नहीं! मिन्नी अब नहीं / प्रमिला वर्मा
मैं जानती हूँ कि अब बुआ क्या कहेंगी... मैं अपराध बोध से सिहर उठती हूँ और सच ही बुआ बोल उठती हैं, जो धीमे-धीमे भूमिका बांध रहीं थीं"सब तेरे ही कारण हुआ मिन्नी क्या तू नहीं जानती?" मैं अपनी डबडबायी आंखें उनकी ओर उठा देती हूँ। वे कहती हैं-"चिट्ठी पर पड़े तेरे वे दो बूंद आंसू, क्या तेरी माँ नहीं पहचान सकी थी, जिसने तुझे नौ महीने कोख में रखा।"
चार साल हो चुके थे उस घटना को। वे क्षण आज भी वैसे ही जीवंत थे जैसे तब ।आज जब वह दुल्हन बनने जा रही थी, बुआ ने उसे कठघरे में ला खड़ा किया था।
कालेज के प्रथम वर्ष में वह थी। हाँ! वह दिन उसे अच्छी तरह याद है जब माँ ने रो-रोकर बुआ को फोन किया "फोन पर कुछ नहीं बता सकूंगी, तुरंत ही आ जाओ." मां की सखी भी, ननद भी, बुआ तुरंत ही चल पड़ी थीं और अगले दिन माँ के समक्ष थीं। घर में ऐसा कुछ घटित हुआ था कि वह कालेज नहीं जा पाई थी। माँ बुआ का हाथ पकड़कर लगभग घसीटती हुई वहाँ ले गई थी, जहाँ पापा बैठे थे...
लीजिए! जीजी, इन्हीं से पूछिए मेरा क्या दोष है? बुआ ने सारी बातें सुनी थीं और तैश में आकर कहा था-"यह क्या जगदीश! तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं, बेटी जवानी में कदम रख चुकी है और तुम्हें रंगरेलियाँ मनाने की सूझी है।"
पापा में कहीं अपराध बोध नजर नहीं आ रहा था, कोई पछतावा चेहरे पर नहीं था। ईजीचेयर पर वे बैठे सिगरेट पी रहे थे। पास ही उनके सूटकेस तैयार रखा था। अच्छा हुआ जीजी तुम आ गई. वे बोले थे-"ये तुम औरतों का काम है कि साथी पसंद हो या न हो, उसी के साथ सर झुकाकर जीते चले जाना, मुझसे यह नहीं हो सकता।"
"तो तुम शादी के सत्रह साल बाद निम्मो को छोड़ना चाहते हो?"
"छोड़ना चाहता नहीं हूँ, छोड़ दिया है, मैं क्लेरा के साथ इटली जा रहा हूँ, वही रहूंगा।"
अब क्या बाकी था कहने को। पापा की गंभीर गर्जना सुन माँ का चेहरा सफेद बर्फ-सा हो आया था। सदैव खामोश रहने वाली माँ आज भी खामोश थीं। जहाँ अधिकारों के लिए लड़ा जा सकता था, जहाँ ससुराल का कोई बड़ा व्यक्ति साथ था... वहाँ भी वे चुप थीं।
तो इस लड़की का क्या होगा? यह तुम्हारी भी तो बेटी है। बुआ ने अंतिम वाक्य अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था, लेकिन यह प्रहार भी खाली गया।
हाँ है तो, यह पालेंगी आपकी निर्मला जी, एम.ए., पी. एचडी., प्रोफेसर ... लेखिका और क्या?
"तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगे जगदीश।" बुआ रोने लगी थीं। शायद उन्हें अपनी हार का अंदाजा नहीं था।
"दो जीजी और शाप दो, तुम औरतें न स्वयं जीती हैं न दूसरों को ही जीने देती हैं।"
पापा उठकर जाने लगे तो बुआ ने रास्ता रोकने की कोशिश की थी, ऐसे तुम नहीं जा सकते जगदीश... लेकिन सब कुछ निरर्थक... वे जा चुके थे। हम सबके बीच एक खाली दायरा पसरा पड़ा था... जैसे सभी अपनी कैद भुगत रहे थे... अलग थलग... माँ के अंदर किन भयानक तूफानों ने उपद्रव मचाया होगा... अब महसूस कर सकती है वह... डब... डब!
