नहीं, मैं दलित नहीं / जिंदर / सुभाष नीरव
मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बना रहा हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्लोजिंग बैलेंस पर आकर मैं बार बार क्यों गलती कर जाता हूँ।
'हानि' वाले कॉलम भरते हुए मेरे मन में आता है कि मैं अपने आप को गालियाँ बकूँ। कमीना, घटिया और अन्य अपशब्दों से अपने आप को संबोधित करूँ। मॉर्क्स के चित्र के सामने हाथ जोड़कर सिर निवा कर कहूँ, "सर्वोत्तम पुरुष, मुझे माफ़ कर दो। मुझे किस तरफ जाना था। मेरी मंज़िल क्या थी। मैं किसी तरफ चल पड़ा हूँ। अब तुम ही बताओ, क्या मेरे पास कोई और विकल्प नहीं रहा? क्या यही एकमात्र रास्ता बचा है?" पता नहीं, किस तरफ से बार बार एक आवाज़ आती है, 'आदमी के अंदर से उसकी जात नहीं जाती। संस्कार नहीं मरते।' अब मैं इस आवाज़ को क्या जवाब दूँ। यही कि मैंने तो कभी अपनी जाति के बारे में सोचा ही नहीं था। मेरा इस तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया था। मेरे दोस्तों के घेरे में अपरकास्ट वाले भी थे और दलित भाई भी। मेरे लिए सभी साथी थे। मेरे अपने।
पचास वर्ष की उम्र तक मैं वर्ग-चेतना, संघर्ष, बुर्जुआ, पैटी बुर्जुआ, सर्वहारा व्यवहार में उलझा रहा हूँ। अब मुझे वर्ण चेतना, दलित चेतना, चिंतन, दलित जातियाँ तंग करने लगी हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि अंदरखाते मैं दूसरी जातियों को कुछ कुछ नफ़रत करने लगा हूँ। क्या यह रूप लाल का असर है जो मुझे नित्य समझाता रहता है, "ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अरोड़ों, जट्टों ने हमारे साथ बहुत भेदभाव किया। बहुत ही ज्यादा। तू अपना पास्ट देख। भविष्य की ओर झाँक। गाँव में जाकर देख, हमारी वैल्यू कितनी है। हम आज भी उन लोगों के लिए चूहड़े-चमार हैं। मेरा एक कुलीग है। जसवंत। गोहीरां गाँव का। उनके गाँव का एक विलैतिया बीस सालों बाद गाँव आया था। उसने आते ही कोठी बनानी आरंभ कर दी। जसवंत ने उससे कहा, 'तेरे तीनों बेटों में से किसी ने आकर यहाँ नहीं रहना। यूँ ही व्यर्थ में चालीस-पचास लाख खर्च करने की क्या तुक है। कोई अस्पताल या कोई यादगार बना जा।' विलैतिये ने जसवंत की ओर घूर कर देखा और बोला, 'तेरी तो बातें उल्टी ही रहीं। गाँव में तो चूहड़े-चमार कोठियाँ बनाए जा रही हैं, हम गाँव के मालिक हैं। ज़मीन-जायदादों वाले।' देख ले, इन लोगों की नफ़रत की हद...।" मेरा बेटा सतीश मेरा गुरू बन जाता है, "यह कंप्यूटर का युग है जहाँ हर संबंध और हर आदमी की कीमत महज मुनाफ़ा है। जिसने इस बात को समझ लिया, वही कामयाब होगा। अब हमारा फ़ायदा मायावती जी के साथ जुड़ने में है। दूसरी बात, हमें अपनी जाति के बारे में और अपने लोगों के बारे में भी सचेत होने की ज़रूरत है। डैडी जी, बी प्रैक्टीकल। पंजाब में हमारी कितनी आबादी है, बताओ कभी हमारी जाति का सी.एम. बना। आप पहले अपने पास्ट को देखो, फिर भविष्य को जानना। आप अपने डिपार्टमेंट में बैलेंसशीट बनाने में माहिर हो, अब अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बनाकर देखो। कामरेडों के साथ जुड़कर क्या कमाया और क्या गँवाया।" सीबो कहती है, "मुझे तो अब समझ में आया है। अपने अपने ही होते हैं। कल मुझे सैर करते हुए सत्या मिली थी। वह कहती थी कि हम महीने में एक बार किट्टी पार्टी रखा करें जिसमें अपनी बिरादरी की ही औरतें शामिल हों।" भापा जी अपना ज्ञान झाड़ते हैं, "तूने कामरेड बनकर क्या कर लिया। अब बहुजन समाज पार्टी में आ जा। महिंदर मुझे कह रहा था कि प्यारे को मना लो। वह रिटायरमेंट पर बैठा है। हम उसे काउंसलर की सीट पर खड़ा कर देंगे। उसकी जीत निश्चित है। अपनी बिरादरी की वोटें तो लोहे जैसी पक्की है। अब तू सयाना बन। अपने मूल को पहचान। मुझे खुद अब समझ में आया है कि यहाँ आदमी का मूल्य उसकी जाति की बदौलत पड़ता है।"
