नारी का विक्षोभ / रांगेय राघव
‘अभी चार-पांच साल की ही बात है’, कल्ला ने अपने चश्मे को उतार कर साफ करते हुए कहा, ‘मैं तब लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। आप तो जानते ही हैं कि लखनऊ में कैसी बहार है।’
बीच ही में सिद्दी बोल पड़ा, ‘ओह, बला की ठंड है। चंदू, जरा यार, ढंग से बैठो! कोई खुदगर्जी की हद है कि सारा कंबल अपने चारों तरफ लपेट बैठे हो। भाई, वाह?’
‘अमां, तो बिगड़ते क्यों हो? आखिर कोई बात भी हो’, मुड़कर चंदू ने कहा, ‘हां, भाई कल्लाजी, फिर!’
कल्ला ने अपने दुशाले को और अच्छी तरह लपेट लिया। फिर कहा, ‘लखनऊ की जिंदगी के तीन पहलू हैं, एक नवाबों का, दूसरा टुटपूंजियों का, और तीसरा गरीबों का। क्या बताएं यार, हमारा समाज ही कुछ...’
‘खबरदार!’ सिद्दी ने जोर से डांटकर कहा, ‘कह दिया है, बको मत!’
और चंदू ने अपने मटरगश्ती वाले लहजे से कहा, ‘हां, भई कल्ली जी, फिर?’
कल्ला फिर कहने लगा, ‘देखो यार, यह बोलने नहीं देता!’
चंदू ने सिद्दी की ओर देखकर कहा, ‘खामोश!’
कल्ला ने कहना शुरू किया, ‘जवानी किस पर नहीं आती, मगर जो उस पर आई, वैसी शायद हमने कभी नहीं देखी। मेरे साथ एक लड़का सूरज पढ़ता था। जात का वह कायस्थ था, एक लफंगा। लफंगा से तुमलोग कुछ न समझ लेना। भाई, वक्त ऐसा है कि कालेज के लड़के चलते हैं कि उनकी गिनती उस्तादों में हो। नेकटाई, सूट, चमचमाते जूते, कालेज में कोई कुछ पहन लें पर बात करने तक का जिसे सलीका नहीं, वह किसी काम का नहीं।’
‘सूरज की आंखे सदा लड़कियों की ही खोज में रहती थीं।’
‘संयोग की बात है,’ कल्ला ने आगे कहा, ‘एक लड़की सविता को देखकर सूरज पागल हो गया।’
‘सूरज के बाप नहीं थे, मां नहीं थी। हां, गांव में उसे चाचा थे, चाची थीं। उनके बाल-बच्चे थे। और सबसे बड़ी एक और बात थी। चाचा जमींदारी का इंतजाम करते थे। सूरज उनका कहना मानने वाला लड़का था। लेकिन कानून की नजर से चाचा सूरज के चाचा हों, या सिकंदर के चाचा हों, जायदाद का वह कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि वही जायदाद का मालिक था।
‘इस गारंटी के होते हुए सूरज को किस बात की चिंता होती!’
‘सविता देखने में जितनी सुंदर थी, उतनी की चतुर भी थी। सबसे बड़ी बात उसमें यह थी कि वह कालेज के डिबेटों में खूब हिस्सा लिया करती थी। जब वह बोलना शुरू करती, तो कोई कहता-इसका बाप भी ऐसी बातें नहीं सोच सकता! जरूर कोई उस्ताद है। इसके पीछे, जो प्रेम के कारण अपने आप को छिपा कर इसे आगे बढ़ा रहा है; लेकिन इन बातों से होता जाता कुछ नहीं। अगर मान लिया जाए कि वह रट कर ही आती थी, तो रटने की भी एक हद हुआ करती है। आज तक हमने नहीं देखा कि ‘चंदकांता संतति’ के चौबीसों हिस्से किसी की जबान पर रखें हों। वह बोलने में एक भी भूल नहीं करती।
‘उसके ख्याल एकदम आजाद थे। विधवा विवाह, तलाक, सहशिक्षा, स्त्री का नौकरी करना, गोया जिंदगी के जिस पहलू में नारी की जो बात है, वह सविता की ही थी। हर बात पर उसके अपने अलग विचार थे।
नए विचारों की वह लड़की शाम को लड़कों के साथ घूमने निकलती, पार्टियों में जाती, कविता लिखती। कविता का मजाक शायद आप लोगों को मालूम नहीं। कोई आपकी तरफ आंखें उठाकर देखता तक नहीं तो बस, कविता लिखिए!
सूरज ने जब सुना कि वह कविता करती है, तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। उस्ताद ने उसे देखा, तो सब कुछ समझ गए। उनके लिए क्या बड़ी बात थी? कालेज का लड़का चटकदार कपड़े पहने उनके पास आया है। चेहरा गुन्ना नून है, मतलब आंखों में वह खुशी नहीं, वह उत्साह नहीं, जो जवानी का अपना लक्षण है, तो आखिर इसका क्या कारण है? उस्ताद बिना पूछे ही भांप गए। उस्ताद ने मुस्करा कर पीठ ठोंकी। कहा, ‘बेटा, शाबाश! मगर मैं एक गजल के बारह आने से कम नहीं लेता। हुलिया बताओ, जो टूटा-फूटा ख्याल हो, उगल जाओ, आला जबान में तरतीब से सजी हुई वह चीज दे दूंगा कि जिसके लिए वह होगी, वह तो रीझेगा ही, इधर-उधर बैठे हुए भी दो-चार अपने आप रीझ जाएंगे।’
‘पांच रुपए का नोट काफी था। सूरज लौटा तो गुनगुनाते हुए। मुझे खुद ताज्जुब हुआः चार बजे गया था, तब एक शरीफ आदमी था। अब सिर्फ छह बजे हैं मगर शायर हो गए हैं।
‘आप शायद पूछेंगे कि सविता तो करती है कविता हिन्दी में और सूरज साहब करते हैं शायरी उर्दू में, ऐसा क्यों, तो सुन लीजिए कि कायस्थों में अधिकतर मर्द हिन्दी नहीं पढ़ते, औरतें पढ़ती हैं।
सविता भी कायस्थ थी। उसके एक छोटी बहन, एक छोटा भाई और एक बड़े भाई थे। भाई लॉ में पढ़ते थे। इरादा था छूटते ही वकालत शुरू करने का।
सविता अंधी न थी। उसे सूरज की बातें मालूम हो गई, लेकिन न जाने उसे एकदम टाले दे रही।
सूरज सविता को गुजरते देखता, तो गजल पढ़ता। जब उसका कोई नतीजा नहीं निकलता, तो कहता-खुदा समझे उस कमबख्त हाशिम से! ऐसे हंसकर चली जाती है, जैसे हम सिर्फ गजल पढ़ रहे हों।
किंतु प्रेम की कोई बात स्थिर नहीं है। उसके अनजाने का बंधन किसी भी वक्त जंग बनकर कठोर से कठोर लोहे को भी चाट जा सकते हैं। दोनों ओर एक-सी परिस्थिति है। दोनों ओर एक सी सूनापन है। आप कहें यह बेवकूफी की इंतहा है। मैं कहूंगा असली प्रेम वही है, ‘जिसे दुनिया बेवकूफी समझे, क्योंकि बेवकूफ वही है!’
चंदू ने टोककर कहा, ‘हम समझ रहे हैं!’
कल्ला ने एक बार सिर हिलाकर कहा, ‘समझ रहे हैं, तो बताइए क्या हुआ?’
सिद्दी ने कहा, ‘नहीं, आप ही बताइए!’
कल्ला मुस्कराया। कहने लगा, ‘तो हुआ वही जो होना था।’
‘यानी?’ सिद्दी ने चौंककर पूछा।
‘एक दिन’, कल्ला ने कहा, ‘सविता के बड़े भाई मेरे पास आए। कहा आप सूरज के गहरे दोस्तों में से हैं न?’
मैंने कहा, ‘जी हां, फरमाइए।’
‘वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘कैसा लड़का है?’
‘इसके बाद सोरों के पंडों की तरह मुझे सूरज के सात पुश्तों के नाम गिनाने पड़े। घर की हालत बतानी पड़ी।’
‘भाई साहब ने बताया कि उन्होंने कुछ उड़ती हुई उनके प्रेम की कहानियां सुनी हैं।’ मैंने कहा, ‘जी वे सिर्फ कहानियां ही नहीं हैं।’
‘मेरी तरफ गौर से देख कर भाई साहब मुस्कराए। कहा, ‘खैर! मैं औरतों की पूरी आजादी का कायल हूं, मेरी बहन ही सही, मगर जब मैं खुद चाहता हूं कि कोई पसंद की शादी करूं, तो मेरा फर्ज है कि उन्हें पूरी मदद दूं।’
‘अब मेरी भी सविता से जान-पहचान हो गई। हमारी जो मामी हैं, उनके भाई की बहन सविता की भाभी होने वाली थी। मगर अचानक उसके गुजर जाने की वजह से वह शादी न हो सकी।’
सिददी ने जम्हाई लेकर कहा, ‘बड़ा लंबा किस्सा है!’
‘लाजिए, साहब,’ कल्ला ने चिढ़कर कहा, ‘शादी हो गई सूरज और सविता की। छोटा हो गया अब?’
‘भाई तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर!’ चंदू ने सिगरेट पेश करते हुए कहा, ‘सिनेमा का-सा लुत्फ आ रहा है।’
सिद्दी ने कहा, ‘फिर?’
कल्ला ने एक लंबा कश खींचा, और धुआं छत की तरफ छोड़ कर फिर कहना शुरू किया, ‘उसके बाद एक दिन की बात है। सूरज, मैं और मेरा एक और दोस्त, चंद्रकांत, कालेज में घूम रहे थे। सविता की कालेज की पढ़ाई जारी थी। अब भी वह अपने भाई के यहां ही रहती थी, सूरज के यहां नहीं। शादी के तीन-चार महीने बीत चुके थे।
शादी हो जाने से तमीज आ जाती है, यह हमने जरा कम देखा है। सूरज की आदतें बदस्तूर कायम रहीं। किंतु इस बीच में यह जरूर हुआ कि मेरा सविता के यहां आना-जाना काफी बढ़ गया।
चंद्रकांत मुंह का बक्की था लेकिन दिल का बिल्कुल पक्का। सौ लड़कियों को देख कर दो सौ तरह की बोलियां निकाल सकता था, मगर वह जहर उसके दिल में नहीं। सिर्फ गले के ऊपरी हिस्से में ही था।
उस दिन चंद्रकांत ने लड़कियों की एक भीड़ देख मुस्कराकर कहा, देख यार कल्ला! कभी-कभी तो देख लिया कर!
