नाई की दुकान / ख्येल असकिल्डसेन / यादवेन्द्र
मैंने नाई की दुकान पर जाना उससे भी पहले छोड़ दिया था, जब मेरी सीढ़ियों की रेलिंग टूटी थी, हालांकि वह मेरे घर से सिर्फ़ पांच ब्लॉक दूर है। मुझे लगता है कि अब वहाँ तक कौन जाए, बहुत दूर है।
मेरे बाल ही अब कितने बचे हैं। मैं जिन बालों को ख़ुद काट सकता हूँ, ख़ुद ही कैंची से काट लेता हूँ और घर के आईने में जब देखता हूँ तो मुझे लगता है कि कोई इतना बुरा नहीं दिखता कि कोई शर्मिन्दगी हो, और तो और नाक से निकल आनेवाले लम्बे बालों को भी मैं काट डालता हूँ।
अभी साल भर भी नहीं हुआ, जब एक दिन मैं बहुत अकेला-सा महसूस कर रहा था — क्या वज़ह थी यह बताने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। मैंने सोचा, इस अकेलेपन से उबरने का एक आसान उपाय यह है कि बाल कटाने नाई की दुकान पर चला जाऊँ, हालाँकि बाल बहुत बड़े बेतरतीब नहीं, काम लायक छोटे ही थे। यह विचार मन में आया तो मैंने अपने आपको समझाया भी कि इतनी दूर जाने की क्या ज़रूरत है, थक जाओगे… और उम्र ऐसी हो गई है कि तुम्हारी टाँगें इतना चलने लायक हैं नहीं। धीरे-धीरे चलोगे, एक तरफ़ से ही तुम्हें पौन घण्टा जाने में लगेगा। फिर मैंने ख़ुद को ख़ुद ही जवाब भी दिया — छोड़ो, इतना परेशान होने या ख़ुद को समझाने की कोई ज़रूरत नहीं है... समय लगेगा तो लगेगा। मैं इस बहाने घर से बाहर निकलूँगा। मेरे पास समय ही समय है और इस उम्र में किसी के पास इफ़रात समय न हो, यह कैसे हो सकता है। मैं कोई अपवाद थोड़े हूँ।
आनन-फानन में मैंने कपड़े पहने और बाहर निकल गया। यह बात मैं कोई बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा हूँ लेकिन घर से दुकान तक पहुँचने में बड़ा समय लगा। मैंने आज तक किसी के बारे में नहीं सुना जो इतनी धीरे-धीरे चल के वहाँ तक पहुँचा हो। बेहद खीझ भरा और दुखदायी अनुभव। आज की तारीख में जब कोई किसी की सुनने वाला है ही नहीं तो बोलकर क्या करूँगा? कौन सुनेगा? इससे तो अच्छा है कि गूँगा - बहरा ही बना रहूँ... सुनने की क्षमता होने का इस समय मुझ जैसे इनसान को क्या लाभ है। उससे भी बड़ी बात लोग बाग़ कहते हैं कि क्या कोई ऐसी बात बची है जो अब तक कही न गई हो? मैं उन सब लोगों की बात से इत्तफाक नहीं रखता और मुझे अभी भी इस चीज़ की अच्छी समझ है कि बहुतेरी बातें अभी भी कहने को बची हुई हैं, जिन्हें ज़रूर कहा जाना चाहिए। लेकिन यदि कोई बात कही जाए तो सुनने वाला भी तो होना चाहिए। कहाँ हैं सुनने वाले?
