नागफनियों के बीच / संतोष श्रीवास्तव
न जाने वह कौन-सा संक्रांति काल था जब कुमुद की मेडिकल की पढ़ाई समाप्त हुई थी और अमेरिका में कार्तिक भैया ने उसके और माँ के लिए वीजा, पासपोर्टऔर हवाई टिकटों का इंतज़ाम कर दिया था। बरसोंसे इंतज़ार करती माँ का चेहरा दमक उठाथा-" देर से सही अब हम नहीं रहेंगे यहाँ...वहाँ तुम अपना क्लीनिक खोलनाऔर सुख और शांति से भरी ज़िंदग़ी जीना... बहुत सहा हमने... बहुत ज़्यादा...
वह कहना चाहती थी... "क्यों माँ, तुम मुझे सागर में बूँद भर बनाना चाहती हो। क्यों चाहती हो कि मैं अपने टैलेंट को, अपने हुनर को यूँ ज़ाया कर दूँ... परअसमंजसमें कुछ कर नहीं पाई। इधर तो सब ख़त्म हो ही चुका है। पिछलेमहीनेभैया ने आकर मकान बेचने की लिखापढ़ी भी कर ली है, घर का फ़ालतूसामानभी बेच दिया है। थोड़ा ज़रूरी सामान वह अपने साथ ले गये... थोड़ा माँ को लाने कहा-" और जो बचे सब बेच कर आना, उधर इस सबकी ज़रुरत नहीं। "
ज़रुरत होगी भी क्यों? ये सब तो पापा के समय का वह आउट डेटेड सामान है जो अमेरिका जैसे भौतिक समृद्धिशालीमहादेश में खपेगा नहीं। वह क्या जानती नहीं कि वहाँ अपार्टमेंट होते हैं, वॉल टुवॉलकार्पेटिंग होती है। दीवारों पर तीज त्यौहार का परिचय देता रंग रोगन नहीं बल्कि पेपर चिपका होता है। तरह-तरह की आधुनिक सुविधाएँ कपड़े और बरतन धोने की मशीन, माइक्रोवेव, बड़ा फ्रिज, कुकिंगरेंज, सोडा बनाने की मशीन, बॉटल खोलने की मशीन... उसके बीच फँसा आदमी भी एक मशीन... नालों से पानी की धार नीचे न जाकर ऊपर जाती है, लैफ्टहैंड ड्राइविंग है... घरेलू नौकर ढूँढे नहीं मिलेंगे-"भैया आख़िर क्यों तुम इतने प्रभावित हो वहाँ से।"
" क्या माँ, मीरा बाई पैदा की है तुमने। लोग उस देश के सपने देखते-देखते ज़िंदग़ी गुज़ार देते हैं और इसे आसानी से मिल रहा है तो इतने नखरे!
भैया के कड़वे वचन उसे कुरेदते नहीं बल्कि तरस आता है भैया की सोच पर, माँ की लालसा पर... कैसी आसानी से पापा के बाद घर सहित उनकी सारी गृहस्थी बेच डाली है। पर माँ का भी दोष नहीं। एक तो वे महत्त्वाकांक्षी महिला रही हैं... जो वे करना चाहती थीं कर नहीं पाई। असफलता हमेशा उनका आँचल थामे रही, दूसरेपापा असमय चले गये और उनके जाने के बाद वे असहाय निरुपाय हो गई हैं। किसी ने उनकी पीड़ा नहीं बाँटी... सब रो धोकर तेरह दिन में लौट गये और चुप्पी साध ली जबकि ज़िंदग़ी भरमाँ पापा की ओर से न तो कभी जायदाद में हिस्सा माँगा गया, नकिसीतरह की कोई सहायता। बल्कि पापा ही बुआओंकी शादी में रुपिया लेकर गये। चाचाओं के लिए भी नौकरी वगैरह की भाग दौड़ की। पापा की सीमित गृहस्थी लेकिन असीमित आपसी लगाव। घर का हर कमरा हँसी, ठिठोली, प्यार, मनुहार से भरा होता। रात के खाने के समय का एक बड़ा हिस्सा उन चारों के ज्ञान को आपस में बाँटने वाला होता। उस हिस्से से भी बड़ी शक्ति पाई है उसने हर तरह की परिस्थितियों से मुकाबला करने की, जूझते रहने की। समय को हमेशा चुनौतीमाना उसने और इस तरह बड़ी ऊर्जा अर्जितकरती रही वह। स्वभाव पापा का पाया...