लेकिन हम चूंकि जरा ऊंचे खयालों के आदमी हैं, इन बदतमीजियों में हमारा दिल, आपकी कसम, बिल्कुल नहीं लगता।
जिस लड़की की नीली साड़ी थी, वह चंद्रकांत की पुरानी जान-पहचान की थी। चंद्रकांत ने हाथ से इशारा करते हुए मुझसे कहा-देखा?
मैंने देखा, और बिल्कुल चुप। लड़की की पीठ मेरी ओर थी। झट से लाइब्रेरी में घुस गई। सूरज अपने ध्यान में मग्न पहचान नहीं पाया उसे। झट से चंद्रकांत का हाथ पकड़कर बोल उठा-चलो जरा देखें तो हातिमताई की हीरोइन बनने के लायक है या नहीं!
पहचान तो मैं गया था कि वह कौन है, फिर भी चाहता था कि सूरज को आज एक ऐसी नसीहत मिल जाए, जिसे वह जिंदगी भर याद करे।
लड़की की पीठ ही फिर नजर आई। सूरज ने दबी आवाज से कहा-काश हमें भी दीदार हो जाता।
लड़की ने मुड़कर देखा। सूरज के काटो तो खून नहीं। वह सविता थी। उसकी त्यौरियां पहले तो चढ़ीं, लेकिन जब सूरज को पहचान लिया, तब न जाने क्यों उसे हंसी आ गई। भला बताइए, कोई स्त्री अपने ही पति को इस हालत में देखे, तो उसे कोफ्त तो होगी ही, लेकिन हंसी न आ जाए उसे, यह नामुमकिन है। रेल में कोई आपकी जेब काटे और आप जेबकट को पकड़ कर देखें कि वह तो आप ही का छोटा भाई है, तो हंस कर डांटिएगा, या पुलिस के हवाले कर दीजिएगा।
हम तीनों लौट आए। चंद्रकांत को मालूम नहीं था कि सूरज सविता का पति है। उसने कहा-देखा आपने? है मुझमें कुछ अक्ल? पूरी भीड़ में ले जाकर किसके आगे खड़ा कर दिया आपको? जनाब जेब में पैसा चाहिए, बस फतह है!
सूरज मेरी तरफ देख रहा था। मैं जब चंद्रकांत को चुप होने का इशारा नहीं कर सकता था। वह बकता गया-सारा कालेज जानता है कि आज से दो साल पहले जब यह लड़की आई. टी. में थी तब इसका एक मास्टर से दोस्ताना था। मास्टर आदमी काबिल था। पढ़ाई में तेज, हॉकी खेलने में नंबर वन और हिंदुस्तान में चुनाव और प्रेम में कमाल कर दिखाने वाली चीज भी उसके पास थी, मेरा मतलब मोटर से है। यह दिन-रात उसके साथ मोटर में घूमा करती थी। भाई हैं इसके आपने लग मस्त।
कमबख्त बके जा रहा था। सूरज का सिर झुक गया। मैंने धीरे से इशारा किया कि चुप रह। मगर उसने समझा कि सूरज पर उस लड़की का प्रेम भूत बनकर सवार होने लगा है। उसने कहा-अमां, छोड़ों भी ऐसी लड़की से तो दूर ही रहा जाए, तो अच्छा। यह हिंदुस्तान है हिंदुस्तान! जब अपनी देसी सरकार बनेगी, तो इन अधगोरों का क्या हाल होगा, यह पंडित नेहरू भी नहीं बता सकते। जाने दो, यार! समझदार आदमी हो। क्यों तुम प्रेम-ब्रेम के चक्कर फंसना चाहते हो?
रात आ गई थी। सूरज बैठा सिगरेट फूंके जा रहा था। उसके चेहरे पर उदासी छाई थी। वह किसी घोर चिंता में पड़ गया था। देर के बाद उसने कहा-कल्ला, चाचा को मालूम होगा यह सब, तो क्या कहेंगे?
मैंने सुना, और सोचकर कहा-‘क्यों, चंद्रकांत को तुम्हारे चाचा का पता मालूम है?
नहीं तो।
-तो फिर उन्हें कैसे मालूम होगा? मैं तो कहने से रहा और सविता भी क्यों कहने लगी। अब आप ही अगर इतने अक्लमंद हों, तो मैं लाचार हूं। कम-से-कम, भई, मैं तो इसमें कुछ नहीं कर सकता।
सूरज ने कहा-और तो कुछ नहीं, लेकिन मुझे एक बात कचोट उठती है। जाते वक्त चंद्रकांत ने कहा था कि जिस आदमी से इस लड़की की शादी होगी, वह भी एक ही काठ का उल्लू होगा।
गनीमत है-मैंने दिल में कहा।
एक काम करोगे?-सूरज ने कहा।
मैंने पूछा-क्या?
‘सविता से मैं एकांत में मिलना चाहता हूं उसे यहां ले आओ?’
मैंने कहा, ‘चेखुश! यह क्या मुश्किल है?’
सूरज ने एक लंबी सांस को जैसे लाल किले से रिहा किया। मैंने कहा, ‘कल शाम को जाऊंगा। उसके यहां।’
सूरज खुश नजर आता था। दूसरे दिन जब शाम को मैं उसके कमरे में घुसा, तो उसने हर्ष से मेरे कंधों को पकड़कर कहा, ‘क्या कहा सविता ने?’
मुझे मन-ही-मन बड़ी हंसी आई। कानून की निगाह से, धर्म की रूह से, समाज के नियम से वही उस औरत का देवता है। मगर बात ऐसी करता है, जैसे शादी के पहले प्रेम हो रहा है।
मैंने कहा, ‘बात जरा गौर करने की है। बैठ जाओ, तब कहूंगा।’
सूरज ने बैठ कर सिगरेट सुलगा ली।
मैंने कहा, ‘मैं गया था उसके पास। उसने कहा-ऐसे कैसे मिल सकती हूं, अभी तो हमारा गौना भी नहीं हुआ।
सूरज ने तड़पकर कहा, ‘मुझसे मिलने के लिए गौने की जरूरत है? मास्टर से मिलने को तो किसी की जरूर नही थी? कैसे-कैसे आदमी हैं, इस दुनिया में?’
मैंने कहा, ‘मास्टर से सिर्फ मिलना-जुलना था। तुम्हारे यहां आने का मतलब स्पष्ट है। जमाना हंसेगा।’
‘और तब न हंसता था?’ सूरज ने मुझे घूरते हुए पूछा।
मैंने कहा, ‘खूब हो यार तुम भी! हकीकत से दुनिया डरती है। अपना ही मन साथ न हो, तो तिनका भी पहाड़ नजर आता है।’
लेकिन सूरज के समझ में न आना था न आया। उसने मेज पर मुट्ठी मार कर कहा, ‘तो एक महीने के अंदर देख लेना!’
मुझे फिर हंसी आई, जैसे वह कोई कमाल कर रहा हो।
लिख दिया सूरज ने अपने चाचा को। इजाजत लेना तो क्या एक तरह से इत्तला देनी थी। काम हो गया।
महीने भर बाद गौना हो गया। सविता उसके घर में आ गई। अब सूरज कभी-कभी मुझे भी घूरने लगा, क्योंकि मैं बार-बार सविता की तरफदारी करता था। कहा कुछ नहीं। थोड़े दिन तक जिंदगी ऐसे चली, जैसे चाय और दूध। लेकिन मैं आखिर कब तक चीनी बनकर स्वाद कायम रखता?
एक दिन दबी जबान से सूरज ने सविता से उसके पहले जीवन के बारे में प्रश्न किया।
सविता ने कहा, ‘आप ऐसी बातें करते हैं? मुझे सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। आपलोग जो कुछ करते हैं, हमलोग तो उसका पांच फीसदी नहीं कर पाते।’
सूरज मन-ही-मन कुढ़ गया। उसके हृदय में पुरुषत्व की वह जायदाद की मिलकियत वाली बात, जो उसमें कूट-कूट कर सदियों से भरी हुई थी, भीतर-ही-भीतर चोट खाते सांप ही तरह फुंफकार उठी। स्त्री और पुरुष की क्या बराबरी? वेद में जिक्र है, यज्ञ के खंभे में अनेक रस्यिां बांधी जा सकती हैं। हां, एक रस्सी से दो खंभे नहीं बांधे जा सकते। सूरज चुप हो रहा। मास्टर से सविता का क्या संबंध था, इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला। वह जो अंधेरा था, उसमें भीतर का अविश्वास, नफरत का भयानक भेड़िया बनकर इधर-उधर घूमने लगा, कि कब शिकार की आंखें जरा झपके, और कब वह झपट कर अपने दांतों की नोकों को उसके गले में गड़ा दे और उसके शरीर को नोच-नाच कर तीखे नाखूनों से फाड़ डाले।
सीधी-सादी बात थी। अगर सूरज पूछ लेता, तो बात वहीं को वहीं साफ हो सकती थी। लेकिन अपना पाप ही तो समस्त निर्बलता की जड़ है।
सविता ने कहा, ‘आप मुझ पर अगर शुरू से ही भरोसा नहीं करेंगे और बाहर वालों की बातों का ही यकीन करेंगे, तो न जाने आगे क्या हाल होगा। माना कि आप मुझे अपनी बात पूरी तरह कहने का अवसर देंगे, तो भी क्या यह जरूरी है कि जो मैं कहूं, आप उसे सच ही मानेंगे? जाहिर ही है कि कोई अपने मुंह से अपनी बुराई नहीं करता। तो स्त्री होने के नाते जब आप मुझ पर किसी तरह भी विश्वास नहीं कर सकते, तो मैं अपने आप चुप हो रहूं, यही बेहतर है!’ फिर तनिक रुककर कहा, ‘आपने तो कहा था कि आप मुझे किसी तरह भी अपना गुलाम नहीं बनाएंगे। पर मैं देखती हूं, शादी के पहले जो आपने अपने ख्यालों की आजादी दिखाई थी, वह सब झूठ थी।’
सूरज उस समय तो हंस कर टाल गया। उसी शाम को उसके लिए एक नई रेशमी साड़ी भी लाया। सविता ने पहले तो प्रसन्नता दिखाई, फिर उसने कहा, ‘इस महंगी में इसकी क्या जरूरत थी?’
