नहीं रहना देश बिराने / उर्मिला शुक्ल
वह आज लौट रही है, अपने देश। वह विदेश में नहीं थी, जहॉं रहती थी वह भी इस विशाल देश का एक हिस्सा ही है। मगर उसकी दृष्टि में वह परदेश ही है। इसीलिए परदेश से देश लौटने की उसकी व्याकुलता भी उतनी ही गहरी थी, जितनी विदेश में रहने वाले व्यक्ति में हुआ करती है।
देश और विदेश अपने और परायेपन का पर्याय ही तो हैे। भौगोलिक सीमायें तो सिर्फ बाहरी मानक है। जहॉं अपनापन न हो, वही तो परदेश है। इसीलिए तो ‘अपन देसराज जाबो’ कहते हुए उसकी ऑंखें में अपनेपन की चमक उतर आती थी और उस चमक के बीच उभर आता था उसका अपना गॉंव परसदा; जो उसके लिए उसका अपना देश था।
तो आज मन्टोरा लौट रही है अपने देश। लौटती तो वह हर बार थी, मगर यह लौटना बिल्कुल अलग है। आज उसके चेहरे पर हर्ष नहीं, विषाद और क्षोभ की छाया गहरा जरूर गई है; मगर वह हताश नहीं है, इस बात का गवाह उसका चेहरा है जिस पर लिखी है एक इबारत- गुलामी से आजादी की ओर लौटने की इबारत।
रेल पटरियों पर आगे की ओर भाग रही थी और उसका मन पीछे। और बीच में बिखरे थे उसकी जिन्नगी के पन्ने, जिसे वह करीने से लगाना चाहती थी, मगर ऑंधी उन्हें उड़ाये जा रही थी ..... बेतरतीब पन्नों को सहेजती मन्टोरा देख रही थी अपना जीवन.....।
आने जाने का यह सिलसिला कब शुरू हुआ था, उसे ठीक ठीक याद भी नहीं, चार या पॉंच वर्ष की उम्र या उससे कुछ कम ज्यादा। उम्र का हिसाब नहीं जानती वह, और कोई भी हिसाब कहॉं जानती है वह, तभी तो ....। वह तो जानती है सिर्फ ईंट का सॉंचा और कच्ची मिट्टी की कोमलता। पकी ईटों पर लगनेवाला ’छापा’ भी कहॉं पहचानती थी वह। और आज भी कहॉं जानती है कि जो ईंटे वह बनाती थी उसका नाम और दाम क्या है ? अपनी मेहनत का दाम भी कहॉं जानती थी। और जब जाना भी तो ..... ? क्या कर पायी ..... ?
ऑंखों में उतर आया था ईंट-भट्ठा, मिट्टी सानते, ईंटें पाथते, भट्ठा तैयार कर उसमें आग लगाते और पकती ईंटों के साथ-साथ संॅवलाते असंख्य हाथ जिनकी कोमलता ओर लुनाई भट्ठे में ही झुलस कर रह गई थी ..... ! उन्हीं हाथों में जाने कब शामिल हो गये थे, उसके नन्हें हाथ। जाने कब ? किस क्षण उन हाथों का भी ठेका हो गया था ? कहॉं पकड़ पायी थी उस क्षण को .... ! कितना छल था उन बातों में ...