आंखें भर आर्इं... क्यों पुरुष का सहारा इतनी ज़रूरी है... क्या पुरुष के बगैर नारी दो कदम भी नहीं चल सकती़। लेकिन चली थीं मां... दो कदम नहीं... हजार कदम... फिर भी उनके अंदर हर वक्त कुछ टूटता ही रहता था... मिन्नी का सहारा तब था... क्यों माँ अनिर्णित रहीं...
क्यों? क्यों? जानती नहीं थीं कि जब मिन्नी चली जाएगी तब? कितनी ही रातें माँ को आंचल मुंह में ठूंस कर रोते देखा था, जिस पति के साथ हर कदम पर माँ चली थीं... वही उन्हें कितना प्रताड़ित करके चला गया... इतनी छोटी-सी भी वह नहीं थी कि समझ नहीं पाती... यूं टूट जाते हैं सम्बंध... मानो कांच के बने थे... टकरा गए और हो गए चकनाचूर... आहत अभिमान से फिर शायद कभी माँ ने चेहरा ऊपर भी नहीं उठाया होगा... तिरस्कृत नारी...
क्या हुआ निर्मला को? पहली बार हरीश अंकल से माँ का नाम सुना था, माँ बीमार पड़ी थीं, बुआ और मैं उन्हें घेरे बैठे थे, माँ नीचे नजर किए थीं मानो अपराध उन्होंने किया हो।
हरीश अंकल तलाकशुदा थे। सुनते हैं पंद्रह दिन भी उनकी पत्नी उनके साथ नहीं रहीं थीं, वे किसके मित्र थे वह नहीं जानती। लेकिन, वे पापा और माँ दोनों के ही मित्र प्रतीत होते थे। माँ उनको देखते ही अपनी कारा में कैद हो जाती थीं। वे मूर्तियाँ बनाते थे, चाहें हाथ में मिट्टी का लौंदा दे दो या संगमरमर का टुकड़ा... वे सामने वाले की हूबहू मूरत बनाकर रख देते।
बुआ भी कितने दिन रुक सकती थीं, मकान भी पापा को होटल की तरफ से मिला था। अत: खाली करना पड़ा... एक छोटे से घर में माँ और वह... हरीश अंकल उसी से बात करते रहते और फिर चले जाते। माँ ने अपने को इस तरह अपने बनाए कारागार में कैद कर लिया था कि निकलना ही नहीं चाहती थीं। न उनके चेहरे पर हंसी आती, न कोई वाक्य बनते... वह घर जल्दी आ जाती तो वही खाना बना लेती।
मां खाने की तारीफ करतीं, तारीफ में ही हंसती और उनकी खोखली हंसी स्पष्ट ही नजर आती... कितना तकलीफदेह होता जा रहा था जीवन... मानो जीने की सारी शर्ते ही समाप्त हो गई हों... माँ रात में बैठीं दूसरे दिन के ट्यूटोरियल्स की तैयारी कर रहीं थीं और वह उनका बिस्तरा ठीक करते हुए मसहरी लगा रही थी।
"तुम चलोगी मिन्नी कल।" उन्होंने बगैर किसी भूमिका के कहा था।
"कहाँ?" उसने पूछा।
"कल हरीश माथुर की कलाकृतियों की प्रदर्शनी है, उद्घाटन के अवसर पर उन्होंने चाहा है... हम दोनों ज़रूर आएँ।"
सहसा खिल उठी थी वह... चलो कारागार से निकलने का प्रयास तो किया माँ ने। दूसरे दिन शाम पांच बजे प्रदर्शनी के उद्घाटन पर वे दोनों उपस्थित थीं। आर्ट गैलरी के दरवाजे पर वे शायद हमारा ही इंतजार कर रहे थे।
"चलो निर्मला जल्दी... अरे हमारी बिटिया भी साथ है..." उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा। आर्ट गैलरी में वह घूम-घूम कर माँ के साथ मूर्तियाँ देख रही थी... "वाह कितनी जीवंत... कितनी अच्छी... यह देखो मां... मां... वह... और! और! एक मूर्ति पर उसकी आंखें पत्थर हो गर्इं... अरे! यह तो..." सहसा उसने होंठ भींच लिए थे। ढेर सारा पसीना पैर के तलुवों से निकला और सैंडिल पर जम गया। हथेलियाँ माथा... पसीने से भर उठा... सामने माँ की मूर्ति थी... सीने पर से आंचल आधा सरका हुआ... एक उरोज नग्न... हाँ... वे माँ ही थीं... मूर्ति के नीचे लिखा था नॉट फॉर सेल।
खड़े रहना भी उसका दूभर हो चुका था। माँ अपराधी-सी खड़ी थीं। वह तेजी से बाहर निकली तो वे भी पीछे भागीं, रिक्षा किया और दोनों सीधे घर पर... ढलका आंचल... नग्न उरोज... मां! मां! कहाँ हो तुम?