‘तो क्या हो गया?’ सूरज ने प्रसन्न होकर पूछा, ‘पच्चीस जगह उठना-बैठना होता है।’
सविता ने उदास होकर पूछा, ‘आप मेरे दिन की बातों का बुरा तो नहीं मान गए?’
सूरज ने आंखें झुका लीं। तीर मर्म पर जाकर गड़ गया था।
सविता ने कहा, ‘आप मेरी बातों का बुरा न माना कीजिए। मुझे बचपन से ही ऐसे बक-बक करने की आदत पड़ गई है, क्योंकि मां-बाप तो रहे नहीं, जो तमीज सिखाते। लेकिन एक बात का मैंने पक्का इरादा कर लिया है अब। काम वही करूंगी, जिसमें आप खुश हों। स्त्री के विचार वही होने चाहिए, जो उसके पति के होते हैं। आप मुझे माफ कीजिए!’ कहकर वह रो पड़ी।
सूरज ने स्नेह से उसके आंसू पोंछकर कहा, ‘तो रोती क्यों हो? छिः!’
वह चुप हो गई।
सूरज ने मुझसे जब ये बातें कहीं, तो मैंने कहा, ‘यह है हिंदुस्तानी! इसे कहते हैं हार!’
क्या मतलब?’ सूरज ने कहा, ‘कैसी हार?’
एक जंगल का आजाद परिंदा पिंजरे में पड़कर सोच रहा है कि ‘पिंजरा ही जीवन का सबसे बड़ा स्वर्ग है’
‘हूं?’ सूरज ने मेरी ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखा और कहा, ‘अभी अकेले हो न! जब तुम्हारी बारी आएगी, तब देखेंगे?’
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। बेकार बहस करने से क्या फायदा? मैं चुप हो रहा। पर मुझे ऐसा लगा, जैसे अंधेरे चलते-चलते किसी को यक-ब-बक यह ख्याल हो जाए कि उसका कोई पीछा कर रहा है, और धोखे से बार करके उसे मार देने की राह देखा रहा है।
सिद्दी ने चंदू की ओर देखा। दोनों इस समय गंभीर थे। कल्ला ने नई सिगरेट जलाकर फिर कहना शुरू किया, ‘आना-जाना पहले कि तरह जारी रहा। तुम जानते हो, आदमी का दिल एक चट्टान की तरह है, जिसकी जड़ को शक की लहरें एक बार काटने में कुछ भी सफल हो जाती हैं तो एक-न-एक दिन ऐसा आता है, जब पूरी-की-पूरी चट्टान लुढ़क जाती है।
कॉलेज में सूरज ने मुझसे कहा, ‘यार, आज तो शाम को गोमती में बोटिंग को चलेंगे। वहां से फिर सिनेमा। साढ़े चार बजे हमारे घर में ही आ जाना?’
जब मैं उसके घर पहुंचा, तो सूरज नहीं लौटा था। सविता ने गोल कमरे में ले जाकर मुझे बैठाया, और जाकर स्टोव पर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया।
आकर पूछा, ‘क्या खाते हैं आप?’
मैंने कहा, ‘सब-कुछ खाता हूं, बशर्ते कि कोई खिलाए!’
हंस पड़ी वह। बोली, ‘खाने की तो ऐसी पड़ी नहीं, पर उनका इंतजार तो करेंगे न?’
मैंने कुछ नहीं कहा।
‘आते ही होंगे।’ उसने मुस्करा कर कहा, ‘वक्त तो हो गया है। क्यों आज क्या कोई प्रोग्राम है?’
मैंने कहा, ‘जी नहीं बस शाम को नदी की सैर करने का विचार है। फिर सिनेमा...’
उसने काटकर कहा, ‘तो और क्या रात भर घूमना चाहते हैं?’ कह कर वह हंस पड़ी। कहा, ‘आप आनते हैं, मैंने कॉलेज छोड़ दिया है।’
जी, ‘ऐसा क्यों?’ मुझे सचमुच मालूम नहीं था।
उसने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, ‘उनको मेरा कॉलेज जाना पसंद नहीं। कहते थे, बी. ए. तो कर चुकी हो, एम. ए. करके क्या तुम्हें नौकरी करनी है?’
उसके स्वर में एक तीव्र वेदना थी जो उसके मुस्कराने के प्रयत्न से और भी कठोर प्रतीत हुई । मुझे ऐसा लगा, जैसे खिलौने सामने फैलाकर कोई बच्चे से कह रहा हो, खबरदार, जो हाथ लगाया!
मैंने विक्षुब्ध होकर कहा, ‘आपने सूरज से यह नहीं पूछा कि उनको बी. ए. तक पढ़ने की क्या जरूरत थी?’
‘अब यह तो आप ही पूछिए! मुझमें तो इतनी ताब नहीं कि बार-बार उल्टी-सीधी बातें सुनूं।’
मैंने सुना। किंतु मन का कौतूहल फिर भी जगा ही रहा। मैंने पूछा, ‘अच्छा, एक बात पूछता हूं, माफ कीजिएगा, बात जरा कड़ी है। आप कॉलेज में न होती, तो सूरज बाबू क्या आपको कभी देख सकते थे? और जब यही नतीजा निकालना था, तो चाचा से कह कर किसी बिल्कुल ही पुराने ढ़ंग की लड़की से उन्होंने क्यों नहीं शादी की?’
मन तो बहुत कुछ बकने को था, लेकिन हठात चुप हो गया, क्योंकि उसी समय सूरज कमरे में आ दाखिल हुआ। उसका प्रवेश इतना आकस्मिक था कि एक बार हम दोनों ही चौंक उठे। सूरज की जेत आंखों ने इसे देख लिया।
दूसरे दिन जब मैं सूरज के यहां गया, तो बाहर बरामदे में ही ठिठक गया। अंदर से सूरज की आवाज आ रही थी, ‘मेरी गैरहाजिरी में अगर कोई आए, तो दरवाजा खोलने की तो क्या, जबाव तक देने की जरूरत नहीं है।’
फिर सविता की आवाज सुनाई पड़ी, ‘बहुत अच्छा! आपके चाचा जी आएं, तब भी!’
‘उन्हें तो दूर करने की कोशिश करोगी ही! अजी, बाहरी लोगों के लिए कहा है।’
‘तो मैंने किस-किसको बुलाया है?’
‘कल वह कौन आया था?’
‘मैंने बुलाया था कि आपने? मैंने तो उल्टे आप पर एहसान किया कि आपके एक दोस्त की नजर में आपको गिरने नहीं दिया।’
‘मुझे इन एहसानों की जरूरत नहीं!’ सूरज का स्वर दृढ़ था, कठोर भी।
‘आपकी जैसी मर्जी। मुझे किसी से क्या मतलब?’
मैंने सुना। क्रोध से मेरी आत्मा छटपटा उठी। बाहर से ही लौट आया। इसके बाद मैंने उसके घर पर आना-जाना बहुत कम कर दिया। इम्तहान आ गए।-कहकर कल्ला चुप हो गया।
‘चुप क्यों हो गए?’ चंदू ने चौंककर पूछा।
‘सिगरेट!’ माथे पर बल डालकर पूरी आंखें फाड़ते हुए कल्ला ने कहा, ‘जरा थक गया हूं।’
‘तो हुजूर, मालिश?’
‘नो, थैंक्स!’
‘सिगरेट जलाकर कल्ला ने कहा, ‘मुझे अपनी साइकिल वापिस मिल गई। जो लड़का मेरा साइकिल पहुंचाने आया...’
सिद्दी ने काटकर पूछा, ‘इसी बीच में साइकिल कहां से आ गई?’
‘यार, कोई मैं गढ़-गढ़ कर तो सुना नहीं रहा। अब जैसे-जैसे याद आता जाएगा, मैं तुम्हें सुनाता जाऊंगा। कोई सबक तो मैं आपको सुना नहीं रहा हूं।’-कल्ला बिगड़कर बोल उठा।
‘अच्छा, अच्छा!’ चंदू ने बीच में पड़ते हुए कहा, ‘तो साइकिलवाला लड़का?’
‘हां,’ कल्ला ने कहा, ‘उसके हाथ में एक खत था। खोलकर पढ़ा-प्रिय
भाई, अब हम गांव जा रहे हैं। आपकी साइकिल वापिस भेज रही हूं! धन्यवाद! आपकी सविता!
साइकिल उठाकर धर ली। मुझे मालूम हुआ कि साइकिल ही इस विद्वेष की जड़ थी।
मेरे एक दोस्त थे। साइकिलों की चोरी करना ही उनका रोजगार था। एक बार वे कानपुर से एक साइकिल चुरा कर लाए। बोले, ‘बहुत दिन से सस्ती साइकिल मांगा करते थे। अब ले लो!’ मैंने कहा-‘वाह, यार! गोया हम मर्द न हुए, औरत हो गए, जो आप जनानी साइकिल लाकर एहसान जता रहे हैं! मांगी थी पतलून, लाए हैं साड़ी!’
बोले, ‘भई दिक न करो! हमें कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ पंद्रह रूपए दे दो! फिर मामला तय होता रहेगा।’
चंद्रकांत की भाभी आने वाली थी। उसने कहा, ‘अबे भाभी के काम आ जाएगी। ले ले!’
एक दिन कालेज में सविता मिली। बात चलने पर उसने कहा, ‘देखिए, घर हमारा है बहुत दूर। पैदल आते-आते दिवाला निकल जाता है।’
मैंने कहा, ‘आपको साइकिल तो दे सकता हूं, पर कुछ दिन के लिए।’
सविता प्रसन्न हुई।
अब वह साइकिल पर बैठ कर कालेज जाने लगी।
एक दिन सविता ने मुझे कालेज में रोक लिया। पैर में पट्टी बंधी थी। लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रही थी।
मैंने कहा, ‘क्या हुआ?’
