रचनाओं को आग लगाने को तैयार बैठा है! कहाँ उसने सोचा था कि कैलाशनाथ मोहला का नाम कैलाश पर्वत की तरह साहित्य में नाम बना लेगा और कहाँ एक राई के दाने की तरह एक कोने में पड़ा है। कई बार उसने सोचा भी कि वह भी सत्य कथाएँ लिखने लगे। क्या रखा है साहित्यिक लेखन में? या क्यों नहीं वह भी लेखकों का भूत बन जाता है और भी तो कई लेखक स्थापित लेखकों के लिए 'घोस्ट' बन कर लिखते हैं। किन्तु स्वाभिमान सदा ही आड़े आ जाता है। पण्डित मैयादास जैसे जाने माने साहित्यकार का पौत्र यह सब स्वीकार करे तो कैसे। उसके तो रक्त में प्रतिबध्दता ठूँस-ठूँस कर भरी है। वह बदले तो कैसे। यदि इतने बड़े लेखक के पौत्र को छपने में इतनी कठिनाई हो रही हो तो एक साधारण लेखक तो अपनी एक पंक्ति छपी हुई देखने के लिए बिक जाता होगा। अजीब विडम्बना है। कुछ लोग बिकाऊ लेखन करके धनवान हो जाते हैं, तो कुछ लोग अच्छा लिखा हुआ छपवाने के लिए बिक जाते हैं। अभी कुछ ही समय की तो बात है, कैलाशनाथ ने अपना नया उपन्यास पूरा किया था। मित्रों ने सुना, पढ़ा और सराहनी की। उसे लगा, यदि किसी स्थापित लेखक से उस पर एक टिप्पणी या आशीर्वाद लिखवा ले तो उसका उपन्यास अवश्य ही प्रकाशित हो जाएगा। उसके जेहन में एक ही नाम आया-भटनागर जी। वैसे तो वह उनसे कई गोष्ठियों में मिल चुका था, किन्तु इतने बड़े लेखक, क्या उसे पहचान लेंगे। यूँ सोचा जाए तो वह भटनागर जी के दफ्तर में ही काम करता है। पर काम करने से क्या होता है। वह ठहरा एक क्ल और भटनागर जी एक बड़े असर। और फिर उनसे मिलना कोई आसान बात भी तो नहीं। उनके बंगले पर दो बड़े-बड़े एलसेशन कुत्ते जीभ लटका कर घूमते रहते हैं। उनकी ऑंखों की ओर तो कैलाशनाथ देखने का साहस तक नहीं कर पाता था और दफ्तर में भी उनके कमरे के बाहर एक एलसेशन नुमा चपरासी बैठा रहता था। अंतत: अपने एक मित्र की सहायता से कैलाशनाथ भटनागर जी के दफ्तर पहुँच ही गया। वहाँ लेखक भटनागर जी की जगह विराजमान थे कस्टम्ज़ कलक्टर भटनागर जी। कई बार कैलाशनाथ भी सोच में पड़ जाता था-इतना शुष्क काम और इतना स्तरीय लेखन। भटनागर जी सचमुच ही महान हैं। किन्तु अब तक वह केवल एक इमेज की पूजा कर रहा था। आज तो वह साक्षात भटनागर जी के सामने खड़ा था। भटनागर जी चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। यानि की फुर्सत से थे। अपनी ओर से तो कैलाशनाथ काी स्वच्छ कपड़े पहन कर गया था पर था तो कुर्ता पाजामा ही। और फिर उसके भीतर का क्ल एक बड़े असर के सामने पहुँचते ही हाथ जोड़कर खड़ा रह गया। कैलाशनाथ के मित्र ने परिचय करवाया। कैलाशनाथ तो जैसे अब गिरा कि तब गिरा। उसके हाथ का ब्रीकेस और उसमें रखी पांडुलिपि भी उसी की तरह खड़खड़ा रहे थे। असर जी ने कैलाशनाथ की ओर देखा। असरी चाय की चुस्कियों की आवाज कैलाशनाथ को आतंकित किए जा रही थी। मित्र ने परिचय करवाया। जैसे एकाएक असर जी की समाधि टूटी, 'अरे हाँ-हाँ, यह तो हमारे ही दफ्तर में क्ल हैं', क्ल शब्द पर असर जी ने थोड़ा अधिक ही ज़ोर डाला था। क्ल