नसबंदी / पूनम मनु

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काली घनेरी अंधियारी रात के तम को चीरती, मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में माँ का उज्ज्वल मुख ऐसे उदास दिख रहा था मानों कोई देवदूत अंदर-बाहर की उथल-पुथल से विकल हो किसी गुफा में चुप आ बैठा हो...

अपनी चारपाई पर रज़ाई में लिपटी बैठीं वे अपने दोनों हाथों को हर छोटे-छोटे अंतराल पर कभी जोड़तीं। कभी फैलातीं और कभी अपने मुख पर फेरतीं। यूं लगता जैसे मन ही मन वह कोई दुआ पढ़ रही हों और उसी दुआ के फलीभूत होने की कामना करती हुई वे ईश्वर की देहरी पर बार-बार झोली फैला आती हों।

उस वक़्त मनहूसियत से भरे उस बड़े कोठरे में माँ... माता मरियम और समय, सलीब पर टंगा ईसा।

ये घर के सबसे बाहर वाला कक्ष था। जिसमें दो द्वार थे... एक घर से बाहर जाने के लिए दूसरा बाकी बचे घर में प्रवेश करने के लिए... ये घर का दुर्ग भी कहा जा सकता था।

घर के मध्यम आकार के आँगन में विराटकाय नीम अपनी कड़कती साँय-साँय जैसी आवाज़ के साथ आज मुझे डरा कर मानों मुझसे अपने जीवन भर के बदले ले रहा हो कि-"बिटिया रानी, आजतक न तुमने दिन देखा न रात ... न शाम देखी न सुबह... बस हर वक़्त मुझसे छेड़खानी। कभी निंबोलियों के लिए तो कभी दातून के लिए. कभी झूले के लिए सताया मुझे... बेसबब भी तुम्हारा मुझसे लिपटना नहीं भूला हूँ मैं ... इसलिए आज न छोडुंगा तुम्हें ..."

हवा के तीव्र झोंके दोनों दरवाजों से ऐसे टकरा रहे थे जैसे आज वे उन्हें उखाड़ ही फेंकेंगे। ओले छत से टकरा कर ऐसी ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे मानों प्रलय आने को है। माँ यकीनन किसानों की अधकची अधपकी फसल की बरबादी को लेकर चिंतित थीं। अवश्य इसी कारण माँ के हाथ दुआओं में उठ रहे होंगे। समझते देर न लगी मुझे। सहृदय भोली माँ अपना सुख बाद में तलाशती पहले दूसरों का। इस बात पर कई बार जिरह हो जाती मेरी उनसे। पर कहाँ मानने वाली थीं। न मानती थीं।

ठंडी रात्रि का दूसरा पहर और इतनी भयंकर बारिश... हर पल उच्चंड होती बाहर की आहटों से लग रहा था कि पिशाचों की पूरी जमात आज उत्पात पर उतर आई है। बावजूद इसके, मन के किसी भी कोने में न तो किसी अंधेरे का भय था और न ही इस डरावनी रात में तांडव करते काल्पनिक भूत पिशाचों का। हर ओर इतना अधिक कोलाहल होने के बाद भी कोई चुप्पी थी जो अब खटकने लगी थी। और... इसी निस्तब्धता ने वातावरण में कोई भय घोल दिया था उस बड़े कमरे में।

भय ... जो आज की खौफनाक डरावनी रात में नहीं बल्कि भीतर पसरी पीड़ादायक बेचैनी में था। वह पीड़ा जो, माँ का शांत मुख देख उतर आई थी इस मानस शरीर में। चुप्पी अक्सर सुकून देती है। पर यहाँ माँ का इस तरह का व्यवहार देख इस चुप्पी ने जैसे मेरा सारा सुकून ही छीन लिया था।

माँ इतनी शांत कैसे हो सकती हैं... क्या दुनियादारी या इस दुनिया में बिताया समय इंसान को हर अच्छाई-बुराई झूठ-सच्चाई, धोखा-विश्वासघात सब सहने और पाचन करने की इतनी शक्ति प्रदान करता है कि-अति दारुण से दारुण बात बताते, सुनते न उनका कलेजा काँपता है और न चेहरे पर शिकन भी आती है रत्ती भर।