मेरे अंदर अपने मूल को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है। यह कभी बहुत ही तीव्र हो जाती है, कभी मद्धम पड़ जाती है। मैं उस समय परेशान होता हूँ जब मेरे अंदर बैठा कामरेड मेरे होंठों पर अपना खुरदरा हाथ रखकर चीखता है, "ओए मूर्ख, अक्ल कर। तू किस तरफ चल पड़ा। कोई ढंग का काम कर। इतना निराश नहीं होते। कोई भी पार्टी एक या दो व्यक्तियों की मिल्कियत नहीं हुआ करती। चल उठ, शेर बन जा। नहीं तो देख ले, सुरजन संधू जैसे लोग कहेंगे - कर दी न चमारों वाली बात।" इसकी कहे हुए पिछले वाक्य पर मैं परेशान हो जाता हूँ। जी करता है कि अपने अंदर बैठे कामरेड का गला घोंट दूँ। अभी तक मैं इसका गला नहीं घोंट पाया। लेकिन घोंटने की ख्वाहिश बरकरार है। मैं इसे मारकर सुखी हो सकता हूँ। इससे डरता भी हूँ कि कहीं यह ही मुझे न मार दे।
अचानक मेरे सामने बाबा हरनाम सिंह कालासंघिया का चेहरा प्रगट होता है। बाबा हरनाम सिंह वल्द सुंदर सिंह, गाँव-कालासंघिया। देशभक्त। वह कहता है, "तू क्यों किसी की परवाह करता है? जो तेरे मन को अच्छा लगता है, वही कर। पार्टी की ज्यादा परवाह नहीं किया करते। मेरी तरफ देख, मुझे भी सोहन सिंह भकना और रूड़ सिंह चूहड़चक ने पार्टी में से निकाल दिया था। इस कारण कि मैंने पार्टी का हुक्म नहीं माना था। मेरी कुर्बानी देख, मैं पिंजरे में डाल दिया गया। मैंने सवा मन अनाज पीसा, चींटियों और सुंडियों वाला आटा खाया, गोरों की अंधी सख्ताई झेली। मैंने अपनी जवानी बर्बाद की। दोनों बेटे मर गए। पर मैंने हार नहीं मानी। तू अच्छे काम कर। समय तेरा साथ देगा। समझा, मेरी बात?"
समझता तो मैं सब कुछ हूँ परंतु आत्मा और मन के बीच का द्वंद्व-युद्ध मेरा कोई वश नहीं चलने देता।
ज़िंदगी में कुछ पूरी तरह मरता क्यों नहीं? मेरे मन पर ये विचार भारी होने लगे हैं। जब मैं अकेला होता हूँ, उस समय मैं बहुत ज्यादा सोचता हूँ। जैसे अब की मेरी अवस्था है। सतीश ने मुझसे कल पूछा था, "आपकी ज़िंदगी की बैलेंसशीट कहाँ तक पहुँची है?"
अब मैंने एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ की है। इसबार एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। यहाँ मुझे छूट होती थी कि मैं जैसे चाहूँ, रकमों को इधर-उधर कर सकता था। मुझे पता होता था कि मुझे इसे कैसे फाइनल टच देना था। लेकिन मुझसे अपनी बैलेंसशीट बनाते हुए गड़बड़ हो गई है। 'लाभ' वाले हिस्से पर कामरेड भारी है। मैं अपने फायदे को लेकर कुछ अधिक ही सोच रहा हूँ। मुझे यह बैलेंसशीट भी अधूरी लगती है। मैं कागज दूर फेंक देता हूँ। दिमाग का नाड़ी तंत्र पीछे की ओर दौड़ता है। कभी आगे ही भागता जाता है।
एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ करता हूँ। इस बार लिखता हूँ - हानि। कामरेड। लाभ। दलित। 'लाभ' वाले हिस्से में मुझसे बार बार दलित लिखा जाता है। मैं अकाउंटिंग विधि त्यागकर डैरीएटिव विधि का प्रयोग करता हूँ। सोचता हूँ कि मैं अपना ध्यान 'हानि' पर क्यों केंद्रित कर रहा हूँ। हानि पार्टी के संग जुड़ जाती है। क्या मेरे साथ भेदभाव सिर्फ़ मेरी जाति के कारण ही हुआ है। बहुत कुछ और है जिसकी तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता। मुझे अपने कुलीग जसविंदर जिससे मैंने बैलेंसशीट बनानी सीखी थी, का कहा याद आतेा है, "बैलेंसशीट में कुछ फिगरें अपनी ओर से भी डालनी पड़ती हैं। इसे एडजस्टमेंट अकाउंट कहते हैं। इसके बग़ैर बैलेंसशीट नहीं बन सकती।" मुझे लगता है कि यही कुछ ज़िंदगी में भी घटित होता है। एक बार फिर मैं एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। शायद यहीं मेरे अंदर की नफ़रत विराट रूप धारण करने लगी है।