फकीरी...हर तरह से निर्लिप्त... लेकिनकार्तिक भैया हूबहूमाँ पर ... इच्छा आकांक्षाओंका अंत नहीं। यह मानकर चलना कि यहाँ उनके टैलेंट की सही क़ीमत नहीं आँकी जायेगी सो विदेश प्रस्थान। ठीक उन्हीं क्षणों में वह भी ठान बैठी कि मेडिकल की पढ़ाई के बाद यहीं अपने देश में... किसी पिछड़े इलाके में जाकर अपनी पढ़ाई को सार्थक करेगी। लेकिन यह बात उसने सभी से गुप्त रखी। हालाँकिउसकेफकीराना स्वभाव से परिचित माँ अक़्सरटहोका मारतीं-"न जाने कहाँ की सन्यासिनी आ गई हमारेघर में।" तो पापा हँसकर कहते-"तुम्हीं बहुत प्रभावित रहीं इस्कॉन से... और जाओ हरे रामा हरे कृष्णा मंदिर जहाँ मिस लारा भी ललिता बनकर गेरुआ साड़ी ब्लाउज पहने पीले बटुवे में अपना हाथघुसाये हरे कृष्णा, हरे कृष्णा जपती है।"
पता नहीं माँ, पापा उसकी सोच और दृढ़ता को धर्म से क्यों जोड़ देते। वह चिढ़ जाती-"मैं भगवान को नहीं मानती पापा, लेकिन बस कुछ अलग हटकर कर डालने की चाह है मन में।"
पापाउस वक़्तीमज़ाकको उसका हौसला बढ़ाने में तब्दील कर देते थे और वह सर्वांग जोशसे भर उठती थी। समय निकाल कर उसने बारीकी से विवेकानंद और फिर मदर टेरेसा को पढ़ा। अभिभूत थी वह इन दोनों महान हस्तियों से। उसके हाथ भी कुलबुलाते ग़रीब, पिछड़े लोगों की सेवा करने को... कुपोषण के शिकार बच्चे, एनेमिक महिलाएँ... दमा और गठिया से तड़पते बेहालबूढ़े... क्या कुछ न कर डालने की ऊर्जा अंगड़ाईलेती उसके मन में। माँ बेचैन हो जातीं-"लड़कियाँ ऐसे रही हैं कभी। सीधी तरह शादी ब्याह करो, अपना करिअर बनाओ... संड मुसंडो की राह मत पकड़ो।"
मन की भावना ज़िद्द बन जाती-"दूसरों की सेवा करना संड मुसंडो की राह पर चलना हुआ और शादी की गाँठ बाँधपराये मर्द को अपना सब कुछ सोंप कर कंगाल हो जाना भले मानुष की राह हुई" तर्क अनेक... अंत यही... जो वह सोचती है वैसा करना नामुमकिन है।
मौसम गमक उठा। शरद ऋतु की शीतल उज्ज्वल चाँदनी में सब कुछ निखरा निखरा, पत्ते चमकते धुले-धुले से... ऐसा ही माँ का मन चमक उठता जब वह भैया को भेजी ईमेल उन्हें पढ़कर सुनाती... "कुमुद... जानता हूँ तुम पर मेरी बातों का कोई असर नहीं होगा पर यह मानकर चलो कि धरती का स्वर्ग बस यहीं है। हम सबके लिए बड़ा वाइड स्कोप है यहाँ। पूरा आसमान मुट्ठी में नज़र आता है और तुम वहाँ अपना टाइम बरबाद कर रही हो। वक़्तरहते यहाँ पैर जम गये तो ज़िंदग़ी खुशियों से भर जायेगी। खुशियाँ क़दम-क़दमपर बिछी हैं यहाँ। न हवा में प्रदूषण है न पानी में। नदियों में शव, हड्डी, राखयहाँ नहीं बहाई जाती। शुद्ध निर्मल जल और उस पर तैरती नौकाएँ। नौकाओं में ही रेस्टॉरेंट... खाओ, पिओ, गाओ, बजाओ... हर लम्हा जियो और ज़िंदग़ी को फूलों में सहेजो।"
