नाट्यानुवाद की प्रक्रिया - 2 / प्रताप सहगल

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अनुवाद का अर्थ रचना-संस्कृति को पुनः सृजित करना है। किसी भी रचना का अनुवाद करते समय दो सवाल सहज ही सामने आते हैं, पहला तो यह कि इस रचना का अनुवाद क्यों? दूसरा, उस रचना का अनुवाद कैसे? यानी पहला सवाल रचना के चुनाव और दूसरा अनुवाद की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। यह भी सच है कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जितनी रचनाओं का अनुवाद हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ है, इससे सबसे पहले कभी नहीं हुआ। स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान लेखक जहाँ अपनी संस्कृति की जड़ों को पहचान रहा था, अपने ढंग से उसे पुनर्व्‍याख्‍यायित कर रहा था, वहीं पचास के बाद लेखक ने विश्व-साहित्य को पहले से कहीं ज़्यादा व्यापक स्तर पर देखने-परखने की कोशिश की। यह कोशिश इक्का-दुक्का स्तर से शुरू होकर बड़े पैमाने पर होने लगी और विश्व के अनेक देशों का साहित्य हिन्दी माध्यम से हमारे सामने आने लगा। अनुवाद, भावानुवाद, पुनः सर्जन या रूपांतर की प्रक्रिया पर भी बात होने लगी। ज़ाहिर है कि अधिक-से अधिक देशों के साहित्य को जानने की ललक एक स्वागत योग्य बात थी, पर इसके साथ सबसे बड़ी समस्या भाषा कि थी। प्रायः यह माना जाता है कि साहित्य की मूल भाषा से किया गया अनुवाद या पुनः सर्जन मूल के सबसे ज़्यादा नज़दीक होता है और सीधे मूल भाषा (स्रोत भाषा) से ही लक्ष्य भाषा में अनुवाद होना चाहिए। एक ओर तो अधिक से अधिक साहित्य जानने की ललक, इसी बहाने दूसरे देशों के परिवेश; उनके लोगों की धड़कनें, उनके जीवन-मूल्यों को जानने-समझने परखने की इच्छा और दूसरी ओर भाषा का व्यवधान। कुछ साल पहले तक ही देखें तो प्रायः उन्हीं कृतियों का अनुवाद संभव हुआ है जो अंग्रेज़ी में उपलब्ध थीं और अंग्रेज़ी में तो पश्चिमी देशों और पश्चिम के भी पूँजीवादी, सामंतवादी देशों का साहित्य ही उपलब्ध रहा तथा शेक्सपियर, बर्नार्डशा या इब्सन जैसे लेखकों का ही अनुवाद बार-बार हुआ। अंग्रेज़ी के माध्यम से ही अमेरिकी साहित्य भी हिन्दी में आने लगा। कुछ अनुवाद और कुछ रूपांतर के बहाने कविता के अनुवाद के बाद सर्वाधिक अनुवाद या रूपांतर नाटकों का हुआ। यह संभवतः इसलिए कि इस सदी में छठे दशक के आरंभ से हिन्दी रंगमंच एक रंगांदोलन के रूप में विकसित होने लगा था।

पश्चिमी पूँजीवादी देशों के साहित्य का अनुवाद कम, रूपांतर अधिक हुआ, कारण है वहाँ और यहाँ के परिवेश में अंतर, वहाँ के जीवन-मूल्यों और भारतीय जीवन-मूल्यों में बड़ा फ़र्क है। आदमी की मूल-वृत्तियों में कोई अंतर न होते हुए भी सामाजिक स्तर पर उनकी अभिव्यक्ति में अंतर है। जो बात अमेरिकी समाज में स्वीकार्य है, वह हमारे यहाँ एक सामाजिक या नैतिक मूल्य के रूप में स्वीकार नहीं हुई। उदाहरण के लिए, यूजीन ओ' नील के त्रासद नाटकों की बात की जा सकती है। अकेलेपन की त्रासदी, घोर व्यक्तिवादिता, नैराश्य आदि हमारे समाज में आज भी स्वीकृत मूल्य नहीं हैं। यह अलग बहस की बात हो सकती है लेकिन यह सच है कि भारतीय समाज आज भी उसी साहित्य को ज़्यादा खुले मन से स्वीकार करता है जो आदमी की रुचियों को परिमार्जित और परिसंस्कारित करके उदात्त मूल्य की ओर ले जाता है, उसे समाज के साथ जोड़ता है। यही कारण है कि पिछले तीस सालों में भारतीय और खासकर हिन्दी का लेखक समाजवादी देशों या फिर अफ्रीकी साहित्य के प्रति ज़्यादा आकृष्ट हुआ है। वह पश्चिमी यूरोप की अपेक्षा पूर्वी यूरोप से अधिक जुड़ा है। इधर रूसी तथा चीनी साहित्य भी अनुवाद के माध्यम से सामने आया है, जिसकी लंबी तालिका अलग से बनाई जा सकती है।