थोड़ा और सिमट गया। विशद विशाल अफसरी शरीर थोड़ा और फूल गया। क्ल ने दो स्थानों से कटे हुए ब्रीकेस को खोला और अंदर से पांडुलिपि को लगभग घसीट कर बाहर निकाला। पुस्तक के स्थान पर पांडुलिपि को देखकर असरी मुस्कान का स्थान गंभीरता ने ले लिया, 'तुमने किस-किस को पढ़ा है?' बेचारे कैलाशनाथ के तो हाथ-पाँव ही फूल गये। "बैठो भाई, बैठ जाओ। कुर्सी पर बैठ जाओ', बदले हुए स्वर ने कहा। कैलाशनाथ ने किसी भी तरह पाण्डुलिपि को भटनागर जी के सामने रख भर दिया। उन्होंने उसकी ओर देखा भी नहीं। एक बार फिर गंभीर असरी आवाज़ उभरी, 'देखो मोहला, जब मैंने लिखना शुरू किया था तो लगभग छ: सौ पृष्ठ लिखने के बाद वर्मा जी से संप किया। बिलकुल वैसे ही जैसे आज तुम मेरे पास आए हो। वर्मा जी ने मेरी रचनाएँ पढ़ीं और कहा इन सबको आग लगा दो। मैंने बिना आना-कानी किए अपनी सारी मेहनत को अग्नि देवता के हवाले कर दिया और वर्मा जी की ओर देखने लगा।' वर्मा जी फिर बोले, 'अब अपने पुराने विचारों तथा अलंकारों को भूलकर नई उपमाओं का प्रयोग करो। समय, काम और युग के परिवर्तन के साथ यदि लेखन और विचारों में भी परिवर्तन न आए तो कोई उसे पढ़ने का कोई कष्ट ही क्यों उठाएगा।' मैंने दोबारा लिखकर उनसे संशोधित करवाना शुरू किया और आज साहित्य में जो भी स्थान बना पाया हूँ वह सब तुम्हारे सामने है। कैलाशनाथ किंकर्तव्यविमूढ़ भटनागर जी को देखे जा रहा था। 'तुम्हें अभी अभ्यास की आवश्यकता है। शरतचन्द्र को पढ़ो, प्रेमचन्द को पढ़ो' और ना जाने कितने नाम उन्होंने गिनवा दिये। 'इन सब को पढ़ने से तुम्हारी जानकारी बढ़ेगी। लिखने की सूझबूझ पैदा होगी और लेखनी में निखार आएगा। क्या समझे?' अब तक कैलाशनाथ का पारा चढ़ चुका था। फिर भी उसने आत्म नियंत्रण खोया नहीं और ओढ़ी हुई विनम्रता से बोला, 'सर, यदि आप इसे एक बार पढ़ कर राय दे देते तो कम से कम यह तो जान जाते कि मैंने लिखा क्या है। फिर जिनको पढ़ने के लिए आप कह रहे हैं वे तो खासे पुराने लोग हैं। उनको पढ़कर तो सब पुरानी बातें ही दिमाग में आएंगी।' भटनागर जी चुप कैलाशनाथ की ओर ताकते रहे। फिर मौन तोड़ा, 'बहस मत करो। यदि मुझ से कुछ प्राप्त करना चाहते हो, तो जैसे मैं कहूँ बिना झिझक, बिना विलम्ब बस कर डालो।' अब कैलाशनाथ अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाया। उसने अपने मित्र की भी परवाह नहीं की, 'भटनागर जी, आपकी रचनाएँ जलाने की सलाह वर्मा जी ने दी क्योंकि वे उन रचनाओं को पढ़ चुके होंगे और जानते होंगे कि वे रचनाएँ इसी काबिल हैं। फिर शायद आपमें भी आत्म विश्वास की कमी रही होगी। मुझे विश्वास है अपनी लेखनी पर, अपनी मेहनत पर। मैंने यह उपन्यास रातों को जाग-जाग कर लिखा है। मेरे लिए यह पुत्र समान है। इसे लिखने में मुझे प्रजनन का सुख मिला है। मैं इसकी गलतियाँ तो सुधार सकता हूँ, इसको जिन्दा जला नहीं सकता...' कैलाशनाथ हाँफने लगा था, 'वैसे आपने मेरा उपन्यास नहीं देखा...चलिए अच्छी बात है...