नाट्यानुवाद की प्रक्रिया - 1 / प्रताप सहगल
नाट्यानुवाद पर बात करने से पहले अनुवाद पर ही दो-एक बातें ज़रूरी हैं। पहली यह कि क्या अनुवाद ज़रूरी है? और दूसरी यह कि क्या अनुवाद संभव है? पहले प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रूप से 'हाँ' है, क्योंकि अनुवाद न करने की स्थिति में बहुत कुछ जानने से हम महरूम रह जाएँगे। अनुवाद मात्र एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण नहीं है, बल्कि उसके साथ संस्कृति, समाज, भूगोल, इतिहास एवं धर्म-दर्शन आदि के गहरे प्रश्न जुड़े हुए हैं, इसलिए अनुवाद एक ज़रूरी प्रक्रिया है। इसी के साथ एक प्रश्न यह भी जुड़ा हुआ है कि क्या किसी रचना का अनुवाद बार-बार करना चाहिए। यह प्रश्न संभवतः तकनीकी विषयों के अनुवाद को लेकर उतना उलझा हुआ नहीं है, जितना कि सृजनात्मक अनुवाद को लेकर। मिसाल के तौर पर क्या कालिदास, शेक्सपियर, ब्रेश्ट या दांते की रचनाओं का अनुवाद बार-बार होना चाहिए, तो इसका जवाब भी 'हाँ' में है, क्योंकि समय बदलने के साथ-साथ भाषा का स्वरूप भी बदलता है और बार-बार सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद होने से उसमें नवीनता बनी रहती है। यह तो एक सकारात्मक कारण है, लेकिन कई बार अनूदित कृतियों के अनुवाद नाकाफी या भ्रष्ट लगते हैं, कई बार मैकेनिकल और कई बार अधूरे, ऐसे में भी उन रचनाओं का बार-बार अनुवाद उत्तेजना जगाता रहता है। यह बात नाट्यानुवाद पर दूसरी विधाओं की अपेक्षा ज़्यादा लागू होती है।
दूसरा प्रश्न है कि क्या अनुवाद संभव है? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि अनुवाद संभव नहीं है, तो क्या इस तर्क के चलते अन्य भाषाओं की रचनाओं को अपनी भाषा में नहीं लाना चाहिए। अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत के सहारे बात करें तो अनुवाद अनुकरण के अनुकरण का अनुकरण है। यानी वह सत्य से तीन बार दूर है। इस दृष्टि से अनुवाद सर्वथा त्याज्य है। लेकिन हम क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के बहाने यह भी जानते हैं कि वस्तुतः अभिव्यक्ति या कहें कि सर्जन तो पूरी तरह से कलाकार या रचनाकार के मन में हो चुका होता है और वह उसे रंग, शब्द या ध्वनि देने की प्रक्रिया में वास्तविक सर्जन से दूर होता जाता है। वस्तुतः यह सर्जन की प्रक्रिया है, सर्जन की इसी प्रक्रिया में मूल कल्पना में कुछ जुड़ता और घटता चला जाता है, क्योंकि सर्जन अंततः ट्रांस या कहीं अकेले में उभरी एक लीक या छवि के साथ-साथ कांशस स्तर पर किया गया एक ऐसा सामाजिक प्रयास है जो वैयक्तिकता का सोपान चढ़ कर ही आ सकता है। इसलिए मानना चाहिए कि सर्जन का अनुवाद संभव नहीं, लेकिन सर्जन का पुनः सर्जन संभव है। इस पुनः सर्जन को ही अनुवाद की संज्ञा प्रदान करते हैं। वस्तुतः श्रेष्ठ सर्जन ही हमें आकर्षित एवं प्रभावित करता है तथा रचनाकार को कई बार पुनः सर्जन ही के लिए उकसाती है। इस पुनः सर्जन के कारक मूल रचना का पाठ, प्रभाव, यश, सीखने की इच्छा या फिर उस रचना के सुख को दूसरों के साथ बाँटने की आकांक्षा हो सकती है। इसलिए अच्छी रचनाओं का अनुवाद कई-कई बार होना ज़रूरी हो जाता है।