जिस मिट्टी से माँ-बाबू ईंटे बनाते, उसी मिट्टी से वह भी कुछ-कुछ गढ़ा करती थी, घर-घरौंदा गॉंव के उसके घर में फूदकने वाली ‘चिंया’ और ’मिट्ठू’। मगर पिंजरा नहीं, वह तो चाहती थी कि उसका मिट्ठू आसमान में उड़े। और उसे भी बताये कि आसमान कितना बड़ा है। कितना गहरा है उसका नीलापन, सोचते हुए आसमान का नीलापन उसकी ऑंखों में उतर आता था। मगर....।
अभी मिट्ठू के पॅंख उगे भी न थे कि मॉं-बाप की ऑंखों में सपने रोपता स्वर आया- ’’देख बाई ! इतनी बड़ी लड़की फालतू बैठी रहती है, दिन में चार ईंटे भी बनायेगी, तो मेरा काम भी होगा और तुम्हें कुछ पैसे और मिल जायेंगे। और यह खेलती भी रहेगी। आखिर मिट्टी से ही तो खेलती है न। खेल का खेल और पैसे के पैसे।’’
इस प्रकार हो गया था उसके हाथों का ठेका और गीली मिट्टी धीरे-धीरे कठोर होती चली गयी थी और फिर उसके हाथों में आ गया था ईंट पाथने का सॉंचा। नन्हें हाथों में लोहे का सॉंचा और ऑंखों में गीली मिट्टी से कोमल सपने लिये वह जिन्दगी का पाठ पढ़ने लगी थी। मगर मन उस नन्हें मन का क्या ? वह कभी भी उड़कर मिट्ठू के पास जा पहॅंुचता। मॉं समझाती तो मन को बलात खींचकर वह सॉंचे में लगाती मगर उस दिन उसका मन वहीं कही अटक सा गया था और उसके हाथ सॉंचा छोड़कर मिट्ठू बनाने में लीन हो गये थे। अभी मिट्ठू पॅंख पसार ही रहा था कि एकाएक उसकी ऑंखों में तारे नाचने लगे। वह कुछ समझ पाती, इससे पहले ही उसका मिट्ठू रौंदा जा चुका था और मिट्ठू के कतरे-कतरे बिखरे गये थे।
‘‘ये बाई ! अपनी लड़की को समझाा। चिड़िया, चिड्डा बनाने के पैसे नहीं मिलते यहॉं। हराम का पैसा नहीं है। दो रूपये रोजी देता हॅूं इसके। सब हराम का चाहती है, यहॉं खैरात खुली है क्या ?’’ कथन के साथ एक जोरदार ठोकर। वह ठोकर इतनी जबर्दस्त थी कि वह कुछ दूर जा छिटकी थी। भय और पीड़ा से जर्द चेहरा, उसकी सॉंसे अटक सी गई थी। ओर फिर ठोकर पे ठोकर .....।
’’नई बाबू। बस कर रहन दे बाबू। अब अइसना नई करय बाबू! छोड़ दे मर जाही बाबू। तोर पॉंव परौं बाबू। नानकुन लइका हे बाबू’’- कहती मॉं ने ठेकेदार के जूतों पर अपना माथा रख दिया था।
’’हूंह लइका हे’’ - कहती ऑंखें उसे ऊपर से नीचे तक खंगाल गई थीं।
’’ ये भीड़ क्यों लग रही है चलो अपना-अपना काम देखो।’’
और पलभर में सारी भीड़ छिटक गयी थी और उसी दिन छिटक गया था उसका बचपन, उसमें पलते सपने, रफ्ता-र फ्ता नहीं गुलेल की गोटी की तरह। झटके से बहुत दूर चली गयी थी, उसकी सारी कोमलता। स्पर्श, रोमांच और मादकता को पीछे ठेलकर बहुत बड़ी हो गई थी वह, बिल्कुल प्रौढ़। फिर भी कुछ था जो कभी-कभी कसक उठता था। मगर किससे कहती। किसे दिखाती अपना दर्द। कौन देखता और कौन समझता उसे। सभी के अपने-अपने बियाबान जो थे।
समय आगे बढ़ता रहा और वह भी। आने जाने का सिलसिला भी चलता रहा अनवरत। धान कटते-कटते ठेकेदारों के दल गॉंव में आ पहुंचते और सपनों के जाल बिछाते, फिर ट्रकों में भरकर ले जाते उन्हें और उनके सपनों को। ट्रकों में सवार सपने शहर से रेल में बैठकर नगरों ओर महानगरों में जाते और फिर बिखर जाते। यह सिलसिला चलता ही रहता। वे हर साल जाते रहे, साल दर साल यूॅंही लगातार-लगातार।