किन्तु मैंने आपको देख लिया, अच्छी तरह देख लिया।' कैलाशनाथ का मित्र इस अचानक पैदा हुई स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा था। किन्तु स्वयं कैलाशनाथ अभी भी क्रोध से भरा हुआ था। कमरे में से बाहर निकलते ही फट पड़ा। 'समझता क्या है आपने आपको। अफसर होगा घर में होगा। खोखला साला...मेरी सी.आर. खराब कर देगा, ना कर दे। मुझे स्साली कौन सी प्रमोशन लेनी है...अरे इसे अपनी रचना दिखाने से तो अच्छा है कि इंसान अपना पूरा रचना संसार जला दे।' और वही तो कैलाशनाथ करने जा रहा था। आज उसने निश्चय कर ही लिया था। अब और सहन नहीं होता। बाहर सहन में एक पर एक अपनी पाण्डुलिपियों की होली जलाने के लिए रखता जा रहा था। और हाँफ भी रहा था। उसी समय उसका मित्र देवेश वहाँ पहुँच गया। हालात एकाएक उसकी समझ में नहीं आए। कैलाशनाथ दीवानेपन में अभी तक पाण्डुलिनियों को इकट्ठा करने में व्यस्त था। मुँह में कुछ बड़बड़ाए भी जा रहा था। देवेश ने अंतत: कैलाशनाथ को उसकी बाँह से पक़ड कर झिंझोड़ दिया, 'यह क्या पागलपन है। क्या हो रहा है यह सब?' रो दिया कैलाशनाथ। अपने अन्दर के ज्वालामुखी को फटने से रोक नहीं पाया। 'पन्द्रह-बीस वर्ष हो गए देवेश। अपने जीवन का बेहतरीन हिस्सा साहित्य-रचना में गँवा दिया मैंने। कविता, कहानियाँ, उपन्यास क्या नहीं लिखा मैंने। जहाँ कहीं भी रचना भेजता हूँ या तो वापिस आ जाती है या फिर रचना रट्ठी की टोकरी में चली जाती है और डाक टिकटें हज़म हो जाती हैं...बड़े लेखकों की बकवास भी छप जाती है और मुझ जैसे लेखकों का जीवन तो प्रतीक्षा में ही कट जाता है...अब तो मेरी क़ुढन भी इन रचनाओं की चिता में ही जलकर समाप्त हो जाएगी।' "कैलाश, हिम्मत हार गये। तो सब कुछ हार गए। तुम तो अपने शौक के लिए ही लिखते हो ना? फिर तुम्हें यह दु:ख क्यों सालता रहता है कि रचनाएँ छपती नहीं? किसी भी रचना का छपना या ना छपना उस रचना की श्रेष्ठता का मापदण्ड तो नहीं है। रचनाओं के ना छपने के और भी कारण हो सकते हैं। "यही तो मैं भी कह रहा हूँ मित्र। यदि रचना निचले दर्जे की है तो अवश्य ही ना छपे। किन्तु कोई बताए तो सही कि मेरी रचना में कमी है तो किस बात की? तब यदि मेरी रचनाएँ केवल इसीलिए नहीं छपतीं कि मैं जाकर संपादकों की चमचागिरी नहीं करता या उन्हें दारू नहीं पिलाता, तो यह तो कोई बात ना हुई।' "कैलाश, मैं तुम्हारे मन की पीड़ा समझता हूँ। मैं कोई साहित्यकार तो हॅूं नहीं कि तुम्हारी रचनाओं की समीक्षा कर सकूँ पर इतना तो जानता हूँ कि तुम्हारी कहानियाँ, कविताएँ पढ़कर दिल को कुछ छू सा जाता है...अच्छा, एक काम करते हैं। तुम एक नई पत्रिका चलाओ-संपादक बन कर। हमारी प्रेस मे छपवाओ। बाप-दादा इतना पैसा तो छोड़ गए हैं कि तुम्हारे जैसे मित्र के लिए एक आध जुआ तो खेल ही सकता हूँ...पर एक बात याद रहे। मैं यह जुआ ड़ेढ-दो साल से अधिक नहीं खेल सकता। तब तक तुम्हें पत्रिका को अपने पाँवों पर खड़ा कर लेना होगा और हाँ, इस पत्रिका का उट्ठेश्य एक ही होगा-नए लेखकों को छपने का मौका देना। मैं नहीं जानता कि कोई और कैलाशनाथ निराश होकर हमारे साहित्य को बनने से पहले ही जला दे...