सुनकर माँ मुस्कुराने लगीं-"सही है... इधर तो ज़िंदग़ी भररिगदते रहो... एकक्षण भी सुख का नहीं बीतता। ज़िंदग़ी जीना तो कोई इनसे सीखे, हम लोग तो ज़िंदग़ी ढोते हैं।"
"क्योंकि हम भविष्य की चिंता में डूबे रहते हैं। भविष्य के लिये ज़िंदग़ी का हर सुख निछावर करते रहते हैं...आज को भूलकर... और आज जब अतीत बन जाता है तो बिसूरते हैं..." कुमुद ने कहना चाहा पर चुप्पी ज़्यादा सही लगी। माँने उससे ईमेल काप्रिंट आउट निकलवाया और देर तक पढ़ती रहीं... न जाने किस दुनिया में डूबती उतराती रहीं। अब लगता है माँ ने पापा के साथ रहकर कितना अपनी इच्छाओं को मसोसा होगा।
सुबह उसने माँ को अपना फ़ैसला सुना दिया-"माँ, मैं नहीं जाऊँगी अमेरिका।"
इतने दिनों उनके मन में पल रहा संदेह सच बनकर सामने आ गया। फिर भी वे अवाक थीं-"कहीं बौरा तो नहीं गई कुमुद... जानती भी है क्या बोल रही है तू?"
"हाँ माँ... जानती हूँ। तुम भी जानती हो कि मैं क्या चाहती हूँ। मैंने पिछड़े इलाके में रहकर प्रैक्टिस करने का पहले से सोच रखा था। अब तो गाँव भी चुन लिया है। सतपुड़ा की घाटीमें बसा 'घुटना' गाँव।"
माँ सहम-सी गईं। उनकी आँखों में एक साथ अँधेरे उजाले की परछाईयाँ तैरने लगीं। पूरे चाँद की रात थी और निःशब्दसन्नाटे में टपकती ओस की बूँदें उनके मन में मथ रहे विचारोंको व्याकुल किये थीं... उस एक ख़ास हलके से शोर सहित जोझींगुरों का था...धीमा धीमा... उदासी कीपरत बिछाता... बेटी उनके सपनों को कुचल रही थी-"मैंने सरकारी सहायता केलिए अपील भी कर दी है। दवाएँ क्लीनिक, नर्स और कम्पाउंडर... सारे साधन मिल जायेंगे मुझे सरकार की ओर से। माँ तुम घुटनागाँव के बारे में पढ़ो तो एक भी डॉक्टर नहीं है वहाँ...ओझा, तांत्रिकों के बल पर टिका बेहद इंटीरियर में बसादिवासी गाँव... पिछड़ा, निरक्षर।" माँने कातर हो उसके दोनों हाथ थाम लिए-"क्यों आग में झोंक रही है ख़ुद को... साधन और सुविधाओं में क्यों नहीं जीना चाहती कुमुद... क्या वहाँ मैं चैन से रह पाऊँगी। अपनी ज़िद्द के साथ मुझे भी हलकान किये डाल रही है।"
"यह तुम्हारा भ्रम है माँ...साधन और सुविधाओं के साथ तुम मुझे आसानी से भूल जाओगी लेकिन मैं समुद्र में बूँद बन नहीं रह सकती। जहाँ पहले से ही इतनी सुविधाएँ हों, इतने डॉक्टर, अस्पताल, डिस्पेंसरी... वहाँ मेरा छोटा-सा क्लीनिक क्या मायने रखता है... यहाँ मेरी ज़रुरत है। वे असहाय हैं... बिना इलाज़ के मर रहे हैं।"
माँ ने हथियार डाल दिये। अब वे इंतज़ार करने लगीं अपने जाने का, विदेशप्रवास जो शायद उनका बरसोंपुरानास्वप्न था। बहुत कुछ करने की चाह थी उनकी, पापा के रहते वे कभी घर में नहीं बैठी। मंच अभिनय का शौक था उन्हें...शहर की नाटक मंडली में ख़ास जगह थी उनकी। कई नाटक स्टेज किये पर सफल नहीं हुए। वे एक ही उड़ान में पूरा क्षितिज पा लेना चाहती थी। सुविधा संपन्न घर, हाई सोसाइटी में उठना बैठना, अमीरों से दोस्ती की कोशिश ही शायद उनकी सफलता में आड़े आई हो...
