नागपुर कांग्रेस के संस्मरण / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
बातचीत के बाद कुछ अधिक समय तो मिला नहीं। क्योंकि नागपुर की कांग्रेस उसी दिसंबर के अंत में होनेवाली थी। मैं शीघ्र ही उत्तर मुंगेर में खगड़िया के इलाके में गया और श्री उमेश्वर बाबू के साथ ही नागपुर रवाना हुआ। मुगलसराय से बंबई मेल के द्वारा जबलपुर जा कर सेठ गोविंद दासवाली धर्मशाले में ठहरा। वहाँ से रात में छोटी लाइन पकड़ के गोंदिया होते दूसरे दिन नागपुर पहुँचा। वहाँ डाँ. मुंजे ही कांग्रेस की तैयारी में प्रमुख भाग ले रहे थे। और लोगों के नाम तो याद नहीं। उस समय मैं उनके सिवाय दूसरों को जानता ही कहाँ था? वही स्वागताध्यक्ष थे। आज के और उस जमाने के मुंजे में जमीन-आसमान का अंतर हो गया! नागपुर में मुल्क ने चिरपरिचित 'भिक्षां देहि' और केवल गर्मा-गर्म लेक्चर झाड़ने का रास्ता छोड़ आत्मसम्मान का मार्ग पकड़ा। भारत के हक के दावे के साथ ही उसके पूर्ण न होने पर सरकार से 'युध्दं देहि' का पहली बार निश्चय किया और इस प्रकार देश को नव जीवन प्रदान किया। इसमें डाँ. मुंजे ने अपनी सामर्थ्य भर पूरा हाथ बँटाया। इतना ही नहीं। उसके फलस्वरूप असहयोग युद्ध में कूद पड़ने के कारण उनकी डाँक्टरीवाली बहुत अच्छी आमदनी जाती रही ऐसा लोगों ने पीछे कहा और बताया कि वह तो बर्बाद हो गए 'He is a ruined man' लेकिन आज उसी मार्ग की या यों कहिए कि जिस स्वातंत्रय संग्राम का नागपुर में बीजारोपण हुआ उसकी ही मुखालिफत वही मुंजे कर रहे हैं। सो भी सारी शक्ति लगा कर! जो शक्ति पहले उधर लगी थी वही अब विपरीत दिशा में लग रही है यद्यपि वह स्वयं ऐसा नहीं मानते! ठीक ही कहा है संसार परिवर्तनशील है।
नागपुर कांग्रेस की दो-एक बातें मुझे भूलती ही नहीं है। बिहार के मौलाना शफी दाऊदी को पहले पहल वहाँ देखा कि कितनी तत्परता कांग्रेस पंडाल में लोगों के बैठाने-उठाने में दिखा रहे हैं। कितनी सज्जनता एवं नम्रता से पेश आते हैं। उसके बाद लौट कर उन्होंने काफी काम भी किया। जब मैं लौट कर शाहाबाद जिले के बक्सर सबडिवीजन में काम में जा लगा तो बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन का आरा शहर में उन्हें ही सभापति चुना गया। मैंने धार्मिक कट्टरता उनमें उस समय कतई नहीं पाई, गो कि विशेष जानकारी न थी। मगर थोड़े दिनों बाद ही और मौलवियों के समान ही वह भी ऐसे बदले, ऐसे कट्टर बने कि मैं हैंरत में आ गया एक ओर शुद्धि और संगठन की और दूसरी ओर तबलीग और तंजीम की जो आँधी चली उसमें दूसरों के साथ वह भी हमारे बीच से उड़ के एक किनारे जा लगे! सुंदर वकालत को चौपट किया जिस काम के लिए उसे बीच में ही छोड़ कर तंजीम में जा फँसे!!