समाजवादी देशों के साहित्य से जुड़ने का मुख्य कारण यह रहा है कि वहाँ के जीवन-मूल्य हमारे जीवन-मूल्यों के क़रीब बैठते हैं, मानवीय स्तर पर बेहतर विश्व की संकल्पना को साकार करने के लिए यह व्यवस्थाएँ ज़्यादा तत्पर और ईमानदार नज़र आती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में पनपे छोटे-छोटे स्वार्थ यहाँ संघात का कारण नहीं बनते, बल्कि यहाँ का साहित्य मानवीय स्तर पर बड़े सवालों से जूझता है। वैसे ही जैसे भारतीय साहित्यकार जूझ रहा है। इसलिए हिन्दी लेखकों का इस ओर आकृष्ट होना बहुत ही स्वाभाविक रहा है।

समाजवादी या अफ्रीकी देशों के साहित्य के अनुवाद या रूपांतर में सबसे बड़ी भाषा कि रही है। इसे भी लेखकों ने अंग्रेज़ी के माध्यम से यह सोचकर हल किया है कि क्या इतने विपुल साहित्य से हम इसलिए दूर रहे हैं कि हम वह भाषा नहीं जानते। कोई आखि़र कितनी भाषाएँ सीख सकता है? आज भारतीय साहित्य की केंद्रीय भाषा हिन्दी बन गई है। किसी भी रचना का हिन्दी में अनुवाद होते ही, उसका अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद सुलभ हो जाता है, ठीक इसी तरह से अंग्रेज़ी में किसी कृति के उपलब्ध होने से वह अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध हो जाती है। इस प्रक्रिया में हम स्रोत भाषा से दूर ज़रूर होते हैं; पर इन जीवन-मूल्यों पर बेहतर पकड़ होने के कारण हम मूल के आसपास ही होते हैं। किसी भाषा के ज्ञान के अभाव में उस भाषा के लेखक के साथ बैठकर और एक दुभाषिया बिठाकर अनुवाद में संभवतः बेहतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। ऐसा कितने लोगों के लिए संभव होता है। कभी लेखक ही उपलब्ध नहीं, तो कभी दूरियों के कारण यह संभव नहीं हो पाता।

जब मुझे बल्गारिया कि कुछ कविताओं के अनुवाद का अवसर मिला, तब अकविता का एक बल्गारिया विशेषांक निकल रहा था, उसी के लिए मैंने कुछ कविताओं का चुनाव करके अनुवाद किया। मेरे साथ विनोद शर्मा भी थे, हम दोनों अनुवाद करते, एक दूसरे को सुनाते और जहाँ संभव होता, सुझाव देते। इस अनुवाद प्रक्रिया में कई उलझनें भी सामने आईं। कविता के कुछ बिंब एवं प्रतीक अजनबी से लगे पर उन्हें जल्दी ही हमने आत्मसात कर लिया। इस प्रक्रिया से हमने यह भी सीखा कि हम एक भाषा से दूसरी भाषा में सीधा-सीधा अनुवाद नहीं कर रहे, बल्कि पूरी की पूरी कविता को फिर से रच रहे हैं। अपनी कविता रचने में जो सुख मिलता है, वैसा ही सुख हमें इन कविताओं के अनुवाद में भी मिला था। इसी से लगा कि यह कोई भाषांतर नहीं, बल्कि ख़ुद को रचना लोक में उतारना है और एक रचना को अपनी भाषा में पुनःसर्जित करना है। संभवतः इसीलिए उन्हें पसंद भी किया गया।