‘चोट लग गई।’
‘तो अब तो ठीक है?’
‘हां, एक तकलीफ दूंगी।’
मैंने कहा, ‘फरमाइए।’
‘एक तांगा ला दीजिए!’
‘क्यों, साइकिल क्या हुई?’
‘वह मैं वापस कर दूंगी।’
‘क्यों?’
‘कल वे आए थे हमारे घर। मैं लौटकर आई, तो भैया ने कहा, ‘सविता, यह साइकिल तू कहां से ले आई?’ मैंने बताया। भैया ने कहा, ‘सूरज को मालूम है?’ मैंने कहा, ‘उनसे तो कभी मिलती नहीं।’ भैया ने कहा, ‘आज सूरज आया था, कहता था, चाचा आए थे। उन्होंने सविता को साइकिल पर बैठे देखा था।’
मैं सुनता रहा। सविता सुनाती रही, ‘चाचा ने बहुत बुरा माना था। भला कोई बात है कि घर की बहू-बेटियां साइकिलों पर घूमा करें! भैया ने कहा, ‘सूरज बाबू कह गए हैं कि सविता को साइकिल पर जाने से तो रोक ही दें।’ -मैंने भैया से कहा, आपने कहा नहीं कि कॉलेज दूर है? कहा था-भैया ने कहा, पर सूरज ने कहा कि यदि यह बात है, तो पढ़ाई की ही ऐसी क्या जरूरत है?’-तब भैया ने कहा, ‘देखो सविता, अब तुम बच्ची नहीं हो। शादी के बाद तुम्हें अपनी आंखें खोलकर चलना चाहिए! यह बचपन अब काम नहीं देगा।’-कहकर सविता चुप हो गई। फिर कहा-भिजवा दूंगी आपकी साइकिल!
मैंने कहा, ‘सुना है आपका...’
‘जी हां!’ उसने लाज से सिर झुकाकर कहा।
मेरा इशारा उसके गौने की ओर था। वह तांगे में चली गई।
पत्र हाथ में लेकर मैंने सोचा, अब वे गांव में होंगे। साइकिल लाने वाला लड़का खत देने के कई दिन बाद आया था। उसकी मेहरबानी थी, कोई नौकर थोड़े था वह।
एक-एक कर चित्र मेरी आंखों में घूमने लगे। यही थी सविता की सूरज के प्रति उपेक्षा। उसकी आदतों की वास्तविकता देखकर धीरे-धीरे उसका मन भीतर ही भीतर कुढ़ता जा रहा था।
किंतु यौवन फिर भी प्यासा होता है। समाज के जिस बंधन को हम विवाह कहते हैं, उसका कार्य-कारण रूप चाहे कैसा ही कठोर, वास्तविक, आवश्यक क्यों न हो, किंतु उनकी पृष्ठभूमि में मनुष्य जीवन का वहीं संचित व्याकुल मोह है।
मैं नहीं जानता कि यह कहते हुए मैं कहां तक ठीक हूं कि मनुष्य के समस्त अन्वेषण, उसकी कला, उसके विज्ञान, युद्ध और जो कुछ भी उसकी हलचल है, उसके मूल में वही एक हाहाकार करती तृष्णा है, जिसे वह संवेदना, सहानुभूति और प्रेम की मृग-तृष्णा समझ रहा है।
सविता का जीवन उस तलवार की तरह था जिसकी धार को कोई कायर योद्धा पत्थर पर मारकर तोड़ देना चाहता हो। उसमें इतना साहस नहीं है, जो वह उसे उठाकर उससे समाज की घृणित व्यवस्थाओं पर चोट करे, और उसके खून से उसकी धार चमका दे।
सविता की बहन कभी-कभी जब कालेज में मिलती, तो पूछती कि मुझे दीदी की कोई खबर मिली? मैं कह देता कि जब उसे ही कोई खबर नहीं मिली, तो भला मुझे कैसे कुछ ज्ञात हो?
अविश्वास की जिस तेज छुरी से सूरज के भय ने सारे संबंधों को जड़ से काटना शुरू किया, वही उसके सुख को काट-काटकर लहूलुहान करने लगी। मैं बहुधा सोचता कि क्या उसका जीवन अब सुधर गया होगा?
इसके बाद एक शाम को मैं इलाहाबाद में गंगा के किनारे टहल रहा था। सूरज डूब रहा था। लाल-लाल किरणें पानी पर उतरकर ललाई फैला रही थीं। हवा में कुछ नमी आ गई थी।
एकाएक किसी ने आवाज दी, ‘मिस्टर कल्ला!’
मैं एकदम चौंक गया सोचा, यहां कौन कमबख्त आ टपका? जान-पहचान वालों से मैं उतना ही चकराता हूं, जितना सड़क पर बदतमीजी से भागती हुई भैंस को देखकर। मुड़कर देखा, आंखों को विश्वास नहीं हुआ। सोच सकते हो, कौन था वह?’
सिद्दी और चंदू ने सवालिया जुमला बनी भौंहों को उठा दिया।
‘था कौन? वह सविता थी!’
‘सविता?’ दोनों ने आश्चर्य से कहा।
‘जनाब! वह सविता ही थी।’ कल्ला ने खांसकर कहा, ‘देखकर मेरी आंखें फैलकर रह गई। वह अकेली थी, उसके शरीर पर सादी साड़ी और एक ब्लाउज था। मांग में सिंदूर नहीं था। माथे पर बिंदी जरूर थी। हाथों में चूडि़यां भी थीं। समझ में नहीं आया कि उस फैशन की पुतली में यह सादगी कैसे आ गई!’
‘मेरे मुंह से सहसा निकला, ‘सविता देवी! आप यहां? अकेली!’
‘वह हंस दी। कहा, ‘क्यों आप इलाहाबाद कब आए?’
‘जी, मैं तो कल ही रिसर्च के सिलसिले में आया हूं।’
‘सामान कहां पड़ा है?’
‘होटल में।’
‘मेरे यहां ठहरने में आपको कोई एतराज तो न होगा?’
मैंने कहा, ‘आप कहां ठहरी हैं?’
‘मैं तो यहीं रहती हूं।’
इसके बाद हमलोग थोड़ी देर तक टहलते रहे। कुछ रिसर्च के बारे में बातें हुईं, मुझे विस्मय हुआ, उसकी जानकार की बातें सुनकर। पहले तो उसने कहा कि उसका वह विषय नहीं है और उस पर बात करना उसके लिए एक अनधिकार चेष्टा है। पर सच कहता हूं, उसकी बातें सुनकर मेरी रूह कांप गई। मैं अपने खास विषय पर उस सफाई से बात नहीं कर सकता, जिस पर सविता सिर्फ अनधिकार चेष्टा मात्र कर रही थी। फिर, सोचा, अच्छा ही है कि सविता का यह विषय ही नहीं, वर्ना मुझे सात जन्म में भी डॉक्टर बनना नसीब नहीं होता।
अंधियारी घिरने लगी। सविता ने कहा, ‘तो चलिए, अब आपके होटल चलें वहां से आपका समान लेकर चलेंगे।’
‘मैंने कहा-‘कहां चलिएगा?’
‘घर’, उसने हंसकर कहा, ‘हंसिए नहीं। कुल एक कमरा है। उसे घर कह लीजिए, बंगला कह लीजिए, मेरे लिए काफी है। छोटी बहिन को लिखा था आने को, लिखा है उसने कि एक हफ्ते के भीतर ही आ जाएगी। मैंने तो भैया से भी कहा था कि प्रैक्टिस-ब्रैक्टिस का खब्त छोड़ दें, और आकर यहीं नौकरी कर लें। चलिए न!’
मैं लाचार हो गया। हमलोग चलने लगे।
सविता ने कहा, ‘एक वक्त था, जब घर की हालत बहुत अच्छी थी। मगर अब हालत ठीक नहीं रही।’
मैं सोच में पड़ गया। पारिवारिक जीवन की जो झंझटें अधेड़ औरतों को हुआ करती हैं, वे आज सविता को खाए जा रही थीं। कल वह एक लड़की थी। लजाया करती थी आज उसकी बातों में एक बुजुर्गी थी, एक स्थिरता थी।
जब हम होटल पहुंचे, तो काफी ठंडी हवा चलने लगी थी। आसमान में कुछ बादल भी इकट्ठे होने लगे थे। एक तांगे में सामान रखा। हम दोनों बैठ गए। सविता ने घर का रास्ता तांगेवाले को समझा दिया, और फिर मुझसे बातें करने लगी। अबकी उसने मेरे विवाह के पहलू पर बात शुरू कर दी।
उसकी बातों में कोई सिलसिला नहीं था। उसके मन में जैसे इतना कौतूहल था, इतनी संवेदना थी कि वह मेरे विषय में सब कुछ जान लेना चाहती थी।
घर पहुंचकर उसने बत्ती जला दी, और खाने का इंतजाम करने लगी। चूल्हे पर कुछ चढ़ाकर जब वह बाहर आई, तो उसमें और हिंदुस्तानी घरों की औरतों में कोई फर्क न था। कल वह शायद इन औरतों से नफरत करती थी।
मैं बैठा-बैठा सिगरेट पीता रहा। सविता ने कहा, ‘कहां सोइएगा? बरामदा तो है नहीं। छत पर तो शायद रात को आप भीग जाएंगे।’
‘आप क्या कमरे में ही सोते हैं?’
जी नहीं, जब गर्मी होती है तो ऊपर सो रहती हूं। चटाई बिछाई और बिस्तर लगा दिया।’ फिर रुककर बोली, ‘सच, आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। आप ही तो हमदर्द थे मेरे उस जीवन में, जिससे सब घृणा करते थे, और वह सच्चा विश्वास सबकी आंखों में व्यभिचार का पाप बनकर खटका करता था। अरे...मैं तो भूल ही गई। कहीं दाल उफन न गई हो।’
फिर वह उस छोटी-सी रसोई में घुस गई। मैं कुछ-कुछ समझने लगा।
उसके बाद जब वह लौटी, तो मेरे सामने थाली धर दी। फिर अपने लिए खाने का सामान लगा लाई।
हम दोनों खाने लगे।
खाते-खाते हठात उसने पूछा, ‘कैसा खाना बनाती हूं?’