तुम नए लेखकों के लिए एक नए युग को आरम्भ करो...कल सुबह ही दफ्तर आ जाना। इस विषय पर विस्तार से बात करेंगे।' देवेश तो अपनी बात कह कर चला गया। कैलाशनाथ को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या देवेश सचमुच उसके लिए पत्रिका निकालेगा? क्या उसके सपने पूरे होंगे? क्या वह भी एक लेखक के रूप में पहचाना जाएगा। अब तक छोटे बड़े सम्पादकों के सामने वह अपने आप को बौना महसूस करता रहा है। क्या अब वह स्वयं सम्पादक बन जाएगा। सोच-सोच कर उसे रोमांच हो रहा था। उसे एकाएक पिछले सप्ताह की घटना याद हो आयी। वह अपनी रचनाओं के बारे में पूछताछ करने एक पत्रिका के सम्पादक के पास गया था। सम्पादक ने उसकी कहानी और कविता लौटाते हुए खेद प्रकट किया था और एक मुफ्त सलाह भी दे डाली, 'देखो भाई, लिख तो लेते हो पर अभी कहानी लिखने से बहुत दूर हो। एक बात याद रखो, जो घटना है वह कहानी नहीं है। उस घटना के पीछे जो है, जो सूक्ष्म है, वह कहानी है। केवल 'उसने यह कहा' और 'यह किया' लिखकर कहानी नहीं बनती...और तुम्हारी कविता में सपाट बयानी अधिक है। भाषा में वक्रता लाओ, नए-नए बिम्ब तलाश करो, नई उपमाओं का प्रयोग करो। तुकांत कविता के दिन लद गए...' नहीं। दिन लदे नहीं अब तो दिन शुरू हुए हैं। साहित्य में वह नए युग का निर्माण करेगा। अब उसकी पत्रिका में नए लेखकों को एक नया मंच मिलेगा। उन्हें प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के सम्पादकों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। वह छापेगा उन्हें। देवेश के विश्वास को डिगने नहीं देना है। वह दिखा देगा देवेश को भी कि पाठक को बड़े नामों से कुछ लेना देना नहीं है, उसे तो बढ़िया लेखन से मतलब है, फिर चाहे किसी ने भी क्यों ना लिखा हो।

"नवयुग' के लिए भाग-दौड़ करने में भी कैलाशनाथ को एक विचित्र अनुभूति हो रही थी। आनन्द मिल रहा था। उस पर तो जैसे पत्रिका का भूत ही सवार था। अपने दफ्तर से उसने बीमारी की छुट्टी ले ली थी-लम्बी छुट्टी। उसे पूरा विश्वास था कि अब वह वापिस उस दफ्तर में तो जाएगा नहीं। दो महीने में ही उसने 'नवयुग' का प्रारूप बना लिया था। पत्रिका का पहला अंक निकालने में कैलाशनाथ को प्रजनन का सुख मिला था। लगा जैसे माँ बनने में नारी को भी ऐसा ही आनन्द मिलता होगा। कितनी पीड़ाएँ सहीं उसने। कितनी मेहनत की, तब कहीं जाकर पत्रिका बाजर में आयी। कैलाशनाथ के भाग्य ने जैसे एकदम पलटा खाया था। पत्रिका कुछ ही महीनों में सफल पत्रिकाओं की श्रेणी में पहुँच गयी थी। दसवें महीने में ही चालीस हजार का प्रिंट आर्डर दिया था उसने प्रेस को। सम्पादक बनते ही कैलाशनाथ की कहानियाँ और कविताएँ सभी छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छपने लगी थी। अब किसी को भी उसके बिम्बों, प्रतीकों और सपाट बयानी से कोई शिकायत नहीं थी। प्रकाशक उसके उपन्यास भी छापने को तैयार हो गए थे। "नवयुग' का नाम अब लोग सम्मान से