नवारुण भट्टाचार्य की कविताएँ / अनुराधा सिंह
नवारुण भट्टाचार्य की कविताएँ : अनुवाद- मीता दास
इस अनूदित काव्य संकलन के समर्पण भाग में मीता दास कहतीं हैं ‘एक सपने को साकार करते हुए मुझे जिस ईश्वरीय खुशी का अहसास हो रहा है, उसे मैं शब्द नहीं दे सकती’. और इसके बाद आप इस संकलन में साहित्य अकादमी सम्मानित जन-क्रांति कवि नवारुण भट्टाचार्य की बेहतरीन ५१ कविताओं का मीता दास द्वारा बांग्ला से हिन्दी में किया गया अनुवाद पढ़ सकते हैं। अधिकांशतः अनुवादक दोनों में से एक भाषा में अन्तर्जात प्रवीण होते हैं दूसरी में उन्हें तकनीकी निपुणता होती है। मीता दास की विशेषता यह है कि वे दोनों भाषाओँ पर एक-सा अधिकार रखतीं हैं। इस अनुवाद से बहुत पहले से, लगभग उनके लेखन कर्म के आरम्भ से वह हिन्दी में लिखती और लगातार प्रकाशित होती रहीं हैं। बांग्ला उनकी मातृभाषा है, लेकिन उनका जन्म और उनकी शिक्षा-दीक्षा एक हिन्दी भाषी प्रदेश में ही हुए हैं। मीता मूलतः एक कवि हैं, इसलिए कविताओं का अनुवाद उनके पूरे सौन्दर्य और तरलता को अक्षुण्ण रखते हुए कर लेतीं हैं। और दोनों भाषाओँ पर एक सा अधिकार और कौशल होने की वजह से अनूदित रचना ऊबड़ खाबड़ या अटपटी नहीं होती। वे कविता में लय की पैरोकार हैं। अतुकान्त लिखते हुए भी कई बार यह कहते पाई गई हैं कि हर कविता की अपनी लय होती है। मेरे हिसाब से यह कविता का अनुवाद कर उसकी पुनर्रचना करते समय सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात है। इससे कविता के गद्यात्मक या बोझिल हो जाने का भय नहीं रहता है। इन कविताओं का अनुवाद करना सहज नहीं था क्योंकि ये प्रेम या सौन्दर्य जैसी मन मुदित करते विषयों की कविताएँ नहीं हैं। ये हैं विपन्नता की कविताएँ, अभाव की कविताएँ, व्यवस्था के विद्रूप की कविताएँ। इनमें भाषाई आड़ ढाँक या दुराव की गुँजाइश नहीं। एक कविता ‘पॉली बैग का उपयोग’ युद्ध के निर्मम और वीभत्स स्वभाव को ऐसे उघाड़ती है कि पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं —
वियतनाम में मार्किन सैनिक गोरिल्लाओं के सिर को पॉली बैग डाल गले में बाँध देते फिर देखते मज़ा कैन से बियर पीते पीते (पृष्ठ- ४८)
अनुवाद इतना सुष्ठ है कि आप कविता के मूल स्वरुप का ज्यों का त्यों रसास्वादन कर सकते हैं. नवारुण की राजनैतिक और नैतिक विचारधारा का खरापन और ईमानदारी साहित्य समाज के लिए कोई रहस्य नहीं था. अनूदित संकलन के ब्लर्ब में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल एक बहुत महत्वपूर्ण कोण की तरफ इंगित करते हैं. वे कहते हैं ‘नवारुण भट्टाचार्य उन लोगों में से नहीं थे जो एक सत्ता तंत्र का विरोध करने के लिए किसी दूसरे सत्ता तंत्र की शरण में चले जाते हैं . मार्क्सवाद कितने अद्भुत इंसान, कितने विलक्षण कवि और बुद्धिजीवी को गढ़ सकता है- नवारुण इसकी एक मिसाल थे.’ मीता दास नवारुण का अनुवाद इसी वैचारिक साम्यता के कारण कर पायीं. उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता उन्हें कट्टर या अन्धविश्वासी नहीं बनाती है. मुक्तिबोध के गूढ़ काव्यप्रश्न ‘तय करो किस ओर हो तुम’ का उत्तर मानों वे, ‘मैं किसके संग हूँ’ कविता में देते प्रतीत होते हैं —
मरूँ या बचूँ क़लम और काग़ज़ के लिए मैं, लेकिन स्थिर हूँ उसके संग. (पृष्ठ २७)
अनुवाद पुनर्रचना है, यह न्यायपूर्ण तरीके से तभी किया जा सकता है जब आप मूल रचना के लेखक की आत्म चेतना को न केवल समझते हों बल्कि उसका सम्मान करने में सक्षम हो। मीता दास नवारुण के व्यक्तित्व को, उनके कवि को, उनकी विचारधारा को बहुत समीप से जानतीं थीं।
नवारुण भट्टाचार्य की कविताएँ केवल राजनीति और सत्ता के कलुष को ही प्रस्तुत नहीं करतीं हैं वरन सामाजिक अपराधों की परतें भी उघाड़ रही हैं। ‘नवजात शिशु की मृत देह- रेल लाइन के समीप’ कविता कहती है —