फिर लगते बैसाख उनकी वापसी होती। वापसी में उनके पास होती उन्हीं सपनों की फटी पोटलियॉं, जिन्हें वे लेकर गये थे ओर उनमें होती ’असंख्य गॉंठें’ शायद गॉंठें दे देकर ही वे सपनों को बिखरने से रोकते थे। शायद कुछ सपने उनमें अटके भी रह जाते थे तभी तो उन्हें लेकर फिर अगले साल फिर अगले साल। साल दर साल आते जाते रहते थे।
लौटते समय उनसे दुगना-तिगुना किराया लेकर भी उन्हें भेड़ बकरियों की तरह बसों में ठूंॅस दिया जाता था। किसी के भीतर से मिमियाहट भरा प्रतिरोध भी उभरता तो वह पल में बिला जाता। उसके अपने ही लोग उसे बरजने लगते। अब वे गैर जरूरी जो थे, अब उनका कोई ठेकेदार नहीं था और लौटना जरूरी जो था .......।
बरसात लगते ही भट्ठा बंद हो जाता और कामगार हाथ बेकार हो जाते थे। फिर उनके अपने खेत भी तो थे जिनकी पुकार उनके मन से लिपट लिपट जाती थे। इस ठेके के पीछे भी तो खेत ही थे जिनकी बोवाई, निंदाई के लिए पैसा जुगाड़ने वे इतनी दूर आया करते थे मगर..।
इस वापसी में भी बहुत कुछ घटा करता था। अनुभवहीन बचपन अनेक अनुभवों से दो चार होता। कुछ तो किशोरावस्था को फलांॅग कर सीधे जवान हो जातीं। एकाएक जवानी की ऐसी छलॉंग उन्हें बहुत पीड़ा देती, मगर वे घुटकर रह जाती। किससे कहती। कौन समझता उन्हें।
मन्टोरा की ऑंखों में अनेक चेहरे उभर आये थे फिर उन सबको ठेलकर एक जिद्दी चेहरा सामने आ खड़ा हुआ था उसका अपना चेहरा- ’’ये दाई ! देख न, कइसे कइसे करते। सब्बो डहर टमड़थे मोला।’’ उसका इशारा कन्डक्टर की ओर था जो उसे ठेलने के बहाने ठॉंव कुठॉव पकड़ रहा था। मॉं ने सब देख लिया था। शैतान ऑंखों की भाषा भी समझ गयी थी। मगर ... ? मॉं की ऑंखे में अतीत के कई उभर आये और वह दृश्य ....।
मोंगरा को किस तरह घने वन में उतार लिया गया था। गॉंव के कई लोग बस में थे मगर किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि कन्डक्टर और ड्राइवर को रोकते। इन प्राइवेट बसों में, इस लम्बे, जंगली रास्ते में ये ही सर्वेसर्वा होते थे सो ....।
फिर ऑंखों में उभरी मेहतरीन जिसके परिवार को घने जंगल में लुड़काकर बस फर्राटे भरती आगे बढ़ गयी थी।
ऐसे ही किसी कुपरिणाम के भय से मॉं ने उसे फटकारा था- ’’का होगे। तहीं हस नोखन। ठाढे़ रह चुप्पे।’’ उसकी ऑंखों में भय के जाले छाने लगे थे। फिर उसने पिता की ओर देखा था, जो जान-बूझकर खिड़की के बाहर अंधेरे को देख रहे थे। और फिर समवय किशोरियॉं कुछ और सिमट गयी थी, तो कुछ युवतियों की ऑंखों में अजीब से चमक उभर आयी थी और रधिया तो उसकी ओर देखकर फिक्क से हॅंस दी थी। तब उस हॅंसी का अर्थ समझ में नहीं आया था उसे। जब समझ में आया, तब भीतर तक जल उठी थी वह। मगर धीरे-धीरे सब मद्धिम होता चला गया था। ऑंच वहॉं व्यर्थ जो थी।
मगर फिर भी वह चाहती थी कि कुछ तो बदले, कुछ तो नया हो जीवन में। मगर नया क्या होना था वहॉं। आने जाने का वही सिलसिला, जिन्दगी का वैसा ही ठेका, वहीं ईंट भट्ठा- सब कुछ वैसा ही तो था। अगर कुछ बदला था तो उसका डेरा। हॉं उसे डेरा ही कहना उपयुक्त है, घर तो उसे मिला ही नहीं था।