लेने लगे थे। बड़े लेखक भी वहां अपनी रचनाएँ भेजने लगे थे। कैलाशनाथ की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी और 'नवयुग' के कर्मचारियों की संख्या में वृध्दि हो रही थी। एक दिन देवेश 'नवयुग' के कार्यालय पहुँच गया। वैसे वह पत्रिका के काम में कम ही दखल देता था। कैलाशनाथ सदा की तरह देवेश को गले मिला। "कैलाशनाथ, कोई छ: एक महीने पहले एक कहानी तुम्हारे पास आयी होगी-'निर्माण'। क्या देखी तुमने? "निर्माण' कैलाशनाथ याद करते हुए बोला 'किस की लिखी हुई है?' "सुरेश ठाकुर ने लिखी है।' "सुरेश ठाकुर। कोई नया लेखक है क्या.. आजकल व्यस्तता इतनी रहती है कि सभी कहानियाँ तो स्वयं देख नहीं पाता हूँ। पहले मनमोहन कहानियाँ देखता है जिन्हें वह ठीक समझता है मेरी ओर भेज देता है। उनमें से जो छपने लायक समझता हूँ वह छप जाती हैं।' "पर उस कहानी का हुआ क्या? ना तो वापिस पहुँची, ना स्वीकृत हुई। गयी कहाँ।' कैलाशनाथ ने मनमोहन को आवाज लगाई, 'ज़रा देखो तो कोई कहानी सुरेश ठाकुर की पड़ी है क्या, 'निर्माण'...यही नाम है ना' उसने देवेश से पूछा। देवेश ने स्वीकृति में सिर हिलाया कमरे में कुछ क्षणों के लिए चुप्पी छा गई। थोड़ी ही देर में मनमोहन वापिस आ गया। उसे कहानी नहीं मिली थी। "कैलाशनाथ, तुम एक नए लेखक की व्यथा समझने की कोशिश करो। वह बेचारा किन-किन पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजता है और कहीं भी उसकी रचना छप नहीं पाती। वह बेचारा करे भी तो क्या? तुम्हें तो उनका ख्याल रखना चाहिए। "देवेश, पत्रिका चलाने के लिए भावुकता काम नहीं आती। आज जबकि बड़े से बड़ा लेखक हमारी पत्रिका में छपने के लिए लालायित है तो नए लेखकों के लिए जगह ही कहाँ बचती है। पत्रिका बेचने के लिए प्रतिष्ठित नामों का छपना बहुत आवश्यक है। नहीं तो, हमें तो अपनी दुकान उठानी पड़ेगी। 'वैसे यह सुरेश ठाकुर है कौन?' "कैलाशनाथ, क्या तुम वही इंसान हो जो कल तक सम्पादकों, बड़े लेखकों और प्रकाशकों की बुराई करते नहीं थकते थे कि वे लोग नए लेखकों को छपने का मौका नहीं देते। मेज़ की इस ओर तुम्हें नए लेखक की पीड़ा का ज्ञान था किन्तु उस ओर पहुँचते ही तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। इतनी जल्दी बदल गए तुम। आज तुम्हारी पत्रिका में और किसी भी अन्य पत्रिका में अन्तर ही क्या है? नए लेखकों के मंच का क्या हुआ? हो गया ना छिन्न-भिन्न?... तुम जानना चाहते हो सुरेश ठाकुर कौन है?...अरे तुम्हीं हो सुरेश ठाकुर...और 'निर्माण' मैंने तुम्हारी ही एक पुरानी कहानी को नाम दिया था...तुम्हारी ही कहानी तुम तक पहुँचने का रास्ता नहीं खोज पाई। तुमने अपने इर्द-गिर्द एक भँवर खड़ा कर लिया है। नए लेखकों की रचनाएँ तो उसी भँवर में खो जाती होंगी। तुम...तुम...मेरे मित्र कैलाशनाथ नहीं हो सकते। कौन हो तुम?' और देवेश बिना कुछ कहे-सुने उठकर चला गया। कैलाशनाथ चुप खड़ा रह गया था। शर्म से उसका सिर ऊपर नहीं उठ पा रहा था। वह कभी मेज की इस ओर देख रहा था तो कभी उस ओर।