अब प्रश्न अनुवाद की प्रक्रिया का है। साहित्यिक रचनाओं के अनुवाद की प्रक्रिया अखबारी अनुवाद, सरकारी अनुवाद या भाषणों आदि के अनुवाद से अलग है। हालाँकि कई बार उच्च कोटि के नेताओं के भाषणों का अनुवाद भी सर्जन का सुख देने लगता है, लेकिन ज्ञापनों, परिपत्रों, निविदाओं या सूचनाओं के अनुवाद नितांत मैकेनिकल होते हैं। उनका मकसद भी अलग होता है और यह अनुवाद इस समय हमारा विषय भी नहीं है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सभी साहित्य विधाओं के अनुवाद की प्रक्रिया एक ही है? इसका जवाब भी ज़रा पेचीदा है। दर्शन, शास्त्र, विचार अथवा तर्क का अनुवाद होता ही नहीं, बल्कि उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरित करना होता है। इसमें समस्या अवधारणात्मक शब्दों की रहती है, क्योंकि वे अवधारणात्मक शब्द शास्त्रीय एवं वैचारिक परंपरा का उत्पादन होते हैं और वे किसी भाषा कि निजी संपदा है और बौद्धिकता के स्तर, आयाम तथा आशय हर समाज में अलग-अलग होते हैं। साम्यता कि स्थिति में अनुवाद में आसानी होती है, जबकि विभिन्नता या वैषम्य की स्थिति में या तो हमें उन शब्दों के पर्याय बनाने या ढूँढ़ने होते हैं। या फिर हम उस शब्द को उसी रूप में या थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ स्वीकार कर लेते हैं। मिसाल के तौर पर 'अकादमी' या 'स्पुतनिक' जैसे शब्द।
साहित्य के अनुवाद में भी कथा-साहित्य का अनुवाद अपेक्षाकृत सहज होता है, जबकि कविता एवं नाटक के अनुवाद की शर्तें ज़रा कठिन होती हैं। प्रायः माना जाता है कि नाटक भी अंततः दृश्य काव्य ही है, अतः कविता एवं नाटक के अनुवाद के समय कुछ बातें समान रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। कविता और नाटक में पहली बड़ी साम्यता इन दोनों विधाओं की व्यंजना शक्ति में है। दूसरी साम्यता है बिंब-विधान एवं दृश्य-बंध, तीसरी साम्यता हम दोनों विधाओं के सर्जन में आई 'स्पेस' में देखते हैं। कविता में जो अलिखित हे, यह भी उतना ही महत्तवपूर्ण है, जितना कि लिखित। यही स्थिति नाटक की भी है, दोनों ही विधाएँ पाठक अथवा दर्शक से सीधा संवाद भी करती हैं और उन्हें कल्पना-लोक के निर्माण करने का अवसर भी देती हैं। तो क्या दोनों विधाओं के अनुवाद की प्रक्रिया भी एक-सी है। उत्तर है नहीं-यहाँ हम काव्यानुवाद की प्रक्रिया पर बात नहीं कर रहे, इसलिए सीधे-सीधे नाट्यानवुाद की प्रक्रिया पर बात करना ही ठीक रहेगा। पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि नाटक आखि़र है क्या? क्या संवाद-शैली में लिखी गई किसी भी कृति को हम नाटक कह