पर माँ ऐसी नहीं थीं।

अपने ही आश्चर्य से उत्पन्न विचार पर मैंने माँ को एक बार फिर ध्यान से देखा–याद आया ... माँ जब-जब अंदर से ज़्यादा विचलित हो जाती हैं तब-तब उनके चेहरे पर और भी अधिक गंभीरता पसर जाती है। वही विचलित करती शांति, जो किसी भी ज्वार के आने से पहले उस समुद्र में दिखाई देती है, जिसमें वह उठता है।

हूँ... माँ के अंदर भी बहुत से ज्वार भाटे हैं ... माँ कितना कुछ दबाये है भीतर ... भीतर के भी भीतर। जहाँ पर कुछ उथला नहीं। गहरा, बहुत गहरा, इतना गहरा कि उन्हें स्वयं भी इसका एहसास न हो। बाहर का तूफान और अंदर दिखती मरघट-सी शांति कहीं एक दूसरे के सम्बंधी तो नहीं... सोच से कब क्या अछूता...

'सुरभि बेटा, वक़्त बड़ा बेरहम है... कभी भी, कुछ भी एक-सा नहीं रहने देता...' जब भी उनके अन्तर्मन को छेड़ो तो कहती हैं वो...

सही कहती हैं। समझ गई मैं आज। शोर जितना बाहर था उससे कहीं अधिक कोलाहल मेरे भीतर। कितना तो मना किया उन्होंने।

परंतु माँ कैसे नहीं समझीं कि उसका आज उन्हीं के बीते पर तो टिका है। उससे जुड़ा है। उनकी विरक्ति, उनका जुड़ाव ही तो संस्कार बन उसकी रक्त वाहिनियों में सरपट हैं। फिर कैसे न पूछती भला-उस अच्छे बुरे को जो मेरे आज पर प्रभाव डाल रहा था।

विक्रांत के नसबंदी करवाने के विचार पर नाराज़ चल रही माँ पर उसने दबाव डाला कि बताएँ ऐसा क्या हुआ जो आप विक्रांत को नसबंदी करवाने को साफ मना कर रही हैं। क्यों कह रहीं कि मैं करवाऊँ। क्यों माँ...? मेरी तकलीफ तुम्हें परेशान नहीं कर रही...? क्यों चाहती हो वह तकलीफ मैं सहूँ जो खुशी-खुशी विक्रांत उठाने को मन से तैयार है। क्यों...?

अपनी नसबंदी कराने जाते भाई से पिछले साल बुरी तरह लड़ बैठी थीं वे। ज़िद कर भाभी का ही ओपेरेशन करा कर दम लिया था उन्होंने। तब माँ का अपनी औलाद के प्रति बेइंतहा स्नेह समझ, टाल गई थी बात को। पर अब...अब क्या... क्या मैं उनकी संतान नहीं। क्या उन्हें मुझसे प्रेम नहीं। तो फिर क्यों...?

नसबंदी के नाम पर इधर उधर से सुने सुनाये किस्सों के जरिये जो भी समझाना चाहा उन्होंने मुझे मैं खुले विचार और खुले दिमाग की पढ़ी-लिखी स्त्री उससे क़तई सहमत न हुई.

उस पर पुरुषों की नसबंदी के खिलाफ जिस तरह से वह ज़िद पर अड़ी थीं। वह बात उन्हें शक के दायरे में खड़ा कर रही थी। बस वही जानना चाहती थी मैं। वही गांठ जिसकी जद में कोई घाव था। जो टीसता तो था। पर हमें दिखता नहीं था। बहुत टाला उन्होंने। बहुतेरा ... डांटा भी। पर थी तो उन्हीं की बेटी मैं भी। उन्हीं-सी जिद्दी... पूरी बात जानना चाहती थी मैं। पूरी की पूरी। बिना काट-छांट किए...

दर्द था... जरा-सा हिलते ही छलक उठा और उसके छलकते ही फैल गया हर ओर सीलापन-" 38 साल पहले अपनी इच्छा के वशीभूत हो एक नादान लड़की ने माता-पिता से हठकर ली सहमति से मंदिर में एक फौजी लड़के से विवाह रचाया। स्वीकृति-अस्वीकृति के मध्य सम्पन्न हुए इस विवाह से उत्पन्न खीझ से भरे हृदयों से बेपरवाह ये जोड़ा नवजीवन की भले, दूर... चमकती, पर खूब सुनहरी किरणों से आपूर खुशी-खुशी अपनी गृहस्थी सँजोने में पूरे मन से जुट गया।

गृहस्थी के जमते-जमाते तक एक साल के भीतर ही उनके यहाँ एक सुंदर गुड़िया ने जन्म लिया। किरणें घर में उतर आयीं। घर परिस्तान बन गया। परी जो, उनके घर आई थी।

ज़िंदगी की रफ्तार उन दिनों तेज़ हुआ करती थी। बेटी ढाई साल की भी न हुई थी। एक सलोना बेटा भी गोद में आ गया। उनकी हर मुराद पूरी हुई. 15 साल की लड़की 17-18 की होते-होते दो बच्चों की माँ बन गई.