मैंने कहा, ‘अच्छा तो है।’
धीरे से उसने कहा, ‘वे लोग कहते थे कि मैं खाना बनाना भी नहीं जानती हूं!’
वे, ‘हूं’ मेरे कानों में सुई की तरह चुभ गई।
मैंने कहा, ‘कौन कहते थे?’
‘वे कहते थे’, उसने कहा, ‘मैं तो मेम हूं। बेवकूफ!’ वे क्या जानें कि मेम भी अपने कायदे से अपना खाना बनाना जानती हैं। फिर क्या खाना अच्छा बनाना औरतों के लिए जरूरी है?
मेरे मुंह से निकला, ‘फिलहाल तो है ही। वैसे बना लेना काफी है। उस्ताद तो खाना बनाने में औरत कभी नहीं रही। पाक तो दो ही प्रसिद्ध हैं-भीम-पाक और नल-पाक और दोनों ही पुरुष थे।’
वह जोर से हंसी। उसने कहा, ‘वहां नौकरानी थी, पर काम तो बहू ही करेगी। करने को तो मना नहीं किया मैंने। पर कोई तुल जाए कि मेरा बनाया उसे पसंद ही नहीं आएगा, तो कोई कितना भी अच्छा बनाए, क्या नतीजा निकलेगा? बस, वही हुआ, जो होना था।’
हम लोग खा चुके थे। छत पर चटाई बिछाकर बैठ गए। मैंने अपनी सिगरेट जला ली।
मतवाली हवा थी। सिर पर पीपल खड़खड़ा रहा था। हम दोनों उस अंधेरे में पास-पास बैठे थे।
सविता ने कहा, ‘अच्छा, सच बताइए, आपको यह सब देखकर कुछ ताज्जुब नहीं हुआ?’
मैंने कहा, ‘नहीं।’
वह कुछ देर मुझे घूरकर देखती रही। फिर कहा, ‘यह अंधेरी रात, यह सन-सनाती हवा और मैं किसी दूसरे की पत्नी! ताज्जुब नहीं होता तुम्हें, कल्लाजी? सोचते नहीं कुछ मेरे बारे में?’
वह हंसी। फिर गंभीर हो गई। कठोर स्वर में कहा, ‘विश्वास नहीं कर सको तो न करना। किंतु यदि घृणा ही तुम्हारे आश्वासनों का एकमात्र आधार है, तो भी मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकूंगी।’
मैंने रोककर कहा, ‘सविता देवी!’
सविता का बांध टूट गया। आंखों में आंसू छलक आए, जिन्हें उसने मुंह मोड़ कर शीघ्रता से पोंछ लिया। जब उसने मेरी ओर देखा, तो हंस रही थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
सविता ने कहा, ‘एक दिन हमदोनों रात को बैठे बातें कर रहे थे।’ उन्होंने कहा, सविता अब तो परीक्षा भी हो गई। तुम्हारा क्या विचार है? गांव चला जाए, तो कैसा?-मैं नहीं जानती, उन्होंने क्या सोचकर यह प्रस्ताव किया। गांव तो दूर न था, किंतु मैं गांव जाने का नाम सुनकर ही डर-सी गई। न जाने मेरी आत्मा में एक अनजान यातना की भावना कैसे भर गई। किंतु मैंने कहा-चलिए, मुझे कोई उज्र नहीं।-तीसरे दिन हम चल पड़े। मैंने एक बसंती रंग की रेशमी साड़ी पहन रखी थी, पैरों में ऊंची एड़ियों की सैंडल थीं। बस और कोई खास बात न थी। हमने इक्का कर लिया। इक्केवाले ने मुझे घूर कर देखा। उसने पूछा-‘सरकार, कहां चलूं?’
उन्होंने पता बताया। उसी गांव का इक्केवाला भी था। फौरन उन्हें पहचान गया फिर उसने एक बार दबी नजरों से मेरी तरफ मुड़कर देखा, और मुस्कराकर अपनी तरफ की बोली में कहा, सरकार की पढ़ाई तो खतम हो गई?
उन्होंने कहा, हां।
इसके बाद वे कुछ चिंता में पड़ गए। उनके मुख पर स्पष्ट ही कुछ व्याकुलता के चिह्न थे। मैंने अंग्रेजी में पूछा, आप इतने परेशान क्यों हैं?
उन्होंने मेरी ओर देखकर एक लंबी सांस ली। शायद एक बार पूरे शरीर में एक कंपकंपी सी दौड़ गई। उन्होंने बहुत धीरे से अंग्रेजी में ही उत्तर दिया, मैंने गलती की कि तुम्हें यहां इस तरह ले आया। अब भगवान के लिए कम-से-कम कुछ तो शरम करो! सिर तो ढक लो।
मैं मन-ही-मन बहुत विक्षुब्ध हुई। मैंने भला कब मना किया था। किंतु शहर में तो इन्हें यह सब बुरा नहीं लगता। गांव की तरफ पैर उठाते ही क्यों कुछ से कुछ होने लगे? जैसे मैं कोई अंग्रेज थी कि मुझे हिंदुस्तान में शरम करने की रीति भी नहीं मालूम थी। शरम का विचार भी कैसा अजीब लगता है। मदरासी औरतें कभी सिर नहीं ढकतीं तो क्या वे सब बेशरम हैं?
खैर, एक सिर क्या मेरे दस सिर होते तो भी मैं उन्हें ढंक लेती। एक दिन में तो किसी देश के रीति-रिवाज, अच्छे हों या बुरे हों, कभी बदल नहीं जाते।
इक्का बढ़ा जा रहा था। उस राह के दचके याद आते ही अब भी कमर में दर्द होने लगता है। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि गांव की जिंदगी कितनी कठिन है।
उसके बाद हमलोगों ने बैलगाड़ी पकड़ी। जैसे-जैसे गांव पास आता जाता था, उनका चेहरा फक पड़ता जा रहा था। लगता था, जैसे उन्हें मुझ पर असीम क्रोध आ रहा हो। मेरा मुंह खुला ही था। यह मुझे वास्तव में बहुत ही घृणित मालूम दिया कि मुंह पर मैं एक लंबा-सा घूंघट खींच लूं और फिर उनकी एंडि़यों पर नजर गड़ाए चलूं।
रास्ते में जो भी गांववाले मिलते, हमें खुली बैलगाड़ी में बैठ आपस में एक-दूसरे की ओर देखकर वे मुस्कराते। वे ये सब देखते और जल-भुनकर खाक हो जाते। किंतु करते क्या? एक बार तो मुझे लगा, जैसे अब एक चांटा पड़ने ही वाला है। लेकिन मुझे स्वयं उनके ऊपर अचरज हुआ। यह आदमी जो शहर में क्या-क्या रंग नहीं दिखाता, यहां बिल्कुल ही फक पड़ता जा रहा है? गांव के बहुत-से छोटे-छोटे लड़के और लड़कियां हमें देखकर कौतूहल से इकट्ठे हो गए। मैंने उनकी बातें सुनीं। वे आपस में कह रहे थे-छोटे मालिक शहर से पतुरिया लाए हैं। आज कोठी में नाच होगा...।
उनके आनंद की सीमा न रही। उनके जीवन का यह भी एक बड़ा स्वर्ग है कि मालिक के घर रंडी नाचेगी और वे देख सकेंगे। मेरे मन में तो आया कि धरती फट जाए और मैं समा जाऊं। वह घृणित शब्द ‘पतुरिया’ मेरे हृदय पर हथौड़े की-सी भयानक चोट कर उठा। आज उन अज्ञानी, देहाती अनपढ़ बच्चों ने उस संस्कृति का पर्दा फाड़कर रख दिया था, जो उनके मालिक ने उन्हें दी थी।
मैंने देखा, वे चुप बैठे थे, जैसे वे मोम की एक पुतली मात्र है। मेरी आंखों में आंसू उबल रहे थे, जिन्हें मैं जबरन अपने होठ काटकर रोक रही थी। और बच्चों की खुशी का वह कठोर शब्द ‘पतुरिया’ मेरे सारे जीवन के संचित पुण्य और अभिलाषाओं के साथ एक भीषण बलात्कार कर रहा था।
शहर में कोई यदि मुझसे यही बातें कहता, तो मैं उसकी आंखें नोच लेती। किंतु वहां मैं कुछ भी नहीं कर सकी। वास्तव में यह सोलहवीं सदी के स्थिर अंधकार का बीसवीं सदी की चलती किरण पर हमला था।
दिन भर मुझे लंबा घूंघट खींच कर रहना पड़ता था। किंतु मैंने कभी कुछ नहीं कहा।
घर में उनकी चाची, उनकी बुआ, बुआ की बहिन की लड़कियां और एक बूढ़ी मामी थीं। उन बूढि़यों को जैसे एक नया शिकार मिल गया था।
जब कभी वे मुझे मिलते, मैं कहती, शहर चलिए! यहां तो मन नहीं लगता। तो वे कहते, कुछ दिन तो रहना ही होगा। सदा तो यहां रहना नहीं। फिर इतनी घबराती क्यों हो? थोड़े दिन ऐसे ही रह लो!