इससे पूर्व मैं पीटर शेफर के नाटक 'ब्लैक कामेडी' का रूपांतर कर चुका था। इस नाटक को ज्यों-ज्यों पढ़ता गया, लगता गया कि इसका मात्र अनुवाद हमारी सामाजिक स्थितियों, हमारे जीवन-मूल्यों और हमारे रंगमंच के अनुकूल नहीं है। अंग्रेज़ी परिवेश, अंग्रेज़ी समाज के मूल्यों और उनकी रंगमंच पर अभिव्यक्ति हमारे जीवन के क़रीब नहीं लगती। उदाहरणार्थ, पात्रों के बार-बार चुंबन, आलिंगन और पिता-पुत्री का एक साथ शराब पीना जैसी कुछ बातें यहाँ स्वीकार्य नहीं हैं। जबकि वहाँ के आदमी और यहाँ के आदमी की मूल वृत्तियों में कोई फ़र्क नहीं है। साहित्य में आई यह मूल वृत्तियाँ ही हमें एक दूसरे के साथ जोड़ देती हैं। नाटक वहाँ के पाखंड और आडंबर पर व्यंग्य भी करता था, वैसा ही पाखंड और आडंबर हमारे समाज में भी है। मैंने उसे रूपांतरित करने का निर्णय लिया और भारतीय परिवेश के मुताबिक उसका रूपांतर 'अँधेरे में' नाम से किया। भारतीय परिवेश में ढलने के कारण वह बिल्कुल अपना लगने लगा और अनेक नाट्य-मंडिलियों ने देश के अनेक शहरों में उसका मंचन भी किया। इसी बीच कुछ अफ्रीकी कविताओं के अनुवाद करने का अवसर भी मिला।

कहने का अर्थ यह है कि किस रचना का अनुवाद होना चाहिए और किसका रूपांतर, इसका निर्णय लेकर कोई रचनाकार आगे बढ़ सकता है। यह भी सच है कि तकनीकी अनुवाद करने के लिए सृजनात्‍मक अनुवाद संभव नहीं होता और जो लोग पेशों की तरह या फिर मशीन की तरह से अनुवाद करते चले जाते हैं, वे प्रायः अच्छी रचनाओं की हत्या कर देते हैं। इसके विपरीत जब भी कोई रचनाकार किसी दूसरी कृति से प्रभावित होकर अनुवाद करता है, शौक से करता है, तो ऐसी रचनाएँ बेहतर रूप से हमारे सामने आती हैं।

इंडो-बल्गारियन लिटरेरी क्लब की एक बैठक में यह फ़ैसला हुआ कि कुछ चुनिंदा बल्गारियाई साहित्य का हिन्दी में अनुवाद किया जाए और हिन्दी के साहित्य को बल्गारियाई भाषा में अनूदित करवाकर आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया शुरू की जाए। इसी प्रक्रिया कि एक कड़ी के रूप में श्री कर्तार सिंह दुग्गल ने एक नाटक का अनुवाद मेरे ज़िम्मे किया। इसके लिए वालेरी पित्रोव का एक नाटक चुना गया। यह नाटक भी अंग्रेज़ी में उपलब्ध हुआ। बल्‍गोरियन मुझे आती भी नहीं, अंग्रेज़ी का अनुवाद स्पास निकालेव ने 'ह्वैन दि रोजे़ज़े और डांसिंग' नाम से किया है। तय हुआ कि मैं बैठक में इस नाटक के चालीस-पचास पृष्ठ अनुवाद करके पढूँ और उस पर बात होती चले। पूरा नाटक पढ़ गया, ज्यों-ज्यों इसे पढ़ता गया, अपने समाज से जोड़कर इसे देखता रहा। अपने रंगमंच से जोड़कर परखता रहा। यह भी प्रश्न कि इसका अनुवाद करूँ या रूपांतर। रूपांतर करने की ज़रूरत मुझे इसलिए महसूस नहीं हुई कि सामाजिक परिवेश, चरित्रों की बनावट और रंगमंच की ज़रूरत के मुताबिक मुझे यह अपना-सा लगा।