वह नहीं जानती ससुराल की दहलीज और उसका पहला स्पर्श कैसा होता है। उस ऑंच और उस अहसास से भी वह अनभिज्ञ रही जो एक दुल्हन में धीरे-धीरे उतरती है। मायके से बिछोह के दुःख से उसका परिचय कहॉं हुआ था। मायका छोड़ ससुराल आई ही कहॉं थी वह। हॉं इतना जरूर हुआ था कि अब वह मॉं-बाप का डेरा छोड़ इतवारी के डेरे पर रहने लगी थी। इतना ही तो हुआ था कि एक डेरा छोड़ दूसरे में रहने लगी थी......... बस।
इतवारी। उसके गॉंव से आने वालों में उसका परिवार भी शामिल था और अब इतवारी का डेरा ही उसकी ससुराल थी। फिर भी उसने चाहा था कि अब जिन्दगी का यह ठेका खत्म हो। अपने गॉंव में रहकर खेती और मजदूरी दोनों चल सकती थी। मगर इतवारी तैयार न था, वह कहता- ’’गॉंव में क्या मिलेगा ? दिन भर हाड़ा तोडे़ के दू पैली धान। बस ! यहॉं कम से कम पैसे तो मिलते हैं। बसर तो हो रही है।’’
पैसे ? उसकी सोच अब पैसों में उलझ गयी थी। लौटते समय उनकी हथेलियों पर रखे जाते थे कुछ नोट, जिसे बार-बार गिनती ऑंखे जानना चाहती थी, वह गणित जिसके चलते उनके आशा भरे दिन और सपने भरी रातों की इतनी कम कीमत मिलती थी। दस पन्द्रह कोरी यानी दो अढ़ाई सौ रूपये, छः सात माह की हाड़तोड़ मेहनत की कीमत।
सहमा सा कोई स्वर उभरता- बाबू अतका कम, तो फिर ठेकेदार गिनाने लगता- ’’ये आते समय का रेल किराया ठीक। रास्ते का खाना खुराकी इसमें शामिल नहीं है। अब खाने का क्या पैसा लेना।’’ और फिर बिना समझे ही कृतज्ञ भाव से वे आगे का सारा हिसाब समझाते चले जाते थे। मगर वह सब समझने लगी थी। इसीलिए चाहती थी कि लोग भी समझें वह गणित जिसके चलते उनकी मेहनत का मोल नहीं मिल पाता। कम से कम इतवारी तो समझे ही। मगर सब व्यर्थ रहा। फिर भी वह डटी रही, अपने मोर्चे पर लड़ती रही अकेली ही। उसे लेकर लोग जाने क्या-क्या कहत रहते। लड़ाका के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी वह। पहले उसे लोगों पर, उनकी इस सोच पर क्रोध आता था मगर अब दया आती है उन पर। और क्रोध आता है अपने आप पर। आखिर क्यों इतनी लाचार है वह?
फिर भी जब कही कोई अन्याय होता तो वह कूद ही पड़ती। मगर परिणाम फिर वही अकेलापन और विवश क्रोध। अकसर उसे ही उसका दन्ड भी भुगतना पड़ता। लोग उसे अपनी ढाल बनाते, मतलब साधते और अलग हो जाते। वह बार-बार हरायी जाती मगर वह टूटी नहीं, रूकी नहीं अपनी राह पर चलती ही रही लगातार।
समय कुछ और सरक गया था। उसके परिवार में भी इजाफा हुआ और उम्मीदों में भी। मगर हर बार उम्मीद से कम पैसे लेकर लौटती रही वह। हर बार सोचती कि अबकि बार नहीं आयेगी, मना ही लेगी इतवारी को, मगर हर बार आना पड़ा उसे। और अपने आप से लड़ती मन्टोरा लगातार ईंटे पाथती रही। मगर ईंटें पाथते हुए भी उसकी ऑंखों में अपने खेतो की हरियाली उभर-उभर आती थी। सुबह शाम दिशा मैदान जाते समय लोगों के हरे भरे खेत उसकी राह रोक लिया करते थे। उनकी हरियाली उससे मानों पूछती थी- ’’क्यों नहीं है तुम्हारे खेतों में ऐसी हरियाली वे क्यों सूखे-सूखें रहते हैं ?’’ मन में हूक सी उठती। ऑंखों में अपने खेत उभर आते जिन्हें धान काटकर छोड़ आती है वह। क्या करती है उनके लिये? धरती माता तो सिर्फ पसीना मॉंगती है मगर वह अपना पसीना भी इस भट्ठे में ही सुखा देती है और दोष देती है खेतों को ? दोष तो उसका अपना ही है। धरती माता तो उसे गले ही लगाती है। कैसी लहक उठती है लौटने पर। और उसके मन में अपनी मिट्टी की सौंधी गंध भरते ही वह व्याकुल हो उठती थी। मगर विवशतायें राह रोक लिया करती थी।