गांव में अंधेरा हुआ नहीं कि बस ब्लैक आउट हो गया। जहां लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, जहां लोग दिन में इतनी कड़ी शारीरिक मेहनत करते हैं कि रात को कोशिश करके भी नहीं जाग सकते, वहां रोशनी जले भी तो किसलिए? वहां तो बस आदमी ने प्रकृति से इतना संघर्ष किया है कि सिर पर एक छप्पर छा लिया है और कुछ नहीं।
घर की बगल में अपना ही एक छोटा मकान था। उसमें उन्होंने लगभग तीन-चार साल पहले एक पुस्तकालय खोला था। उसमें सैकड़ों पुराने उपन्यास भरे हुए थे। दैनिक पत्र भी आता था।
सुबह चाची जी मुझे उठने से पहले उठा देतीं। मैं तब झाडू-बाडू लगा देती, ताकि जब लोग उठें, तो मुझे उनके सामने यह काम करने की नौबत न आए। फिर मैं खाना बनाने में जुट आती थी। सबको खिलाते-पिलाते प्रायः तीन बज जाते। फिर शाम को खाना बनाने की तैयारी होती। रात को जब सब खा चुकते, तब प्रायः नौ बज जाते। उसके बाद पैर दबाने की रस्म के लिए तैयार रहना पड़ता। जितनी स्त्रियां थीं, सभी के पैर दबाने पड़ते। आप ही बताइए, किसके पैर में दर्द नहीं होगा जब कोई आदमी पैर दबाने को खुद-ब-खुद पहुंच जाए?
साढ़े ग्यारह बजे रात को मैं एक दिन उपन्यास लेकर, लालटेन जला छत पर बैठ गई। दूसरे ही दिन चाची ने कहा, बहू, तुम रात तक पढ़ती हो। लोगबाग कहते हैं कि सिर खोले ही बहू छत पर बैठती है। यह तो भले आदमियों के घर के कायदे नहीं! रात को देर तक पढ़ोगी, तो सुबह उठने में भी देर हो जाया करेगी।
मैं खून का घूंट पीकर रह गई।
रात को मेरा बिस्तर भी उसी छत पर लगाया जाता था, जिस पर और औरतें सोया करती थीं। यह मैं मानती हूं कि कभी-कभी मैं पढ़ने के कारण देर तक जागती रहती, और उठने में देर हो जाती। कभी-कभी रात को मैं इतनी थक जाती कि फिर किसी के पैर-वैर दबाने नहीं जाती। इस पर एक हंगामा उठ खड़ा होता-बहू क्या हुई, आफत का परकाला हो गई। भला कोई बात है? यह कायदा है?
मैंने जब इधर-उधर ध्यान देना छोड़ दिया। रात को पढ़ने के बाद इतनी थकावट आ जाती कि जाकर बिस्तर पर एकदम बेहोश हो जाती, और किसी बात का ध्यान ही नहीं रहता। जब दो-चार दिन ऐसे ही बीत गए, तो अचानक एक रात उनके सिर में दर्द होने लगा। मैं मरहम लेकर गई। किंतु यह दर्द कैसा था, वह मुझसे छिपा नहीं रहा। दर्द की भी कोई हद होती है। रोज रात हुई नहीं कि उनका दर्द शुरू हो गया और मुझे उसी तरह वहीं रह जाना पड़ता। हम दोनों को दूसरी छत पास होने के कारण कोई स्वतंत्रता नहीं थी।
डाक्टर कहते हैं, इंसान को जवानी में कम से कम छः घंटे सोना चाहिए। किंतु मेरी रात तीन घंटे की हो गई थी। उस थकान के कारण मुझमें एक प्रकार का चिड़चिड़ापन पैदा हो गया।
एक रात उन्होंने कहा, ‘तो तुम पढ़ती क्यों हो?’
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।
उन्होंने कहा, भारतीय नारी सहनशक्ति की एक प्रतिमूर्ति समझी जाती है।
मैंने ऐसी रटी हुई बहुत-सी बातें सुनी थीं। कहा, आप मुझे शहर में ही रखें, तो अच्छा हो!
उन्होंने देर तक सोचा। फिर कहा, शहर तो चलना ही है। लेकिन जिस गांव के कारण शहर है, उसमें भी तो रहना होगा।
मैं फिर चुप हो गई। देर के बाद मैंने कहा, ‘आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूं।’
उन्होंने कहा, ‘कहो!’
मैंने कहा, गांव की यह जिंदगी आपको जैसी भी लगे, मुझे तो अच्छी नहीं लगती। इससे तो यह अच्छा हो कि आप अपने पैरों पर खड़े होकर कमाएं, खुद खाएं और मुझे भी खिलाएं। गरीबों का खून चूसकर, अपने स्वार्थों को कायम रखने के लिए उन्हें धोखा देकर, अपने जीवन का आदर्श खो देना मुझे तो अच्छा नहीं लगता!
वे चौंक उठे। उन्होंने कहा, तुम्हारी हर बात में कुछ नफरत है। प्रत्येक स्त्री तकलीफों के होते भी अपने पति से अवश्य मिलना चाहती है। तुम हो कि किस्से कहानियां पढ़कर सो जाती हो। तुम्हें कभी मेरी चिंता भी नहीं हुई। इसी से सिर दर्द के बहाने तुम्हें बुलाना पड़ता है फिर एक लंबी सांस खींचकर कहा, तुम्हें न जाने क्या हो गया है?
मुझे हंसी आ गई। मैंने मजाक में कहा, आपसे नफरत भी करूंगी, तो क्या हो जाएगा? आप फिर मेरे पति न रहकर कुछ और हो जाएंगे क्या?
उन्होंने मुझे घूरकर देखा और कहा, ‘तो तुम समझती हो कि तुम फंस गई हो। अर्थात् तुम मुझे प्यार नहीं करतीं?’
मैं बड़े चक्कर में पड़ी। किसी से कोई कैसे कहे, मैं तुम्हें प्यार करता हूं। सच, मेरा तो मुंह नहीं खुलता। एकदम बड़ी लाज-सी मालूम देती है। मैंने कोई उत्तर न देकर एकदम चुप्पी साध ली। उन्हें जमींदारी की शान के विरुद्ध कही हुई बात अच्छी नहीं लगी। कहने लगे। खानदान की इज्जत को कामय रखना पहला फर्ज है, सविता!
मैंने कहा, लेकिन अब तो सवाल ही दूसरा है। कल तक आप दूसरों को पिटवाने में अपनी शान समझते थे, आज वह बर्बरता बढ़ गई है। आप स्वतंत्रता के आदर्श को लेकर चले थे और यहां रीति-रिवाजों की खूनी धारा में सब-कुछ बहाते चले जा रहे हैं। खानदान की इज्जत क्या इसी में है कि आप इसी तरह बेकार पड़े रहें, दूसरों के पसीने की कमाई खाया करें? क्या आप रस्मों को खानदान की इज्जत कह पाल रहे हैं, आप उसी गंवारपन में विश्वास करते हैं?
वे घूरते रहे। कहा, तुम्हारी बातें कैसी रटी हुई-सी लगती हैं। यहां कोई डिबेट हो रहा है क्या?
मैंने कहा, आप इतनी बड़ी बात को हंसकर टाल रहे हैं? आप में मुझे यकीन हो गया है, साहस की कमी है।
उन्होंने कहा, धीरे-धीरे बात करो, सविता! कोई सुन लेगा।
मुझे बहुत ही बुरा लगा।
उन्होंने कहा, ‘अच्छा मान लो तुम्हारे पीछे सबको छोड़ दूं।’
मैंने कहा, ‘ऐसा आप सपने में भी खयाल न करें। अगर आपने ऐसा सोचा है, तो आपने बड़ी भारी गलती की है। मैं अपने लिए नहीं कहती। मैं उस विचार-स्वातंत्र्य और आदर्श का विचार करके कहती हूं, जिसके आप पहले स्वयं कायल थे। घर छोड़ने को तो मैंने नहीं कहा। मैंने सिर्फ कहा कि पुराने ढर्रे की झूठी रस्मों को छोड़कर हम और आप वही करें, जो आज तक कहा है।
उन्होंने कहा, ऐसा नहीं हो सकता, सविता! भले ही तुम आदर्शों की दुहाई दिए जाओ, लेकिन जो कुछ होगा, उसे देखकर लोग समझेंगे कि एक औरत की बातें सुनकर घर छोड़ चला गया कपूत। और यह मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा?
एक बार मेरा रक्त क्रोध से खौल उठा। कितना भारी कायर था वह व्यक्ति, जो अपने जीवन के सारी झूठ का सहारा ले अपनी प्यास बुझाने के लिए मुझसे प्रेम की आड़ में विलास चाह रहा था।
सुबह की सफेदी झलमलाहट पर मुर्गे की गूंजती हुई बांग सुनाई दी। मैं उठ गई, क्योंकि मेरे झाड़ू लगाने की बेला आ गई थी।
मैंने एक बार करुण आंखों से उनकी ओर देखा, किंतु वे झपकी ले रहे थे।
मैं उठ गई। वे सो गए।
उस दिन मेरा शरीर थकाने से चूर-चूर हो रहा था। काम तो करना ही था। यदि किसी से कहती कि मैं सोना चाहती हूं, रात को सो नहीं सकी, तो जो सुनता वही मुझे निर्लज्ज समझता! लज्जा और संकोच ने मेरी जीभ को तालू से सटा दिया और मैं बराबर काम करती रही।
दोपहर को जब मैं कमरे में बैठी थी, मुंशीजी पुस्तकालय बंद कर चाभी देने भीतर आए। उस समय वहां कोई और नहीं था। मुंशी जी मुझे देखकर ऐसे घबरा गए, जैसे कमरे में कोई सांप पड़ा हो। मैंने कहा, चाभी मुझे दे जाइए, और कल का अखबार आपने क्यों नहीं भेजा?
मुंशीजी ने लजाते हुए सिर नीचे करके जवाब दिया, भिजवा दूंगा।
वे चले गए। इसी समय मैंने उनकी बुआ की बहिन की बेटी का कर्कश स्वर सुना-आय-हाय! देखो तो, कैसी लपर-लपर जीभ चला रही है! जरा भी तो हया-शर्म हो!
मैं एकाएक कांप उठी। उत्तर दिया बूढ़ी मामी ने-अच्छा किया, दुल्हिन, बहुत अच्छा किया! मुंशीजी को देखकर तेरी चाची या सास तक घूंघट खींचकर चुप हो जाती हैं। एक नहीं उनके अनेक बच्चे हो चुके हैं। तेरे एक आध तो हो जाता।
एक तीसरी आवाज सुनाई दी-अजी हटो, मामीजी! कोई बात है। उल्टे मुंशीजी शरमा रहे थे। और दुल्हिन रानी हैं कि मुंह तक नहीं ढंका गया। छिः! यह भी कोई बात है?