'वियाना कांड' के कारण पिछले दो दिनों से भिन्न भिन्न चैनलों से दलितों से संबंधित कई विशेष प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं। 'स्टार न्यूज़' ने दलितों के विषय में एक पुरानी रिकार्डिंग दिखाई थी। चंद्रभान प्रसाद ने बताया था, "मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना आज़ादी के बाद भारत के इतिहास की अहम घटना है। यह दलितों के लिखित इतिहास में दर्ज़ तीसरी अहम घटना है जब एक दलित को इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचने और अगुवाई करने का गर्व हासिल हुआ। पहली घटना यह थी कि संत रविदास ने तर्क के आधार पर बनारस के ब्राह्मणों को हरा दिया था। यह बात शास्त्रों में दर्ज़ है। दूसरी अहम घटना डॉ. अंबेडकर का भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी का चेयरमैन बनना था। इसी तरह जब मायावती भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बनी तो उसने दिखा दिया कि एक दलित भी लीडर की भूमिका निभा सकता है। इसने भारतीयों की अंतरात्मा को भी झिंझोड़ा। उसने आख़िर यह दर्शा दिया कि एक दलित पर पूरा भरोसा किया जा सकता है और एक दलित, दलितों और ग़ैर-दलितों दोनों की अगुवाई कर सकता है।" फिर टी.वी. स्क्रीन पर के.आर. नारायण की बहन के.आर. गोवरी का चेहरा प्रगट हुआ था। उन्होंने के.आर. नारायण के विषय में बताना आरंभ किया था, "हमारे भाईचारे का कोई व्यक्ति तो यहाँ तक पहुँचने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वह बहुत पढ़ाकू था। अंग्रेजी सरकार के समय दलित विद्यार्थियों को वजीफा नहीं मिलता था। हम सख़्त मेहनत करके पढ़े। जब लोग मेरे भाई द्वारा भिन्न भिन्न पदों जैसे कि सफीर, केंद्रीय राज्य मंत्री, उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पद हासिल करने के बारे में बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि लोग सोचते हैं कि एक दलित होने के कारण ही शायद उन्हें कोई लाभ मिला और वे इन पदों तक पहुँचे, पर यह सच नहीं है। उन्होंने जो भी पद हासिल किया, वह अपनी योग्यता के बलबूते पर हासिल किया।" ...तभी रमन आया था। अपना होमवर्क करने। वह ज्यादा झुककर लिखता। मैं उसे पकड़कर सीधा बिठाता। वह पुनः पहली वाली स्थिति में बैठ जाता। उसे अंग्रेजी के 'जी' अक्षर को घुमाव देना नहीं आता था। मैं समझाता। वह फिर गलती कर जाता। पाँच-सात बार ऐसा हुआ। फिर उसे घुमाव देना आ गया। करीब आधे घंटे बाद वह मेरी टाँग पर सिर रखकर लेट गया। थक गया होगा। मैंने उसकी ओर से फुर्सत पाकर सामने रैक में पड़ी काशीराम की किताबों, कैसेटों, वीडियों कैसेटों जो कि पिछले महीने सतीश दिल्ली से खरीदकर लाया था, की ओर ऊपरी नज़र दौड़ाई। लेनिन की मूर्ति की ओर श्रद्धा भाव से देखा।
मैं रुक-रुक कर वॉल क्लॉक की ओर देखता हूँ। सीबो अभी तक लौटी नहीं। मैंने उसे बाहर जाने से रोका था। पिछले दो दिनों से हमारी ओर के हिस्से में कर्फ्यू लगा हुआ है। शहर में तनाव है। लूटपाट और आगजनी की अनेक वारदातें हुई हैं। पर उसने मेरी बात नहीं मानी थी। यह कह गई थी, "मुझ बूढ़ी ठेरी को किसी ने क्या कहना है।" क्या मालूम वह वीना की ओर चली गई हो। उसके मूड का भी कोई पता नहीं चलता।
मैं 'हानि' वाले पन्ने पर लिखना आरंभ करता हूँ।
कि राज तो अब कंजरों दलितों का हो गया है
तो मेरे अंदर क्रोध उबलने लग पड़ता है, कामरेड
और जी करता है
तुझे झिंझोड़कर कहूँ
मेरे पास तेरी पार्टी का कोई कार्ड न सही।
मेरे पास तो पार्टी का कार्ड था। मेरा विरोध सुरजन संघू ने किया था। उसने मुझे गाली देकर कहा था, "तुम चमारों को पार्टी की क्या समझ है।" रोकते रोकते मेरे अंदर से गाली निकल जाती है, "..." मैंने तो पार्टी की ख़ातिर ससुराल वालों से भी बिगाड़ ली थी। मेरे ससुर ने जगदीश को दुकान किराए पर दे दी थी। वह खुद इंग्लैंड रहता था। यह दुकान भी मैंने स्वयं जगदीश को लेकर दी थी। करीब दो साल बाद जगदीश ने चौबारे पर एक तरह से कब्ज़ा ही कर लिया था। मेरा जगदीश के पास रोज़ का आना-जाना था। मेरे ससुर का फोन आया तो मैंने जगदीश को इस बारे में बताया था। जगदीश ने मेरी बात को अनसुना कर दिया था। दो वर्ष बाद मेरा ससुर आया तो उसने पाँच-सात प्रतिष्ठित व्यक्तियों को संग लेकर जगदीश को चौबारा खाली करने के लिए कहा था। बात न बनती देख कर वह थाने चला गया था। मैं अपनी पार्टी वालों के संग थाने गया था। मैं ससुराल वालों