नायक खलनायक का सामाजिक पोस्टमार्टम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 30 अक्तूबर 2012
बिल बटलर एक कवि थे और उनकी रुचि लोककथाओं और धार्मिक आख्यानों में थी। उनकी मृत्यु १९७७ में हुई और उनकी लिखी अंतिम किताब 'द मिथ ऑफ द हीरो' १९७९ में प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने आख्यानों और साहित्य में प्रस्तुत नायक और खलनायक का विवरण उनके कालखंड के संदर्भ में किया है। उनके अध्ययन और आकलन की बानगी देखिए कि वे कहते हैं कि कृष्ण के रास में नृत्य करने वाले धरती पर अपने शरीर संचालन से एक पैटर्न प्रस्तुत करते हैं और लगभग वैसे ही पैटर्न हम कुरुक्षेत्र के युद्ध में भी देखते हैं। रास जीवन में आनंद का नृत्य है और युद्ध मृत्यु का नृत्य। महाभारत में दोनों नृत्यों के केंद्र में कृष्ण हैं। बिल बटलर ने हीरो बनने और उसकी छवि बिगडऩे के विविध कारणों को भी प्रस्तुत किया है, जिसका सारांश यह है कि आम आदमी की मनोवैज्ञानिक जरूरत हीरो गढ़ती है। यहां बात फिल्म मात्र के हीरो की नहीं है।
एक अन्य विद्वान का कथन है कि बच्चे को उस समय जवान होना मानना चाहिए, जब वह महसूस करने लगे कि उसके पिता एक साधारण परिश्रमी व्यक्ति हैं और वह एक प्रेरक आदर्श की तलाश शुरू करता है। कभी उसे यह आइकॉन सिनेमा में मिलता है, कभी खेलकूद के मैदान में, तो कभी साहित्य तथा जीवन के अन्य क्षेत्रों में मिलता है। इस तरह युवा किसी का प्रशंसक हो जाता है और प्रशंसक होते ही वह अपनी तर्कशक्ति और स्वतंत्र विचार प्रणाली को कुछ हद तक खो देता है। भक्त इसी भाव को अनुभूति की तीव्रता से करता है, परंतु दोनों ही यथार्थ से विमुख हो जाते हैं। इसलिए सच्चा विचारक प्रशंसक से घबराता है और जो लेखक-विचारक प्रशंसा की भंवर में फंस जाते हैं, उनका सृजन अवरुद्ध हो जाता है।
वैदिक काल से आज तक नायक अवधारणा कालखंड से प्रभावित होती रही है। आज उपभोगवाद का दौर बाजार और प्रचार ने रचा है। अंग्रेजी भाषा में कंज्यूम और कंजम्प्शन शब्द हैं। यह गौरतलब है कि १९वीं सदी और लगभग आधी बीसवीं सदी तक क्षय रोग को कंजम्प्शन कहते थे। कीट्स इसी रोग से मरे, परंतु उनके कालखंड के उनके निकट मित्रों का विचार था कि वे अपनी कविताओं की तत्कालीन कटु आलोचना के कारण मरे, गोयाकि टुच्चे आलोचकों ने उनकी हत्या की है। आलोचकों की स्थिति 'अमेडियस' में प्रस्तुत दरबारी संगीतज्ञ कैलरी की तरह है, जो पहली बार मोजार्ट की प्रतिभा से इतना भयभीत हुआ कि थियेटर से भागकर सड़क पर आ गया और ईश्वर को संबोधित करके बोला कि महत्वाकांक्षा मुझे और प्रतिभा मोजार्ट को! इस तरह का घटियापन हर दौर में रहा है, परंतु वर्तमान में वह मुख्यधारा है।
बहरहाल, गौरतलब यह है कि आज का उपभोगवाद भी एक तरह का लाइलाज क्षय रोग है और उसके नायकों के शिखर पर जाना और पतनोन्मुख होना भी इसी तरह का है। रजत गुप्ता नायक थे, अभी सजा काट रहे हैं। हमने इनका ही लघु रूप हर्षद मेहता में देखा है। गोल्फ के गॉड टाइगर वुड्स का पतन हम देख चुके हैं। क्रिकेट में दक्षिण अफ्रीका के 'योग्यतम' कप्तान हैंसी क्रोन्ये का हश्र हम देख चुके हैं और भारतीय टीम के एक कप्तान भी टेलीविजन पर रो-धोकर अपने दाग धोने में सफल हो गए।
गौरतलब है कि नमिता देवीदयाल और प्रज्ज्वल हेगड़े का कथन है कि वर्तमान में भौतिक सफलता को आभामंडित किया गया है और इसने अपनी जाति प्रथा भी रची है, जिसमें 'श्रेष्ठि वर्ग' के अपराध अनदेखे किए जाते हैं। यहां तक कि बदजुबानी और बदतमीजी को भी उनकी अदा माना जाता है। इस तरह समाज स्वयं भी नायक के उदय और पतन के लिए जिम्मेदार है। अवतार अवधारण का ही एक स्वरूप 'हीरो' की रचना है। परेशानी की बात तो यह है कि धार्मिक आख्यानों से केवल कुछ अंशों को लोकप्रियता प्राप्त है कि जब धरती पर अन्याय बढ़ेगा, तब अवतार प्रकट होगा, जबकि उसी प्रसंग का अगला भाग यह है कि युद्ध तो मनुष्य को ही करना होगा- अवतार मनोवैज्ञानिक बल मात्र है। श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में रथ चलाया था, शस्त्र तो अर्जुन ने चलाया था।
दरअसल साधारण की अवहेलना एक सामाजिक बुराई है और आश्चर्य यह है कि साधारण ही सारी किंवदंतियों और प्रचार पर यकीन करते हुए 'हीरो' की संरचना करता है। इस साधारण की अवहेलना में ही शामिल है सादगी, मितव्ययिता और सरल जीवन प्रणाली का अवमूल्यन करते हुए उपभोगवाद को परोक्ष रूप से बढ़ावा देना। गोयाकि जीवन-मूल्यों और नैतिक आदर्शों का हनन बाजार और प्रचार तंत्र की आवश्यकता है और आम आदमी समझ ही नहीं पाता कि वह स्वयं इस बाजार में सिक्के की तरह खर्च हो रहा है और इसी आधारभूत सत्य के कारण भ्रष्टाचार-विरोध की लहर भी उस समय तक असर नहीं कर सकती, जब क समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना एवं स्वतंत्र विचार शैली के महत्व को समझना और समझाना सबका दायित्व नहीं बनता। भ्रष्टाचार-विरोध जैसा सार्थक काम भी केवल मिट्टी के पैर वाले हीरो को जन्म दे रहा है, जिनमें रिसाव हो रहा है।