बुआ की भांजी ने कहा-पढ़ी-लिखी हैं जी! तुम तो हो गंवार! शहरों का यही रिवाज है। पराए मर्द से जब तक हंस-हंसकर बातें कर न ले, तब तक खाना कैसे हजम हो? जाने बेचारी कितने दिन के बाद आज यह मौका पा सकी है।
इसी समय चाची आईं। उन्होंने भी सुना। तुरंत आ गईं मेरे कमरे में। हाथ मटका कर कहा-हाय, दुल्हिन, यह तूने क्या? झाड़ू न लगी न सही, पैर न दबाए तूने बड़ी बूढि़यों के, तेरी बात मेरे ईमान पर! हमने कभी तुझे कहा हो, तो हमारी जबान में कीड़े पड़ जाएं! मगर यह क्या है कि पढ़ाई-लिखाई ने तेरी चुटिया के नीचे से अकल ही साफ कर दी?
वे क्रोध से हांफ रही थीं। मैं चुप बैठी रही, जैसे मैं जीवित नहीं। मुझे मालूम हो रहा था कि जो कीड़े मेरी नसों में खून बनकर भाग रहे थे वे अब धीरे-धीरे जमने लगे थे, मरने लगे थे, और अब वे सब मर जाएंगे, और उन्हीं के साथ मैं भी मर जाऊंगी। मेरे मुख पर पीलापन छा गया। हाथ-पांव कांपने लगे। उस कठोर लांछन से मुझे प्रतीत हुआ कि वास्तव में अब जिंदा तो हूं ही नहीं, लेकिन ये लोग हैं कि मेरी लाश पर थूकने से भी बाज नहीं आते।
चाची ने फिर कहा-मामीजी, दुहाई है तुम्हें! इस घर में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ! आज तक किसी ने इस घर की औरतों की शक्ल देखना तो क्या, यह भी नहीं जाना कि उनकी आवाज कैसी है। क्या कहेंगे गांव के लोग सुनकर? जब जमींदार के घर ही से धर्म उठ जाएगा, तब लोगों के घर में क्या रहेगा! हमने सोचा था, अभी लड़की है, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मामीजी, जिसके मुंह खून लगा हो, उसकी पानी से प्यास बुझेगी?
मैं जोर से रो उठी। मैंने चिल्लाकर कहा किसका खून लगा है मेरे मुंह? किस काम से इनकार किया है मैंने, जो आप मुझ पर दोष लगा रही हैं?
‘ओ हो!’ चाची चिल्ला उठी-दुल्हिन रानी पर दोष लगा दिया मैंने! दुश्मन तो मैं हूं ही! इसी से दुश्मनी निकालने के लिए ही तो मैंने सूरज की मां के मरने पर उसे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया था!
‘मामीजी ने डांटकर मुझसे कहा, ‘अरी, बेहया! क्या करूं, समझ में नहीं आता! जमाना बदल गया है, वर्ना पुराने वक्तों में इतनी कहने पर सारे दांत झाड़ दिए जाते। मर्द नहीं रहे बेटी, वर्ना मजाल है कि औरत ‘आ’ से ‘ऊ’ कर जाए?
बुआ ने कहा-सूरज ने सिर चढ़ाया है इसे। जूती सिर पर धरेगा, तो धूल लगेगी ही। हम तो जानते ही थे शहर की लड़कियों के गुन। क्या किसी से छिपे हैं? देखो न उस लछमन को! जात का नीच ही है, मगर राजी नहीं हुआ कि शहर की लड़की आ जाए उसके घर में बहू बनकर। अरे, जो नीच जातों ने नहीं किया वह, तुमने किया! मेरे राम, इस घर को अब क्यों भूलते जा रहे हो?
और सचमुच शाम तक खबर गांव भर में फैल गई। मैं कमरे में छिपकर बैठी रही। समझ में नहीं आता था कि क्या करूं। खाना बनाने गई, तो मुझे सबने लौटा दिया, यह कह कर कि जा हमें आबरू बेच कर सुख नहीं भोगने हैं!
मैं लौट आई। चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता था। एक ही आशा थी कि कम-से-कम वे तो मुझे अपराधी न समझेंगे। कम-से-कम वे तो मेरी रक्षा करेंगे?
दिन बीत चला। मेरी किसी से सुधि तक नहीं ली। किसी ने खाने तक को नहीं पूछा।
रात को जब वे आए, तो शिकायतों का ढेर लग गया। ईंटों की बनी वे दीवारें शायद नहीं रहीं, क्योंकि बातों के तीर उन्हें छेद-छेद कर मेरे अंतस्तल में बार-बार गड़ने लगे। और मुझे दर्द से चिल्लाने का तो क्या, कराहने तक का अधिकार नहीं था।
चाची ने कहा, ‘सूरज, इसे तू शहर ही ले जा, बेटा! इसमें घर-गृहस्थी में बहू बनकर रहने का सलीका नहीं है बिल्कुल!
मामीजी ने भीतर से चिल्ला कर कहा, ‘जाने कौन जात-कुजात उठा लाया है। अच्छा जमाना आया है!’
‘क्या बात है आखिर?’ उन्होंने घबराकर पूछा।
‘और जैसे यह कुछ हुआ ही नहीं!’ चाची ने ताना मारकर कहा, ‘तो क्या राह में गाने-बजाने की जरूरत थी? भैया सूरज, हम तो कुछ कहते नहीं, पर खानदान में अपने चाचा के बाद बस तू ही सबका मालिक है। हमने तो तूझे अपना बेटा मान कर ही पाला है। चाहे तो रख, चाहे छोड़ दे! हमारा क्या है, रो लेंगे! मगर तेरी तो गत बन जाएगी।
वे घबराहट से बोल उठे, ‘पैर नहीं दाबे? झाड़ू नहीं दी? खाना नहीं पकाया?’
‘कौन कहता है, भैया?’ चाची ने फिर कहा, ‘कसम है मेरे बच्चे की, जो आज तक कभी हम कोई बात जबान पर भी लाई हों! इसका तो पढ़ना गजब है, बेटा! पढ़ेगी तो आधी रात तक, और यह भी नहीं कि रामायण, उल्टे वह किस्से-कहानी तोता मैना के।’
मैंने सुना वे कुछ बोले। फिर उनके पैरों की चाप सुनाई दी। जैसे वे वहां से चले गए हों।
स्त्रियां अब भी आपस में फुस-फुस किए जा रही थीं। और मैंने सोचा, कमबख्त पढ़ाई न हुई मेरी मौत हो गई!
जिस समय उन्होंने कमरे में प्रवेश किया, अंधेरा छा रहा था। उनके पीछे-पीछे ही लालटेन लिए चाची थीं।
वे मेरे पास आ गए। कठोर स्वर में उन्होंने कहा-क्यों? यह मैं क्या सुन रहा हूं?
मैंने उत्तर नहीं दिया।
चाची ने कहा-ओहो! अब इतनी लाज हो गई कि बोल गले से निकलने के पहले सौ गचके खा रहा है?
मैंने क्रोध से सिर उठाया। मेरी आंखों से आंसू सूख गए। मैंने चिल्लाकर कहा-क्या किया है मैंने, जो तुम सब मेरा खून पी जाना चाहती हो? क्यों नहीं मुझे गला घोंटकर मार डालते?
उन्होंने मुझसे फिर कहा-मुझे जवाब दो! मैं जानना चाहता हूं। आज न सही कल। मैं इस घर का मालिक हूं। मेरे ऊपर खानदान की इज्जत का सवाल है। क्या जरूरत थी तुम्हें मुंशीजी से बात करने की? समझा नहीं दिया था मैंने तुम्हें? या अकेली तुम ही एक शहर की पत्नी हो? मैं तो हमेशा से गांव ही में रहा हूं।
चाची कमरे से बाहर चली गईं। लालटेन वहीं छोड़ गईं। मैंने देखा, वे क्रोध से व्याकुल होकर कांप रहे थे।
उन्होंने कहा-अब तक मैं तुम्हारी बात को तरह देता आया हूं! शुरू में तुम्हारे पच्चीसों किस्से सुने, पर सुनकर पी गया। और कोई होता, तो मार-मार कर खाल उधेड़ दी होती। मैंने कहा कि थोड़े दिन की बात है, फिर शहर लौट चलेंगे, वहां तो मैं तुम्हें मटरगश्ती करने से कभी नहीं रोकता। फिर वे दो दिन तुमसे नहीं कट सकते?
उन्होंने उंगली उठाकर कहा-तुमने मुझे कहीं का भी नहीं रखा! आज तुमने यह नहीं सोचा कि तुम क्या कर रही हो! कभी देखा था आज तक घर के किसी और औरत को उनसे बातें करते?
मैंने दृढ़ होकर कहा-लेकिन वे कमरे में घुस आए थे। उस वक्त और कोई न था। वे मेरी तरफ देख रहे थे।
देखेंगे नहीं? उन्होंने कहा-तुम मुंह खुला रखोगी, तो वे जरूर देखेंगे! आज तक किसी और घर की बूढ़ी तक ने उनके सामने अपना मुंह खुला रखा है? तुमने वह बात की है, जो हममें से किसी के भी बस की नहीं रही। घर-घर चर्चा हो रही है।
उन्होंने कहा-बोलो! जवाब क्यों नहीं देती?
मैंने कहा-तुम पागल हो गए हो? तुम कुछ भी सोच नहीं सकते? दुरंगी जिंदगी बिताने वाले ढ़ोंगी! पुस्तकालय से सिर्फ अखबार मंगवाया था मैंने, क्योंकि इस नरक में सिवाए पढ़ने के मुझे और कुछ अच्छा नहीं लगता! तुम मुझसे उसे भी छीन लेना चाहते हो? मुझसे नहीं हो सकती यह गुलामी! मैं तुम्हारी बुआ, मामी, चाची की तरह अपढ़ गंवार नहीं हूं, जो अपने आपको तुम्हारी जूतियों की खाक समझती रहूं।
मेरी बात, पूरी भी न हो पाई थी कि मेरी पीठ, हाथ और पांव पर सड़ासड़ बेंत पड़ने लगे। मैं नहीं जानती कि मैं रोई क्यों नहीं। मैंने केवल इतना कहा-मार! और मार!