लड़की खुश थी। सबकुछ उसके पास था। सुरमई आसमान, सरकारी आवास, दोनों रत्नों से भरी उसकी झोली, सिंदूर से भरी मांग और मनपसंद पकाकर खाने को हर खाद्य सामग्री से भरी उसकी रसोई.

फिर भी कुछ रीता था। जल्द ही समझ आ गया। सम्पन्न, पढे-लिखे परिवार की लाडली बड़ी बेटी प्रेम में छली गई लगता था। खुशी नाम की तितली के पंख तिरोहित होने लगे। 15 साल की लड़की एक 30 साल के पूर्ण पुरुष द्वारा बहका ली गई थी।

पति जैसा दिखता था। वैसा था नहीं। पता चलता रहा दिन ब दिन... पल दर पल। मुस्काती आँखों में अब नमी रहने लगी थी और आँगन में जूते बैल्ट। किसी कोने से सिसकी निकलती। किसी कोने से हिचकी। लड़की उठती-बैठती गालियाँ खाती। पर मूक रहती। मौन उसका धर्म हो गया उन दिनों। हृदय की हूक नमाज़। माता-पिता को बताना अपराध समझती थी। उसकी ज़िद माँ बाप के समझाने और उनके स्नेह पर भारी रही थी। माता-पिता की अवहेलना कर उसने बड़ा गुनाह किया है, बात मन में बैठ गई उसके. अपना गुनाह कुबूल किया उसने और ईश्वर की तजवीज सज़ा को भोगने को मन राज़ी किया ताउम्र।

पिता के घर जाना कम से भी कमतर हो गया। सखी सहेलियाँ वह स्वयं छोड़ आई थी। बचपन भी बीत गया और किशोरावस्था भी। ।

बचपन के खेल-खिलोनों से लगाव तो उसने तभी छोड़ दिया था। जब उससे खेलने वाला उसे सबसे दूर ले आया था। जी भर खेलने को। दिन खेलता। रात खेलता। जब जी करता तब खेलता और वो... वो, इस खेल को न चाहते भी खेलती। न चाहना तो तभी... शादी के कुछ दिन बाद ही आ गया था मिजाज में। जब दिन-रात के कई-कई बार के खेल में टीस उठने लगी थी शरीर में। घृणा हो उठी थी उसे इस खेल से... पर प्यार जताने को खेलना ही होता उसे ये जुआ हर बार... कभी मार से, कभी प्यार से।

मनहूस लड़कपन... सब भूल गई. मान भी और अभिमान भी। हर प्रकार की भूल करती हुई.

मात-पिता की राजदुलारी ... ओह!। उसका सुनहरा मुखड़ा मलिन हुए जाता था। जब सारी लड़कियाँ पढ़-लिख कर अपने सभी सपने पूरे कर रही थीं तब चौके-चूल्हे में फंसी वह बच्चे संभाल रही थी। अक्सर कोई मलाल उठता हृदय में और आँखों को भिगो जाता।

बाद उसकी शादी के माँ की आँखों से नमी गई ही नहीं और पिता जो 8-10 गांवों में सबसे ऊंचा मान रखते थे। अपने को बदकिस्मत समझने लगे थे। मानों कुछ छिन गया था उनसे। कोई पीड़ा उनकी आँखों में साफ पढ़ी जा सकती थी। जिस पिता के रुआब पर सब सम्मान में झुकते थे... उसी पिता के चेहरे पर जो लाचारी उसकी शादी के बाद पसरी वह फिर उनके साथ ही गई. पिता की मृत्यु के बाद सबने उससे मुख मोड़ लिया।

समय कब बहता है ... किस रूप में बहता है ...? सुना तो है कि बहता है पर दिखता तो नहीं ... उसके लिए तो जैसे ठहर गया था वक़्त...!

