नागार्जुन नहछू (सविता भार्गव) / नागार्जुन

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मैं सोचती हूं बाबा एक महानद हैं जो न जाने कितनी कितनी देहरियों तक बहे-चढ़े और अपने स्नेह जल से न जाने कितनों को गौरवान्वित करते गये। कइ कई परिवारों का सदस्य बन अपने कुटुंब को बढ़ाते गये। जिसे भी अपनाया वही कह उठा ‘अरे बाबा! वे तो मेरे ही बाबा हैं। मुझे अपना बेटा/बेटी की तरह ही लाड़ करते थे।’ वग़ैरह-वग़ैरह। ऐसे ही गुमानकारी लोगों में, मैं भी शुमार हूं। मुझे भी यह शान से कहने का अवसर मिला कि कहूंμ

‘बाबा ! अरे बाबा तो मेरे ही घर के थे। उनके साथ तो मैं महीनों-महीनों रही। जब मैं मां बनने वाली थी तब वे ख़ास तौर पर लगातार दो-चार महीने मेरे साथ रहे। और एक बड़ी बुजुर्ग नानी/दादी की तरह मेरी देखभाल की। मेरे खान-पान, उठने-बैठने, बोलने बतियाने, पढ़ने-लिखने सब बातों में निर्देश करते रहे। यहां तक कि मेरे आसपास के लोगों श्यामाकांतजी, नीलेश, आदि सभी को हिदायतें और समझाइश देते चले कि ये लोग मेरा किस तरह ख़याल रहें।

इस दौर में अहसास होता था कि बाबा के साथ रहना तो यों समझो जैसे भदभदा के सारे गेट खुल गये और मेरी भाग्य रूपी बेतवा पानी से लबलबा गयी। बहने लगी धारों-धार। नहीं तो, ‘हम च्या थे? हमारी औकात च्या थी?’ (राजेश जोशी के तुक्के पे तुक्का नाटक का संवाद) जिन दिनों मैं यह नहीं जानती थी कि कविता क्या है? (हालांकि आज तक भी जानने की पुरज़ोर कोशिश ही है) कवि कौन होता है, कैसा दिखता है? उन दिनांे अनायास ही मैं एक महाकवि का सानिध्य प्राप्त कर रही थी। मेरे पिता संस्कृत के आचार्य थे। बनारस से पढ़े। अन्यान्य विषयों पर हमेशा ही वे मेरा ज्ञानवर्द्धन करते रहते थे।

मुझे लगता था कि संसार में संस्कृत, विज्ञान, भूगोल, इतिहास के वे ही सबसे बडे़ ज्ञाता हैं। बाबा जब पहली दफ़ा मेरे पिता के घर आये और बात बात पर प्रसंग से जोड़कर कभी वेदों के श्लोक, कभी रघुवंश, कुमारसंभव की पंक्तियों को उद्धृत कर उच्चारित करते तो मेरे पिता गदगद हो लगभग आंसुओं से लबरेज़ अपना मस्तक बाबा के चरणों में रख देते। इन दृश्यों से मुझे यह अहसास होने लगा कि बाबा ज़रूर ही कोई महान या कि महानतम हस्ती हैं। फिर तो वे मेरे बिल्कुल ही आत्मीय ! पिता के पिता की तरह लगने लगे। यही वजह है कि आज भी जब मैं कक्षा में उनकी कविताएं पढ़ाती हूं तो कविता कम बाबा को ही ज़्यादा बखानती हूं। उस समय ऐसी पुलक भरी अनुभूति होती है मानो मैं अपने ही दादा/नाना के बारे में या अपने ही घर के कोई रहस्य, कोई कथा सुना रही हूं। एक तरह के नास्टेल्जिया की शिकार होती रही हूं। इस समय, यह सब लिखते समय भी मेरी दशा यही है।