के संग नहीं, अपनी पार्टी के संग खड़ा था। मुझे ससुराल से अधिक पार्टी प्यारी थी। मेरे ससुर ने कोर्ट में केस कर दिया था। इस केस से जगदीश और पार्टी मेंबर परेशान थे। उनका मेरे प्रति व्यवहार बदल गया था। उन्हें लगा था कि मैं उनके साथ नहीं हूँ। उधर ससुर अलग गुस्से में था कि मैंने उसका साथ नहीं दिया। जगदीश और अन्य पार्टी मेंबरों ने मेरे से मुँह मोड़ लिया था। मैंने जगदीश के सामने अपना गिला जाहिर किया था, "मैं इतनी जल्दी पार्टी नहीं छोड़ने वाला।" जगदीश के पास बैठे सुरजन संधू ने कहा था, "तेरे जैसे वर्करों की पार्टी को ज़रूरत नहीं। तू जानता नहीं यह दुकान पार्टी के लिए कितनी फायदेमंद है। बता, कोई दूसरी दुकान हो सकती है। तू अपने ससुर को समझा नहीं सकता, लोगों को क्या समझाएगा।"
लॉबी में से आवाज़ आती है। सतीश और राजविंदर सैर करके लौट आए हैं। अब सतीश भापा जी के पास बैठेगा। राजविंदर रोटी-पानी का प्रबंध करेगी। सतीश भापा जी के पास बैठ कोई एक बात छेड़ लेगा या उन्हें याद करवाएगा। उसने भापा जी को अपने पीछे लगा लिया है। भापा जी ने रविदास भगत की बड़ी-सी फोटो ड्राइंग रूम में लगवाई है। इसे वे बूटा मंडी के मेले में से खरीदकर लाए थे। उन्होंने तो गुरू रविदास जी के जन्म दिवस पर पूरी कोठी में बिजली वाली लड़ियाँ लगवाई थीं। पिछले हफ़्ते सतीश ने भापा जी को बताया था, "हम कुछ दोस्तों ने प्लैनिंग की है कि एक ऐसा चैनल शुरू किया जाए जहाँ चौबीस घंटे गुरु रविदास जी की बाणी का प्रसारण हो। अगर हिंदू या सिक्खों के चैनल शुरू हो सकते हैं तो हमारे गुरु के क्यों नहीं। बस, अब फाइनेंनशियल प्रॉब्लम्स हैं, जिस दिन ये सोल्व हो गईं, फिर देखना हमारी शक्ति।"
मुझे इनकी कई बातें अजीब लगती हैं। पर फिर भी मैं उनमें शामिल होना चाहता हूँ। कई बार गया था। आधा घंटा बैठा था। इन्हें मेरी मौजूदगी चुभी थी। मैं उठकर आ गया था। किसी ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था। अब जब ये दोनों इकट्ठे बैठे हों, मैं उनके पास नहीं जाता। इन्होंने कभी नहीं कहा कि तू भी हमारे पास आकर बैठ जाया कर। अपनी अच्छी-बुरी राय दे दिया कर। मन हल्का हो जाएगा। शाम को मैं लॉन में चटाई बिछाकर बैठा होऊँ तो सतीश मेरे पास आ खड़ा होता है। दो घड़ी के लिए। खड़े-खड़े ही बातें करता है। जैसे इन पलों में मैं उसका बाप होऊँ। आगे-पीछे आँख बचाकर निकल जाता है। सवेरे मैं सबसे पहले उठता हूँ। दो कप चाय के बनाता हूँ। अपने लिए फीकी चाय। भापा जी के लिए तेज़ मीठे वाली। तब तक वह पाठ कर चुके होते हैं। वह बैड से पीठ टिका लेते हैं। लिफाफे में से दो रस निकालते हैं। एक मुझे देते हैं, दूसरा स्वयं चाय में डुबो डुबो कर खाने लगते हैं। वह कहते हैं, "कामरेड, जा लॉन में ही सैर कर आ। दो घड़ी ताज़ी हवा मिल जाएगी। फिर फ्रंट वालों के अख़बार पढ़ लेना। इसके बग़ैर तुझे खुलकर टट्टी नहीं उतरेगी।" वह अभी भी मुझे कामरेड कहकर बुलाते हैं। शायद वह मुझे पसंद नहीं करते। उन्हें मेरा कामरेड वाला रूप कतई पसंद नहीं था। कह देते थे, "कामरेड बनकर तूने क्या खट लिया? हमारी पार्टी में शामिल हो जा। इसी बात में तेरा फायदा है। सतीश की बातें ध्यान से सुना कर।"
जब सुरजन संधू ने मुझे इग्नोर करना शुरू कर दिया तो मुझे बहुत कुछ भूला-बिसरा याद आने लगा था। मैं गाँव जाता तो मुझे कई बातें तंग करती थीं। विशेष कर यह बात... बीबी को ज्वाले के बूढ़े ने मेंढ़ पर से घास खोदने से हटाया था और चाँटा मारकर बोला था, "ले, रामू ने भैंसें तो दो दो रख लीं, अब हमारी मेंढ़ें सफाचट करने के लिए हैं। ज्यादा ही शौक है तो मोल के पट्ठे डाले।" उसने बीबी द्वारा खोदा हुआ घास भी रखवा लिया था। बीबी घर आकर बहुत कलपी थी। मैंने उसे इतनी ऊँची आवाज़ में बोलते हुए पहली बार सुना था। उसके अंदर इतना गुस्सा समाया हुआ था। पता नहीं लग रहा था कि वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए क्या से क्या बोले जा रही थी। मैंने तो यही समझा था कि अब वह घास खोदने नहीं जाएगी। आगे से भापा जी ने चुप्पी साध रखी थी। वह गर्दन झुका कर ज़मीन पर लकीरें खींचने लगे थे। मैं उन्हें गरीब और असहाय देख रहा था। उस रात मुझे नींद नहीं आई थी।
