नाच न जाने... / सुशील यादव
हमारे आँगन में कोई खराबी नहीं थी।
पुरखों ने तसल्ली के साथ तीस बाई चालीस का आँगन पुराने जमाने के नक्शे के मुताबिक रख छोड़ा था। इतनी बडी जगह तो आजकल शहरों में, मकान के पूरे प्लाट की मुश्किल से होती है। और तो और फ्लैट वाले युग में आँगन शब्द ही शहरों से लुप्त होने लगा दीखता है।
आँगन को लेकर हमारा बहाना बनाना, कतई शोभा नहीं देता, कि हमें इसकी वजह से नाचना नहीं आया या हम नाचना नहीं सीख पाए... या आँगन टेढ़ा था। आँगन लगभग ठीक था कमी या खामी जो थी वो हममें थी।
सौ फीसदी बात तो ये, कि सपाट समतल आँगन वाले घरों में बुजुर्गो ने, हममें नाच-गाने वाले संस्कार ही नहीं डाले। उन्होंने स्वयं कभी ठुमका लगाने की सोच रखी हो, तो लानत है। लिहाजा, सामाजिक बहिष्कार के दंडनीय अपराध से वे कोसों दूर रहे। उनके जमाने में ये गैर जरूरी किस्म की ऐयाशी नहीं पाली जा सकती थी। लोगों को 'मुँह दिखाना' पड़ता था और 'मुँह को दिखाने के काबिल' बनाए रखने के लिए सैकड़ों किस्म के परहेज हुआ करते थे। ये करो वो मत करो टाइप का जमाना हुआ करता था, सो वे कोसों दूर, नृत्य कला के निपट असंस्कारी जीव बने रहे।
हमारे दादा जी को अखाड़े के बाद 'रामलीला' में रावण का रोल मिलता रहा, जिसमें उनके राक्षसी उछल कूद किए जाने भर का स्कोप था, लिहाजा नृत्य की किसी एक विधा से भी इस परिवार का कोई परिचय होते-होते बाजू से निकल गया।
शादी-ब्याह में जाते हैं तो बडी शर्मिदगी सी होती है। सब को बेमतलब, बिना रिदम के फुदकते देखते हैं तो, जी तो मचलता है कि तू भी घुस ले भीतर, देखी जाएगी... पर तुरंत नृत्य अज्ञानता का बोध होते ही मन मसोस कर रह जाता है।
बरात में दुल्हे के 'फूफाजी' को नचाने की फरमाइश जैसे ही किसी कोने से शुरू होती है, हमें दुम दबा के खिसक लेने में भलाई नजर आती है।
कौन फजीहत कराए? सेकेंडों में फेसबुक में फूफा-ग्रेड भौंडापन अपलोड कर देंगे लोग। किसी को रोक कहाँ सकते हैं? फास्ट जमाना है। वो जमाने लद गए जब फूफा अपनी बेतुकी कमर हिलाई के नाम पर मुफ्त वाहवाही बटोर लिया करते थे। अब ...अब तो आपको वेलट्रेंड उतरना है मैदान में, वो भी यंग जनरेशन के बीच, वरना...?
कभी-कभी, मन खुद को धिक्कारता है, तू इतने बड़े आँगन का मालिक एक अदद डांस नहीं सीख पाया, 'टू बी एच के' लोग वो भी बिना आँगन वाले कितने मजे से डांस किए जा रहे हैं देख?
इस मानसिक द्वंद्व से उबरने के लिए, बरात प्रोशेसन में, अपने किस्म के 'फुफाओं' को व्यस्तता ओढ़ लेने की जबरदस्त आदत होती है।
लगभग बरात को लीड करने लग जाते हैं। कभी ट्रेफिक हवलदार की भूमिका में बरात के बगल से हेवी व्हीकल को साइड देते हुए कहीं बैंड वालों को हाँकते हुए... अय ..आगे ...आगे बढो। मुन्नी ...अगले चौराहे पर ...मुन्नी बदनाम होगी ...भई यहाँ नहीं ...अगली जगह ...अभी तो बढ़ो ...बरात नौ बजे लग जानी है मुहूरत का समय खराब न हो...। कुल मिला के डांस से परहेज...
डांस के उन्मादी बारातियों में जबरदस्त उत्साह होता है।
'सपेरा-बीन' डांस में सूट पहने हुओ को भी जमीन में लोटते देखा है, बशर्ते हलक के नीचे तीन-चार पेग उतारी हुई हो। उन्हें धुन की मस्ती के बीच दुल्हे के बाप पर तरस खाने का मौका नहीं मिलता। बेचारा बाप कोसते रहता है कि काहे को इसे बरात में ले आया, नाक कट रही है। वो बार-बार खीसे से रूमाल निकाल के नाक की सलामती को जाँचते रहता है।
आवाज आती है, शादी का पंडाल करीब आने को है।
दो-तीन जरूरी गाने बाकी रह गए है, जिसमे अहम बराती-डांस निपटाना है, एक तो, सदाबहार 'आज मेरे यार की शादी है, दूसरा... ले जाएँगे ले जाएँगे ...तीसरा सीजन बेस्ट यानी लेटेस्ट रिलीज मूवी का हिट जो समय-समय पे कभी कजरारे..., उ ला ला ...मुन्नी बदनाम हुई टाइप हुआ करता है, का बजना-बजाना जरूरी होता है। मैंने एक भी बारात ऐसी नहीं देखी जिसमे 'मेरे यार की शादी' वाला गाना बेरोकटोक बजा न हो। गिनीज रिकार्ड वालों को, इस गाने को बिना किसी वेरीफिकेशंस के रिकार्ड में शामिल कर लेना चाहिए।
बैंड वाले दो धुनों के अंतराल में ट्यूनिंग करने के नाम पर मातमी धुन बजा डालते हैं, उनमें भी मस्त उत्साही बराती जन पैर थिरकाए बिना नहीं रहते।
आजकल जमाना बदल गया है। बड़े-बड़े 'नच-बलिए' हो रहे हैं। घर में दिन-दिन भर शोर कोलाहल रहता है, ऊँची आवाज में केसेट चल रहे होते हैं, डांस की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाने लगी है। बच्चों को नृत्य संस्कार में पारंगत बनाने का काम चालू हो गया है।
मुझे लगता है आने वाले दिनों में नृत्य पारंगत, ट्रेंड फुफाओं' से बरात ज्यादा गुलजार मिलेगा।
मंकी डांस, लुंगी डांस, एरोबिक, सर्कस डांस, सब कुछ होगा।
एक अलग किस्म के 'डांस पे चांस' मारते हुए फुफाओं का मजेदार स्ट्रीट शो...