"मिन्नी खाना खा लो।"
"नहीं मुझे भूख नहीं है।"
दोनों ही भूखे जागते अपराधी से पड़े थे। यदि माँ के आंसू आंखों से लुढ़क रहे थे तो उसके भी लुढ़क रहे थे। सुबह भी दोनों के बीच अबोला था। खाना चाय कुछ भी नहीं किसी ने नहीं खाया पिया। शाम को कालेज से वह लौटी तो वे सिर पर पट्टी बांधे लेटी थीं। उसने उनकी ओर देखा और थरथरा उठी। चौबीस घंटों में मानों मीलों फासला उन्होंने तय कर डाला था। एक कचुआइट से देह कांप उठी। जाकर उनका माथा छुआ और भागकर एक क्रोसिन लाकर उन्हें दी।
वे निःशब्द रो रहीं थीं। दोनों हाथों से उसके हाथों को पकड़ रखा था। उन्होंने आंखें बंद कर लीं। वह धीमे-धीमे उनका सिर दबाती रही... आंखों के समक्ष ढलका आंचल था और एक उरोज नग्न... उसने धीमे से उनके व्यवस्थित आंचल को ठीक किया। मानो वह अव्यवस्थित था और उसने... वे सो रहीं थीं। ...क्या वे सचमुच सो रहीं थीं। वह टेबिल पर आई तो देखा वहाँ एक पत्र पड़ा था।
शायद जानबूझकर... वैसे ऐसा कुछ भी नहीं था जो उससे छुपा हो... या माँ ने छुपाया हो... पत्र बुआ का था-
निम्मो, फैसला तो मिन्नी को ही करना होगा... हम जानते हैं वह बड़ी हो चुकी है... उसके फैसले को अहमियत देनी होगी... हरीश जो चाहते हैं, वह उचित ही है। उन्होंने मुझे स्पष्ट लिखा है कि वे मिन्नी को एक पिता से बढ़कर प्यार देंगे। जो तुम्हारा प्राप्य होगा वह तुम लोगी... मान जाओ निम्मो... जब तक तुम्हारे साथ मिन्नी है तुम जी लोगी... फिर बाद में क्या होगा? कभी सोचा है कि ज़िन्दगी की इस दोपहर में किसी के साथ की कितनी ज़रूरत महसूस होती है? भूल जाओ कि जगदीश कभी तुम्हारी ज़िन्दगी में आया भी था। बहन होकर कह रही हूँ। जब वह अपनी ज़िन्दगी जी सकता है तो तुम्हें भी अपने बारे में सोचने का भरपूर हक है। सच पूछो तो तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है? ... केवल सैंतीस वर्ष... निम्मो! मैं तुमसे बहुत बड़ी हूँ... मेरा कहना मान लो... मिन्नी को स्पष्ट बताकर पूछो कि क्या करना है... फिर मैं आ जाऊंगी।
फिर वही हालत उसके... हाथ पैर माथे पर पसीना... लगा कि प्रदर्शनी में लगी मूर्ति ठठाकर हंस रही हो... आंखों से आंसू गिर रहे थे और पत्र पर गिरे वे दो आंसू... इंक फैल चुकी थी... उसने हड़बड़ी में पत्र तह करके लिफाफे में रख दिया। ऐसा मानो खोला ही नहीं था... आंखें बंद कीं तो माँ का ढलका आंचल... पत्र... एक नग्न स्तन... षड्यंत्र! उसके चारों तरफ षड्यंत्र रचा जा रहा हो मानो, जिसमें हरीश अंकल, मां... बुआ सभी शामिल हैं। सब कुछ हाथ से छूट रहा-था। पापा कहीं खो गए थे और अब मां... आँख लगी तो अपने आपको एक ऊंचे पर्वत पर खड़े देखा... और फिर क्षणांश में ही... यूं लुढ़की कि मुंह से एक चीख निकल गई, मां... लगभग दौड़ते हुए उसके नजदीक आई थीं।