और कुमुद को इंतज़ार था सरकारी मदद का... और कार्तिक भैया उतावलेथे माँ और कुमुद के लिये...कि वे आकर उसकी समृद्धि देखें कि उनके कार्तिक ने कितनी सुंदर लंबी गाड़ी ख़रीदी है... किकितना प्यारा अपार्टमेंट है उसका जहाँ सारे आधुनिक उपकरण हैं। बर्फीली ठंडी हरी भरी वादियाँ हैं। लेकिन भैया, यह भी क्यों नहीं बता देतेमाँ को किवहाँ घर का सारा काम ख़ुद ही करना पड़ता है, नौकरनहीं होते वहाँ... यह भी क्यों नहीं बता देते कि अपनों के लिये कितना तरसना पड़ता है वहाँ...अचानक मिला एक भारतीय कितनी ख़ुशी दे जाता है यह भी तो बता दो माँ को। प्रवासी पक्षी भी बर्फ पिघलने पर अपने-अपने देश लौट जाते हैं। ... नहीं, वह प्रवासी नहीं बनेगी... उसेयहाँ के लिये बहुत कुछ करना है... शायद इतना कि ये जीवन हीछोटा हो।
जिसदिन माँ की अमेरिका के लिये फ़्लाइट थी उसी दिन शहर के मशहूर समाज सेवी उद्योगपति ने उसे एक जीप दान में दी थी। उसकी ख़ुशी का पारावार न था। बिनती चिरौरी करती, रोती बिलखती माँ को वह इसी जीप में एयरपोर्ट छोड़ने गईथी। एयरपोर्ट पहुँचकर माँ शांत दिखी। बेटी के सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रखकर उन्होंने उसे गले से लगा लिया-"कुमुद, तेरी ज़िद्द के आगे मैं हारी। तेरामिशनसफल हो यही प्रार्थना है।"
आँसू नहीं बहे कुमुद के बल्कि पूरे शरीर में बिजली-सी कौंध गई-"थैंक्यू माँ...उधर तुम्हारा मन लग जायेगा। मेरे लिये परेशान मत होना।"
हवाई जहाज़ उड़ चला और उसकी जीप लौट पड़ी दुर्गम रास्तों पर। लगातार दो दिन की यात्रा के बाद वह पहुँची घुटना गाँव... पूरी सरकारी सहायता सहित। दो नर्स, कंपाउंडर, डिस्पेंसरी के लिये दवाएँ... सारा समाज जो इलाज़ के लिये ज़रूरी था। लगभग सौ कच्चे घरों का छोटा-सा गाँव। कच्ची सड़कें, पानी बिजली की कोई सुविधा नहीं। पंचायत राज की ज़हरीली राजनीति छू तक नहीं पाई है गाँव को। सभी आदिवासी... काले, ऊँचे, तगड़े... औरतें ब्लाउज़ नहीं पहनतीं।
हफ़्ते भर की मशक्कत के बाद उसकी डिस्पेंसरी खुल गई। गाँव भर में तहलका मच गया। डागदरनीआई है...कुमुदनी बाई आई है...झुंड का झुंड लोगों का मिलने आता उससे... चाहे बीमार हो, चाहे न हो... एक जिज्ञासा... कि कैसी हैं डागदरनीबाई... जादू मंतर है उनके हाथ में... देखते ही देखते सर्दी, खाँसी, बुखार छू... देवी है देवी। कुमुद मुस्कुराती... कितने भोले हैं ये आदिवासी। रुखा सूखा मोटा अनाज खाकर...आधेअधूरे कपड़ों से ही संतुष्ट। बाहरी दुनियाकी चकाचौंध से दूर...अपने अच्छे बुरे के लिये सात देवों को ज़िम्मेदार मानने वाले। जीवन मरण सब इन सात देवों की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर है। विवाह संस्कार आदि में भी ये इन्हीं सात देवताओं से सम्बंधितमान्यताओं का कड़ाई से पालन करते हैं। ये गौंड आदिवासी मुड़िया, माड़ियासमुदायों में बँटे हुए हैं। गौंडयुवकयुवतीघोटुल में जाकर आपसी मेलजोल बढ़ाते हैं, एक दूसरे को करीब से समझते-बूझते हैं। घोटुल आदिवासी समाज का एक ख़ास क़िस्म का क्लब है जिसमें युवक युवतियों को नाचने गाने, परस्पर मेल जोल बढ़ाने की आज़ादी रहती है। जो पसंद आ गया, मुखिया के पास उसके विवाह की अर्ज़ी पहुँच गई।