सकते हैं? संभवतः नहीं। ऐसी कृतियाँ नाटक दिखती ज़रूर हैं, पर होती नहीं हैं। मिसाल के तौर पर हरिकृष्ण प्रेमी, लक्ष्मीनारायण मिश्र या सेठ गोविंददास आदि लेखकों के कई नाटक। यह नाटक पाठ्य तो हैं, लेकिन मंचन की दृष्टि से इनके नए सिरे से मंच आलेख तैयार करने की ज़रूरत होगी। यही स्थिति कमोबेश प्रसाद के नाटकों की भी है। अपनी तमाम काव्यमयता, अभिव्यंजनात्मकता, बौद्धिकता एवं सांस्कृतिक उन्मेष के महत्तव को रेखांकित करने के बावजूद ये नाटक, नाटक से नाट्य तब तक नहीं बन सके, जब तक उनके अलग से नाट्यालेख तैयार नहीं किए गए। सो यह समस्या भी थोड़ी अलग है। अब हम उन नाटकों की बात कर सकते हैं, जो कमोबेश मंचन के अनुकूल हैं या उनका अनुकूलन किया जा सकता है। नाटक के चुनाव के बाद ही नाट्यानुवाद की प्रक्रिया शुरू होती है।
नाट्यानुवाद के लोक में प्रवेश करने से पहले यह ज़रूरी है कि अनुवादक को कम से कम दो भाषाओं की पर्याप्त जानकारी हो। केवल भाषा कि जानकारी ही काफ़ी नहीं, बल्कि नाटक जिस समाज, काल, भूगोल एवं परिवेश से जुड़ा हुआ है, उसकी जानकारी तो ज़रूरी है ही, साथ ही उसे जिस भी लक्ष्य-भाषा में लाया जा रहा है, उसके समाज, काल, भूगोल एवं परिवेश की जानकारी होना भी ज़रूरी है।
किसी भी नाटक के अनुवाद से पहले उस नाटक के रंग-परिवेश, रंग-शैली एवं रंग-परंपरा को जानना भी उतना ही ज़रूरी है। इतना ही नहीं, नाटक का अनुवाद जिस भाषा में किया जाना है, उस भाषा के रंगमंच तथा रंग-परंपरा को जानना भी उतना ही ज़रूरी है। इतनी तैयारी के बाद ही किसी नाटक के अनुवाद का साहस जुटाना चाहिए। यहाँ यह भी प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या नाटक का अनुवाद मूल भाषा से ही हो या कि किसी तीसरी भाषा के माध्यम से उसका अनुवाद किया जा सकता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति दुनिया कि सभी भाषाएँ नहीं जान सकता, ऐसे में विश्व की महान् नाट्य-रचनाओं से वंचित रहना भी कोई समझदारी नहीं है। सो अगर हमें तीसरी भाषा में भी अनुवाद उपलब्ध हो तो उसका अनुवाद अपनी भाषा में करने से गुरेज़़ नहीं होना चाहिए। हम देखते हैं कि अनेक इतालवी, जर्मन, बल्गारियाई, रूसी एवं फ्रेंच आदि नाटकों का हिन्दी में अनुवाद मूल भाषा से न होकर अंग्रेज़ी के माध्यम से हुआ है और अंग्रेज़ी के माध्यम से ही हम उन दोनों की रंग-परंपराओं से परिचित हुए हैं। इसलिए यहाँ अंग्रेज़ी ही स्रोत-भाषा बन जाती है। इसे हम भले ही सत्य से चार बार दूर मान लें, लेकिन है यह नाट्यानुवाद की प्रक्रिया का एक हिस्सा ही।
नाट्यानुवाद शुरू करने से पहले मूल नाटक को केवल पढ़ना ही नहीं, आत्मसात् करना भी ज़रूरी है। आत्मसात् होने की प्रक्रिया में वह नाटक अनुवादक के मन में अपना रंगमंच खड़ा करने लगता है। नाटक के संवादों के बीच की स्पेस को समझना, रंग-निर्देशों, रंगमंच पर संभाव्य हरकतों, हलचलों, भावों, संकेतों, मुद्राओं, भंगिमाओं पर बलाघात आदि को पकड़ना भी ज़रूरी है।