अब की बार बहुत खुश थी वह ....। चहकती फिर रही थी मन्टोरा और खुश क्यों न हो ? अब वह इस ठेके की जिन्दगी से आजाद हो जायेगी। इस बार इतवारी भी मान गया था। इसीलिए वे ज्यादा से ज्यादा मेहनत करके ज्यादा पैसा कमा लेना चाहते थे। फिर अपने गॉंव लौट कर अपनी धरती की सेवा करेंगे-’’अपन देसराज अपनेच होथे’’ कहते हुए मन्टोरा की ऑंखों में एक चमक उभर आती थी। अपने गॉंव को याद करके पुलक उठती थी वह उसका बस चलता तो तुरन्त उड़कर पहुँच जाती मगर .....।
इस बार उसने काम के दिनों का हिसाब भी रखा। अपने डेरे पर गोबर से रोज एक टिकली लगा देती थी वह। इस बार उसने ठेकेदार से कोई उधार भी नहीं लिया था। वह चाहती थी कि इस बार पूरा पैसा हाथ में आये। उन पैसों के बारे में सोचते ही अनेक सपने ऑंखों में उतर आते....।
अब तो उसके गॉंव से होकर नहर भी जाती थी। सोचते हुए उसके ऑंखों में फसल लहलहा उठती उसके खेत साकार हो उठते और वह उनकी हरियाली में डूब जाती थी। इसीलिए इस बार बहुत मन लगा रही थी वह। इतवारी का पूरा साथ दे रही थी पूरे मन से। इस बार वह कुछ जल्दी लौटना चाहती थी ताकि खेतों को कुछ ज्यादा समय दे सके। बहुत व्याकुल थी मन्टोरा पिंजरे में बन्द मैना की तरह कि कब यह पिंजरा खुले ओर वह उन्मुक्त हवा में सॉंस ले।
उसने ठेेकेदार से भी यह बात कह दी थी कि इस बार उसका फाइनल हिसाब कर दे वह। अब वह नहीं लौटेगी अपने गॉंव में ही रहेगी। मान गया था ठेकेदार भी। अब कोई बाधा नहीं थी, सेा उड़ी जा रही थी मन्टोरा।
अब की उसने अपना हिसाब भी करवा लिया था। भट्ठे के उस छोर के गॉंव के गुरूजी से हिसाब करवाया था उसने। बीस रूपये रोजी के हिसाब से साढ़े पॉंच महीने के दो हजार दो सौ रूपये उसके और इतना ही इतवारी को भी मिलेगा। वह ऊॅंगलियों पर गिना करती- ’’एक कोरी में बीस रूपये तो दो हजार दो सौ में- एक, दो, तीन....? नहीं, नहीं ऐेसे तो भटक जाने का खतरा अधिक है इसलिए उसने रट लिया थो दो हजार दो सौ उसके और इतने ही इतवारी के इतने सारे रूपये’’ सोचकर उसका मन प्रसन्नता से भर उठता। मगर मन की खुशी को दबाकर वह सोचती- ’’इतनी खुशी भी ठीक नहीं।’’ सब महमाई के किरपा हे नई तो... ? अब की वह महामाई के दर्शन जरूर करेगी सोचती मन्टोरा माथा नवाकर महामाया को प्रणाम करती। वह इंतजार कर रही थी मगर इंतजार की घड़ियॉं बहुत मुश्किल से कट रही थी।
फिर आयी आखिरी रात। वह रात ऑंखों में ही काटी उसने । उसे भोर का इंतजार जो था। फिर भोर हुई और पल-पल युग की तरह कटने लगा। समय जैस चलना भूलकर घिसटने लगा हो। बहुत इंतजार के बाद आया था वह क्षण जिसके लिए वह सारी रात जागी थी, सारी रात क्यों सारा जीवन ही ....।