कई दिनों से लिखने का प्रयास कर रही थी। पर क़लम उंगलियों में ही फंसी रह जाती और काग़ज़ कोरा। मन न जाने कहीं पीछे स्मृति दृश्यों में खो जाता। बाबा का खांसना, कुबरी की खटर-पटर, खादी का मोटा लद्दड़ सा कुर्ता, ना़ड़ा लटकता पाजामा बिखरे-बिखरे धूसर खिचड़ी बाल, खिबड़े और कत्थई दांत, तीखी चमकती आंखें जैसे अभी भेदकर घुस जायेंगी भीतर। यही सब कुछ साकार हो जाता है। घंटों बाद अहसास होता कि अरे मुझे तो लिखना है। पर क्या लिखूं, क्या-क्या लिखूं। कभी वर्णनातीत तो कभी बहुतायत की स्थिति। शुरू-शुरू में बाबा के भड़के तेवर से बड़ा डर लगता था। जाने कब और किस पर वे भड़क जायें, दुत्कार दें, भगा दें, कोई भरोसा नहीं। एक दिन वे अच्छे मूड में थे। मैंने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया: ‘बाबा’, आप ‘फलां’ पर क्यों बिगड़ रहे थे ?’ ‘देखो तुम्हें हम इसका रहस्य बताते हैं। यह जो हमारा क्रोध है, यह दो तरह से हमारी रक्षा करता है। एक हमारी भड़ास निकल जाती है, दूसरे अगर कोई हमारा कच्चा प्रेमी है तो एक दो डांट में ही भाग खड़ा होता है और हम फ़िज़ूल की भीड़ से बच जाते है। हां, अगर बार-बार डांट खाकर भी हमारे पास आये तो फिर वह हमारे स्नेह का पात्रा हो जाता है। इससे छंटनी हो जाती है भाई।’ ‘तो फिर हमें तो आपने डांटा ही नहीं ! क्या हमारी परीक्षा नहीं हुई ?

‘अरे तुम तो हमारी अपनी हो।’ मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए बाबा ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया।

बाबा ने लड़कियों को कभी डांटा-फटकारा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं। अलबत्ता लड़कियां तो उन्हें प्यारी ही लगती थीं। उन पर विशेष तौर पर उनका लाड़ बरसता था। एक बार ऐसा ही कुछ नज़ारा उपस्थित हुआ। दोपहर के भोजन के बाद बाबा ने लेटते हुए कहा, ‘अब हम सोयेंगे। किसी से नहीं मिलेंगे। दरवाज़ा बंद कर दीजिए।’

बाबा को लेटे अभी आधा-पौन घंटा ही हुआ था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मेरे ही कॉलेज की छात्राएं थीं। बाबा से मिलना चाह रही थीं। मैंने उन्हें शाम को आने का कहकर दरवाज़ा बंद कर लिया। इसी बीच बाबा तख़त पर उठ बैठे और बोले:

‘कौन है भाई ? अरे बुलाओं उन्हें।’

‘बाबा आप ही ने तो कहा ...’

‘अरे भाई ! लड़कियों को मना थोड़े ही किया था। जाओ आवाज़ दो उन्हें।’

(हां-हां क्यों नहीं। अभी कोई और होता तो बुढ़ऊ भिनभिना जाते) मैं मन ही मन बुदबुदायी। ‘बुढ़ऊ की संज्ञा बाबा के छोटे बेटे श्यामाकांत जी की ही दी हुई थी। अक्सर मैं और श्यामाकांत बाबा के इस तरह के पक्षपात पर मज़ा ले लेकर टिप्पणी किया करते थे,

‘अरे बुढ़ऊ को कम मत समझो। अभी उनका दिल जवान है।’ श्यामाकांत हंसकर कहते।

इसी सिलसिले की एक और घटना है। विदिशा में बाबा का लोक-सम्मान होना था। जैसा कि बाबा के बारे में सब जानते हैं कि उन्हें नहाने से बड़ा परहेज़ था। वे महीनों नहीं नहाते थे। जाड़े में तो ख़ैर उनका ’जल-सत्याग्रह’ ही होता था। तो उस दिन कैसे नहाते (सर्दी के दिन जो थे)। श्यामाकांत मुझसे बोले:

‘अरे ये क्या ऐसे ही मंच पर बैठेंगे। बासे कूसे कपड़ों में, बास मारते ? इन्हें कम से कम नहला तो दो।’

ख़ैर ! बड़ी मान-मनुहार के बाद बाबा ने उस दिन कौआ स्नान किया। कुर्ता-पाजामा बदला। लेकिन नाखून जो बड़े गंदे और बेतरतीब थे, बहुत कहने पर भी नहीं कटवाये।