मैंने यह घटना अपने साथी गुरमेल को बताई थी। उसने मुझे समझाने के लिए कहा था, "हमें छोटी-छोटी बातों के पीछे नहीं जाना है। हमारे लिए पार्टी पहले है। व्यक्ति बाद में।" फिर उसने मुझे एक पेपर पढ़ने के लिए दिया था। इसमें गढ़शंकर के निकट गाँव खेड़ा में रहते बाबू राम चंद की आपबीती छपी थी। उसने लिखा था, "एक बार मैं जंगल-पानी गया। वहाँ बाहर कुएँ पर हाथ धोने लगा तो मेरे पीछे से आकर फुम्मण सिंह ने जो जाति से महतो थो, मेरे पाँच-सात थप्पड़ जड़ दिए। गालियाँ बकीं। कहा - साले, हमारा कुआँ भ्रष्ट कर दिया। मैं तब दूसरी कक्षा में पढ़ता था। उस समय इंस्पेक्टर परीक्षा लेने के लिए आए। उन्होंने प्रश्न किया कि एक व्यापारी ने उन्नीस टोपियाँ खरीदीं। सवा-सवा आने की। उसने दुकानदार को डेढ़ रुपया दिया। दुकानदार उसे क्या लौटाये, क्या नहीं। उस वक्त पहाड़े हुआ करते थे - आधा, पौना, सवाया, डेढ़ा। उन दिनों हमारे पास स्लेटें, तख्तियाँ हुआ करती थीं। मैंने सवाल करके स्लेट एक तरफ उल्टी करके रख दी। शेष लड़कों ने भी अपनी अपनी स्लेटें उल्टाकर रख दीं। इंस्पेक्टर ने उनकी स्लेटें देखीं। काटे मारकर वैसे ही ढेर लगा दिया। फिर उसने मेरी स्लेट उठाई। उसने पूछा कि यह किसकी स्लेट है? मैं खड़ा हो गया। उसने मुझे अपने पास बुलाया और शाबाशी दी। उसी समय फुम्मण सिंह जिसने मुझे थप्पड़ मारे थे, वह भी वहीं आ गया। कहने लगा कि हट परे, यह तो चमार है। इंस्पेक्टर ने कहा कि ये जो स्लेटों का ढेर पड़ा है, इसे ईंट मारकर तोड़ दो। जिसे तुम चमार कहते हो, उस चमार की समझ के आगे तुम सब राजपूत बौने हो। उसने मुझे ईनाम के तौर पर पाँच रुपये दिए। फिर मैंने उन्हें बताया कि ये हमें पोखर में अपनी तख्तियाँ भी धोने नहीं देते तो डविडे रिहाणे के एक मुंशी राधेश्याम ने कहा कि इस बारे में रिपोर्ट दो। रिपोर्ट दी। थानेदार आ गया। सारा गाँव एकत्र हुआ। फिर राजपूतों ने हमसे भरी सभा में माफ़ी माँगी। गुरमेल द्वारा समझाने पर मैं पार्टी की मीटिंग में शामिल होने लगा था।
मुझे इस बात का नहीं पता कि उन्होंने अपनी कथा कहाँ से शुरू की थी। जब मैंने उठकर खिड़की से कान लगाए तो भापा जी कह रहे थे, "गाँव के स्कूल में एक मास्टर हुआ करता था। उसका नाम लालचंद था। गुणी ज्ञानी बंदा। दो वक्त रब का नाम लेने वाला। फारसी पढ़ाता था। न शराब पीता, न शराब पीने वाले के करीब बैठता। न मीट को हाथ लगाता। छिपकर चोरी से सिगरेट पीता। एक बार सोहण वलैतिये ने स्कूल में दो कमरे बनवाने शुरू किए। मैं वहाँ दिहाड़ियाँ किया करता था। मेरी लालचंद के साथ सिगरेट पीने की लत पड़ गई। वह बहुत समझदार बातें किया करता। कई गहरी बातें बताता। एक दिन मुझे बताने लगा, "रामू तुम पूशा की औलाद हो।" मुझे उसकी इस नई घुंडी का पता न लगा। यह कौन से पूशे की बात कर रहा है। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन मुझे उस पर इतना यकीन अवश्य था कि वह मेरे आगे कोई झूठी बात नहीं करता। वह बेधड़क किस्म का व्यक्ति था। सच बात कहते समय आगा-पीछा नहीं देखता था। ले, अब जो घुंडी उसने मेरे सामने खोली थी, तुझे उसके बारे में बताता हूँ। पहले ब्रह्म अकेला था। कोई जात पात नहीं थी। कोई वर्ण-अवर्ण नहीं था। कोई ऊँच नहीं था, कोई नीच नहीं था। उस हालत में उस अलौकिक शक्ति ने अपना रूप फैलाया। क्षत्रियपन विकसित किया। इंदर, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और सूरज आदि आदि क्षत्रीय देवता पैदा किए। अब बहुत कुछ और भी चाहिए था। व्यापार की आवश्यकता था। फिर उसने वैश्य जाति के वशू, आदित्य और मारुत देवताओं की सृजना की। लेकिन इससे भी संपूर्णता नहीं मिली। मेहनतकशों की फौजें भी चाहिए थीं। इनके बग़ैर संसार कैसे चलता। आख़िर में उसने शूद्र वर्ण के देवता पूशे का सृजन किया।..."