क्या हुआ मिन्नी? ... मेरी बेटी... बुखार से उनका शरीर तप रहा था। "कुछ नहीं" उसने उनके हाथ झटक दिए थे।
सुबह नींद खुली तो वे किचन में खटर-पटर कर रही थीं। लगभग स्वस्थ सी, टेबिल पर से पत्र गायब था... मानो कहीं कुछ हुआ ही नहीं। उन्होंने उसकी पसंद का खाना बनाया था और दोनों खा रहे थे चुपचाप...
अपने-अपने दायरों में कैद।
माँ फिर अपनी कारागार में कैद हो चुकी थीं। जिंदगी ने फिर बहना शुरू कर दिया था। क्या कुछ नहीं घटा था अड़तालीस घंटों में। —-
पच्चीस दिन हो चुके थे। उसने हरीश अंकल को घर आते नहीं देखा। एक दिन यूं ही कॉलेज से लौटते हुए वह उनके घर की तरफ चल पड़ी थी। हाँ! तमाम षड्यंत्रों को भोगते हुए उसने सोचा था कि कहीं तो उनके लिए स्नेह का दीप उसके अंदर प्रज्वलित है... जिसको महसूसते हुए वह उस ओर खिंची जा रही है... यह क्या... ताला लगा था उनके फ्लैट में। वह अचकचा कर खड़ी हो गई. सामने से आते दिखे थे उनके पड़ोसी डॉ. मिश्रा।
"अरे मीनाक्षी तुम?"
"कहाँ हैं हरीश अंकल?"
"अरे तुम्हें नहीं मालूम? वे तो पंद्रह दिन हुए यहाँ से चले गए. बाद में पता चला कि उन्होंने जबरदस्ती अपना ट्रांसफर करवाया था शिलांग का।"
फिर वह रुकी नहीं। अब रास्ता साफ था...
षड्यंत्र समाप्त हो चुका था। षड्यंत्रों पर उसने विजय पा ली थी। एक खुशी से उसका समूचा बदन हिलोरें ले रहा था। पांव तेजी से बढ़ रहे थे... माँ को बताना होगा, तो क्या माँ को मालूम नहीं था... मालूम नहीं, तो उसे बताया क्यों नहीं... घर आते ही उसने माँ के गले में बांहें डाल दी थीं। मानो बरसों की बिछड़ी माँ आज मिली हों...
पच्चीस दिनों की दूरी मिनटों में सिमट गई थी... दोनों रो रही थीं, शायद एक दूसरे को संपूर्ण पाकर। —-
मेहंदी लगवाते हाथ बरबस कांपे थे। वे कितनी व्यस्त थीं। रह-रहकर भर आर्इं उनकी आंखें। कितनी स्वार्थी हो उठी थी तब वह... जब माँ ने एक सहारा पाना चाहा था... और आज जब वह ससुराल जा रही है... क्या आज भी उसके अंदर उतना ही स्वार्थ है... फिर क्यों माँ को लेकर वह पिघल-पिघल जा रही है... तो माँ को मालूम था कि उसने वह पत्र पढ़ लिया था... मिन्नी! पत्र पर गिरे वे तेरे तो बूंद आंसू... फिर वैसी ही तलुओं में चुहचुहाहट... माथे पर पसीना... वे भाग कर आर्इं-"क्या हुआ मिन्नी?"