मन में सबसे पहला सवाल यह आया कि यह उपलब्ध नाटक मूल नाटक के कितना क़रीब होगा और फिर जब मैं उस अनुवाद का अनुवाद करूँगा तो वह मूल से कितना दूर हो जाएगा? ऐसे में कहीं मूल रचना से मैं बहुत दूर तो नहीं चला जाऊँगा? रंगमंच की ज़रूरतों पर भी मैंने विचार किया। अपना हिन्दी रंगमंच पश्चिमी रंगमंच की दृष्टि से तकनीकी रूप में अभी शायद बहुत विकसित न हो तो भी हमारे रंगमंच ने अपना एक मुहावरा अर्जित किया है और मुश्किल से मुश्किल नाट्यालेखों को भी एक-से-अधिक शैलियों में मंचित किया है। तकनीकी दृष्टि से यह नाटक मुझे बहुत सक्षम और विकसित लगा। बल्गारियाई रंगमंच के विकसित स्वरूप की ओर भी यह नाटक संकेत करता है। अतएव मैंने दो फैसले किए, पहला यह कि नाटक का रूपांतर नहीं, अनुवाद होगा और अनुवाद का मेरे लिए अर्थ होगा पूरी रचना को फिर से रचना। उसे पुनः सर्जित करता। अनुवाद शब्द तकनीकी अर्थमें जो भ्रम खड़ा करता है, वही सबसे पहले ढूँढ़ना ज़रूरी है, दूसरा यह कि तकनीकी दृष्टि से इसमें परिवर्तन नहीं करूँगा और मंचित करने की स्थिति में किसी भी निर्देशक को नाट्यालेख के अनुरूप ही नाट्यशैली को सृजित करना होगा, गढ़ना होगा।

नाटक गद्य पद्य में लिखा हुआ है, पद्य कहीं तुकांत हैं, कहीं नहीं भी हैं, पर ऐसे स्थल कम हैं। मन में सवाल उठा कि सारे नाटक को गद्य में ही क्यों न बदल दिया जाए। फिर लगा कि नहीं यह मूल-आलेख का अनुवाद है तो मूल-आलेख में भी कविता होगी और अब कविता को गद्य में ढाल देना सुविधा का रास्ता है। इससे नाटक के मूलस्वरूप से बहुत दूर होना होगा। इसी के साथ जुड़ा सवाल यह भी था कि क्या हिन्दी अनुवाद तुकांत किया जाए या मुक्त छंद में। छंद का अनुशासन कविता के भाव को कई बार कम करता है खंडित करता है क्योंकि तब छंदानुसार निर्वाह करना बहुत ज़रूरी हो जाता है। कविता में लय रहे तो भाव और अंदाजे़-बयाँ भी बना रहता है। इसलिए मैंने काव्य का अनुवाद करते हुए कहीं तुक तो कहीं भावमुक्‍त लय का ही सहारा लिया है। मकसद तो बात को, वस्तु को, या तनाव को या नाट्य-गति को संप्रेषित करने का है। उदाहरणार्थ, अंग्रेज़ी में-नाटक की शुरुआत में युवक कहता है-

All though the trivial may born ye–I truly must implore your pardon.