मैं भी हूँ प्रेम की फसल इनके देश में मेरे माता-पिता निरक्षर एवं शोषित हिंसा के शिकार हो अर्थहीन से अमानुष हो गए (पृष्ठ- ६५)
नवारुण के बिम्ब आधुनिक हैं और मीता का अनुवाद उन्हें उनके सम्पूर्ण टटकेपन के साथ प्रस्तुत करता है। कविताओं में यदि हम कुछ सपाट और प्रत्यक्ष खोजना चाहेंगे तो वह संभव नहीं है क्योंकि वे स्थूल वस्तु संसार की कूची से एक बारीक और अमूर्त्त विश्व रचते हैं, जो दरअसल भीड़ में सबसे पीछे खड़े आदमी की कहानी है। कम से कम इस संग्रह में मैं प्रेम की कपोल कल्पनाओं पर आधारित एक भी कविता नहीं देखती हूँ। वे ज़मीन के कवि थे जो सर्वहारा वर्ग के सरोकारों के कारण आसमान तक बुलन्द हो गए। जीवन की नश्वरता और कटु यथार्थ को वे कहीं नहीं भूलते हैं। पोस्टमार्टम के उपरान्त सरकारी मुर्दाघर में पड़े हुए लावारिस शव की यह कविता जीवन के प्रति मोह के विरुद्ध विद्रूप की तरह खड़ी है —
सोया हुआ हूँ असहज सा बाकी अंगों को लेकर........... नाम नहीं, नंबर नहीं, कोई भी दावेदार नहीं आखिर मैं हूँ कौन? (पृष्ठ-६४)
ये संघर्ष की कविताएँ हैं. सड़क, पहाड़, पत्थर, धूल, मजदूर, आदिवासी, दुःख और विपन्नता की कविताएँ हैं। धमनियों में बहते और सड़क पर खुले पड़े मक्खी भिनभिनाते रक्त की कविताएँ हैं। वे जिस प्रकार कम शब्दों में वर्ग भेद और सामाजिक वैषम्य पर करारा प्रहार करते हैं वह देखने योग्य है —
हॉकरों को हटा देने के बाद सारा का सारा कैसा बियाबान खाली सा हो गया नौकरानी के बच्चे का शर्ट वह भी क्या अब खरीदना पड़ेगा बड़ी दुकानों में. (पृष्ठ-६३)
उनकी कविताओं का यह मितभाषी गहन बिम्बात्मक स्वर प्रभावपूर्ण हिन्दी कविताओं में उतार लेना एक जटिल काम था। मूल कविता की आत्मा को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देने के लिए मीता ने अतिरिक्त शब्दों का सहारा नहीं लिया है। खास बात यह है कि यह छायानुवाद भी नहीं है, विशुद्ध अनुवाद है। नवारुण और मीता दास का देश काल अनुभव व विचारधारा सब एक समान हैं, इसलिए यह अनुवाद कार्य इतना स्वाभाविक बन पड़ा है। मुझे इस संकलन में जो एक दो कमियाँ दिखाई देतीं हैं उनमें से एक है पृष्ठों (कविताओं) का संख्या में कम होना, तब जबकि ये कविताएँ आकार में भी छोटीं हैं. हालाँकि विषय के गुरुत्व के कारण उनका आयतन ज़रा भी कम नहीं। लेकिन इसका असर सीधे-सीधे पुस्तक के फसाड पर पड़ा है. पाठक कवि और अनुवादक को और पढ़ने-गुनने की तृष्णा लिए लिए ही संकलन समाप्त कर देता है।
दूसरे, कहीं कहीं बिम्ब अबूझ हो गए हैं, इसका कारण मुझे मौलिक कविता में ही बहुत वैचारिक और गूढ़ दार्शनिक बिम्बों की उपस्थिति प्रतीत होती है, अनुवादक के लिए यह एक चुनौती से कम नहीं रहा होगा। वैसे भी किसी एक भाषा के प्रचलित मुहावरों और नैसर्गिक अण्डरटोन को दूसरी भाषा में ज्यों का त्यों अनुप्राणित कर पाना शत प्रतिशत संभव नहीं है। समान राजनैतिक और समाज निर्माण की विचारधारा के समर्थक एक कनिष्ठ कवि द्वारा दूसरे बहुत वरिष्ठ कवि को इससे बेहतर और काव्यात्मक श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती थी। अन्तिम इच्छा, चींटी, ओ कवि!, शर्त, भूखा मनुष्य आदि कविताओं के अनुवाद बहुत ही शानदार बन पड़े हैं। हिंदी भाषी पाठकों तक नवारुण की कविताओं में निहित उनकी मौलिक पीड़ा और एकदम खुले खुरदुरे सच को उन्हीं की शैली भाषा और भाव में प्रस्तुत करने का काम मीता दास ने बखूबी किया है। संकलन का यह अनुवाद नवारुण का अधूरा सपना था जो उनके आदिम सपने से घुल मिल गया है।
मेरी इच्छा है कि मुझे बचपन में सुने दोहे के रूप में याद रखा जाए या फिर गैर कानूनी इश्तिहार की तरह चीत्कार कर उठूँ. (पृष्ठ-१३)
जो भी हो मीता दास द्वारा अनूदित इन कविताओं के जरिये उन्हें देर तक और दूर तक याद रखा जाएगा।