बंद घर में रहते ऊबने लगी थी वह। उसकी घुटन से लापरवाह उसका पति दरवाजे पर ताला लगा जाता रहा ड्यूटी. मिन्नतें करती तो कहता-भोली है तू, गाँव की गौरी। उठाकर ले जाएगा कोई. कहता-गाँव नहीं है ये शहर है। वह भी हमारे इलाके से बहुत दूर ... मैं तुझे खो नहीं सकता। लोगों से बातें मत किया कर। फंसा लेते हैं लोग अपने जाल में। भोली ने शहर नहीं देखा था।

पर लालच तो यही दिया था फौजी ने कि तुझे शहर-शहर घुमाऊंगा... सब चीजें दिखाऊँगा तो अब कैसे कह रहे कि शहर बुरा होता... सोचती। पर एक बात तो सच थी कि जब फौजी फंसा सकता है तो फिर उसे कोई भी बहका सकता है। वह डर गई. उसकी हाँ में हाँ मिलाती हुई तालों में बंद रहने लगी खुले में सांस लेने को खूब-खूब तड़पने के बाद भी।

बेटे के जन्म के छह माह बाद ही नसबंदी करवा ली फौजी पति ने। गनीमत थी वरना एक आध बच्चा और हो जाता तो वह भी भागी बनता इस नर्क का... सोचती। बढ़िया हुआ...

पर जल्द ही उसे प्यार से पट्टी पढ़ाई गई.

सब पढ़ पढ़ाकर प्रतिदिन अब टीसते तन मन को समझाने लगी-ये मुझे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो इतनी परेशानी उठाई इन्होंने। यदि प्यार न होता तो मेरा ही ऑपरेशन करवाते और क्या—-

विमला चाची का वाकया याद आया उसे कि कैसे छठे बच्चे के गर्भपात के बाद उनका बच्चे बंद का ऑपरेशन किया था डॉक्टरों ने पर 3 माह भी न जी पाई थी वे बाद उसके. मरना तो फिर भी बेहतर है स्त्री जीवन से। बुरा तो तब है जैसे लाजो भाभी के साथ हुआ... रात-दिन गुब्बारे-सी फूलतीं वह हर किसी के इस बाबत पूछने पर बस एक ही बात कहती-"इस मुए, नासपीटे अपरेसन ने तो मेरे शरीर का सत्यानास कर दिया बिब्बी! कभी गैस तो कभी अफ़ारा ज़िंदगी नरक-सी कर दी है...ऊपर से मोटापा और...!"

सोच को बढ़ावा दिया। पति की बात-बेबात पर पड़ती लात घूसों पर उसने मिट्टी डाली।

सोचती, घर में माँ ने कभी काम नहीं करने दिया। नौकर भी तो कम्बख़त कभी छुट्टी नहीं करते थे। जिससे वह कुछ सीख पाती। घर में कुछ सीख पाती तो, यहाँ पर एक भी काम न बिगड़ता... तब थोड़े न मारते ये मुझे। देखा न, रोज रात को मुझे मनाते हुए कैसे कहते हैं-"मेरी मारपीट का तू बुरा मत माना कर... अरे, मैं तो बच्ची समझता हूँ तुझे। प्यारी-सी. नन्ही-सी. बस समझाने के चक्कर में हाथ उठ जाता मेरा।" सोचती जाती... सोचती जाती ... और बलिहारी हो जाती... न मानते मन को लताड़ लगाती।

सारा दिन की भूखी-प्यासी, सिसकती लड़की को खींच अपने पाँवों तले दबोचते, मिमियाते चेहरे पर भोलेपन का नकाब लगाए, आँसू रूपी फरेब आँखों में भर जब वह उसके होंठ चबा डालता तब दर्द से बिलबिलाती लड़की उसके प्यार के छल-कपट में दर्द तक को महसूस करना भूल जाती।