(इसका अनुवाद मैंने किया) -

युवक-हो सकता है वह छोटी-सी बात, करे आपको बोर।

क्षमा माँग लेता हूँ पहले, नहीं कीजिए शोर॥

भारतीय रंग-परंपरा के अनुसार नाटक, नाटककार या नाटक की वस्तु के बारे में सूचना सूत्रधार या नट-नटी के माध्यम से मिलती है। अंग्रेज़ी में 'नैरेटर' की परिकल्पना है लेकिन 'नैरेटर' सूत्रधार की कल्पना के कहीं आसपास भी नहीं बैठता। युवक को सूत्रधार के रूप में बदला जा सकता था, पर वह रूपांतर होता, भावानुवाद में इस तरह की ज़रूरत नहीं होती। यहाँ 'बोर' शब्द का इस्तेमाल बोर के रूप में किया गया, क्योंकि यह आम बोलचाल में हमारे यहाँ स्वीकृत शब्द है, 'नहीं कीजिए शोर' अंग्रेज़ी की दो पंक्तियों में कहीं नहीं है। इससे नाट्य-प्रस्तुति की शुरुआत को बल मिलता है, यहाँ काव्य की अर्द्धपंक्ति कहीं भी नाट्य-वस्तु, नाट्य-गति या नाट्यप्रस्तुति को तोड़ती नहीं है। कहने का अर्थ यही कि भावानुवाद करते हुए कुछ छोड़ने और कुछ जोड़ने की छूट भी पुनः सर्जन करने वाले सर्जक को लेनी होती है, पर यह छूट कोई ऐसा लाइसेंस भी नहीं माना जाना चाहिए, जिससे अनूदित रूप में रचना मूल रचना के बिल्कुल विपरीत हो जाए या उससे बहुत दूर चली जाए।

'ह्वैन दि रोज़ेज़ और डांसिंग' की पहली समस्या इसे हिन्दी में एक उपयुक्त शीर्षक देने की थी, 'जब गुलाब नच रहे हों' , 'नाच रहे हों जब गुलाब' या 'नाच तीन गुलाबों का' आदि कई शीर्षक मन में आए-पर कोई भी नाटक की वस्तु के अनुरूप नहीं लग रहा था। नाटक की वस्तु है प्रेम। प्रेम के प्रति किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में बदलता हुआ दृष्टिकोण। प्रेम के साथ जुड़े हुए नैतिक मूल्य। बदलते हुए समाज के साथ प्रेम के साथ जुड़े नैतिक मूल्यों के न बदलने का संकट और उससे पैदा हुआ पीढ़ियों का तनाव। नाटक अंततः प्रगतिशील, मानववादी दृष्टि को स्वीकार करता है, इस तरह से नाटक में प्रेम के बहाने एक समाजवादी देश में नैतिक, सामाजिक मूल्यों के प्रति अलग-अलग तीन पीढ़ियों के दृष्टिकोण, उनके आपसी संघात और उससे पैदा तनाव को बहुत बारीकी से स्थितियों और घटनाओं के माध्यम से रेखांकित किया गया है। ऐसी ही समस्या हमारे यहाँ भी है। किसी भी समाज में ऐसी समस्या हो सकती है। यह नाटक किसी भी देश का, किसी भी समाज का थोड़े से परिवर्तनों के साथ बिल्कुल अपना हो सकता है। यह किसी भी रचना कि बड़ी ताक़त होती है, तो अपनी इसी ताक़त की पहचान करवाने के लिए वालेरी पित्रोव ने 'गुलाब' को प्रतीक रूप में इस्तेमाल किया है। प्रतीकात्मक और नाट्य-वस्तु की रक्षा करते हुए इसे मैंने नाम दिया–'क़िस्सा तीन गुलाबों का'। इसमें 'क़िस्सा' एक ऐसा शब्द है जो सीधे-सीधे हमें नाट्य के कथा-पक्ष से जोड़ता है। हिंदी-प्रदेश में यह शब्द अपनी अहमियत रखता है, अंग्रेज़ी में यह शब्द समझ नहीं आएगा। तो एक आधुनिक किस्से के बहाने ही तो नाटक की वस्तु हम तक संप्रेषित होती है, इसीलिए मुझे यही नाम उपयुक्त लगा। भावानुवाद या पुनःसृजन की प्रक्रिया में रचना क्या स्वरूप लेती है, एक उदाहरण के ज़रिए इसे समझा जा सकता है, नाटक के तीसरे अंक की शुरुआत में कुछ पंक्तियाँ हैं-