"कुछ नहीं" उसने भरपूर गहराई से उन्हें देखा था, तब माँ छूटी जा रही थीं... आज वह... क्या अंतर था?
"लो जगदीश ने बेटी के ब्याह का फर्ज पूरा कर दिया"। हाथ में गुलाबी रंग का कागज हिलाती बुआ आई थीं, "बधाई का तार भेजा है इटली से।"
मां ने नजरें उठाकर भी नहीं देखा जिस टेबिल पर बधाई तार पड़ा था उसी पर पंडित हलवाई लड्डुओं से भरा टोकरा रख गया। बस हल्का-सा गुलाबी कागज बाहर झांक रहा था।
"लो आ गए हरीश भी।"
बुआ ने दूसरा समाचार सुनाया। माँ अन्मयस्क हो उठीं। जल्दी से आंचल को सिर पर ढका और दूसरे कमरे में उतनी ही खामोशी से खिसक लीं।
"अरे! इतनी बड़ी हो गई हमारी बेटी." वे चहक कर उसकी तरफ बढ़े और वह भरपूर उनसे लिपट कर रोने लगी। वे पितृतुल्य उसे अपने चौड़े सीने में लपेटे रो रहे थे और कह रहे थे-"अरी, पगली रोती है... देख! यह दिन तो हर लड़की की ज़िन्दगी में आता ही है... फिर अपनी माँ की तरफ देख... उसने जगदीश का फर्ज पूरा किया है आज।"
माँ न जाने कब टेबिल के पास आकर खड़ी हो गई थीं और लड्डुओं के टोकरे पर चमकीली पन्नी चढ़ाने लगी थीं।
"यहाँ तो लगता है सारी तैयारी हो चुकी है, शायद हम ही बहुत देर से पहुंचे।"
मां ने बगैर नजरें उठाए ही कहा था-"नहीं अभी सारी तैयारी कहाँ हुई?"
बुआ ने आकर माँ को टोका था, "यह क्या निम्मो, इतनी दूर से हरीश आए हैं, न चाय... न नहाने का पानी।"
"हाँ! हाँ!" मां फिर अव्यवस्थित हो गई थीं। उन्होंने भर नजर भी नहीं देखा था हरीश अंकल की ओर।
वह आखिरी रात थी माँ के साथ उसकी, जब उसने लेटे हुए माँ की कमर में हाथ डाल दिया था।
चार साल पीछे छोड़ा प्रश्न आज भी वैसा ही उसके समक्ष खड़ा था। फैसला उसे ही करना था।
"मां, कैसे रहोगी तुम अकेली?"
"मेहंदी बहुत सुर्ख रची है न मिन्नी?"