इन सबसे भी ज़रूरी है पाठ्य एवं वाचिक शब्द के बीच की खाई को पाटना। बोले जाने वाले शब्द को साहित्य या नाटक का शब्द बनाना और साहित्यिक शब्द को वाचिक शब्द बनाना एक कठिन, लेकिन सृजनात्मक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को अपनाए बिना कम से कम रंग-नाटक का अनुवाद संभव नहीं है।
नाट्यानुवाद करते हुए शब्द-स्फीति का ध्यान रखना ज़रूरी है। नाटक का दर्शक प्रवचन या भाषण सुनने नहीं आता। वह मंच पर आए दृश्य-बंधों, गतियों, वेश-भूषा, संगीत आदि के माध्यम से नाटक देखना चाहता है। नाटक में अतिशय वाचालता उसका नाट्य-तत्व नष्ट कर देती है। नाटक का रंग-व्यापार अवरुद्ध न हो, अभिनेता को शब्द फेंकने के बजाय शब्दों के सहारे अपना अभिनय-कौशल दिखाने का पर्याप्त अवसर मिले, इसका ध्यान नाट्यानुवादक को रखना ही होगा। यानी गतिमयता नाटक में चाहिए, शब्दों में नहीं। हालाँकि उसका वाहक शब्द ही होता है। ऊपरी तौर पर दिखने वाले इस विरोधाभास को भी नाट्यानुवादक के लिए साधना ज़रूरी है। मूल नाटक के संवादों के बीच आई 'स्पेस' का अनुवाद नहीं हो सकता, उसे तो अनुवाद करते हुए ख़ामोशी की भाषा में पुनः सृजित ही करना होगा।
नाटक एक जीवंत कला होने के साथ-साथ अन्य कलाओं पर आश्रित एक कला है। सभी कलाओं के उत्स के साथ-साथ गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय प्रश्न जुड़ जाते है॥ रचना जिस काल एवं समाज में स्थित होती है, उस काल एवं समाज का 'ईथास' भी उसके साथ जुड़ा हुआ होता है। इसलिए नाट्यानुवाद करते हुए हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम अनुवाद्य नाटक में रची-बसी संस्कृति एवं सामाजिकता का भी अनुवाद न करने लगें, बल्कि उसे उसी रूप में सुरक्षित रखें, जिस रूप में वह मूल रचना में स्थित है। इसलिए हम अनुवाद्य नाटकों को दो श्रेणियों में रख सकते हैं-भारतीय भाषाओं के नाटक एवं विदेशी भाषाओं के नाटक। भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भाषा चाहे जो भी बोली जाती हो, एक ऐसा सूत्र है जो इन क्षेत्रों को क्षेत्रीयता के बावजूद एक भारतीय समाज का निर्माण करता है। इस भारतीय समाज के 'ईथास' , उसके सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों में बहुत बड़ी खाई नज़र नहीं आती। पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक प्रश्न एवं सामाजिक मर्यादाएँ थोड़ी भिन्न हो सकती हैं, लेकिन कमोबेश भारतीय समाज की एक छवि तो बनती ही है। ऐसे में भारत की किसी भी भाषा के नाटक को भारत की हो या कहें कि हिन्दी में अनुवाद करने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल और कुछ अपनी-सी हो जाती है इस बहाने हम भारत की विभिन्न रंग-शैलियों एवं रंग-परंपराओं के संपर्क में आ जाते हैं। वस्तुतः अनुवाद के प्रश्न तब अधिक गहरा जाते हैं, जब