माड़िया समुदाय के एक आदिवासी ने कुछ साल पहले सात देवों को प्रसन्न करने के लिये एक कन्या कीबलि दी थी। उसके बाद से वह एक रात भी चैन की नींद नहीं सो पाया। उसे सपने में वह लड़की भूत बनकर परेशान करती थी। माड़िया समुदाय का एक टोला इसी भूतनी के चक्कर में उजड़ गया। मान्यताहो गई कि उस इलाके में जहाँ नरबलि दी गई थी, रहने वाले के बच्चा नहीं होगा। कुमुद ने इसी इलाके में अपनी डिस्पेंसरी बनवाई।
गाँव में बिजली तो नहीं थी लेकिन कुमुद की डिस्पेंसरी और डिस्पेंसरी से ही लगे उसके दोनों कमरों में पेट्रोमैक्सथा। बाक़ी घरों में ढिबरीटिमटिमाती। रात होते ही सन्नाटा छा जाता। हालाँकिकई बार ऐसी सन्नाटे भरी रात में भी इमरजेंसी के केस देखने वह गई है...ज़्यादातर मलेरिया या डिलीवरी के केसेज़ होते हैं। दोनों नर्सें उसके साथ ही रहती हैं। उसका खाना, नाश्ता भी वे ही बनाती हैं। वह तमाम पगडंडियों पर घूम-घूम कर मरीज़ों तक पहुँचती हैं। बड़ा सुकून मिलता है उसे ऐसा करते हुए। मनरम गया है यहाँ... लेकिन यहाँ तक अमेरिका की ख़बरें पहुँचना आसान नहीं है। जीप से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता है तब जाकर उनसे फ़ोन पर बात हो पाती है। चिट्ठियाँ लेने भी डाकघर जाना पड़ता है। माँ बहुत खुश हैं वहाँ...लेकिन उसे मिस करती हैं। भैया हमेशा व्यस्त रहते हैं... माँ अकेली पड़ जातीहैं-"अबशादी हो जानी चाहिए कार्तिक की। कोई लड़की हो तो बताना..." "है न! बिना ब्लाउज़ वाली आदिवासी... "
फोन पर देर तक माँ की खिलखिलाहट सुनाई देती रही। चलो अच्छा हुआ... माँ ने मान लिया है कि कुमुद फकीरों की ज़िंदग़ी जियेगी... शादी ब्याह... घर गृहस्थी... बाल बच्चे उसकी फ़ितरत में नहीं।
होली का त्यौहार आ गया। गाँव के किनारे बहती नदी के तट पर फाग गाती औरतें एक दूसरे पर पानी उछाल-उछाल कर हँसती खिलखिलाती। महुआ फूलों से लद गया। हवा नशीली हो उठी। जिस दिन होली जलनी थी, उसके लिये ख़ास आदिवासी नृत्य का आयोजन था। बीचोंबीच होलिका रखी गईं। गोल घेरे में सभी बैठगये। उसके लिये कुर्सी रखी गई। कौड़ियों की माला पहने बालों और कानों को लाल और पीले कनेर के फूलों से सजाये आदिवासी बालाएँ झूम-झूमकर नाचने लगीं। गाँव के मुखिया के दोनों आवारा लड़के उसे हँस-हँसकर देखते रहे। बीच-बीच में आकर पूछ जाते-"डागदरनी बाई... कुछ चीज की ज़रुरत हो तो बताना। हम हैं किस दिन के लिये।"
