नसीरुद्दीन शाह : प्रेम, प्रार्थना और पश्चाताप? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 19 सितम्बर 2014
नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा प्रकाशित हुई है आैर इससे अधिक ईमानदार आत्मकथा आज तक नहीं लिखी गई। किताब की ईमानदारी को आप सैकड़ों सूर्यों के हृदय में दहकने के अनुभव की तरह कह सकते हैं। इतनी हिम्मत आज तक किसी ने नहीं दिखाई कि अपनी जख्मी आैर दागदार आत्मा को इस कदर निर्ममता से सबके सामने रखे। यह कमोबेश एक संवेदनशील कलाकार का सारे आवरण हटाकर सड़कों पर नंगे होकर नाचने की तरह है। प्राय: सितारों की आत्मकथा उनकी परदे पर प्रस्तुत छवि का विवरण होता है परंतु नसीर तो अपने अवचेतन में बैठे सारे भयों आैर सपनों को उस कसाई की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं जो गोश्त की दुकान पर कीमा कूट रहा है। अपने व्यक्तित्व की किसी कमतरी को उन्होंने छुपाने का प्रयास नहीं किया है। यह लिखना किसी रंगरेज की तरह नहीं है जो अपने जीवन की चदरिया को लोकप्रिय रंग में रंग रहा हो वरन् उस पिंजरे की तरह है जो रूई को रेशा-रेशा धुनक रहा है। इस किताब का लेखन नसीर के लिए ऐसा रहा होगा मानो कोई शल्य चिकित्सक स्वयं की चीड़-फाड़ कर रहा है आैर किसी किस्म का एनेस्थीशिया भी नहीं दिया गया है। यह नीम बेहोशी में किया गया यादों का विवरण नहीं है परंतु पूरे होशोहवास में अपने अवचेतन के सारे अंधेरे कोनों को हजारों वॉट की रोशनी में प्रस्तुत करना है। नसीरुद्दीन शाह ने फिल्म की शूटिंग आैर रंगमंच की रोशनियों में स्नान किया है आैर अपने अवचेतन की रहस्यमय कंदरा में वह जुगन की मद्दम रोशनी नहीं वरन् उन्हीं हजारों वॉट की रोशनी में उजागर कर रहा है। उसने इस किताब को चर्च के कंफेशन रूम की तरह प्रस्तुत किया है जिसमें गुनाह कबूल करने वाला आैर परदे के उस पार खड़ा पादरी भी वह स्वयं ही है। इतनी हिंसात्मक साफगोई इसके पहले कभी नहीं उजागर हुई है।
किताब के अंतिम पृष्ठ (316) के उपसंहार को पढ़कर लगता है कि यह किताब संभवत: पश्चाताप आैर प्रार्थना के समवेत भाव से लिखी गई है। वह तमाम उम्र स्वयं से लड़ता रहा, बहस करता रहा परंतु कभी किसी नतीजे या फैसले पर नहीं पहुंचा क्योंकि जिंदगी कोई न्यायालय नहीं है जहां जुर्म आैर सबूत के आधार पर कोई फैसला सुनाया जा सकता है वरन् जिंदगी सतत जारी मुकदमा है आैर जज भी कटघरे में खड़ा है। नसीरुद्दीन शाह अपने अवचेतन में छुपे भय से ताउम्र जूझता रहा है आैर एक दौर ऐसा भी रहा जब वह उस डर में आनंद लेता रहा है आैर इस प्रक्रिया में प्राप्त उत्तर या उसके संकेत की कोई अभिलाषा उसके मन में नहीं रही है। आज पैंसठ वर्ष के मकाम पर आइने में उसे उसकी एक अतिरिक्त छवि भी स्वयं में दिखाई देती है जिससे वह लड़ता रहा है आैर जो अपने विविध स्वरूपों में उसकी हमसफर भी रही है। नसीर साहब से अर्ज करना चाहता हूं कि इस हमसफर को हमजाद भी समझा जा सकता है। इस्लामिक साहित्य में हमजाद अवधारणा है कि मनुष्य के जन्म के साथ ही उसमें शैतान मौजूद रहता है आैर भीतरी जंग हमेशा चलती रहती है तथा इसी सतत जंग को जिंदगी भी कहा जाता है।
रत्ना पाठक आैर नसीरुद्दीन शाह की प्रेम कहानी अफसाना नहीं है। एक ऐसी हकीकत है जिसकी शपथ लेकर जीवन जिया जा सकता है। नसीर की पहली पत्नी परवीन उनसे पंद्रह वर्ष बड़ी थी आैर रत्ना सात वर्ष छोटी हैं परंतु अपने व्यक्तित्व के पके होने के पैमाने पर रत्ना नसीर से हजारों वर्ष बड़ी है। आज के बाजार में तो लोग पकने के पहले बिकना चाहते हैं परंतु रत्ना पाठक शायद उम्र के हर पड़ाव पर उस बरगद की तरह है जिसकी शाखाएं ही पुन: धरती में प्रवेश करके उसकी जड़ों को मजबूत बनाती है। रत्ना नसीर से अधिक तुनक-मिजाज आैर लड़ाकू हैं परंतु उसके पास मिजाज के इस पक्ष को ताकत में बदलने की कूवत है। रत्ना ने तो अपने पिता की असमय हुई मृत्यु के बाद उनके बिखरे व्यवसाय को एक वकील आैर चार्टड एकाउंटेंट की मिली-जुली योग्यता से सुलझाया। वह इस तरह की महिला है कि चार पुराने स्वेटर उधेड़ कर उनके रेशे मिला दो तो वह उन्हें भी छांट सकती है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह सचमुच स्वेटर बुनते समय गुनगुनाती हो "बुन रहे हैं हम ख्वाब दम दम, वक्त ने किया क्या हंसी सितम"। रत्ना पाठक ने इसी कुशलता से बिखरते हुए नसीर को सम्हाला है आैर यह जोड़ी उपर वाले ने नहीं बनाई है वरन् यह रंगमंच पर बनी है परंतु इस रिश्ते में नाटकीयता नहीं है वरन् जीवन का स्पंदन है। दोनों शेक्सपीयर प्रेमी हैं, अत: इसे आप "टेमिंग ऑफ शुरु" के साथ "डोमीस्टेकेशन ऑफ टाइगर" भी कहें जो शेक्सपीयर ने नहीं लिखी है परंतु शायद उसके वचेतन में थी जो इतनी सदियों बाद घटित हुई है।