हम विदेशी नाटकों के अनुवाद करने लगते हैं। विदेशी नाटकों में भी यूरोपीय नाटकों, अमेरिकी नाटकों एवं एशियाई तथा घोषित-अघोषित पूर्व समाजवादी देशों के नाटकों को अलगाया जा सकता है। प। यूरोप अथवा अमेरिकी नाटकों में उपस्थित सुरक्षा का भाव, अकेलापन, अपराध बोध, नैतिक वर्जनाओं का टूटना आदि अनेक ऐसी बातें जो भारतीय समाज को उस समाज से अलग करती हैं, जबकि पूर्वी यूरोप, रूस, चीन आदि देशों के समाज का 'ईथास' भारतीय समाज के 'ईथास' या नैतिक मान्यताओं से भी बहुत दूर नहीं पड़ता। इसलिए इन देशों के नाटकों के अनुवाद तथा अमेरिका आदि देशों के नाटकों के अनुवाद करते समय अलग-अलग तरह की समस्याएँ सामने आएँगी, जिन्हें नाट्यानुवाद करते हुए ध्यान में रखना होगा। क्योंकि अंततः नाट्यानवुाद अनुवाद्य नाटक में निहित संस्कृति का अनुवाद नहीं, बल्कि उसका भाषांतर है। लक्ष्य भाषा कि शक्ति को स्रोत भाषा कि शक्ति के बरक़्स रखकर ही हम अपने लिए नाट्यभाषा कि खोज कर सकते हैं।
नाट्यानुवाद की प्रक्रिया पर बात करते हुए इस सवाल पर बात करना भी ज़रूरी है कि अगर पूरा मूल नाटक या उसके कुछ अंश पद्य में हैं तो पद्य का अनुवाद पद्य में ही करना चाहिए नाकि उन अंशों को गद्य में ढालने की छूट अनुवादक को ले लेनी चाहिए। मेरी समझ से तो पद्य का अनुवाद पद्य में करना अभीष्ट है, क्योंकि उसे गद्य में ढाल कर हम उसका मूल ढाँचा ही बदल रहे होंगे। ऐसे में अनुवादक का न सिर्फ़ नाटककार, बल्कि कवि होना भी ज़रूरी है और उसे थोड़ी-बहुत संगीत की जानकारी भी हो तो और बेहतर। पद्य का अनुवाद पद्य में करने से छंद की समस्या सामने आती है। ज़ाहिर है कि हमें अपनी काव्य-परंपरा में उपलब्ध छंदों पर आश्रित होना पड़ेगा। अगर यह संभव न हो तो अनुवादक स्वयं अपने छंद का निर्माण करके भी उसका अनुवाद कर सकता है। यह भी संभव न हो तो कम से कम लय का ध्यान तो रखना चाहिए। लय में शब्दों को बाँध कर भी हम मूल नाटक के समरूप संगीतमय लोक की सृष्टि कर सकते हैं।
अक्सर यह भी देखने में आता है कि अनुवादक को जब नाटक के कुछ स्थल बहुत कठिन लगने लगते हैं या वह किन्हीं कारणों से उनका अनुवाद नहीं कर पाता, तो वह उन्हें छोड़ देता है। यहाँ बहुत ही सावधानी की ज़रूरत है। पहली बात तो यह कि ऐसा करना नहीं चाहिए, लेकिन कई बार स्थानिक शब्दों, अवधारणात्मक शब्दों या सांस्कृतिक शब्दों के समरूप शब्द लक्ष्य भाषा में उपलब्ध न होने से यह समस्या आ जाए तो अनुवादक अतिरिक्त प्रयास से शब्द-निर्माण करे या फिर लोक-भाषाओं में उनकी तलाश करे। फिर भी संभव न हो तो भ्रष्ट अनुवाद करने से उन्हें छोड़ना ही बेहतर है। इससे नाटक के मूल संवेद्य में कोई अंतर न पड़े, इतना ध्यान तो अनुवादक को रखना ही होगा।