कुमुद का मन नाच में नहीं लगा। अचानक माँ, भैया की याद बेचैन करने लगी। कार्तिक भैया को होली बहुत पसंद है। क्या पता वहाँ मना भी रहे होंगे या नहीं। यहाँ सभी कितने खुश हैं। घंटों तक चलने वाले नाच में औरत मर्द दोनों नाचे, शराब का दौर भी औरत मर्द में समान रूप से चला। मुखिया के लड़के बहकने तक पीते रहे और उसे तंग करते रहे... कभी कुछ कहकर... कभी कुछ। वह खिन्न मन से घर लौट आई। माँ की याद वैसे भी मन में हिलोरें मार रही थी। मन में घुमड़ती रुलाई रोकी तो सिर दुखने लगा। सिर दर्द की दवा बिस्किट के संग लेकर सो गई। सुबह वह मुखिया को उनके लड़कों की हरकतों से आगाह ज़रूर करेगी। कितना मानते हैं मुखिया उसे। बेटी... बेटी कहते रहते हैं। जब पहली बार उसने स्टेथिस्कोप लगाकर मुखिया की गर्भवती बेटी की जाँच की थी तो वह चीख़ पड़ी थी-"हायदईया, ये क्या कर रही है डागदरनीबाईं... हमें टटोल रही हो।" सभी हँस पड़ी थीं। दोनों नर्स, वह खुद...
मुखिया ने बैलगाड़ी में बिठाकर उसे पूरा गाँव घुमाया था। वह आदिवासियों के घर के हमेशा खुले रहने वाले दरवाजे देखकर चकित थी-"बाबा... आप लोग दरवाजे खुले रखते हैं।"
"हाँ... बेटी... बंद करेंगे तो सात देव नाराज़ हो जायेंगे। बंद दरवाज़ों पर भूतों, चुड़ैलों का पहरा जो रहता है।"
वहमुखिया की बात सुन ख़ामोश रही। गोबर मिट्टी से बनी घरों की उन दीवारों पर उसने निगाहें टिका दीं जिन पर गेरू छुई मिट्टी से सुंदर चित्रकारी की गई थी। घर की छत मंडप जैसी जिस पर कुम्हड़ा, कचरी और ककड़ी की बेलें चढ़ी हुई थीं। खेतों में कोदो, कुटकी, मक्का, बाजरा की भरपूर फसलें... मीठे पानी के कुएँ, गाँव को त्रिकोण में घेरती नदी... शुद्ध छल-छल धारा कि किनारे की तलहटी के पत्थर तक दिखते हैं। गाँव का एकमात्र गाम देवी का मंदिर... जहाँ हर पूर्णिमा पर मेला भरता है। ढोल, मजीरे बजा-बजा कर नाचते हैं येलोग। ये बाँसों पर पैर साधकर चलते हैं। गले मिलते हैं, एक दूसरे का भाव विभोरहो माथा चूमते हैं। हमउम्र एक दूसरे का हाथ चूमकर स्वागत करते हैं। शाम गहराते ही ख़ास-ख़ास मौकों पर शराब और नाच चलता है। नाच में स्त्री पुरुष दोनों हिस्सा लेते हैं... कहाँ से कम हैं भैया हम उम्र महादेश से... बताओ तो।
सुबहमुखियाखुद ही डिस्पेंसरी आ गये। साथ में टोकरी भर गुड़ पगे बेसन के सेंव, राजगिरे की लईया और तेंदू के पत्तों से बने दोने में ताज़ा घोटा हुआ खोवा, ऊपर से चिरौंजी की परत...
"तुम तो बेटी बिनाहोली का प्रसाद चखे ही उठ आई थीं रात में।"
"हाँ बाबा... मन खराबहो गया था।"
मुखिया ने लाड़ से कुमुद को देखा-"घर की याद सता रही थी।"
"हाँ बाबा।" वहहिम्मत कर सीधे मुद्दे पर उतर आई-"बाबा, आपको पता है सात समुंदर पार एक बहुत बड़ा, धन दौलतसे भरा देश है अमेरिका? मेरा घर वहीँ है।"
मुखिया आँखें फाड़े समझने की कोशिश कर रहे थे।
"लेकिन मैं यहाँ हूँ...आपके साथ तमाम मुसीबतें झेलती क्योंकि मैंने आप लोगों की सेवा का व्रत लिया है। लेकिन आपके दोनों बेटे..."
