नश्वर संसार में ध्वनि ही अमर है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 जनवरी 2018
संगीतकार एआर रहमान '99 सॉन्ग्स' नामक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें उनके सहयोगी एवं अरेंजर रंजीत बारोट अभिनय भी करने जा रहे हैं। एआर रहमान अनेक देशों में स्टेज पर कार्यक्रम दे चुके हैं और भारत के चार महानगरों में भी आयोजन कर चुके हैं। अपनी यात्राओं में खर्च की किफायत के लिए उन्होंने दस सदस्यों की सीमित संख्या में अपनी टीम रखी है। इसीलिए अब उनके हर वादक को एकाधिक उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। मंच पर गतिविधियां बिजली-सी कौंधती रहती हैं, श्रोता भी तरंग पर झूमते हैं। समां कुछ वैसा ही होता है जैसे रणवीर कपूर अभिनीत 'रॉक स्टार' में हम देख चुके हैं। कार्यक्रम में विविधता इस तरह रची है कि अपनी पुरानी फिल्मों के गीतों के साथ नए गीत भी प्रस्तुत किए जाते हैं।
उनकी रचना शैली कुछ इस तरह की प्रयोगात्मक है कि वादक तीन बार प्रयास के बाद भी बारीकी पकड़ नहीं पाता तो रहमान नई रचना कर देते हैं। यह त्वरित सृजन वैसा ही है जैसे आशु कवि पद लिख लेते हैं। संगीत लहरें निरंतर परिवर्तनशील होती हैं। उनके कन्सर्ट में श्रोता स्वयं को सागर की लहरों पर सवार पाता है। इन तमाम सतत होने वाले परिवर्तनों के साथ माधुर्य परिवर्तनहीन अवस्था में हमेशा कायम रखा जाता है गोयाकि माधुर्य का लंगर डाले जहाज लहरों पर थिरकता भी है। रहमान मंच पर ध्वनियों के द्वारा स्थान का भरम रचते हैं और समय जैसे ठहरा-सा महसूस होता है।
हमारे यहां नाद ब्रह्म का आकल्पन किया गया है। दरअसल, ध्वनि कभी मरती नहीं। कहा जाता है कि अत्याधुनिक यंत्रों द्वारा कुरुक्षेत्र पर आज भी आहतों की कराह सुनी जा सकती है और कभी-कभी शंखनाद भी सुनाई पड़ता है। डॉक्टर अपने स्टेथस्कोप से हृदय की धड़कन सुनकर रोग का निदान कर लेते हैं। नेताओं के पास ऐसा स्टेथस्कोप नहीं है कि अावाम की धड़कनों को महसूस कर सकें। उन्हें केवल अपने किराये के लोगों द्वारा बजाई तालियां ही सुनाई पड़ रही हैं।
ज्ञातव्य है कि रहमान के पिता संगीतकार इलियाराजा के प्रिय वादक एवं अरेंजर थे। कंपोजर की रचना प्रस्तुत करते समय कितने वादक वायलिन बजाएंगे और कितने लोग रिदम सेक्शन में होंगे तथा परकशन टीम में कितने सदस्य होंगे यह सब तय करना अरेंजर का काम है। एक दौर में सारे वादक गोवा में जन्मे लोग होते थे। संगीतकार प्यारेलाल के पिता को गोवा की यह मोनोपॉली नापसंद थी और उन्होंने अपनी संगीत पाठशाला में महाराष्ट्र व अन्य प्रांतों के वादकों को प्रशिक्षित किया था। दरअसल, भारतीय फिल्मगीत वेस्टर्न संगीत लिपि में लिखे जाते हैं और सिम्फनी आकल्पन भी पाश्चात्य है। दक्षिण भारत के इलियाराजा, एमए करीम इत्यादि अपने काम में निष्णात हैं। ज्ञातव्य है कि करीम ने महेश भट्ट की 'सुर' में निद़ा फाजली के लिखे गीतों के साथ माधुर्य रचा था।
वह दौर गुजर गया जब अनेक वादक संगीत-कक्ष में काम करते थे। आज कंप्यूटर जनित ध्वनियों से गीतों का ध्वनिमुद्रण किया जाता है। रहमान अपने रिकॉर्डिंग कक्ष में दक्षिण अफ्रीका के ड्रमवादक को टेक्नोलॉजी की मदद से रिकॉर्ड कर लेते हैं गोयाकि उनका गीत चेन्नई से रिकॉर्ड हो रहा है परंतु उनके वादक अन्य देशों में अपने-अपने घरों में बैठकर बजा रहे हैं। ध्वनियों को पासपोर्ट या वीज़ा की जरूरत नहीं है, वे सरहदों के ऊपर इंद्रधनुष की तरह एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करती हैं। डोनाल्ड ट्रम्प उन्हें रोक नहीं सकते। जावेद अख़्तर ने फिल्म रिफ्यूजी के लिए लिखा था 'पंछी पवन हवा के झोंके उन्हें को न रोके, सोचो क्या पाया हमने इन्सां होके।'
हॉलीवुड में बनी कुछ फिल्मों का पार्श्व संगीत एआर रहमान ने रचा है। 'स्लमडॉग मिलियनेर' का संगीत भी उन्होंने रचा था। रहमान अपने संगीत-कक्ष में बड़ी-सी मोमबत्ती जलाने के बाद काम शुरू करते हैं। जैसे ही मोमबत्ती खतम होती है, वे काम करना बंद कर देते हैं। स्पष्ट है कि वे अपने काम को अपनी इबादत मानते हैं। यह सृजन प्रक्रिया है अौर इसे धार्मिक संकीर्णता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। संगीतकार लक्ष्मीकांत भी तम्बाकू वाला पान खाते थे परंतु सचिनदेव बर्मन के पान को कोई दूसरा हाथ भी लगा देता तो वे उससे रूठ जाते थे।
वर्ष 1977 में इंदौर आकाशवाणी में भारत रत्न भार्गव ने खाकसार का लिखा रेडियो नाटक 'तीसरी धुन' रिकॉर्ड किया था। पुरुष आवाज के लिए जयपुर रेडियो स्टेशन पर कार्यरत कलाकार नंदलाल शर्मा को आमंत्रित किया था। यह रेडियो नाटक फ्रांस के कंपोजर क्लॉड डेब्युसी के जीवन से प्रेरित था। उस वर्ष इसे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। ज्ञातव्य है कि भारत रत्न भार्गव ने कई वर्षों तक बीबीसी की सेवा की और आजकल जयपुर में दृष्टि बाधित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया है। उन्होंने दृष्टि बाधित लोगों से नाटक भी अभिनीत कराए हैं। ज्ञातव्य है कि नंदलाल शर्मा भी जयपुर में कार्यरत हैं।
कंप्यूटर जनित ध्वनियों के प्रयोग के कारण कई वादक बेरोजगार हो गए। अनेक वाद्य यंत्रों का लोप हो गया। जब शापुरजी-पालनजी ने अपनी फिल्म 'मुगल-ए-आजम' को रंगीन स्वरूप दिया तब नौशाद को पार्श्व संगीत स्टीरियोफोनिक करने के लिए वादक बड़ी कठिनाई से मिले। हमने अनेक वाद्य-यंत्र और वादक खो दिए हैं। विकास ऐसे ही विध्वंस करते हुए आगे बढ़ता है।