मैंने वहीं देखा कि पहले द्वारका के और अंत में जगन्नाथ के शंकराचार्य श्री भारती कृष्णतीर्थ लखनऊ के आर.एस. नारायण स्वामी आदि के साथ वहीं डँटे हुए हैं। कांग्रेस के ही लिए वह आए थे। मगर जब प्रतिनिधियों को कांग्रेस के ध्येय पर हस्ताक्षर करने का मौका आया तो उन्होंने इन्कार किया! साम्राज्य के भीतर स्वराज्यवाले ध्येय पर दस्तखत करने को वे तैयार न थे और वही उस समय तक कांग्रेस का लक्ष्य था। मैं तो उस समय ये सब बातें कुछ भी जानता-समझता न था कि साम्राज्य के भीतर और बाहर की बला क्या है। लेकिन वह दंडी और मैं भी दंडी। इसलिए उनके पास प्राय: जाता और बैठता था। यह देख कर खुशी भी थी कि आखिर इस राजनीति में मैं ही अकेला दंडी संन्यासी नहीं पड़ा हूँ। किंतु मुझसे बड़े और विद्वान शंकराचार्य तक पड़े हैं। उनके साथ और भी संन्यासी थे। जो पुराने झगड़े नरम और गरम दल के कांग्रेस के लक्ष्य को ले कर थे उन्हीं के अनुसार वे हस्ताक्षर से इन्कार कर रहे थे।
पीछे एक चलते-पुर्जे सज्जन ने जिनका नाम भूलता हूँ, और जो उन्हें प्रतिनिधि बनाने के लिए बहुत ही उत्सुक थे, यह कह के उन्हें राजी किया कि आप तो कांग्रेस के लक्ष्य पर हस्ताक्षर कर के ऐसा कहते हैं कि यही उसका ध्येय है। मगर उस ध्येय को आप स्वीकार कर लेते हैं यह उस हस्ताक्षर का मतलब कैसे हो जाता है? जो लोग उसे बदलना चाहते हैं वह भी तो आखिर कांग्रेस में बिना उस पर हस्ताक्षर किए घुस नहीं सकते। फलत: उसे बदल भी नहीं सकते। इसलिए यह तो केवल कायदे-कानून की पाबंदी (formality) मात्र हैं। इस पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया। पीछे तो कराची में मौलाना मुहम्मद अली आदि सात नेताओं पर, जिन्हें कराची के सात 'Karachi seven' कहने की पीछे प्रणाली हो गई थी, जब खिलाफत की बात को ले कर मुकद्दमा चला था तो उनमें एक यह भारती कृष्णतीर्थ भी थे। यह खुशी की बात थी। यह देश के सौभाग्य की सूचना थी कि मुसलमानों के धर्म की रक्षा के लिए हिंदुओं का धर्माचार्य शंकराचार्य जेल जाए।
परंतु कुछ दिनों बाद जेल से लौटते ही वह राजनीति से विरागी हो कर फिर मठ और गद्दी के झगड़े में बुरी तरह जा फँसे। यहाँ तक कि राजनीति का नाम ही छोड़ दिया। हालाँकि साम्राज्य के बाहर तो क्या भीतरवाला भी स्वराज्य अभी नजर में भी न आता था। न जानें इस बात ने उनके दिल को कभी ईधर आ कर मसोसा भी या नहीं।
सन 1924 ई. वाली प्रसिद्ध अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की जो बैठक अहमदाबाद में हुई थी उसमें मैं भी शामिल था। वहीं एक दंडी से, जो काफी चलते-पुर्जे थे, भेंट और बातें हुईं। उन्होंने कहा कि जेल से लौटने पर भारती कृष्णतीर्थ से हम लोग प्रायश्चित्त कराएँगे कि क्यों जानबूझ कर जेल गए। अपने सीधे विश्वास के करते उनकी यह बात मानना मेरे लिए असंभव था कि वह प्रायश्चित्त करेंगे। उन्हें ऐसा कमजोर मैं नहीं समझता था, लेकिन उस दंडी संन्यासी की दृढ़तापूर्ण बात ने सूचित किया कि मामला कुछ बेढब जरूर है। पीछे तो मैंने सुना कि जेल से लौट कर उनने शायद प्रायश्चित्त भी किया था। कदाचित वह राजनीति में जाने के महापाप का ही प्रायश्चित्त था। इसीलिए उससे अलग भी हुए।
नागपुर में यह भी देखा कि विषय समिति के सदस्यों के चुनाव के लिए बड़ी सरगर्मी है। क्योंकि पुरानी नियमावली के अनुसार कांग्रेस के अधिवेशन के ही समय प्रतिनिधियों में से ही कुछ लोगों को चुन कर विषय समिति बनती थी। इसीलिए हर प्रांतवाले पार्टी के इस विचार से व्यस्त थे कि अमुक दल के विचार के ही लोग चुने जाए। और प्रांतों की तो बात नहीं जानता। मगर बंगाल के प्रतिनिधि जब एकत्र हो कर अपने प्रांत के लिए मेंबरों को चुन रहे थे तो खूब हाथापाई हुई। कुर्सियाँ भी चलीं। कुछ के सिर फूटे भी, देशबंधु पार्टीवाले चाहते थे कि उनके ही समर्थक चुने जाए न कि गाँधी जी के विचार के अनुसार असहयोग के समर्थक। दास साहब असहयोग के पक्ष में तब तक न थे। हालाँकि कांग्रेस का अधिवेशन पूर्ण होने के पहले गाँधी जी से उनका कोई समझौता हो गया, ऐसा मालूम पड़ा।
उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे सलेम (मद्रास प्रांत) के पुराने जनसेवक चक्रवर्ती विजय राघवाचार्य। थे वह पुराने नरम दलियों में ही। देखा कि उनके सिर पर आचारी वैष्णवों का लंबा तिलक लगा है। उनके डेरे में खाने-पीने में पूरा-पूरा पर्दा आचारियों जैसा ही था। छुआछूत भी हू-ब-हू वैसी ही थी। पर्दे में बैठ कर ही भोजन करते थे जैसा सभी आचारी करते हैं। अपने पुराने विचारों के अनुसार उन्होंने असहयोग का विरोध ही अपने भाषण में किया। भाषण छपा हुआ था। मगर वह तो नक्कारखाने में तूती की आवाज थी। कांग्रेस अधिवेशन में तो असहयोग का प्रस्ताव प्राय: सर्वसम्मति से ही पास हुआ था। विरोध का तो पता ही न लगा, सिवाय एकाध के जिसका उल्लेख आगे है। मैंने यह भी देखा कि कांग्रेस के अध्यक्ष समय के उपयुक्त न थे। वह उस विचारधारा के समर्थक थे जिसका समय बीत चुका था। इसीलिए नागपुर के बाद अध्यक्ष महाराज एक प्रकार से लापता से रहे। नाम भी कभी शायद ही सुनाई पड़ा।
वहीं पर मैंने मुहम्मद अली जिन्ना साहब को पहले पहल देखा। वहाँ से जो वह कांग्रेस से गायब हुए सो आज तक उन्हें देखने का मौका मुझे तो नहीं ही लगा। अब जमाना बदला था। अधिकांश लोग कुर्ता, टोपी, धोतीवाले ही कांग्रेस में थे। मगर जिन्ना साहब बाकायदा हैंट, कोट, पैंट आदि से सजे हुए थे। उन्होंने भर पेट असहयोग का विरोध किया। उनका भाषण अंग्रेजी में हुआ। उन्होंने उससे होनेवाली हानियों को विस्तार के साथ बताया, यह भी कह दिया कि असहयोग का प्रस्ताव पास हो जाने पर हमारे जैसों के लिए कांग्रेस में गुंजाईश रही नहीं जाती। हुआ भी वैसा ही। केवल वही नहीं, किंतु उन्हीं के साथ कांग्रेस के पुराने नरम दलीय नेता सबके-सब कांग्रेस से सदा के लिए अलग हो गए। उन्होंने अपनी एक अलग संस्था बनाई जिसका नाम अखिल भारतीय लिबरल फेडरेशन पड़ा।
कांग्रेस ने पुरानी दुनियाँ छोड़ अब नई में पदार्पण किया। नागपुर ने मुल्क की विचारधारा को सोलहो आने विपरीत दिशा में बहा दिया। नागपुर के बाद जो उमंग और जोश की लहरें मुल्क में हिलोरें मारने लगी थीं, वह वर्णनातीत थीं। मुल्क ने कांग्रेस के जरिए न सिर्फ स्वावलंबन का मार्ग पकड़ा, प्रत्युत उसके इतिहास में यह पहला ही मौका था जब देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था ने अपने राजनीतिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए देश की मूक और पीड़ित जनता की ओर-किसानों, मजदूरों और कमानेवालों की ओर-अपना मुँह फेरा और निश्चय किया कि बिना उनकी सहायता के, बिना उन्हें सामूहिक रूप से राजनीति में लाए, देश की राजनीतिक माँग की पूर्ति हो नहीं सकती। उनने साफ स्वीकार किया कि बिना उस जनता के सक्रिय सहयोग के न तो कांग्रेस और न आजादी की लड़ाई ही जबर्दस्त होगी और न सरकार ही दबेगी। मेरे लिए खुशी की बात थी कि ठीक ऐसे ही समय में कांग्रेस में और राजनीति में भी पहले पहल शामिल हुआ। यही परिस्थिति और यही वायुमंडल मेरे स्वभाव के अनुकूल था भी। संन्यासी होते हुए भी 'भिक्षां देहि' का तो मैं सदा से ही विरोधी रहा हूँ।
कांग्रेस के इस मार्ग-परिवर्तन और जनता की ओर जाने का परिणाम भी ठीक ही हुआ। दुनियाँ ने और अपनी अपारशक्ति के मद में मत्त अंग्रेजी सरकार ने भी आश्चर्य चकित नेत्रों से देखा कि कांग्रेस एक साल के भीतर ही क्या से क्या हो गई ─उसकी शक्ति अप्रतिम हो गई! जो कांग्रेस सदा सरकार के सामने झुकती और हाथ जोड़ कर अर्ज करती थी वही सरकार को झुकानेवाली समझी जाने लगी। कमानेवाली जनता का किसानों और मजदूरों का ─आश्रय लेने का सदा यही परिणाम होता है। यह जनता चाहे स्वयं भीख ही क्यों न माँगती हो। फिर भी जो इसका आश्रय लेते हैं उन्हें शिव की तरह सब तरह से पूर्ण और शक्तिशाली बना देती है। यही बात कांग्रेस के बारे में भी हुई। फलत: भारत के वायसराय लार्ड रीडि को सन 1921 ई. के दिसंबर में कलकत्ता में कहना पड़ा कि मैं हैंरत में हूँ, परेशान हूँ 'I am puzzled and purplexed'!