"बसबसबेटी... समझगये हम... अब आगे कुछ न कहना। चलो मेरे साथ।"
और उसका हाथ पकड़कर बरगद के नीचे बने विशाल चबूतरेपर आये... ज़ोर-ज़ोर से हाथ में पकड़ी लाठी पटकी। सब घरों से निकल तो आये पर सहमे हुए... यह लाठी जब-जब आवाज़ करती है, कहर ढा देती है। इस गाँव में मुखिया का कानून चलता है। देशकीराजनीति कायदे, कानून से इन्हें कोई मतलब नहीं। सारे कायदे कानून ख़ुद इनके बनाये हुए, सख़्तीसेसज़ाएँभी ख़ुद इनकीतय की हुई। दोनों लड़के बुलाये गये। दो-दो लाठी खाकर चित्त हो गये। वह काँप गई। मुखियाने दोनों लड़कों के कान पकड़कर उसके क़दमों पर ला पटका-"ससुरों... उद्धार करने आई है हमारा...नहीं तो मरते हर साल की तरह माता, मोतीझिरा से...माँगो माफी।"
मशीन की तरह दोनों ने कान पकड़कर माफी माँगी।
मन का बोझ हलका हुआ। अब वह औरतों के बीच अधिक रहती। उनकीतरह-तरह की बीमारियाँ उसने दूर कर दी थीं और यह भी अच्छे से समझा दिया था कि गृहस्थी के लिये उनका कितना महत्त्व है। अच्छा खाना पीना मर्दों की तरह उनके लिये भी ज़रूरी है। आख़िर वे ही तो संसार रचती हैं।
कल भैया और माँ से फ़ोन पर बात हुई थी-"यहाँ आने का भी तो सोचो कुमुद हम कौन-सा गाँव छुड़ा रहे हैं तुमसे। महीने दो महीने के लिये ही आ जाओ। हमारा भी मन लगा है तुम में।"
ठीक ही तो है। इस बार वह मई में महीने भर के लिये अमेरिका हो ही आयेगी। मई में उसे यहाँ आये छै: महीने हो जायेंगे। वह दिसम्बर मेंयहाँ आई थी। ऐन क्रिसमस के दिन माँ की फ़्लाइट थी मुंबई से और दूसरे ही दिन वह यहाँ के लियेचल पड़ी थी। ख़ूब ठंड पड़ती है यहाँ। दिन के ग्यारह बजे तक पूरी घाटी कोहरे में डूबी रहती है। ठंड मार्च तक चलती है और होली के आते ही दिन गरमाने लगते हैं। लंबी-लंबी दुपहरियाँ...नदी के तट पर न जाने कहाँ से हिरन चले आते हैं... एक दो हिरन तो चौकड़ी भरते डिस्पेंसरी तक चले आते हैं। वह हिरनों के लिये बरामदे में कुछ-न-कुछखाने का डाल देती हैं। लहट गये हैं ये हिरन।
"अरे डागदरनीबाई... हिरनों से फुरसत मिले तो हमें भी देख लो।"
मुखियाके दोनों लड़के एक हफ़्ते की ख़ामोशी के बाद फिर सिर उठाने लगे थे। अब उनके साथ एक दो आवारा लड़के भी आ जुटे थे। वह सिर से पैर तक गुस्से से काँप गई। झपटकर एक झापड़ रसीद किया-"अब अगर दुबारा ये हरक़त की तो खून पी जाऊँगी तुम सबका।"
लड़कों के लिये यह अप्रत्याशित था-"अरे भइया भागो... काली मईया खप्पर लिये खड़ी हैं..."