‘नाखून तो कटवा लीजियेगा।’ श्यामाकांत लगभग बाबा को झिंझोड़ते हुए बोले।

बस फिर क्या था ? बाबा ऐसे भड़के कि श्यामाकांत जी को कमरे से भगा कर ही दम लिया। पर कुछ देर बाद श्यामाकांत कमरे में फिर से दाखि़ल। वंदना (मेरी दोस्त) के साथ।

‘सविता वंदना को नेलकटर दे दो। अब बुढ़ऊ आराम से कटवा लेंगे नाखून।’ श्यामाकांत ने हंसते हुए मेरे कान में फुसफुसा कर कहा।

‘लाओ बाबा आपके नाखून काट दें। कितने बढ़ गये हैं। आपको सुंदर बना दें।’ वंदना बाबा से चुहल करते हुए लड़ियायी।

‘अरे आप ही के ये हाथ। लीजिए काट दीजिए नाखून और हमें भी।’ वे हंसते हुए बोले।

क्या तो नज़ारा था। बाबा बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह नाखून कटवाते हुए। और उनकी आंखें चमकतीं, पुलकतीं वंदना पर लाड़ बरसातीं। श्यामाकांत हंसी दबाये कमरे से बाहर हो गये।

यों तो बाबा का पूरा जीवन ही बेहद दिलचस्प और अनुकरणीय है पर उनकी दों आदतें मैंने चुरायीं। एक, किताबों को द्रुत गति से पढ़ने का सुगम तरीक़ा। (बाबा पंद्रह-बीस किताबें दो तीन घंटे में निपटा देते थे) मैंने एक दिन जब इसका राज़ पूछा तो उन्होंने स्पष्ट किया कि

‘अरे भाई लेखक तो एकाध बात कहने को बड़ा सा पैराग्राफ़ लिखता है। कभी-कभी तो दो-चार पन्ने भी। वह बात कहीं बीच में रहती है। वहीं तो हमारी नज़र होती है और क्या ! बस, उसी एक वाक्य या शब्द को पढ़ लेते हैं।’

दूसरी आदत उनकी खाने की। वे आधे-पौन घंटे में बिल्कुल ही थोड़ी मात्रा में बार-बार कुछ न कुछ खा लेते थे। थोड़ा-थोड़ा खाने और देर तक खाली पेट न रहने से हाज़मा दुरुस्त रहता है, यह उन्होंने मुझे समझाया था। यों बाबा तरह तरह के व्यंजनों के बड़े शौक़ीन थे। कहा जा सकता है कि चटोरे थे। पोहा जलेबी उन्हें खाने को डॉक्टर साहब ने मना किया था। वे चौके में थोड़ी थोड़ी देर में कुबरी से खटर पटर कर आते थे। यह उनका सिग्नल था कुछ चटर-पटर खाने का। कभी खाने, कभी बजाय गंभीर होकर कुबरी से खटर-पटर करने के साथ वे मेरे पास आकर मेरे गाल बड़े लाड़ से सहलाते थे। ये सिगनल था उनका पोहा या मिठाई-विठाई खाने का। अब इतना लाड़ मिले तो क्यों नहीं मैं उन्हें पोहा बनाकर देती। भोजन करते समय बाबा को राजनीतिक, साहित्यिक बहसें बिल्कुल ही नागवार गुज़रतीं। वे हमेशा ही थाली में रखे भोजन की ओर सबका ध्यान आकर्षित करते:

‘अरे भाई ! भोजन की थाली में ध्यान दो। देखो दाल कितनी सुंदर और पीली है, गाजर के हलवे का रंग देखो, खीर को निहारो, मूली की सफ़ेदी और फूली फूली रोटी का आकार देखो। पहले भोजन के रंग-आकार का सौंदर्यरस ग्रहण करो फिर जीभ पर उसके अलग अलग स्वाद का। तभी न भोजन का रस है।’ खाना पूरी तन्मयता से आनंद में डूब कर खाना मैंने उन्हीं से सीखा। सीखने-जानने के ऐसे अनेक क़िस्से हैं। उनकी ढेरों सीख, बातें, उनके द्वारा लिखी चिट्ठियां, लोक-सम्मान में मिला काष्ठ शिल्प जो उन्होंने मुझे दे दिया था, वे हस्ताक्षरित किताबें ख़ासतौर पर ’उग्रतारा’ मेरे पास उनकी अमूल्य निधि की तरह हैं। मेरी थाती हैं।

(96 // 97 नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011)

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