भापा जी की सारी उम्र तो 'सार जी' 'सार जी' कहते हुए गुजरी थी। अब पिछली उम्र में आकर अपनी जाति का पता लगा है। वह कांशी राम और मायावती के भाषणों को उसी एकाग्रता से सुनते हैं जैसे कोई गुरबाणी या भजन सुनता है।
सतीश ने बताया था, "बाबा जी, ये सब मनगढ़ंत बातें हैं। मिथ हैं। इसमें कोई भी बात सच नहीं। ब्राह्मणों ने कूड़ा फैलाया हुआ है। इन्होंने हमें इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि इनमें से निकलने के लिए कई दशक लग जाएँगे। पुराने समय में कई शूद्र मंत्री हुए हैं। इतिहासकारों ने कभी उनका जिक्र तक नहीं किया। कभी समानता का दर्जा नहीं दिया। यह बहुत लंबी कथा है। ...हमारे लोगों को सचेत करने के लिए अंबेडकर के बाद कांशीराम और बहन मायावती का बहुत बड़ा रोल है। यह जो परिवर्तन आया है, यह हमारी राजनीतिक शक्ति, वोटों के कारण आया है। जिसने बता दिया है कि दलित वोटों के बग़ैर कोई भी पार्टी कामयाब नहीं हो सकती। ...आपके समय में हमारे लोगों को कमजात, कुत्ती जात, जूठ, कम्मी, कुतीड़ कहा जाता था। अब हमारे वक्त में भी चमार, डी.एस. फोर, कोटे वाले, दलित आदि कई नाम दिए गए हैं। इन दिनों दलित शब्द ज्यादा चल रहा है।"
राजविंदर की आवाज़ आई है, "डैडी जी, डैडी जी तुम्हारा फोन है।"
करीब आधे मिनट के लिए मैं सुन्न हुआ ज्यों का त्यों बैठा रहा मानो मुझे राजविंदर की आवाज़ सुनाई ही न दी हो।
राजविंदर की आवाज़ पुनः आई है, "डैडी जी, तुम कहाँ हो? तुम्हारा फोन है।"
मुझे जाना ही होगा।
फोन पर दिलबाग पूछता है, "कैसे हो दलित भाई?"
मुझे खिझाने के लिए ही वह रहा है।
"बता, शैतान की टूटी।"
"कहीं सीबो तेरे पास तो नहीं बैठी? तूने सारी उम्र जनानी से डरते हुए गुजार दी। उसने तुझे घुटनों के नीचे से निकलने नहीं दिया। सुन रहा है, मैं क्या कह रहा हूँ?"
"चल चल पंडित, कह जो कहना है।"
"मेरे बताए नुस्खे का क्या हुआ?"
"यह उसी से आकर पूछ लेना।"
"देख ले, मैं पूछ भी लूँगा। फिर न चड्डियों में पूँछ दबाकर दौड़ते रहना।"
"तूने कुछ और बकना है।"
"दलित भाई, गुस्से में क्यों बोलता है। मुझे पता चला कि अब तू भी मायावाती का पक्का चेला बन जाएगा।"
इसे कैसे पता चला कि मैं बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो रहा हूँ। ज़रूर सतीश ने बताया होगा या भापा जी ने बात की होगी। इसे पूरे घर की हर बात का पता होता है। पर मैंने तो अपने मन की बात किसी से साझा नहीं की। मन की गाँठें नहीं खोलीं।
"शहर में इतना इतना नुकसान करवा कर खुश हो?" वह गुस्से से कहता है।
मैं टेलीफोन काट देता हूँ।
अरे! यह क्या? बुक एडजस्टमेंट वाली सारी जगह पर उस बुज़ुर्ग का चेहरा फैलता जा रहा है। हाँ, यही बुज़ुर्ग है। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। भापा जी को भी अवश्य दर्शन देता होगा। इसलिए उन्होंने कोठी के पिछवाड़े दीवार में एक आला बनवाया था। बिलकुल एक कोने में। मुझसे डरते हुए उनका साहस अंदर बनाने का नहीं हुआ था। वह इतवार वाले दिन इसे धोते, सुच्चे कपड़े से साफ करते। फूल रखते। नतमस्तक होते। चिराग जलाते। काफ़ी पुरानी बात थी। एक दिन वह दिल्ली चले तो मुझे उन्होंने कहा था, "तू चिराग ज़रूर करना।" मुझसे इनकार न हो सका, पर मेरा मन बिलकुल भी इस तरफ नहीं गया। दूसरे दिन इतवार आ गया। घड़ी ने छह बजाये। मैं तेल की शीशी लेकर आले की तरफ जाता हुआ बहुत परेशानी महसूस कर रहा था। मन बार बार कह रहा था कि दो ईंटें उठाकर इसे बंद कर दूँ। असमंजस की स्थिति में मैंने दीया तेल से भर दिया। तीली जलाने के समय मेरे हाथ काँपे। उसी समय मुझे लगा मानो किसी ने कहा हो, "बड़े कामरेड! दरख़्त भी जड़ों बग़ैर नहीं होते। तू अपने बड़े-बुज़ुर्गों को ही भूल गया। कभी देखना, सोचना। मैं किन हालातों में जीता रहा हूँ।" अर्द्ध-चेतनावस्था की हालत में मैंने चिराग जलाया था। उसी रात वह बुज़ुर्ग पहली बार मुझे सपने में दिखाई दिया था।
