नाम में क्या रखा है? / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'

Gadya Kosh से
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अखबार में मेरा नाम छपने के कारण आज मेरे मन में खुशी की लहरें दौड़ रही थीं। दिमाग में दिवास्वप्न चल रहा था, नामी होने का। उधर जनगणना का काम भी करता जा रहा था। मन कभी-कभी खिन्न हो उठता था जब आदिवासी लोग अपने बाल-बच्चों का नाम नहीं बता पाते थे। बोने लाल मरांडी काफी उद्विग्न था। वह मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वह चाहता था कि जल्द-से-जल्द उसके घर जाकर उसके परिवार का नाम लिख लूं। सरकार जब नाम लिखवा रही है तो कुछ-न-कुछ जरूर मिलेगा। बोनेलाल के पहले एक बुढ़िया का मकान पड़ता है। विधवा सास-पुतोहू साथ रहती है। पुतोहू मजदूरी करने गई थी और बुढ़िया भेड़ चराने। मैंने मकान का हुलिया देखा। बूढ़ा मकान आगामी जनशून्यता को प्राप्त होने के पहले ही अपने को ढाह देना चाहता था। अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता था।

बोनेलाल दौड़कर बुढ़िया को बुला लाया। एक हाथ में लाठी थामे वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। उसके बदन पर नाम मात्र का कपड़ा था। मैंने पूछा, "दादी जी, आपका नाम क्या है?"

मेरा प्रश्न सुनते ही उसके चेहरे की मायूसी गहरी हो गई। वह कुछ देर तक सोचने लगी। फिर अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोली, "नाम? नाम तो भूल गया हूँ बेटा!"

"क्या कहती हो दादी, अपना नाम भूल गई?"

बुढ़िया के हाँ शब्द के साथ हा करके उसका मुंह खुल गया था। मुंह में हिलते हुए केवल दो दांत बचे थे। बोली, "कुछ भी लिख दो न बेटा, नाम में क्या रखा है?"

बुढ़िया का उत्तर सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे शेक्सपियर की उक्ति याद आ गई—व्हाट इज इन द नेम?