बच्चे बड़े हुये तो घर के ताले खुले। काले कलूटे बैंगन लूटे जैसे पति की मक्कारी भाँपना तो उसे शादी के 20 साल बाद तक भी नहीं आया था। अपने पर लगातार होते अत्याचार पर यदि कभी वह मुखर हो उसका विरोध करने का साहस भी करती तो प्रेम के नाम की गोली देकर उसका पति रोते हुए उसके लिए किये गए अपने 'नसबंदी नामक त्याग' से उसका विरोध अपनी कूटनीति से कुचल देता। उल्टे नसबंदी से आई कई प्रकार की मनगढ़ंत तकलीफ़ों का रोना रोकर उसे हर घड़ी इस बात का एहसास दिलाता रहता कि उसके प्रेम में तकलीफ झेल रहा है और ताउम्र झेलेगा वह। सीधी सरल लड़की अपनी गलतियों की क्षमा उसके पैर पकड़ मांगती।

... दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा... जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा... डायरी में लिखती जाती।

बच्चे बड़े हो रहे थे। पर कोई क्लेश उसकी जान का कम नहीं हुआ। हाँ... एक राहत उसे अवश्य हुई कि उन्हीं के पड़ोस में रहने आई पुष्पा उसे अपनी-सी लगी। जाने क्या बात थी कि इस बार उसके पति ने उनसे बात करने या उनके घर जाने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई उसपर। समय बीतने पर दोस्ती प्रगाढ़ हो गई दोनों की। अब हर दुख छिपा उससे सब कह लेती वह।

पर एक दिन सब बाहर आ गया वह भी जो वह छुपाती रही और वह भी जो उससे भी छिपा रहा—-

दो पैग के सुरूर में बहकते, नीचता से आँख भींचते राजेंद्र के व्यवहार और बातों से त्रस्त, पुष्पा के पति ने उसे घृणा से देखा-"हद है यार..." उसके पास बैठने से भी वह उसके पाप का भागी हो गया हो जैसे।


-"अरे, यार... सच कह रहा हूँ मैं। इन औरतों पर कभी विश्वास मत करना। अपनी नसबंदी करवा ...! छोड़, बीवी के ओपेरेशन की बात! जानता भी इसके कितने फायदे हैं। एक तो जितनी चाहे तू मौज उड़ा ले। कोई लड़की तेरे बच्चे की माँ बनने का दावा नहीं कर सकती। दूसरे औरत कहीं मुंह नहीं मार सकती। मारेगी तो साली पकड़ी जाएगी। मुझे देख, मैंने इसीलिए ही तो नसबंदी करवा रखी है। नहीं तो हर गली में एक लड़की खड़ी होती मेरा बच्चा लिए... ही-ही ही। देख रहा है ना तू...!"

"भाई, सरला भाभी ने सुन लिया तो! धीरे बोलो..."

"अरे छोड़... ये जो सरला है ना। बहुत बेवकूफ है। जब मुझ जैसे से फंस गई थी तो किसी से भी फंस सकती थी। यही सोच तो मैंने एक तीर से दो शिकार किए. सोचा स्साली कहीं मुंह मारेगी तो पकड़ी जाएगी और रही बात मेरी तो सुन, मेरा स्वभाव तो यार ऐसा है कि... हर हफ्ते स्वाद बदलने को कुछ अलग चाहिए ही होता... देख ले! ये नसबंदी बड़े काम की चीज है...हाँ...!"

अंदर आती स्त्री के पैरों का दम एक झटके में निकला। गिर जाती यदि पास रखी मेज न थाम ली होती। पीछे खड़ी पड़ोसन पुष्पा की आँखों में समंदर था। अफसोस से भरी पलकें झुकी जाती थीं। उसकी ओर बढ़ती वह, उससे पहले ही उसे हाथ से रोकती, वह स्त्री सरला उसकी चौखट के बाहर हो गई. आँखों के आगे जाने आज कैसा अंधेरा...

"भाईसाहब, आप तो बड़े बदतमीज़ हैं। कितने गंदे विचार हैं आपके. क्या, यहाँ भी इसीलिए आते हैं आप...? और सरला भाभी के लिए ऐसी सोच... लानत है आप पर। निकलिये मेरे घर से! अभी निकलिये! निकालो जी, इन्हें अभी निकालो मेरे घर से। मेरे आदमी को बहका रहे हैं। शर्म नहीं आती आपको... हें... कैसा इंसान है ये..."

पुष्पा की खिड़की से आती आवाज़ों ने शर्मिंदा कर दिया उसे। उफ! कितना गंदा इंसान चुना उसने अपने लिये ... कितना नीच। कितना पापी. रात को बिस्तर पर अब भी एक नहीं कई-कई बार दबोच डालता है उसे। प्राकृतिक अप्राकृतिक जिसे सोचते भी इंसान घिन्ना जाये। इतनी कलाएँ जानता। करता। करवाता। उफ! खुद से घृणा-सी हो आई.