हाँ, यही बुजुर्ग है। मेरा पूर्वज़। मैं उसके अंश में से हूँ। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। मैं देख रहा हूँ... धुंध तो पहले पहर की पड़नी शुरू हो गई थी। आगे चला जा रहा आदमी दिखाई नहीं देता। चुपचाप। जैसे सारी कायनात सोई पड़ी हो। गाँव की तरफ से कुम्हार की आवाज़ आई, "जवान, दौड़कर गधों के आगे हो जा। कहीं कोई ससुरा कुएँ में ही न गिर पड़े। इतनी ठंड में बाहर कौन निकालेगा।" सुनते ही बुज़ुर्ग खुलकर हँसा। वह मन में सोचने लगा, मैंने अपने होश में कभी गधा कुएँ में गिरता नहीं देखा। न ही सुना। इसके जानवर पेशावर से आए लगते हैं।
"ले, अब सो गया सैब बहादुर, ओए करमे, भैण के लक्कड़। सुस्त पड़ गया। ज़रा भरपूर झौका लगा तो।" जोगिंदर ने कड़ाहे में से पौनी से मैल निकालते हुए कहा, "पत्त उठने वाली समझ।"
करमे ने शहतूत के पेड़ की गुलेल से गन्ने के छिलके का बड़ा सा ढेर खींचा। आग को तेज कर दिया। लपटें बाहर को आईं। वह राम राम करता मुँह पर हाथ फेरने लगा।
दिन बीतते पता ही नहीं चला था। यह आज की पाँचवी और अंतिम पत्त (शीरा)थी।
"अब ऐसा करो। पहले ये टोकरे घर छोड़ आओ। भेलियाँ मैं खुद बना लूँगा।" जोगिंदर ने कहा तो करमे ने लँगोटी का घुटनों के बीच लटकता सिरा खोंसा, उबासी ली, खेस को लपेटा और कीकर पर से बींडी उतारकर टोकरे को आ हाथ डाला।
छिंदर करमे से काफ़ी आगे निकल गया था। जोगिंदर ने भारी टोकरा उसे उठवाया था। इस लालच में कि एक चक्कर बच जाएगा। वह चरागाह में पड़ती ईंखों में से निकलने लगा तो उसे भ्रम हुआ जैसे किसी के बोझ से ईंख का पूला टूटा हो। कड़क-सी आवाज़ आई थी। उसके सिर पर इतना भारी टोकरा था कि उसके लिए सिर घुमा कर ईंख की तरफ देखना भी बहुत कठिन था। उसके मन में आया कि उसे कोई टोकरा उतरवाने वाला मिल जाए तो वह देखे कि कौन-सा जानवर है। वह कुछ पल खड़ा रहा। अब आवाज़ नहीं आ रही थी। उसने एक हाथ की ओट करके आगे की ओर देखा, उसे आगे से छिंदर लौटता हुआ दिखाई दिया। दुविधा में ही वह आगे चल पड़ा। उसका साँस उखड़ा-उखड़ा रहा। वह अपने आप को परेशान सा महसूस करने लगा। अगले पल ही उतरती आती रात का ख़याल आते ही उसने अपनी चाल तेज़ कर दी।
दूसरे चक्कर पर मुड़ा तो उसे ईंख के कोने से आवाज़ आई। वह खड़ा हो गया। आवाज़ फिर आई, "बापू, मुझे यह गट्ठर उठवाना।" वह आवाज़ की दिशा में चल दिया। बोझ ने उसकी हालत बुरी कर रखी थी। जगीरो ने खोरी का गट्ठर अपने बूते से बाहर बाँध रखा था।
"तू थी मरजाणी।" करमे ने शक भरी नज़रों से उसे घूरा।
जगीरो की आवाज़ में घबराहट थी। उससे जगीरो की ओर अधिक देर देखा न गया। उसने गट्ठर को हाथ लगवाने की की। बेध्यानी में गट्ठर एक तरफ से खुल गई। जगीरो बोली, "दिन खराब होता जाता था। मैंने सोचा, दो गट्ठर लेती जाऊँ। एक तो मैं घर में फेंक आई हूँ।" करमा आगे से कुछ न बोला, पर उसके मन में यह ज़रूर आया था कि वह जगह देखकर आए जहाँ पूला टूटने की आवाज़ आई थी। उसके पैर उधर जाने की बजाय छिंदर की तीखी आवाज़ के पीछे बढ़े, "ओए बहनचोदे चमार... तूने खुद तो देर करनी ही होती है, मुझे भी संग टाँग लेता है।"
वापस आते हुए ईंख के पास आकर उसके पैर मन मन भारी होने लगे। उसके मन में तेज़ी से यह विचार आया, कहीं जगीरो तो नहीं थी? पीछे आते छिंदर की फट फट करती जूती की आवाज़ ने उसके पैरों में भी तेजी ला दी। उसे पता ही नहीं चला कि कब घर का आँगन पार कर आया। जगीरो ने फुर्ती से उसकी ओर बढ़ते हुए मैल के टोकरे को हाथ डाला। उसने उसकी तरफ अजीब नज़रों से देखा। मुँह से कुछ न बोला। वह डर गई। उसने अपनी घबराहट दबाकर कहा, "बापू, तू यूँ ही क्यों परेशान हुआ। मुझे बुला लेता।" प्रत्युत्तर में वह चुप रहा और सीधा दालान पार कर गया। चिंती रजाई में मुँह-सिर छिपाए पड़ी थी। वह उसके पैताने बैठ गया। वह कहना तो यह चाहता था कि सोने से पहले जगीरो से ईंख वाली बात पूछना, पर उसकी हिम्मत न पड़ी।
वह पूछने लगा, "कैसी है अब तेरी तबीयत?"
