नाना पाटेकर, प्रकाश राज और परिवार / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नाना पाटेकर, प्रकाश राज और परिवार
प्रकाशन तिथि :06 मई 2016


दक्षिण भारत में प्रकाश राज विविध भूमिकाएं कर चुके हैं। उन्होंने तमिल, तेलगु के साथ मलयाली भाषी फिल्मों में अभिनय किया है परंतु शेष भारत की फिल्मों में उनकी छवि खलनायक की है। उन्होंने दक्षिण में फिल्में भी निर्देशित की हैं और अब हिंदुस्तानी में वे 'तड़का' बना रहे हैं। भारतीय पाक शास्त्र में तड़के का महत्व है, जो पकते हुए भोजन का आखिरी पड़ाव है। तड़का जो विविध प्रकार का होता है। लहसुन का तड़का प्राय: लगाया जाता है। पश्चिम की पाक-कला में तड़का नहीं होता। वहां भोजन में पकाई वस्तु का अपना स्वाद ही अक्षुण्ण रखा जाता है। तड़का मूल के स्वाद में आमूल परिवर्तन ले आता है। हम तो रिश्तों में भी तड़का लगाते हैं और रिश्ते खट्‌टे-मीठे होते हुए भी उनमें तीव्र तीखापन आ जाता है। मूल पदार्थ के स्वाद पर चादर तान देता है तड़का और इसका स्वाद लंबे समय तक बना रहता है। राजनीति में भी भड़काऊ और उत्तरदायित्वहीन भाषणों से लोग तड़का लगा देते हैं। जीवनशैली में भी तड़के के समान तड़क-भड़क का समावेश किया जाता है। सिर पर बंधे साफे में जो कलगी है, वह पहनने वाले का तड़का ही होता है।

प्रकाश राज की फिल्म 'तड़का' में केंद्रीय भूमिका नाना पाटेकर कर रहे हैं। अक्खड़ता में पाटेकर और प्रकाश राज एक-दूसरे के पूरक हैं। उनका आगमन कांच के मकान में पागल सांड के प्रवेश की तरह होता है और जहां से वे गुजरते हैं, मार्ग पर लहू के छींटे पड़े होते हैं। वे लोगों के दिखावे और व्यवहारपटुता को भंग करते हैं। ये लोग भीतर से कोमल हैं और व्यवहार में दबंग उनका व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह हैं। भीतर वे जानते हैं कि उनकी प्रखरता व ओढ़ी हुई हिंसक मुद्रा से कुछ बदलने वाला नहीं है। यही एहसास उनके मन को मथता रहता है। उनके मथे जाने पर दूध से मक्खन की तरह कुछ नहीं निकलता। कुछ न बदल पाने से जन्मी हताशा मथे जाने पर कड़वाहट को ही उत्पन्न करती है।

विगत कुछ समय से पाटेकर किसानों के मन से आत्महत्या का विचार हटाने की सार्थकता में जुटे हैं। उनका आक्रोश सृजनकारी बन रहा है। बहरहाल, प्रकाश राज पाटेकर की तरह होते हुए भी अपनी ऊर्जा को समाज सुधार की ओर नहीं ले जा रहे हैं। वे सिनेमा में ही अपने को उजागर करने में तल्लीन हैं। अपनी एक हिंदी फिल्म में उनकी पुत्री के प्रेमी के साथ पलायन कर जाने पर उसे खोजते हुए वे विक्षिप्त से हो जाते हैं और कहते हैं कि केवल एक बार उनकी लाड़ली ने उनसे मन की बात कही होती तो वे स्वयं उसका विवाह करा देते। इस तरह से वह दृश्य पिता व संतान के बीच संवादहीनता का शोक मनाता है।

फिल्म से परे हमारे अपने परिवारों का गठन कुछ ऐसा हुआ है कि पिता के प्रति सम्मान भय में बदल जाता है और यही भय संवादहीनता का मूल कारण भी है। अगर यह सम्मान शिखर की ओर जाते हुए मित्रता का रूप ग्रहण करे तो संवाद संभव हो जाता है। जाने कैसे ये सम्मान का भाव प्रश्न पूछने की इजाजत नहीं देता, जबकि जिज्ञासा से जन्मे प्रश्न के उत्तर दिए जा सकें तो सम्मान का रूप उभरता है, जो समस्या के स्थायी हल खोजता है। आज दो पीढ़ियों के बीच की संवादहीनता कुंठाओं को जन्म दे रही है। हमने आदर को दिखावे में बदल दिया है। उम्र और ओहदे में छोटे लोग सारी उम्र चरणस्पर्श करते रहते हैं, जिससे उनकी रीढ़ की हड्‌डी में विकार आ सकता है। क्या हाथ मिलाना या गले लगना पर्याप्त नहीं है। के. आसिफ की मुगल-ए-आजम में अकबर विद्रोही सलीम का कंधा चूमते हैं। पिता-पुत्र रिश्ते में कंधे का महत्व प्रतिपादित किया जाना चाहिए, क्योंकि अंतिम यात्रा भी कंधों पर ही होती है। वह बड़ा अभागा पिता है, जिसके कंधे पर पुत्र जाता है, क्योंकि उसकी इच्छा तो पुत्र के कंधे पर जाने की होती है। श्रवण कुमार ने भी कंधों पर माता-पिता को यात्रा कराई थी। कंधों पर ही परिवार का आर्थिक भार भी होता है, जो कंधों को शक्ति से भर देता है। अर्जुन ने गांडीव को कंधे पर ही उठाया था। हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का भार जिन कंधों पर है या होना चाहिए था, उन्होंने अमेरिका से कंधे ले लिए हैं। अन्य के कंधों पर निर्भर रहने से पैर गलत दिशा में अग्रसर होते हैं। अर्थशास्त्र का केवल कलकत्ता स्कूल अांकड़ों पर निर्भर नहीं रहकर मनुष्य की प्रसन्नता को महत्वपूर्ण मानता है। वह आय खोखली है, जोसमाज को खुशी नहीं देती।