भोली थी। सोचती थी-सभी पुरुष ऐसे ही तो होते होंगे। यही तो एक काम है पुरुष का। उसने किसी से उसे कभी मिलने ही नहीं दिया जो जान पाती कि वैवाहिक जीवन के सही नियम क्या हैं और बिस्तर पर पति-पत्नी का व्यवहार कैसा हो... कैसे निभाते हैं एक साधारण दंपति प्रेम बिस्तर पर...? सोचने, समझने, इस बाबत कुछ पढ़ने की उम्र से पहले ही तो विवाह कर बैठी थी वह।

कोई भी तो नहीं था... कोई भी तो नहीं... उसके पास जो उसे बताता कि-पति भी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ शारीरिक सम्बंध नहीं बना सकता। जबरन किया इस प्रकार का कृत्य भी बलात्कार की ही श्रेणी में आता है और इस पर भी वहीं नियम, सजाएँ लागू होती हैं जो अन्य बलात्कार के मामलो में होती हैं। उसे कोई बताने वाला नहीं था कि जब तक एक स्त्री अपना मान स्वयं नहीं करेगी तो कोई भी उसका मान नहीं करेगा।

आह!

अभी कोई माह पहले ही तो बताया था उसकी एकमात्र सखी पुष्पा ने-"विवाह के तेरह साल होने को आए. यदि चार दिन बाद भी हाथ लगाते और मैं मना कर दूँ तो कोई सवाल भी नहीं करते। कहते, ठीक है..." कल देख लेंगे"माने कल के लिए इल्तजा करते मुझसे और अब... अब तो बच्चे बड़े हो गए. 11-12 साल के हो रहे... यदि हफ्ता भी गुजर जाए तो गम नहीं करते। पहले बच्चों का माहौल देखते।" प्राकृतिक अप्राकृतिक का भेद भी पुष्पा ने ही खोला।

वह भौंचक। विस्मय से भरी अंदर ही अंदर ज़ब्त कर गई थी अंदर की पीड़ा ... आँखों का हलाहल। नज़रें भी झुका लीं। कहीं पुष्पा पढ़ न ले ऐसी कोई बात जिसे वह बताना नहीं चाहे। "हम्म..." मासूम लब हिले ही नहीं। बस मटर छिलवाती रही थी।

आज फिर याद आई माँ... साथ में बहुत कुछ।

"मेरी तो, सोने चांदी की गुड़िया जैसी सोनपरी है। इसके तो बाल भी सोने जैसे हैं। नाज़ुक सी. देखना सुम्मी, इसके लिए तो कोई राजकुमार ही ढूंढूंगा मैं। जहाँ पर बस राज करेगी ये... काम करने के लिए थोड़े न पैदा हुई है ये। ये तो राज करने के लिए जन्मी है। ताबेदार हर हुक्म बजाने के लिए हर कोने में खड़े होंगे इसके. देखना तुम!" कई बार कहते उसके पिता, उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए. उसे याद आया।

तब माँ आँखों में आँसू भर ममता से उसे गले लगाती कहतीं, देखो जी! मैं रहूँ या न रहूँ। तुम्हें मेरी सौगंध! मेरी सरू को कहीं ऐसी वैसी जगह न ब्याहना। देखना, लड़का इसी की जोट का और सदैव इसका मान रखने, करने वाला हो। वरना तुम्हें कभी माफ न करूंगी मैं" ममता स्नेह पर भारी हो जाती थी क्षण में।

... और उसने... क्या किया... अपने लिए जहन्नुम का चुनाव किया।

हाय...पापी!