आख़िरकार मैं नाई की दुकान तक पहुँच ही गया। दरवाज़ा खोलकर अन्दर दाख़िल हुआ और यह देखकर चकित रह गया कि बीते दिनों में दुनिया कितनी बदल गई — दुकान के अन्दर जो कुछ भी था, पहले की मेरी स्मृति से मेल नहीं खाता था। सब कुछ एकदम बदल गया था सिवाय प्रमुख नाई के। मैंने उसे देखकर नमस्ते की, लेकिन उसने मुझे पहचाना नहीं। उसका ऐसा बर्ताव मुझे बुरा लगा। मुझे बेहद निराशा हुई, लेकिन मैंने उसे अपने चेहरे के भावों से ज़ाहिर नहीं होने दिया। वहाँ कुछ कुर्सियाँ रखी थीं, लेकिन कोई भी ख़ाली नहीं थी। तीन ग्राहकों के साथ नाई व्यस्त थे और चार ग्राहक इन्तज़ार में कुर्सियाँ हथिया कर बैठे थे। घर से वहाँ तक पहुँचने में मैं इतना थक गया था कि और खड़े रहना मुश्किल था, लेकिन कुर्सी पर बैठा कोई बन्दा मेरे लिए उठा नहीं। विडम्बना यह कि बैठे हुए सभी लोग उम्र में मुझसे बहुत छोटे थे। मुझे बेहद हैरानी हुई कि नए ज़माने के लड़कों को मालूम ही नहीं है कि बुजुर्गों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। उन्हें दूर-दूर तक यह एहसास नहीं है कि बुढ़ापा दरअसल होता क्या है। उनकी बेरुख़ी से मैं आहत तो हुआ, लेकिन खिड़की से बाहर इस तरह देखता रहा, जिससे यह लगे कि बाहर सड़कों पर क्या हो रहा है, मेरी रुचि कुर्सियों से ज़्यादा उन दृश्यों में है। कितनी अजीब बात है कि आजकल की पीढ़ी मुझ जैसे बुजुर्गों के लिए किसी तरह की हमदर्दी नहीं दिखाती, लेकिन जब देखो तब जानवरों के लिए उनके मन में प्यार उमड़ पड़ता है। मुझे यह नहीं समझ में आता कि जैसा लोग कहते हैं दुनिया क्या ज़्यादा मानवीय हो गई है? अपने आसपास मैं अक्सर देखता हूँ कि नई पीढ़ी के लोग सड़क पर असहाय पड़े लोगों के ऊपर से चलते हुए आगे बढ़ जाते हैं, न एक शब्द सहानुभूति का बोलते हैं न उनकी मदद का ख़्याल उनके मन में आता है। लेकिन जैसे ही उनकी नज़र किसी ज़ख्मी बिल्ली या कुत्ते के ऊपर पड़ती है, उनके दिलों से सहानुभूति और प्रेम की धारा बहने लगती हैं।
"वह बेचारा डॉगी ..."
"बेचारी नन्ही-सी किटी"
उन जानवरों के दर्द युवाओं को अपने दर्द लगते हैं, इंसान के नहीं। ऐसे जानवर प्रेमियों की संख्या बहुत बड़ी है।
तसल्ली इस बात की है कि मुझे खिड़की पर बहुत देर तक नहीं खड़ा रहना पड़ा, मुश्किल से पाँच मिनट। उसके बाद बैठने के लिए कुर्सी मिल गई। मैं बैठ तो गया और वहाँ लोग-बाग भी थे, लेकिन किसी ने कोई बातचीत नहीं की। मैं पुराने दिनों को याद करने लगा, जब नाई की दुकान पर आए लोग दुनिया जहान की ही बातें नहीं किया करते थे बल्कि उनके पास घर परिवार के छोटे-छोटे मसले भी बहुतायत में होते थे। यह क्या ज़माना आ गया कि यहाँ इस दुकान के अन्दर हम कई लोग बैठे हैं और हमारे बीच किसी तरह की कोई बातचीत नहीं हो रही है — दुकान में हमारे बीच ख़ामोशी भी पालथी मारकर बैठी हुई है। मुझे लगने लगा कि मैं ख़्वाहमख़्वाह इतनी दूर पैदल चलकर यहाँ आया यह सोचकर कि लोगों के साथ चार बातें होंगी, लेकिन आने पर तजुर्बा यह हुआ कि आज के लोगों के पास बात करने के लिए कोई दुनिया है ही नहीं। निराश होकर मैं कुर्सी से उठा और किसी से बग़ैर कुछ बोले हुए वहाँ से बाहर निकल गया। मुझे वहाँ बैठे रहने का कोई औचित्य नहीं समझ आया, वहाँ बैठकर मैं करूँगा क्या? मेरे बाल वैसे भी इस वक़्त छोटे ही हैं, अच्छा हुआ मैंने उनकी कटाई - छँटाई में पैसे जाया नहीं किए। हल्के मन से मैं धीरे-धीरे छोटे क़दम बढ़ाता हुआ अपने घर लौट आया। रास्ते पर और घर आकर भी मैं यह सोचता रहा कि दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है। पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा और इस दुनिया में ख़ामोशी का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है। मुझे शिद्दत से महसूस होने लगा कि अब इस दुनिया से विदा हो जाने का समय आ गया है।
(यह कहानी एवरीथिंग लाइक बिफोर (सब कुछ पहले जैसा है) (2021) कहानी-संग्रह से ली गई है।)