ठेकेदार नोट गिन रहा था और वे देख रहे थे नोटों को। इतने सारे नोट जो अब उनके अपने थे। इतवारी ने आज बडे़-बडे़ खीसे वाली बन्डी पहनी थी। आखिर इतने सारे नोट जो रखने थे। ’’लो इतवारी’’ ठेकेदार के स्वर के साथ ऑंखों ने देखा .... सौ सौ के कुल पॉंच नोट थे।
इतवारी हैरान था कि दो हजार दो सौ कि जगह सिर्फ पॉंच सौ ..। तभी...।
’’अढ़ाई सौ तुम्हारे और अढ़ाई सौ मन्टोरा बाई के।’’ तो ये पॉंच सौ भी सिर्फ उसकी अकेले की रोजी नहीं मन्टोरा की रोजी भी इसमें शामिल थी।
’’एतका कमती ? ठेकेदार साहब हम त ये दरी करजा घलो नइ ले हन। फेर?’’ कहते हुए उसका मन डूब सा रहा था।
’’हॉं, तुम ठीक कह रहे हो इतवारी। तुमने तो इस बार कोई कर्ज नहीं लिया मगर पिछली की पिछली बार तुम्हारे पिता ने ये कर्ज लिया था। पिछली बार मैंने तुमसे मॉंगा नहीं था, तुम उनकी मौत से दुःखी थे फिर कौन तुम भागे जा रहे थे, तुम्हें तो यहॉं आना ही था। ये देखो उनका लिखा कागज।’’ ठेकेदार ने रजिस्टर खोला जिसमें पिन से एक कागज नत्थी था। और कागज पर था अॅंगूठे का निशान?
मन्टोरा को लगा जैसे रूपये उसे अॅंगूठा दिखा रहे हों। भीड़ कभी उसे देखती तो कभी उस अॅंगूठे को। फिर आपस में ऑंखों ही ऑंखों में कुछ कहती। सब चकित थे, मगर उस निशान को झुठला पाने की हिम्मत उनमें नहीं थी। अगले बरस उन्हें फिर जो आना था।
मगर मन्टोरा चुप नहीं रह सकी। वह चीख उठी थी, फिर विवश होकर शाप भी दिया उसने, ’’महमाई देखही तोला। मै सब ओखरे उप्पर छोड़त हौ।’’ अैार फिर बुक्का फाड़कर रो पड़ी थी वह और रोती रही थी न जाने कब तक। मगर वहॉं उसके ऑंसू पोंछने वाला कोई न था। सब ठेकेदार से बॅंध्ेा थे। वह अकेली पड़ गई थी। नितान्त अकेली। वह बार-बार श्राप दे रही थी। मना रही थी कि उस बेईमान को तुरन्त सजा मिले। मगर कुछ भी नहीं हुआ। सब कुछ वैसा ही रहा। वह कोई ऋषि-मुनि तो थी नहीं कि उसका शाप तुरन्त काम कर जाता। वह तो एक विवश लाचार औरत थी।
उधर इतवारी कठवा सा गया था। उसकी आंखे तो सूखी थी मगर उसका मन रो रहा था। वह सोच रहा था कि अब क्या होगा ? इतने कम पैसों से क्या हो पायेगा? ओर क्या होगा उन सपनों का जो उनकी ऑंखों में पलने लगे थे। जब ऑंखों में नींद ही नहीं होगी तो सपने भला कहॉं ठहरेंगे। मगर मन्टोरा अडिग थी अपने फैसले पर।
और वह लौट रही है आज खाली हाथ। उसने देखा अपने हाथों को- गॉंठदार संॅवलाये हाथों की रेखाओं को, असंख्य रेखायें, एक दूसरे को काटती हुई। कहीं अटकती तो कहीं आगे बढ़ती रेखायें। उसने सुना था कि इन्हीं रेखाओं में तो होता है भविष्य। इन्हीं में कहीं होती है भाग्य रेखा। वह ढूंढती रही उसे मगर वह मिली नहीं। वैसे भी उस जैसे के हाथ में भाग्य रेखा होती ही कहॉं है। उनका भाग्य तो गढ़ती हैं उनकी हथेलियॉं। वह देख रही थी अपनी हथेलियों को।
गाड़ी अब मंजिल पर थी सुबह की सुनहरी किरणें खिड़की से होकर उसके चेहरे पर उतर आयी थीं। जैसे वे उदास चेहरे की उदासी पोंछ रही हों। गाड़ी से उतरकर उसने देखा कि प्लेटफार्म की दीवारों पर कुछ तस्वीरें चिपकी थीं। मोटे मोटे अक्षरों में कुछ लिखा भी था जिसे वह जानना चाहती थी कि आखिर उन अक्षरों के पीछे क्या है ? मगर विवश थी वह। अगर इतना ही जान पाती तो आज ऐसे लौटती भला ?