देश, घर, समाज की तरक्की में बढ़ती जनसंख्या बाधक न बने इस वास्ते बड़े-सोच विचार कर अपनाया होगा सरकार ने पुरुषों की नसबंदी का तरीका। पर इस व्यभिचारी ने इसका उपयोग कितने घृणित कार्य के लिए किया। जानता है... पिशाच सब जानता है कि-एक बार को बलात्कार की शिकार बनी कोई मासूम से खतरा नहीं क्योंकि कई लड़कियाँ इस अपमान पर भी चुप्पी साध लेती हैं किन्तु यदि कोई इस वजह से गर्भवती हो जाए तो वह ऐसे लोगों का भंडाफोड़ कर सकती हैं... धूर्त, पापी नीच... मर्दों के रूप में छुपे ये भेड़िये... छि! घिन आने लगी उसे हर ओर से।

सारी ज़िंदगी इसी मनहूस 'नसबंदी' की इमोशनल ब्लैकमेलिंग कर दबाता रहा यदाकदा विरोध को उठता उसका स्वर उसके अमानवीय अत्याचारों पर। साम-दाम दंड-भेद हर नीति अपनाता रहा वह।

पर... उस पर तो कुछ भी अपनाने की ज़रूरत न थी। बस प्यार की एक हांक काफी थी। किन्तु प्यार तो उसे था ही नहीं। उसे तो गुड़िया चाहिए थी खेलने को उम्रभर। गूंगी गुड़िया। प्यार तो मात्र छलावा साबित हुआ उसके लिए... प्रेम... बाली उम्र का अपराध, जिसमें आजीवन 'सश्रम' कारावास मिला उसे।

पलंग के कोने को पकड़, आँखों में मोटे-मोटे आँसू भरे खड़ी, सामने खाली दीवार को ताकती रही। 35 साल की उम्र में वह बुढ़ा जाने को थी। वह चाहती थी वह बुढ़ा जाये जल्दी। जीवन का अंत जल्द हो। शांति मिले। पर आज तक ज़िंदगी समाप्त नहीं हुई. बदस्तूर चलती रही। बाप के व्यवहार से क्षुब्ध, डरी बेटी ने आजीवन विवाह न करने का फैसला किया। बेटे ने अपनी मर्ज़ी से विवाह किया गनीमत ये रही कि माँ, बहन और पत्नी के साथ पिता का घर छोड़ दिया।

"माँ...!" किसी के बीते पन्नों को भींचते मेरे होंठों से निकला।

पर माँ ने जैसे अब भी कुछ सुना न हो। बात पूरी सुनने की ज़िद मेरी थी। पर अब उनके सुनाने की ज़िद अधिक——सीजापन छितरता रहा।

" दो साल पहले दिल का दौरा पड़ा तो सारे ताले तोड़ मायका आँखों में घुल गया। आत्मा परमात्मा में विलीन हो उससे पहले बुलाया उन्होंने मुझे। हाथ जोड़ते अपने सब गुनाहों की माफी मांगी। जबकि उनसे ज़्यादा हम उनके अपराधी थे। उनकी गलती के साथ उन्हें अकेला छोड़ देना उनके पति को और भी निरंकुश बना गया होगा मुझे यकीन है। वह तो यही चाहता होगा और वही होने दिया हमने। यदि हमने उनके साथ अपना मेल-मिलाप बनाए रखा होता तो स्यात: वह उसके कई अत्याचारों से बच जातीं और ये भी हो सकता था कि हमारे सहयोग से वह कुछ भी न सहतीं। खैर...उनकी इल्तजा थी कि जब सब उन्हें मरा हुआ ही मान चुके हैं तो अब एक मेरे सिवा उनके ज़िंदा होने का किसी को भी पता न चले।

बात समाप्त कर माँ ने चुप्पी-सी साध ली।

"ओह! माँ... नहीं..." बड़ी बेचैनी उतर आई आँखों में। अविरल बहती धारा संजीदा बैठी माँ पर कोई भी असर छोड़ पाने में जैसे अक्षम रही।

45 मिनट होने को आए थे... हर ओर बस साँय-साँय साँय... इतनी लंबी चुप्पी. रात्रि का पहला पहर बहुत कठिनाई से बीतने वाला है। समझ गई थी मैं माँ को सुनते हुये। पर दूसरा पहर उससे भी अधिक कष्टदायी होगा। नहीं पता था।

"माँ... ये स...र...ला जी कौ...न हैं...?"

"मेरी बड़ी बहन..."

हा! ...

माँ का चेहरा ताकती रही कई घड़ी। कितनी पीड़ा... कितनी पीड़ा... पर सब जब्त।

निश्छल विक्रांत और माँ का डर...

ओह! ... एक उच्छ्वास और बचे को बचाने की हूक...

माँ के हाथ पर स्वीकृति में रखा मेरा हाथ... माँ की आँखों में अब शांति है... गहरी शांति... तूफान का थमना, माने माँ की दुआओं का कुबूल होना।