Ah, when the roses are dancing

The old are even, young and hole,

And they...... as phalt street are fancying

To be fragrant blooming vale

यह प्रसंग काफ़ी लंबा है और इसे एक गीत में बदलकर रखा गया है, कहीं कुछ छोड़ा नहीं गया, बस स्वरूप बदला है। ऊपर की पंक्तियों का काव्यानुवाद यूँ हुआ है-

वाह! नाच रहे हों जब गुलाब,

बूढ़ों को भी जगे जवानी

देखो तो चेहरे की ताब;

सजा रहे हैं वे सड़कों को,

खुशबू भरी विदा कहने को,

कहीं चहक है मुस्कानों की,

कहीं अश़्क फैले सहने को;

हर अवसर हैरानी का क्यों?

" मत पूछिए जनाब-

नाच रहे हों जब गुलाब। "

यहाँ बाद की दो पंक्तियों का भाव भी शामिल है और ऊपर की चार पंक्तियों का भी, अब इनका शब्दानुवाद किया जाए तो न तो उसमें रंग आएगा और न ही नाट्यगति।

बात नाटक के नाम की हो या अनुवाद की समस्या की, हमारे बीच कोई भी ऐसा व्यक्ति उस समय नहीं था जो बल्‍गेरियन और हिन्दी को समान रूप से जानता हो और जिसने नाटक को मूल रूप में पढ़ा हो। बल्गारिया के ही मित्रो से नाटक का मूल नाम पूछा तो उन्होंने बताया, 'कोगातो रोजिते तान्सूवत'। यहाँ यह कहना मुश्किल है कि वे मूल नाम बता रहे थे या 'ह्वैन दि रोज़ेज आर डांसिंग' को बल्गारियन भाषा में अनुवाद कर रहे थे। बहरहाल नाटक की पूरी वस्तु को ध्यान में रखते हुए ही उसे 'किस्सा तीन गुलाबों का' नाम दिया गया।

अनुवाद की इस प्रक्रिया में यह भी अहसास हुआ कि हम विदेशी साहित्य का अनुवाद करते हुए सिर्फ़ शब्दों को नहीं बदलते, बल्कि उस संस्कृति को अपनी भाषा में ढाल रहे होते हैं, जो उस रचना के रेशे-रेशे में समाई होती है। 'पीटर शेफ़र' के नाटकों की संस्कृति और वालेरी पित्रोव के इस नाटक की संस्कृति में मूल तत्‍व 'प्रेम' होते हुए भी सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर उसकी अभिव्यक्ति में अंतर आ जाता है। अपने इसी अंतर के कारण ही जहाँ पीटर शेफ़र की 'ब्लैक कामेडी' विदेशी लगती है, वहीं 'कोगातो रोजिते तान्सूवत' बिल्कुल अपना लगता है।

हर भाषा अपने मंच के अनुरूप एक शैली तलाशती है। पर नाटककार उस शैली को नए-नए आयाम देता है और जब एक भाषा का नाटक दूसरी भाषा में जाता है तो मंच के मुहावरे के अनुरूप उसमें कुछ परिवर्तन ज़रूरी हो जाते हैं। ऐसे परिवर्तन यहाँ भी किए गए हैं जो हिन्दी रंगमंच के प्रेक्षक को ग्राह्य हों, स्वीकार्य हों। मैंने बोलचाल की भाषा के क़रीब रहने की कोशिश की है और कहीं शब्दों के नितांत अभाव में तत्सम शब्द आए हैं। कहीं-कहीं तो सारा रूप ही बदला हुआ लग सकता है, लेकिन संवादों की अंतर्धारा को मैंने कहीं नहीं बदला। नाट्य का 'अंडर करेंट' अपनी जगह मौजूद है। इस तरह के अनेक उदाहरण लिए जा सकते हैं। वस्तुतः नाटक की असली परीक्षा तो रंगमंच पर ही होती है चाहे नाटक मंच के अनुरूप लिखा जाए या नाटक के अनुरूप मंच बने और कोई नई नाट्यशैली विकसित हो। ऐसी नाट्यशैली की माँग यह नाटक भी करता है। यही बात इस नाटक का अनुवाद करते हुए भी मेरे साथ घटित हुई।