एक आह निकली और विलीन हो गई थी। ऑंखों में फिर उतर आया था मोटा और चौड़ा अॅंगूठे का निशान, और देर तक ठहरा रहा वह अॅंगूठा। फिर उभरी गॉंव और उसकी पाठशाला जो उसके इंतजार में बूढ़ी हो चली थी। उसकी दीवारें ढहने लगी थीं। नहीं, अब नहीं ढहने देंगी, सॅंवारेगी उसे और अपने आपको भी, ताकि उसके जीवन में फिर कोई यूॅं अॅंगूठा न दिखा सके। पोस्टर के पास खड़ी-खड़ी सोच रही थी वह।
’’चल न इहें ठाढे़ रहिबे का’’ - इतवारी की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी।
बिलासपुर प्लेटफार्म के बाहर चौराहे पर बहुत से लोग जमा थे, मेला जैसी भीड़ थी, लोग चिल्ला रहे थे, वह कुछ समझ न सकी कि लोग क्या मॉंग रहे हैं ? क्या पाना चाह रहे हैं ? भीड़ अब शांत हो गई थी। अब रिकार्ड पर बज रहा था वह गीत जो उसे बहुत पसंद था-
मोर छत्तीसगढ़ ला कहिथे
धान के कटोरा
भैया धान के कटोरा
मोर लक्षमी दाई के कोरा
भैया धान के कटोरा।
मगर यह कटोरा अब भरा कहॉं है ? यह तो खाली हो गया है अब ? तभी तो मन्टोरा को अपनी जिन्दगी का ठेका करना पड़ा और अनेक घटनायें ऑंखों में गुजर गयी थी।
नहीं। अब यह कटोरा खाली नहीं रहेगा। इसे भरेगी वह। उसने देखा अपने हाथों को, गॉंठदार हाथों को, वहॉं पसीने की बूंॅदे चमक रही थीं। कौन कहता है कि वह खाली हाथ लौटी है। उसका हाथ कभी खाली नहीं हो सकता उसके हाथों में है, ज्ञम की पूॅंजी जिसे कोई नहीं छीन सकता कोई नहीं। अपने ही ख्यालों में खोई सी वह जाने कितनी देर तक खड़ी रही।
दृश्य आते जाते रहे। अनेक सवाल थे जो उसकी राह रोक रहे थे मगर वह उन्हें ठेलकर आगे बढ़ चली थी। उसने देखा इतवारी बहुत दूर निकल गया था, उसके कदम भी तेज हो उठे।
वे गांव पहुँचे तब सूरज सर पर था। तेज धूप से अंग अंग झुलस रहा था, मगर सामने थी उसकी अपनी छानी। शीतलता और स्निग्धता से भरपूर। छानी से लटकते फूस को बडे़ प्यार से सहलाया उसने। कुछ तिनके उसके हाथों मंें आ गये। मानों उसका हाथ पकड़कर कह रहे हों- ’आओ मन्टोरा आओ।’
मन्टोरा जानती है कि यहॉं भी उसके दुःखों का अन्त नहीं है। वही दुःख, वही शोषण यहॉं भी है, मगर यह उसका अपना गॉंव है। यहॉं उसके पैर अपनी धरती पर टिकेंगे। धरती जो धैर्य देती है। मन्टोरा माथा झुकाकर धरती से मॉंग रही है ढेर सारा धैर्य, ढेर सारी शक्ति जिसके सहारे उसे तय करनी है अपनी मंजिल। भरना है उसे धान का खाली कटोरा।