"भागे क्यों... पटक न दें दारी को... सारी अकड़ भूल जायेगी।" कहते लड़के चले गये।
वह जहाँ खड़ी थी, वहीँ जमकर रह गई। एक भय बिजली-सा कौंध गया। कहीं इन लड़कों ने मिलकर उसे अकेली पा सुनसान घाटी में पटककर... ओह, तब? तब क्या होगा? क्या मुँह दिखायेगी वह भैया को, माँ को... इसी समाज सेवा का दावा करती थी वह? पिछड़ेइलाकोंमें इलाज़ करने के लिये तड़पती थी वह? जबछूत की बीमारी से दर्जनों जानें चली जाती थीं तो वह प्रण करती थी कि वह इन्हें बचायेगी...लेकिन तब यह न सोचा था कि उसके पास है कोमल, नाज़ुक औरत का शरीर और इस मर्दाना समाज में क़दम-क़दम पर भेड़िये हैं...वह इन भेड़ियों से अपनी झोली में पड़ी लज्जा और इज्ज़त को बचाने के लियेआख़िर कितना संघर्ष करेगी? अगर इन लड़कों ने कुछ कर ही डाला तो वह तो तबाह हो जायेगी। ...मन की दीवार ढहती गई, विश्वास टूटता गया। इस बियाबाँ में नागफ़नियों केबीच उसका टिकना असंभव है। उसे लौटना होगा... हाँ, लौटना होगा।
कई रातें आँखों में कट गईं। दोनों नर्सें खाना खाकर बिस्तर पर ढेर हो जाती थीं। झुटपुटा होते ही हिरन जंगल में लोप हो जाते थे पर अब बरामदे में ही जमकर बैठे रहते। वहदरवाज़ा बंद करने ही वाली थी कि दोनों हिरनों को अपनी ओर टुकुर-टुकुर देखते पा वहीँ खड़ी हो गई। तभी अँधेरे और अकेलेपन से ढीठ हुए मुखिया के लड़के उसेढकेलकर कमरे में घुस आये। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। शोरसुनकरदोनों नर्सें भी बरामदे में आकर चीखने लगीं-"दौड़ो, बचाओ।" लड़के उसे दबोचनेही वाले थे कि वह कूदकर बाहर आ गई। तब तक चीखपुकार से भीड़ जुट आई थी। कुमुद पर मानो दौरा-सा पड़ गया-"अरे क्या बुरा किया है मैंने। तुम लोगों के लियेज़िंदग़ी का ऐशो आराम छोड़ दिया। सुख छोड़ दिया। क्याइस दिन के लिये? क्या दूसरे शहर से आई लड़की की तुम्हारे टोले में यही दुर्दशा होती है। इसीलिये तुम लोग जहाँ के तहाँ हो और दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। नहींरहना मुझे यहाँ... कल ही चली जाऊँगी।"
कहती हुई वह कमरे में आई और भड़ाक से द्वार मूँद लिये कि पूरे सौ के सौ घरों में बुझी ढिबरियाँजल गईं। लाठियाँ निकल आईं। औरतेंचीख़नेलगीं-"मारो... मारो..." सूने सन्नाटे थर्रा उठे। लाठियोंकी आवाज़ के साथ घोंसलोंमें दुबके पक्षी पंख फड़फड़ातेचहचहाउठे थे। और थोड़ी ही देर में खूना खच्चर हुए मुखिया के लड़के अपने आवारा दोस्तों के साथ बरामदे में पड़े थे... मुखियाकी आँखें झुकी हुई, भीड़खामोश... वह काँपती हुई बरामदे में आई। बरामदा खून से लाल हो रहा था। अचानक उसके मन की डॉक्टर जाग उठी... अब और अधिक खून बहा तो जान के लाले पड़ जायेंगे। वह ज़ोरों से पास खड़ी नर्सों, कंपाउंडर को बुलाने लगी-"डिस्पेंसरी में ले चलो इन्हें... घाव में टाँके लगाने पड़ेंगे। दवाएँ ख़त्म हो रही हैं शायद, कल ही शहर फ़ोन करना पड़ेगा।"
और भीड़ ख़ुशी से थिरक उठी-"डागदरनी बाई नहीं जा रही हैं। यहीं रहेंगी।"
और भोर की पहली किरन के धरती को छूते ही डॉ कुमुदनी का चेहरा तेज़ोमयहो उठा।