अनुवाद करते हुए क्या लक्षित दर्शक-वर्ग का भी ध्यान रखना चाहिए? यह एक मुश्किल प्रश्न है और इसका जवाब भी मुश्किल है, क्योंकि नाटक का अनुवाद होने के बाद वह केवल एक ही रंग-दर्शक के सामने खेला जाएगा, ऐसा ज़रूरी नहीं है। अनुवादक को तो एक बार अपने सामने एक दर्शक-वर्ग, लक्षित करके अनुवाद कर देना चाहिए। उस प्रस्तुत आलेख में अलग-अलग दर्शक-वर्ग, स्थान, काल एवं परिवेश के अनुसार जो परिवर्तन किए जा सकते हैं, यह काम रंग-कर्मियों पर छोड़ देना चाहिए। वे स्थितियों के अनुसार 'इंप्रोवाइजे़शन' करते ही रहते हैं, लेकिन अनुवादक की भूमिका को यहाँ भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि संवादों के माध्यम से केवल नाटक का संवेद्य ही संप्रेषित नहीं होता, बल्कि चरित्रों का मनःस्थितियों, उनके संघातों, विश्वासों, मूल्यों-बल्कि कहना चाहिए कि चरित्रों के पूरे व्यक्तित्व की बनावट और बुनावट भी संप्रेषित होती है। अत: अनुवादक में इतनी भाषा-दक्षता एवं भाषा-दक्षता होनी चाहिए कि वह नाटक के चरित्रों के व्यक्तित्व को परत-दर-परत रूप में उद्घाटित कर सके। इस उपक्रम में भाषा मात्र किताबों से अर्जित भाषा नहीं हो सकती। ऐसी भाषा कितनी ही साहित्यिक या लच्छेदार क्यों न हो, वह नाटक के किसी काम की नहीं होती। ऐसी कृत्रिम भाषा से न तो चरित्र प्रभावी बन पाते है और न ही उनमें विश्वसनीयता आ पाती है।
प्रायः लेखक या तो संस्कृत-निष्ठ हिन्दी या फिर अरबी-फ़ारसी निष्ठ उर्दू में नाटकों का अनुवाद कर देते हैं। यह दोनों ही तरह की भाषाएँ नाटक को बोझिल, उबाऊ और सीमित कर देती हैं। इसलिए आम-फहम भाषा का इस्तेमाल ही उपयुक्त हो सकता है। मिसाल के तौर पर एक पात्र का संवाद है किसी दूसरे पात्र के संवाद के संदर्भ में यह है–I am hurt. अब इसका शाब्दिक अनुवाद हो सकता है-'मैं घायल हूँ' , 'मैं आहत हूँ' 'मैं व्यथित हूँ,' मैं ज़ख़्मी हूँ'या ऐसे ही कुछ और। लेकिन स्पष्टतः नाटककार का यह अभिप्रेत नहीं है। वस्तुतः इसका अनुवाद हो सकता है-' मैं दुःखी हूँ'या फिर' आपने मेरा दिल ही तोड़ दिया है' आदि। संदर्भ के अनुसार। लेकिन शब्दशः अनवुाद तो कभी भी नाटक में न तो ऊर्जा ला सकता है और न ही नाटकीय व्यापार। इसी के साथ बोलियों का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। हिन्दी प्रदेश में अनेक बोलियाँ हैं। अतः किसी चरित्र की सामाजिक स्थिति, उसकी मूल्यगत सोच आदि के लिए अगर उन बोलियों के शब्दों का प्रयोग किया जाए तो चरित्र में विश्वसनीयता भी आती है और नाटकों में रंग भी।
नाटक में आए हास-परिहास के क्षणों तथा वाग्वैदग्ध्य का अनुवाद लगभग असंभव-सा हो जाता है। इसके लिए अनुवादक के पास इतना भाषा-कौशल एवं अनुभव होना चाहिए कि वह उन क्षणों एवं स्थितियों को पुनःसृजित कर सके। इसके लिए अगर रूपांतर की सीमाओं में भी प्रवेश करना पड़े तो कर जाना चाहिए।
इतना सब जानने एवं करने के बाद भी अगर अनुवाद संभव हो सके तो यह संतोष की बात है, लेकिन इस प्रक्रिया से गुज़रे बिना नाटक का अनुवाद करने के बारे में न सोचना ही बेहतर है।