चिंती ने रजाई में से मुँह बाहर निकाला। उसे कँपकँपी के साथ ज़ोरों की खाँसी भी छिड़ी।
"पड़ी रह, पड़ी रह।" कहते हुए उसने चिंती की रजाई चारों तरफ से अच्छी प्रकार खोंस दी। पूछने लगा, "मैं केहरू से दोशांदा बनवा लाऊँ? उसी से तुझे आराम आएगा।"
"मैं कहीं नहीं मर चली। तू आराम से बैठ।" चिंती ने अपना आप सँभाला। हिम्मत की और दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गई।
जगीरो अंदर आई और पूछने लगी, "बेबे, मैल का क्या करना है?"
चिंती ने कहा, "पड़ी रहने दे।"
इन दिनों में चिंती का दमा कुछ अधिक ही बिगड़ गया था। वह खाट से लग गई थी। वैसे वह कहाँ टिककर बैठने वाली थी। तीनों घरों का गोबर-कूड़ा करती। भैंस के चारे के लिए भी बाहर अंदर आती-जाती।
"सवेर का कुछ खाया-पिया भी है कि नहीं?" जगीरो के जाने के बाद उसने पूछा।
चिंती ने उसकी ओर मोह भरी नज़रों से देखा। बताने लगी, "मुझे दोपहर के समय बेचैनी सी हुई थी। जगीरो तो लंबरदारों के गई थी। मैंने कहा - चल मन उठ। रात की रोटी पड़ी थी। मैंने रोटी को भूरा। लस्सी में नमक-मिर्चें डालीं। मुझे बड़ी स्वाद लगी।"
"तूने अब क्या खाना है?"
वह कहना तो कुछ और ही चाहती थी पर बोली, "जगीरो ने छोलों की दाल चढ़ा रखी है। उसके साथ दो रोटियाँ खा लो।"
उससे चिंती की तरफ देखा न गया।
रोटी खाकर उसने चारपाई पर लेटने की की। जगीरो वाली घटना ने कुछ समय तक उसे परेशान किया। फिर उसे अपने बुजुर्गों की नसीहत याद आ गई, "यह हमारी होनी है। पंचायत और पुलिस के पास शिकायत करके कुछ नहीं होगा।"
"डैडी जी, डैडी जी, डैडी जी," राजविंदर ने लगातार आवाज़े दीं थी पर मुझे कुछ भी नहीं सुनाई दिया था।
"डैडी जी... डैडी जी..." उसने मुझे झकझोरते हुए कहा है, "आप कहाँ खो गए?"
"कहीं भी नहीं।"
"सो तो नहीं गए थे?"
"सॉरी बेटे, आय एम रीयली सॉरी।"
"चलो, खाना खा लो।"
"मुझे तो अभी भूख ही नहीं।"
"जितनी है, उतना खा लो। चलो चलो उठो।"
"बेटा, तू मुझे यहीं दो फुलके ला दे।"
सीबो अभी तक नहीं लौटी। उसका कोई फोन भी नहीं आया। कहीं पुलिस ने न पकड़ लिया हो। पर पुलिस औरतों को तो कुछ नहीं कहती। लड़के भी नहीं कहते। क्या पता वह वीना के पास ही सो जाए। सवेर को सैर करती हुई लौट आएगी।
इतनी जल्दी तो मुझे नींद नहीं आने वाली। क्यों न दिलबाग को छेड़ूँ। पर यदि आगे से उसने कोई और घुंडी खोल दी तो मुझे गोली खाने के बाद भी नींद नहीं आएगी।
मैं दीवार से कान लगाकर भापा जी के कमरे का सुराग लेता हूँ। वे सो गए हैं।
मैं एक के बाद एक चैनल बदलता हूँ।
चवालीस नंबर पर 'आज तक' वाला प्रभु चावला मायावती से पूछ रहा है, "आपके यू.पी. के चुनाव जीतने के क्या कारण हैं?"
"मैंने ब्राह्मणों और मुसलमानों को संग लेकर चुनाव लड़ा। एस.सी. मिश्रा की ब्राह्मण वोटों को अपने साथ जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम वोटों की। मैंने छयासी ब्राह्मणों और स्वर्णों को कुल एक सौ चवालीस सीटों पर खड़ा किया था। मेरा नारा था - हाथी नहीं, गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। जै भीम, जै गणेश...।"
"आपका सपना क्या था?"
"मेरा सपना है बहुजन समाज, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा बहुजन समाज से जुड़े सिक्ख, मुसलमान, बौद्ध, पारसी और ईसाई भी शामिल हैं। ऊँची जाति के वे लोग भी शामिल हैं जिनकी सोच मनुवादी नहीं है। मैं आरंभ से मानवता में विश्वास करती हूँ। मैं गरीब, दबे-कुचले और शोषित वर्ग को समर्थ बनाना चाहती हूँ ताकि उनकी सुरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जा सकें।"
मुझे गुस्सा आने लगा है। मायावती भी कांग्रेस वाली बोली बोलने लग पड़ी है। इसने गरीबों का क्या भला करना है। मैं सिर को ज़ोर देकर झटके देता हूँ। मेरे मुँह से निकलता है - दुनियाभर के मेहनतकशो, एक हो जाओ। मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट पर मोटे मोट अक्षरों में लिखता हूँ : 'नहीं, मैं दलित नहीं हूँ।' यह कागज थामे सतीश के कमरे की ओर चल पड़ता हूँ, यह जानते हुए भी कि वह अब सो गया होगा।