उन्होंने उसके हाथों को सहलाते हुए कहा।
"मां! बात को टालो नहीं।"
उन्होंने एक गहरी सांस खींची थी जैसे अंधे कुएँ से निकला कोई वाक्य हो-"
"मिन्नी! मेरी चिंता मत करो... किसी के हिस्से में ईश्वर सुख देना भूल ही जाता है..." फिर एक सोने का बहाना... फिर अपराधी वह... एक दीर्घ चुप्पी... फिर अपनी कारागार में कैद मां... क्यों माँ को किसी के उत्तर की प्रतीक्षा थी... क्यों उन्होंने फैसला उस पर छोड़ा था... और वह पीछे छोड़े चार वर्ष... जिसकी हवा में तब सांस लेना भी मुश्किल लगा था उसे... स्पष्टत: माँ जाग रही थीं... कि मिन्नी उठे... और आंचल भर दे उनका खुशियों से... वह ऐसा कर भी सकती है... लेकिन वे क्या अब मानेंगी? क्या बिगड़ा था? चार ही वर्ष तो बीते थे... जानने समझने को चार वर्ष... शायद तब का निर्णय माँ के प्रति घृणा भर देता... लेकिन आज... आज जब वह वही सब कुछ कहना चाह रही है तो वे मानों कुछ सुनना ही नहीं चाहतीं... आज वे सचमुच संगमरमर की मूर्ति बन गई हैं... जो चार साल पहले प्रदर्शनी में देखी थी... अडोल, जी चाहा झकझोर दूं... क्यों अपने को अवहेलित करती हो मां... जीने का हक तुम्हें तब भी था... आज भी है... फिर क्यों अनिर्णीत रहती हो... क्यों सहारा ढूंढ़ती हो कि कोई तुम्हारे भाग्य का फैसला करे... और तुम उस धारा में बह चलो... तुम्हारा अपना कोई प्रवाह नहीं है मां... जिधर धारा बही तुम बहीं... क्यों सजा देती हो अपने को...
मां!
क्या है मिन्नी? सो जाओ.
हरीश अंकल सुबह चार बजे जाग पड़े। और, ऐसे काम में जुटे कि न नाश्ते का होश न चाय का। भागते-भागते बुआ की जिद पर दो कौर खाए होंगे। स्पष्ट दिख रहा था कि बेटी ब्याहना इतना सरल काम तो नहीं। उन्हें देखकर माँ के अंदर भी नई स्फूर्ति ने जन्म ले लिया था। भाग-भाग कर वे काम में जुटी हुई थीं।
शाम को बारात दरवाजे पर थी। हरीश अंकल यूं आधे-आधे झुके जा रहे थे जैसे एक पिता लड़के वाले के समक्ष... देखिए कुछ रह तो नहीं गया... इतनी लगन...अपनों के प्रति समर्पण... कि माँ पीछे रह गर्इं। आगे थे वही... विदाई का क्षण निकट था। विदाई की इस बेला में माँ फिर वही सफेद... जैसी तब... जब पापा उन्हें छोड़कर जा रहे थे... उसके गालों पर निरंतर ढलकते आंसू... माँ से लिपट कर रोते हुए जब काफी देर हो चुकी तो उन्होंने ही आकर उसे अपनी तरफ घसीटा था।
एक मौन... पसरा पड़ा था। केवल सिसकियों की आवाज थी। उसने माँ की तरफ इशारा किया तो पुन: उन्होंने उसे अपने सीने से लगा लिया था मानो कह रही हों... मैं तो हूँ ना मिन्नी... जिस बात की स्वीकृति उसे चार वर्ष पूर्व देनी थी, आज वह दे पा रही थी... उसकी आंखों की मौन भाषा को वे ही पढ़ सकती थीं... माँ क्यों कोई आड़ लेती हो, क्यों अपने प्राप्य को गले नहीं लगातीं... बुआ चुप थीं... माँ चुप थीं... वे चुप थे... शायद समय थम-सा गया था... नहीं, मां! आज कोई कारागार तुम्हें कैद नहीं करेगा... तुम्हें जीना है मां... जीना है... वह भागकर पुन: माँ से आकर लिपट गई. फिर उनकी तरफ इशारा किया... मानो कह रही हो कि चार साल लग गए इस व्यक्ति को पिता रूप में स्वीकारने में... माँ ने पुन: उसे भींचकर लिपटा लिया और कानों के पास बुदबुदायीं... नहीं मिन्नी नहीं... अब वह सब संभव नहीं... अब तो मेरा अकेलापन ही मेरी नियति है। तुम फूलो-फलो इसी चाहत में मेरे पल छिन समर्पित रहेंगे... और डबडबायी आंखों से विदा होती मिन्नी देख रही है... कारा के पट खुल रहे हैं और माँ उसमें समाती जा रही है... अतीत, वर्तमान, भविष्य सब एक सूक्ष्म परछार्इं बन गए हैं... यह परछार्इं माँ की है और वह फूट-फूट कर रो पड़ी।