उनका हाथ थक गया। घृणा से बेंत फेंक दिया, और उनके मुंह से निकला-बेशरम!
और मैं वैसी ही खड़ी रही।
रात बीत गई। मैं वहीं बैठी रही। दूसरे ही दिन मैंने भैया को चिट्ठी लिख दी।
उन्होंने चिट्ठी भेजने में कोई बाधा नहीं दी।
दो दिन तक मुझे किसी ने खाने को भी नहीं पूछा।
सुबह उठकर देखा, द्वार पर भाई साहब खड़े थे। उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। उनको देखते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए। बहुत रोकने का प्रयत्न करके भी अपने आपको रोक न सकी।
भैया ने कहा-क्या हुआ, सिवो?
मैंने कहा-मैं यहां नहीं रहना चाहती।
आखिर क्यों? कोई बात भी तो हो।
मैंने उनसे कहा-आपने मुझे कहां फेंक दिया?
क्यों सूरज बाबू ने कुछ कहा?
मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया। बांह खोलकर बेंत की मार के निशान दिखा दिए। एक बार क्रोध से उन्होंने अपना नीचे का होंठ काट लिया। फिर सिर झुका कर कहा-मैं समझता था कि तुम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हो। तुम्हारा जीवन सुख से बीतेगा। लेकिन वे लोग कहीं अच्छे जो दुखी हैं किंतु दुख का अनुभव नहीं करते, क्योंकि वे गुलामी और आजादी का फर्क ही नहीं जानते। हिंदुस्तान में अव्वल तो प्रेम-विवाह होते नहीं और होते भी हैं, तो निभ नहीं पाते, क्योंकि यह प्रेम समाज की भीषण बेड़ियों को तोड़ने में असमर्थ रह जाता है।
मैंने कहा-किंतु मैं ऐसी नहीं हूं।
भैया ने सिर झुकाकर कहा-हम लड़कीवाले हैं। हमें सिर झुकाकर ही चलना होगा। वर्ना मैं नहीं जानता कि क्या होगा? जो वे कहेंगे, उसी को करने में हमारा कल्याण है। अन्यथा कोई चारा नहीं।
मैं चुप हो गई, भैया ने फिर कहा-पति ही स्त्री का सब कुछ है, सविता।
मैंने सिर उठाया। कहा-पति ही स्त्री का सब कुछ है? किंतु वह पति पुरूष होता है। सीता, जिस राम के पीछे चली थीं, वह पुरूषार्थी था। जो व्यक्ति अपनी ही रूढ़ियों में जकड़ा हुआ हांफ रहा है, वह मेरे जीवन का आदर्श नहीं हो सकता! किसलिए मैं अपने एकांत सुख को इतना बड़ा बना दूं कि मेरे विश्वास, मेरी श्रद्धा, मेरी शक्ति एक ऐसे व्यक्ति को देवता समझकर उसके पग पर जम जाएं, जो स्वयं लड़खड़ा रहा हो, जो स्वयं निर्बल हो और स्त्री को केवल वासना बुझाने और खानदान की इज्जत की चक्कियों में पीसने वाली दासी और बच्चे पैदा करने मात्र का एक साधन समझता हो, जो मेरी इंसानियत को धर्म के नाम पर कुचलकर मुझ पर घृणा से हंस देना चाहता हो!
भैया कांप उठे। उन्होंने कहा-तू क्या कह रही है, सविता? तेरी एक छोटी बहिन है। लोग अगर यह सब सुनेंगे, तो कहेंगे, अरे, यह उसी की बहिन है...!
मैंने कहा-किंतु मैं यहां अब नहीं रहूंगी! तुम मुझे नहीं ले जाओगे तो मैं किसी दिन गले में फांसी लगाकर मर जाऊंगी।
भैया सोच में पड़ गए। उन्होंने कुछ नहीं कहा।
मैंने कहा-अच्छी बात है। जो होना है, वही होकर रहेगा! तू यही चाहती है, तो चल, तेरी मर्जी!
हमलोग लखनऊ आ गए। एक दिन भी नहीं रही थी वहां कि इलाहाबाद में एक मास्टरनी की आवश्यकता का समाचार देखा। यहां आ गई हूं तब से। स्कूल खुलने के पहले इंटरव्यू होगा।
मैंने देखा वह संकुचित नहीं थी। हवा से उसके बाल मुंह पर बार-बार आ जाते थे। मैंने पूछा-तो क्या आप वहां लौटकर नहीं जाएंगी?’
सविता ने कहा-कहां?
वहीं, गांव सूरज के पास!
सविता ने दृढ़ स्वर से कहा-नहीं, अब मैं निश्चय ही वहां नहीं जाऊंगी। आप सोच भी नहीं सकते कि मुझे आते समय भी किसी ने तनिक भी स्नेह से नहीं देखा। वरन उनके मुखों पर घृणा का विकृत रूप अपनी सीमा पार कर चुका था। वे लोग मुझे मार डालेंगे। मैं वहां कभी भी नहीं जाऊंगी!
मैंने कहा-इस समय क्रोध में हैं। आखिर सूरज से आप प्रेम करती थीं। और वह भी प्रेम करता था?
सविता हंस दी। कहा-आप मुझे जानते हैं। मैं आपको जानती हूं। अगर शाम को गंगा किनारे आप मुझे पहले देखते और आवाज देते, पर मैं आपको पहचानने से इनकार कर देती या टालू बातें करती, तो क्या आप फिर कभी मुझसे मिलने की ख्वाहिश रखते?
बात सविता ने ठीक ही कही थी। किंतु मैंने कहा-फिर?
‘फिर क्या?’ उसने कहा? ‘फिर तो साफ ही है।’
मेरे मुंह से निकला-बड़ी हिम्मत है आप में!
‘जी नहीं!’ उसने रोककर तुरंत उत्तर दिया, ‘हिम्मत से काम नहीं चलता अकेले। अगर भैया न आते और मैं अकेली निकल पड़ती, तो जब राह में लड़के लड़कियां मुझे देखकर तालियां बजा-बजाकर चिल्लाते बाबू की पतुरिया शहर जा रही है! तब सूरज बाबू मुझे शायद क्रोध के विक्षोभ में गला घोंटकर मार देते! उन्हें तो अपनी जमीन, अपनी जिंदगी की सच्चाई से भी ज्यादा प्यारी है। उनके खानदान की इज्जत धूल में मिल जाती। इसी से तो कहती हूं, हिम्मत से ही कुछ नहीं हो सकता। अगर मैं पढ़ी-लिखी न होती, अपने खाने-कमाने लायक नहीं होती तो क्या कभी ऐसी हिम्मत कर सकती थी? आदर्शों को पूरा करने के लिए उसके साधनों की ठोस बुनियाद की जरूरत है!’
मैं सुनता रहा। सविता कहती रही, ‘दुनिया मुझे बदनाम करेगी, मुझे कुलटा कहेगी, किंतु बताइए आप ही, मैं इसके अतिरिक्त और क्या करती? जीवन भर गुलामी की नफरत को ही पतिव्रत कहकर औरत को समाज में धोखा दिया गया है, अब मैं उस जाल को फाड़कर फेंक देना चाहती हूं।’
वह हांफ रही थी। मैंने देखा, वह उत्तेजित हो गई थी। शायद वह यह जानना चाहती थी कि मैं उसके बारे में क्या सोच रहा था।
मैंने कहा, ‘आपकी बहन का क्या होगा?’
उसने कहा, ‘पढ़ी-लिखी है। कोई मन का ही नहीं, विचारों का भी दृढ़ सामंजस्य मिलेगा, तब शादी कर लेगी। वर्ना कमा खाएगी। पेट की मजबूरी से ही तो स्त्री सिर झुकाने को मजबूर होती है?
और, मैंने कहा-आप आप ऐसे ही जीवन बिता देंगी।
वह क्षण भर सोचती रही। फिर कह उठी-‘नहीं मैं उनके पीछे अपना जीवन बरबाद नहीं करूंगी क्योंकि वे मुझसे छूटते ही फिर दूसरा ब्याह कर लेंगे। और मनुष्य उसी स्मृति के पीछे अपने सुखों का त्याग करता है, जिसे वह सुखदायक और पवित्र समझता है।’
तो आप विवाह कर लेंगी?
उसने मेरी ओर घूरकर देखा, फिर हंसी। कहा-मैं तो सच अपने को अयोग्य नहीं समझती। समाज में क्या एक व्यक्ति भी ऐसा न खोज सकूंगी, जिसमें आत्मा का थोड़ा भी सत्य हो, साहस शेष हो? सब ही तो एकदम निर्जीव, कायर नहीं होते। समाज मुझसे भले ही घृणा करे, किंतु मैं तो मनुष्य से घृणा नहीं करती, जो अकेली बने रहने की तपस्या का बोझ अपने कंधों पर रखकर छटपटाऊं, और उस यातना को आदर्श-बनाकर सत्ता-स्वार्थियों को एक और मौका दूं कि वे अपने पापों पर धूल उछलकर उसे ढ़ंक दें। और अपनी अच्छाइयों की झूठी झलक को सबके ऊपर ला धरे।
और मैंने देखा, वह शांत थी। कोई डर नहीं था उसे। कोई शंका नहीं थी उसके मुख पर। आज मैंने देखा कि स्त्री भी पुरूष की तरह आत्म-सम्मान की आग में तपकर आजादी मांग रही थी, और सारे संसार का अंधकार-भरा पाप उस पर घृणा से लांछन लगा रहा था, उसे बरबाद कर देना चाहता था, पर वह अडिग खड़ी थी।
कल्ला चुप हो गया। सिद्दी और चंदू ने भारी पलकों को उठाया रात बहुत बीत गई थी।
सिद्दी ने कंबल को और अच्छी तरह लपेट लिया। तीनों इस समय गंभीर थे।
कल्ला के मुख पर एक शक्ति दमक रही थी, क्योंकि उसने उस नारी की जीवित मानवता की हुंकार सुनी थी, उसने नारी का यह विक्षोभ देखा था, जिसके सामने परवशता की चिता धू-धू जल रही थी।
माया, अप्रैल 1946