नागफनी की चुभन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
यों तो सभी विधाओं में आपाधापी वाली स्थिति है; परन्तु अनुभवहीन हाथों में पड़ने के कारण लघुकथा इसका सर्वाधिक शिकार हुई है। जिसको देखिए, वही लघुकथा में जोर-आजमाइश के लिए उतावला है। 'लघुकथा' शब्द से पूर्ण परिचित न होने पर भी एक छमाही में ही ऊल-जलूल संकलन को 'लघुकथा' संग्रह का नाम देकर छपवाने वाले गाजरघास की तरह फैलते जा रहे हैं। कुछ अपनी सारी शक्ति मित्रो को स्थापित और विरोध करने वालों को विस्थापित करने में खर्च कर रहे हैं। इस हडबौंग के बीच निरपेक्ष रहकर लिखने वालों में डॉ.उपेन्द्र प्रसाद राय प्रमुख रहे हैं।
'तुलसी चौरे पर नागफनी' संग्रह में समाज, धर्म, शिक्षा राजनीति व्यवस्था आदि पर सजग होकर लिखा गया है। परिवेश के प्रति जागरूकता एवं प्रतिबद्धता के कारण डॉ. राय ने निरन्तर पनपती हुई अवमूल्यन, की नागफनी की ओर ध्यान दिलाया है, तो साथ ही साथ मानवीय मूल्यों के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है। अखबारी घटनाओं खोखलेे नैतिक उपदेशों, लेखकीय निर्णयों से लघुकथाओं को बचाकर रखा है। मानव-मूल्यों की क्षरणशीलता लेखक की प्रमुख चिन्ता है। शोषण की पीड़ा व्यवस्था की हृदयहीनता नारी के प्रगति उपेक्षा दफ्तरी प्रणाली की जड़ता, भाईचारे को निगलती कलुषित साम्प्रदायिकता लेखक की चिन्ता के विषय रहे हैं।
शिक्षा से निकटतम सम्बन्ध होने के कारण लेखक ने समाज की दिशाहीनता ओर उपेक्षा को 'सही व्याकरण' में प्रस्तुत किया है। शिक्षक के कार्यों में इस तरह की अड़ंगेबाजी समर्थ लोग प्रायः करते रहते हैं। शिक्षा-संस्थानों पर कुशिक्षितों की गहरी पकड़ का क्या भयावह परिणाम होगा, इसका सहज अनुमान लगा सकते हैं। अनुशासन के ढोंग की ओट में नन्हे-मुन्नों की कोमल एवं सहज भावनाओं को कुचलने का खमियाजा रोज-बरोज भुगतना पड़ रहा है। 'कितना बड़ा मूल्य' इस तथ्य को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है। 'प्यार' लघुकथा का विषय लीक से हटकर है। 'प्यार' को अपराधबोध समझने वालों पर गहरा कटाक्ष है। प्रिंसिपल के माध्यम से लेखक ने प्यार की अपरिहार्यता पर बल दिया है। 'गदहे की विद्वत्ता' में लेखक ने अयोग्य व्यक्तियों की शिक्षा मंे घुसपैठ से आए बदलाव से आए बदलाव को रेखांकित किया है। शिक्षा के क्षेत्र में मूर्खतापूर्ण सहमति कितनी घातक होगी? इसकी चिन्ता की अनुगूँज परिपार्श्व में सुनाई पड़ती है।
'मापदंड' में सड़ा-गला पढ़ने वाले पाठकों की कुरुचि पर चोट की गई है। यह पीढ़ी अपना विवेक फुटपाथी पुस्तकों को भेंट कर चुकी है। इस तरह के अछूते विषयों पर कम लघुकथाएँ नज़र आती हैं। 'नारी' लघुकथा में नारी को 'विषय-वासना' मानने वाले जड़ संस्कारों पर चोट की है। 'लड़की' एक शोषित लड़की की करुण कथा है। लड़की को उपभोग की सामग्री समझने वालों को शायद ही लज्जा महसूस हो। भाग्य और 'सजा' लघुकथाएँ समाज के उस सड़े-गले चिन्तन को बेनाकाब करती हैं, जो लड़की को हीन दृष्टि से देखता है और उसे अनचाहा बोझ मानता है।
हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन भोथरी होती जा रही है। यहाँ सदाचार केवल चर्चा का विषय रह गया है, आचरण का नहीं। 'संकल्प' लघुकथा में इसी पतनशीलता के दर्शन होते हैं। 'नस्ल' बीमार सोच वाले लोगों की नस्ल पर ही प्रश्न चिह्न लगा देती है। यह एक प्रभावशाली एवं कसी हुई लघुकथा है। तथाकथित कुलीनता का तादाम्य आदमी से न होकर कुत्ते से ही ज़्यादा होता है। 'अन्धा मनु और वह' भेड़ समाज की लकवाग्रस्त सहमति की विडम्बना प्रकट करती है। 'कारगर हल' दीवार बनाकर गरीबी दूर करने की धूर्त्ततापूर्ण व्यवस्था को नंगा करती है। 'ड्राइंगरूम का मसीहा' में बड़बोले बुद्धिजीवियों की खबर ली गई है। ये समाज-परिवर्तन की ढेर सारी बातें कर सकते हैं; परन्तु अपने स्वार्थों के कारण कार्यरूप में परिणत करना पसन्द नहीं करते। 'उसके आँसू' का नायक ट्रक से कुचले बाल मजदूर के मरने पर इतना दुखी नहीं है, जितना शीशे की चादरें टूटने पर। अर्थतंत्र के विषधर ने मानवीय करुणा के प्रतीक आँसुओं को भी डँस लिया है। ऐसे लोग संवेदनाशील होने का अच्छा ढोंग कर लेते हैं। हैं। 'लोग' में अवसरवादी लोगों की संवेदना, आलम्बन के बदलते ही ठीक विपरीत
रूप धारण कर लेती है। घायल लड़के की स्थिति पर उमड़ी सहानहुभूति राजनेता के सम्मान का रूप धारण कर लेती है। लड़के के घुटनों से बहता खून परिदृश्य में चला जाता है। तात्कालिकता के कारण राजनेता महत्त्वपूर्ण हो जाता है बच्चा गौण।
धन, पद और दण्ड का बल जिसके पास है, वह उसका खुलकर दुरुपयोग कर रहा है। 'पेट के लिए' लघुकथा में बच्चे जलेबियाँ लेने के लिए मार खाने को तैयार हैं। यह लघुकथा विपन्नता एवं दयनीयता का चित्र उकेरने में सक्षम है। 'कर्मठता' में व्यवस्था के रक्षक डण्डे के बल पर निरपराध को जेल में ठूँसकर भी कर्मठ बने रह सकते हैं। 'किसान की रोटी' प्रतीक शैली में लिखी एक सशक्त कथा है। 'हड्डी और बफादारी' दफ्तरों के निकम्मेपन और चापलूसी प्रवृत्ति के कोट पर तीखा व्यंग्य है। 'कुत्तायुग' दफ्तरी भ्रष्टाचार को व्यक्त करती है। हड्डियों का सही बँटवारा करने वाला ही दफ्तरों का सही संचालन कर सकता है। 'प्रजातंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्राणी' लोकतंत्र पर धनतंत्र के हावी होने की त्रासदी है।
साम्प्रादायिकता पर ढेर सारी लघुकथाएँ लिखी गई है; परन्तु डॉ. राय की 'रोने की शर्त' उनसे हटकर है। आदमी की आदमियत उसे सही रास्ते पर लाती है; लेकिन पशुता उस चेतना का गला घोंट देती है। यह लघुकथा दम तोड़ती इंसानियत की कथा कहती है।
अधिकतम लघुकथाओं में व्यंग्य मुख्य स्वर है। भाषा पर गहरी पकड़ होने के कारण लेखक ने विद्वूपताओं पर कड़े प्रहार किए हैं। 'चोर' लघुकथा में पुलिस वाले का कथन-'मेरे यहाँ रहते तू चोरी करेगा रे?' अर्थ की भीतरी पर्तें खोलता है। 'हरामी' में बेटिकट यात्री न मिलने पर टी.टी.ई. की प्रतिक्रिया बहुत तीखी है-'मुसाफिर धोखा दे गए.' टिकट खरीदकर सफर करना धोखा देना हो गया? असली हरामी कौन है? मुसाफिर या टी.टी.ई.? ये प्रश्न सुविधाभोगी समाज की नींद में खलल नहीं डालते। आक्रोश इज्जतदार नस्ल आदि में भी भाषायी तेवर रचनाओं में जान डाल देते हैं। दरिद्र भाषा के बूते पर लिखने वालों के लिए ये लघुकथाएँ दिशा-बोध का काम करेगी।
इस संग्रह में डॉ. गोपालराय की टिप्पणी और डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी की सार्थक भूमिका है। लेखक ने 'कुछ यो ही' में लघुकथा विषयक अपने विचार प्रकट किए हैं। एक साथ ढेर सारी अच्छी लघुकथाओं के कारण यह संग्रह लघुकथा जगत् में अपना विशिष्ट स्थान बनाएगा; ऐसा विश्वास है।
तुलसी चौरे पर नागफनी: डॉ-उपेन्द्र प्रसाद राय, प्रकाशक: अमिताभ शंकर, रन्नू चक, भागलपुर